Sunday, August 29, 2010

औरत होने का मतलब ?

   - डॉ. शरद सिंह
रोज़ सुबह अख़बार उठाते ही सबसे पहले जिस समाचार पर ध्यान जाता है, वह होता है राजनीतिक समाचार। उसके बाद जो दूसरी ध्यानाकर्षण करने वाली ख़बर होती है, वह होती है औरत पर केन्द्रित। मसलन-आग से जलने पर महिला की मौत, नवयुवती ने फांसी लगाई, मां ने बच्चों सहित कुए में कूद कर जान दी, दहेज को ले कर हत्या, प्रताड़ित महिला द्वारा खुदकुशी आदि-आदि। देश की आजादी के वर्षों बाद भी हादसों के समाचार औरतों के ही खाते में है।
एक विदेशी महिला से छेड़छाड़ की घटना लखनऊ में घटी। पणजी से भी एक विदेशी महिला के साथ बलात्कार का मामला प्रकाश में आया। पुष्कर में भी बलात्कार का शिकार बनी एक विदेशी महिला। सवाल ये नहीं है कि महिला विदेशी थी या स्वदेशी? सवाल ये है कि महिलाओं के साथ ऐसे हादसे संस्कृति के धनी भारत में क्यों बढ़ते जा रहे हैं, उस पर हद तो ये कि 31 दिसम्बर2007 की काली रात को दो अनिवासी भारतीय महिलाओं को भीड़ की हैवानियत का शिकार होना पड़ा। टी.वी. चैनल्स पर उस हैवानियत को बार-बार दिखाया गया किन्तु क्या उस घटना के विरोध में किसी भी राजनीतिक दल अथवा सामजिक संगठन ने कोई देशव्यापी मुहिम छेड़ी, नहीं, छोटी-मोटी नेतागिरी के अलावा कोई ऐसा ठोस क़दम नहीं उठाया गया जो इस दिशा में प्रभावी परिणाम दे पाता। उस पर दुर्भाग्य यह कि कुछ एक नामी संगठनों ने कहा कि यदि औरतें पश्चिमी शैली के कपड़े पहनेंगी तो उनके साथ ऐसी घटनाएं होंगी ही। ऐसी बयानबाजी करने वाले उन घटनाओं को भूल जाते हैं जो खेत में काम करने वाली अथवा गांव में शौच के लिए बाहर जाने वाली सोलह हाथ की साड़ी और घूंघट में लिपटी औरत के साथ घटित होती हैं। उन घटनाओं के लिए जिम्मेदार कौन होता है?
एक ओर यह माना जाता है कि ‘सर्वत्र नारी की पूजा होनी चाहिए‘ और वहीं दूसरी ओर देश में प्रति घंटे 18 से बीस महिलाएं यौनहिंसा का शिकार होती हैं जिनमें से चार से छः महिलाएं बलात्कार की शिकार होती हैं। आंकड़े भयावह हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॅार्ड ब्यूरो के अनुसार 1971 की तुलना में 2007 तक देश में बलात्कार की घटनाओं में सात सौ प्रतिशत तक वृद्धि हो चुकी है। ब्यूरो के ये आंकड़े उन पूरे आंकड़ों की जानकारी नहीं दे पाते हैं जो थानों में दर्ज़ ही नहीं हुए। न जाने कितनी शिष्याएं अपने गुरुओं की हवस की शिकार होती रहती हैं न जाने कितनी नर्सें चिकित्सकों के हाथों लुटती रहती हैं और मात्र कामकाजी क्षेत्र में ही नहीं, घर की चारदीवारी के भीतर रिश्तों को कलंकित करने वाली हैवानियत का तांडव चलता रहता है जो आंकड़ों से परे है। औरत की रक्षा-सुरक्षा के लिए कानून बहुत से हैं लेकिन उस समय कानूनों की धज्जियां उड़ते साफ़-साफ़ देखने को मिल जाती हैं जब पुलिस वाले ही थाने में रिपोर्ट दर्ज़ करने में हीलहवाला करते नज़र आते हैं। 31 दिसम्बर 2007 की घटना इसका एक उदाहरण कही जा सकती है।
        क्यों बढ़ रही हैं ऐसी घटनाएं? जैसे-जैसे औरतें बहुमुखी प्रगति कर रही हैं वैसे-वैसे उनके विरुद्ध हिंसा भी बढ़ती जा रही हैं। आखिर कमी कहां है? किसमें है?औरतों में या पुरुषों में? आखिर इन्हीं दोनों से मिल कर तो बना है समाज। इस समाज में पुरुष का दर्जा हमेशा पहले नंबर पर रहा है। देश की विस्फोटक जनसंख्या में औरतों की आबादी अभी पुरुषों के बराबर नहीं तो आधी से तो अधिक ही है। कुछेक क्षेत्रों में स्त्री नेतृत्व को देखते हुए यह मान लेना बेमानी होगा कि औरतें अब जागरूक हो गई हैं। यदि ऐसा होता तो किसी मोटर कारखाने की स्थापना से कहीं अधिक विरोध किया जाता उन तमाम हिंसाओं का जो औरतों के विरुद्ध की जाती हैं।
दरअसल बचपन से ही यह भेदभाव स्थापित कर दिया जाता है। बेटा है तो वह बाहर जा कर खेल सकता है, बाहर जा कर पढ़ सकता है, हाट-बाज़ार में मस्ती से घूम सकता है, यहां तक कि उसे अपनी बहन की अपेक्षा अच्छा खाना, कपड़ा और लालन-पालन मिलता है। बेटी को यह सब नसीब होना कठिन है। उसे खेलने के लिए गुड़ियां दी जाती हैं, अपने छोटे भाई-बहनों की परवरिश करने की शिक्षा दी जाती है और चूल्हा-चौका तो उसके भविष्य के साथ बंाध ही दिया जाता है। घरों में जब माता-पिता अपने बच्चों के लिए खिलौने ले कर आते हैं तो उसमें बेटे के लिए क्रिकेट का बल्ला, हॅाकी स्टिक, मोटर, बाईक या एके-47 राईफल का खिलौना होता है लेकिन बेटी के लिए घर-गृहस्थी के सामानों के खिलौने जैसे गैसस्टोव, क्रॅाकरी, गुड़िया, पेंटिग या कशीदे का सामान। बेटों के मन में यह बात बचपन से बिठा दी जाती है कि तुम बेटियों से बढ़कर हो, तुम्हारे सौ खून माफ़ हैं। यही बेटे जब बड़े हो कर पुरुषत्व धारण करते हैं तो औरतों पर शासन करना अपना जन्मजात अधिकार समझते हैं।
देखा जाए तो ऐसे बेटों से कहीं अधिक दोषी वो मांए होती हैं जो अपने बेटों को ऐसे पुरुष के रूप में विकसित करती हैं जिनमें औरतों पर अधिकार करने का जुनून होता है। कहीं न कहीं स्वयं औरत भी दोषी है पुरुषों की हिंसा के मामले में। यह ठीक है कि औरतों को धर्मभीरु बनाया गया, उसके पुरुषों के पीछे-पीछे सिर झुका कर चलने वाली बनाया गया, पति को ईश्वर मान कर उसकी पूजा-स्तुति करने वाली बनाया गया किन्तु इन सारे ढांचों को आज भी वह स्वेच्छा से अपने इर्द-गिर्द लपेटे हुए है। औरत आज जानती है कि चन्द्रमा का स्वरूप क्या है, वह एक निर्जन उपग्रह मात्र है, वह भी पृथ्वी का उपग्रह, फिर भी हर साल करवां चौथ को वह निर्जला व्रत रखती है और चलनी से चन्द्रमा को देख कर पति की लम्बी उम्र की प्रार्थना करती है। करवा चौथ आते ही औरतों द्वारा उसे मनाए जाने की धूम मच जाती है लेकिन यह कभी सुनने में नहीं आया है कि किसी पति ने अपनी पत्नी को इस लिए पीटा हो या उससे संबंध विच्छेद किए हो कि उसने उसकी लम्बी उम्र के लिए करवां चौथ का व्रत नहीं रखा।
दहेज लेने, उसका प्रदर्शन करने, दहेज संबंधी ताना मारने और दहेज कम मिलने या बिलकुल न मिलने पर सबसे पहले औरत ही नाम आता है। दहेज के लिए अकेले ससुर ने बहू को शायद ही कभी जलाया हो लेकिन जब भी बहू को जलाए जाने की घटनाएं घटती हैं तो वह सास की पहलक़दमी पर ही घटती हैं। बहू बन कर विदा होती बेटी को भी यही घुट्टी पिलाई जाती है कि अब दोनों कुल की मर्यादा तेरे हाथ में हैं। गोया दोनों कुल की मर्यादा निभाने में वर का कोई दायित्व ही न हो। जो बहुएं कुछ ज्यादा ही घुट्टी पी कर आती हैं वो मरते-मरते भी यही कहती हैं कि उनका जलना महज एक दुर्घटना थी।
गर्भ में पलने वाले मादा भ्रूण को गर्भ से निकाल फेंकने के लिए होने वाली मां रूपी औरत जाती है, उस मां की सास या कोई और संबंधित महिला उसके साथ जाती है और गर्भपात कराती है एक अन्य औरत। अब वे चाहे किसी भी बाध्यता का नाम लें लेकिन सच तो ये है कि अभी औरतों ने खुद ही अपनी शक्ति, अपने अस्तित्व और अपने दायित्वों को भली-भांति नहीं समझा है। औरत होने का मतलब ये नहीं है कि वह घर बसाए, शादी करे, बच्चे पैदा करे, नौकरी भी करे तब भी चूल्हे-चौके की सभी जिम्मेदारियों को निभाए और आंख मूंद कर पुरुष प्रधान परम्पराओं को मानती रहे। दरअसल औरत होने का मतलब यही है कि अब औरत, औरत के पक्ष में अर्थात् खुद के पक्ष में खड़ी हो कर सारी बातों को गौर करे और अपने बचाव के रास्ते स्वयं निर्धारित करे।

Monday, August 9, 2010

बुन्देलखण्ड में सावन, संस्कृति और स्वाद

-डॉ.(सुश्री) शरद सिंह
आकाश में काले-काले बादलों के छाते ही मन में उमंग जाग उठती है। मन करता है कि उड़ कर बादलों को छू लिया जाए। इसी इच्छा को पूरी करने के लिए वृक्षों की शाखाओं पर झूले डाल दिए जाते हैं और उन झूलों पर बैठ कर ऊंची-ऊंची पींगें लेने की होड़ लग जाती है। झूला झूलने वाला हर व्यक्ति बादलों को सबसे पहले अपनी मुट्ठी में भर लेना चाहता है। विशेष रूप से युवतियां और किशोरियां झूला झूलना चाहती हैं क्यों कि झूलों का आनन्द उनके किशोरवय के सपनों जैसा होता है। सावन मास आते ही झूले डाले जाने की परम्परा द्वापर युग से चली आ रही है। जब श्रीकृष्ण ब्रज की गोपियों के साथ जी भर कर झूला झूलते थे और सावन की ठंडी फुहारों का आनन्द लेते थे। बुन्देलखण्ड में भी यह परम्परा यहंा की प्राचीनतम परम्पराओं में से एक है। बुन्देलखण्ड यूं भी सांस्कृतिक परम्पराओं का धनी है। बुन्देली साहित्य और संस्कृति में एक अनूठापन और कच्ची मिट्टी-सा सोंधापन है। जगनिक, ईसुरी और पद्माकर जैसे कवियों ने जहंा इसके साहित्य को समृद्ध किया है वहीं लोकगीतों और लोककथाओं ने इसकी लोकपरम्पराओं को जीवित रखा है।
सैरे की धूम - सावन मास आते ही गांव-गांव में सैरे गाए जाने लगते हैं। इसे मूलतः सावनगीत कहा जा सकता है। जिस प्रकार श्रीकृष्ण और गोपियों के प्रेमरस से भीगे गीत सावन की ऋतु को ऊर्जा प्रदान करते हैं, ठीक उसी तरह सैरे भी प्रेमरस से भीगे हुए गीत होते हैं। इसे युवक और युवतियां उल्लासपूर्वक गाते हैं। कुछ गीत सिर्फ युवक ही गाते हैं। इन गीतों में प्रेम के साथ ही हास-परिहास और व्यंग-विनोद भी होता है। परस्पर बातचीत भी होती है और छेड़खानी भी होती है।
एक युवती अपनी सहेली की बांह में कसे हुए बाजूबंद को देखकर उसे छेड़ती हुई प्रश्न करती है-
भुजों में चुभ लागे
कै मासे के जे बाजूबन्दा,
कै मासे के कुन्दा?

सहेली उत्तर देती है-
नौमाशे के जे बाजूबंदा
दस माशे के कुन्दा।

छेड़ने वाली युवती कहां चुप बैठने वाली? वह चुटकी काअती हुई पूछती है?
कौने गढ़ा दए जे बाजूबन्दा?
कौने जड़ा दए कुन्दा?

उत्तर मिलता है-
राजा गढ़ा दए जे बाजूबंदा
छैला जड़ा दए कुन्दा।

युवती देखती है कि उसकी सहेली इतने पर भी शरमाकर मुंह नहीं छिपा रही है तो उसका साहस बढ़ जाता है। वह इससे भी आगे बढ़ कर पूछती है-
काहे में टूटे जे बाजूबन्दा?
काहे में उड़ गए कुन्दा?

सहेली भी कम नहीं है। वह उन्मुक्त भाव से उत्तर देती है-
तानत में टूटे जे बाजूबंदा
दचकन उड़ गए कुन्दा।

प्रश्न पूछने वाली युवती को अपनी सहेली की निर्भीकता पर गर्व होता है। उसकी सहेली प्रेम को अपराध नहीं बल्कि सहज प्रवृति के रूप में स्वीकार कर रही है और स्पष्ट शब्दों में बता रही है कि प्रेमालाप के दौरान बाजूबन्द टूट गया और कुन्दा खुल गया। यह स्पष्टता जहंा एक ओर बुन्देली युवतियों की निर्भीकता और स्पष्टता को उजागर करती है वहीं तन-मन पर पड़ने वाली सावन की छाप को भी वर्णित करती है।
सावन के आने पर सैरा गीतों के माध्यम से अपनी उन सहेलियों को भी याद किया जाता है जो ससुराल में रह रही हैं। इन गीतों की विशेषता यह है कि इसमें अपनी सहेली का नाम जोड़ कर इन्हें गाया जाता है। जैसे-
कौन-सी गुंइयां सासरे,
माई सावन आए।
‘सीता’ सी गुंइया सासरे
माई सावन आए।

इसमें ‘सीता’ के स्थान में लता, मीना, शोभा आदि उस सहेली का नाम लिया जाता है जिसे सावन में याद किया जा रहा हो। आखिर सावन प्रियजन की स्मृतियों को जगा जो देता है।
सावन मास का महत्व भी सैरा गीत में याद दिलाया जाता है-
सदा न तुरैयां, अरे फूले
ने सदा रे सावन होय।
सदा ने राजा अरे रन जूझें
सदा ने जीवे कोय।
अर्थात् तुरैया की बेलें सदा नहीं फूलती हैं और न सावन सदा रहता है। जैसे युद्ध में राजा को सदा विजय नहीं मिलती और कोई भी सदा जीवित नहीं रहता है।

राछरे और कजरिया गीत - सावन मास में ही राछरे गीत गाए जाते हैं। राछरे गीत मुख्य रूप से स्त्रियां गाती हैं किन्तु कभी-कभी पुरुष भी इसे गाते हैं। इन गीतों में विवाहिताओं की उन स्मृतियों का विवरण होता है जो उनके मायके से जुड़ी होती हैं। इन गीतों में वे अपने माता-पिता, भाई-बहन, सखी-सहेली आदि को याद करती हैं। ये गीत चक्की चलाते हुए, झूला झूलते हुए और अन्य घरेलू काम करते हुए गाए जाते हैं। जबकि कजरियां गीत श्रावण शुक्ल नवमीं को कजरियां बोने से शुरू होते हैं। सावन की नौवमी तिथि को स्त्रियां झुण्ड के रूप में मिट्टी लेने जाती हैं। पहले उस स्थान की पूजा की जाती है जहंा से मिट्टी खोली जानी होती है फिर गेंहू ओर जौ के दाने मिट्अी में दबा कर मिट्टी खोदी जाती है। उस मिट्टी को घर ला कर मिट्टी के बरतनों में रख कर उसमें गेंहू या जौ बो दिया जाता है। इन दानों को रोज सींच कर बड़ा किया जाता है। कजरिया के रूप में बढ़ने वाली गेंहू की पौध अच्छी पैदावार के लिए शगुन की भांति होती है।
कजरिया बोने के समय कजरिया गीत गाए जाते हैं। कभी-कभी राछरे गीत भी कजरियों के साथ गाए जाते हैं। कजरियों की राछरों में आल्हा-ऊदल के युद्धों का वातावरण भी मिलता है। जैसे एक गीत में मंा अपनी बहन और बेटी को कजरिया सिराने के लिए बुला रही है किन्तु साथ में यह भी चेतावनी दे रही है कि वह किसी दुश्मन के हाथ न पड़ जाए अन्यथा कुल की प्रतिष्ठा धूल में मिल जाएगी।

धरी कजरियां तरा के पारैं, बिटिया आन सिराव
टूटी फौजें दुस्मन की बहिना, भगने हो भग जाओ।
हांत न परियो तुम काऊ के, लग जैहे कुल में दाग।।


आल्हा गायन - आल्हा जोश और मस्ती का काव्य है। सावन के बादलों के घिरते ही आल्हा काव्य की अनेक पंक्तियां वातावरण में सरसता घोलने लगती हैं। यह मूलतः वीररस का काव्य है किन्तु इसमें श्रंृगार रस के विभन्न रूपों का भी रसास्वादन होता है। आल्हा काव्य में जगनिक ने बड़े ही सुन्दर ढंग से सावन के बादलों से बरसने का आग्रह किया है। नवविवाहिता रानी कुसुमा बादलों से प्रार्थना करती है कि वे उसके महलों पर इतना बरसें कि उसका प्रिय उसे छोड़ कर न जा सके और उसकी आंखों के सामने बना रहे।
कारी बदरिया तुमको सुमरों, कौंधा बीरन की बलि जाऊं
झमकि बरसियो मोरे महलन पै, कंता आज नैनि रह जाएं।।

मेंहदी के रंग और चपेटा का संग- बुन्देलखण्ड पर प्रकृति की विशेष कृपा सदा रही हैं यहां के सघन वन वर्षा की बूंदों को आकर्षित करते रहे हैं। सावन आते ही मेंहदी की झाड़ियों के पत्ते चटख, गहरे हरे रंग में अपनी छटा बिखेरने लगते हैं। यही पत्ते जब पिसने के बाद हथेलियों पर लगाए जाते हें तो सुन्दर लाल रंग की छाप छोड़ जाते हैं। सावन का महीना हथेलियों पर मेंहदी रचाने का आमन्त्रण देने लगता है। आजकल बनी-बनाई मेंहदी भी बाजार में उपलब्ध हो जाती है जिससे मेंहदी लगाने का चाव परम्परागत रूप से प्रवाहमान है।
सावन आते ही चपेटा का खेल भी खेला जाने लगता है। सुदूर ग्रामीण अंचलों में आज भी किशोंरियां चपेटा खेलती हुई दिखाई दे जाती हैं। सावन की झड़ी में बाहर निकल कर खेल पाना कठिन होता है अतः घर के भीतर बैठ कर खेला जाने वाले खेल का लोकप्रिय होना स्वाभाविक है। ये पत्थर के छोटे-छोटे टुकड़ों अथवा लाख के टुकड़ों से खेला जाने वाली खेल है। इन टुकड़ों को ‘चपेटा’ या ‘गुट्टा’ कहा जाता है। जो युवतियां लाख के सजावटी लाख के चपेटे नहीं खरीद पाती हैं, वे कंकडों को चपेटों के रूप में काम में लाती हैं। यह बहुत रोचक खेल है। इसमें बाकायदा दाम दिए और लिए जाते हैं। हार-जीत होती है।
लपटा और पकौड़े - सावन का महीना हो और लपटा या भजिए-पकौड़े न खाए जाएं तो सावन का मजा अधूरा लगता है। ये दोनों व्यंजन गरमा-गरम खाए जाते हैं। चूंकि ये दोनों व्यंजन बेसन से बनते हैं इसलिए इसमें अजवाइन का होना बहुत जरूरी होता है। अजवाइन स्वाद भी बढ़ाता है और पाचक तत्व का काम भी करता है।

बुन्देलखण्ड में सावन का जो आनन्द है वह कहीं और नहीं है। इसी संदर्भ में अंत में मेरा यह गीत-
सावन की बूंद जो झरे,
बरसाती दिन, अब जा के हुए हरे।

यादों ने कूक फिर लगाई
झूलों में झूले अंगनाई
अंाखों के कूप दो भरे
बरसाती दिन, अब जा के हुए हरे।

हरियाये बेल और बूटे
मन तोड़े बंधन के खूंटे
तन कब तक धीर को धरे
बरसाती दिन, अब जा के हुए हरे।

चूनर ने पत्र लिख दिया
धानी रंग, रंगा है जिया
काग़ज़ की नाव भी तरे
बरसाती दिन, अब जा के हुए हरे।
-------------------

काश! ऐसा हो जाए!

-डॉ.(सुश्री) शरद सिंह
बात कुछ दिन... या यूं कह लीजिए कि कुछ सप्ताह पहले की है। हुआ यूं कि मैंने अपने घर की बाल्कनी में एक गमला रखा और उसमें खाद-मिट्टी भर कर फूल का एक पौघा लगा दिया। लेकिन ठहरिए! पहले मैं आप लोगों को अपने घर के नक़्शे से तो परिचित करा दूं। मेरा घर एक मध्यमवर्गीय फ्लैट है। इसमें एक बैठक है, एक रसोई है, एक शयन कक्ष और एक स्टोर रूम है। यह बिल्डिंग के दूसरे माले पर है। पहले एक छोटी सीढ़ी चढ़नी होती है फिर एक बड़ी सीढ़ी। इसके बाद आता है मेरे फ्लैट का दरवाज़ा। दरवाज़ा भी ऐसा कि उसमें से हो कर हवा भी पर न मार सके। लेकिन सुरक्षा की दृष्टि से यही ठीक है। इस दरवाज़े के आजू-बाजू न तो कोई खिड़की है और न कोई रोशनदान। हवा, पानी, रोशनी सबके लिए प्रतिबंधित है इस दरवाज़े से घुसने का प्रयास करना। कारण वही है, सुरक्षा का।
खैर, इसमें असुरक्षा कितनी है यह तो मुझे नहीं पता लेकिन इस दरवाज़े से प्रवेश करते ही बैठक मिलती है। बैठक की बायीं बाजू में एक और दरवाज़ा है। यह दरवाज़ा सौभाग्यशाली है क्योंकि यह एकाकी नहीं है। इसके बाजू में एक सुन्दर-सी खिड़की है। सुन्दर इस मायने में कि इससे हवा आती है, रोशनी आती है और यदि बारिश के समय यह खुली रह जाए तो इसमें से पानी की बौछार भी बेधड़क अन्दर प्रवेश कर लेती है। इन्हीं खिड़की, दरवाज़ों के बाहर एक छोटी-सी बाल्कनी है। बाल्कनी की लंबाई-चौड़ाई सिर्फ़ इतनी है कि या तो आप चार-छः गमले रख लीजिए या फिर दो आराम कुर्सियां रख लीजिए। मैंने इस स्थिति को देखते हुए बाल्कनी के निजीकरण करने का निश्चय किया और सिर्फ़ अपने सुख के लिए एक गमले और एक आराम कुर्सी रखने का निर्णय ले लिया।
यह एक ऐसा सुखद निर्णय था जो मुझे प्रकृति के समीप बैठ कर चाय की चुस्कियां लेने का सुख दे सकता था। ...और मेरी प्रकृति फिलहाल एक गमले में सिमटी हुई थी। मैं रोज सुबह पौधे को पानी सींचती। उसके एक-एक पत्ते को ध्यान से ऐसे देखती गोया मेरे देखने मात्रा से वे पत्ते सुन्दर फूलों में परिवर्तित हो जाएंगे। जी हंा, मुझे अपने उस गमले के पौधे में फूलों के खिलने की व्याकुलता से प्रतीक्षा थी। और, विश्वास कीजिए कि एक सुबह मेरी व्याकुलता पचास प्रतिशत समाप्त हो गई। मुझे पौधे के नर्म-कोमल तनों के छोरों पर नन्हीं-नन्हीं कलियां दिखाई दीं। उन कलियों को देख कर मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उन कलियों को देख कर मुझे जो प्रसन्नता हुई उतनी प्रसन्नता तो किसी ख़जाने के मिलने पर भी नहीं होती।
इसके बाद मेरी शेष बची पचास प्रतिशत व्याकुलता को इन कलियों के खिलने की प्रतीक्षा थी। उस दिन के बाद से मैंने पत्तों की ओर ध्यान से देखना छोड़ कर कलियों की ओर ध्यान से देखना शुरू कर दिया। गोया, मेरे देखने से वे कलियां तुरन्त खिल कर मुस्कुराने लगेंगी। लेकिन ऐसा कुछ न होना था और न हुआ। प्रकृति अपने ढंग से काम करती है और अपने ढंग से काम करती रही। कलियों को जितने दिन में खिलना था, वे उतने दिन में ही खिलीं।
एक सुबह मेरी शेष पचास प्रतिशत व्याकुलता का भी अंत हो गया। मैं पौधे को पानी देने बाल्कनी में पहुंची तो मेरे हाथ से पानी से भरा जग छूटते-छूटते बचा। मैंने देखा कि मेरे इकलौते गमले में दुनिया की सारी सुन्दरता खिलखिला रही थीं। जी हंा, अधिकांश कलियां फूल में बदल चुकी थीं। फूल इतने सुन्दर थे कि उन्हें देख कर मेरा मन नाचने-गाने और ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने का होने लगा। यद्यपि मैंने अपने मन पर काबू किया और नाचने, गाने या चिल्लाने का विचार त्याग दिया। मैंने पौधे को पानी दिया। फिर दौड़ कर रसोई में गई और अपने लिए एक कप चाय बना लाई। गमले के सामने रखी आरामकुर्सी पर बैठ कर चाय की चुस्कियां लेती हुई फूलों के सौंदर्य को निहारने लगी। उसी क्षण मेरे मन में सम्पन्नता के भाव का उदय होने लगा। मैंे अपने आप को किसी करोड़पति, अरबपति से भी अधिक धनवान महसूस करने लगी। मेरे पास मेरे अपने फूल थे। मेरे अपने गमले में लगे मेरे अपने पौधे के मेरे अपने फूल। यह एक ऐसी अनुभूति थी कि जिसका वर्णन कर पाना उतना ही कठिन है जितना की किसी गूंगे के लिए गुड़ की मिठास को बता पाना।
उस दिन के बाद से मेरी प्रत्येक सुबह फूलों के पास ही व्यतीत होती। मुझे यह नहीं पता कि फूलों को मेरी उपस्थिति कैसी लगती थी लेकिन मुझे उनके पास होना बहुत भाता था। फूलों के खिलने का क्रम शुरू हो चुका था। दो फूल मुरझाते तो चार नए फूल खिल जाते।
एक सुबह एक अनहोनी हो गई। मैं अभी चाय का कप ले कर पौधे के पास पहुंची ही थी कि मुझे ऐसा लगा कि फूलों पर एक तितली मंडरा रही है। यह देख कर मेरे पांव जहंा के तहंा ठिठक गए। मैं मूर्तिवत् खड़ी-खड़ी उस तितली की हरकतें देखते लगी। तितली इस फूल से उस फूल और उस फूल से इस फूल पर मंडरा रही थी। फिर वह एक फूल पर बैठ गई और उसका रसपान करने लगी। यह दृश्य देख कर मुझे अपने गमले में सिमटी प्रकृति को पूर्णता मिलती प्रतीत हुई। मुझे यह सब बड़ा अच्छा लगा।
दूसरे दिन तितलियों की संख्या बढ़ गई। बारी-बारी से दो-तीन रंगों की तितलियां फूलों पर चक्कर लगाती रहीं। तभी एक नन्हीं-सी फुलचुही चिड़िया जिसे शायद हमिंग बर्ड कहते हैं, पौधे के पास बाल्कनी की रेलिंग पर आ बैठी। वह फूलों की ओर ध्यानपूर्वक देखने लगी। मैं अभी सोच ही रही थी कि वो चिड़िया कौन-सा क़दम उठाएगी कि तभी उस चिड़िया ने फूलों पर मंडराना शुरू कर दिया। हवा में तेजी से पंख फड़फड़ाती हुई वह नन्हीं चिड़िया फूलों का रस चूसने लगी। मुझे अपनी अंाखों पर यक़ीन नहीं हो रहा था। प्रकृति का यह नया रूप था जो मेरी अंाखों के सामने साक्षात् साकार हो रहा था।
वह नन्हीं फुलचुही अभी उड़ी ही थी कि दो-चार गौरैयों ने बाल्कनी की रेलिंग पर बैठ कर चहकना शुरू कर दिया। मुझे विश्वास हो गया कि प्रकृति मेरी छोटी-सी बाल्कनी और बाल्कनी में रखे उस नन्हंे-से गमले पर पूरी तरह से मेहरबान है। जैसे धनवान को धन का लालच होता है वैसे ही मुझे भी प्रकृति की और सुन्दरता बटोरने का लालच होने लगा। मैंने अपनी इकलौती आरामकुर्सी को बाल्कनी से उठा कर बैठक में एक किनारे खड़ा कर दिया और चार-छः गमले और ला कर बाल्कनी में रख दिए। उन गमलों में तरह-तरह के फूलों के पौधे लगा दिए। अब चूंकि मेरे भीतर धैर्य कम बचा था इसलिए नर्सरी से फूलों सहित वाले पौधे ला कर गमलों में रोप दिए। इससे हुआ ये कि मेरी बाल्कनी जल्दी ही एक सुन्दर बगीचे में परिवर्तित हो गई। गमलों की अधिकता के कारण अब मैं वहां सिर्फ़ खड़ी हो कर ही पौधों को निहार सकती थी, बैठ कर नहीं। लेकिन इससे मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था। मेरे लिए अपनी बाल्कनी में सिमटा प्रकृति का यह सुन्दर रूप महत्वपूर्ण था, वहंा बैठ कर चाय की चुस्कियां लेना नहीं।
एक दिन मैं अपनी बाल्कनी में खड़ी हो कर अपनी नन्हीं-सी प्रकृति की विशाल, विस्तृत सुन्दरता को निहार रही थी कि फोन की घंटी बज उठी। मैंने जा कर फोन उठाया। फोन मेरी सहेली का था। उसके घर में इन दिनों पुनर्निर्माण कार्य चल रहा था। उसके बच्चों को पढ़ने के लिए अलग-अलग कमरे चाहिए थे इसलिए वह एक बड़ा कमरा तुड़वा कर अपने दोनों बच्चों के लिए दो कमरे बनवा रही थी।
मैंने उससे पूछा कि कमरे बन गए क्या? वह बोली हंा बन गए। उसने आगे जो बताया उसे सुन कर मेरा मन विचलित हो उठा। उसने बताया कि एक कमरे को दो कमरों में बदलने के लिए कुछ और जगह की ज़रूरत थी इसलिए उसने अपने घर का लॅान मिटा दिया और लॅान के कोने में लगा अमरूद का पेड़ भी कटवा दिया। उसने बताया कि उसके बच्चे अपने अलग-अलग कमरे पा कर बहुत खुश हैं। यह ठीक था कि उसके बच्चे खुश थे लेकिन इस चक्कर में वे प्रकृति की सुन्दरता से कितनी दूर हो गए, इसे न तो वे बच्चे समझ सकते थे और न मेरी सहेली समझ सकती थी। मैं मन मसोस कर रह गई। मेरे मन मे उसी समय यह विचार आया कि काश! इस धरती पर से एक भी पेड़ न काटा जाए, एक भी पौधा न उखाड़ा जाए और एक भी एक भी घर ऐसा न बने जो प्रकृति को मिटा कर बना जाए।
मेरी सहेली मुझे उन नए कमरों को देखने के लिए आमंत्रित कर रही थी लेकिन मैं भला कैसे जा सकती थी उस जगह को देखने जो प्रकृति की सुन्दरता को मिटा कर बनाई गई थी। मैंने बहाना बनाते हुए उसका आमंत्राण ठुकरा दिया और अपनी नन्हीं सी प्राकृतिक दुनिया को अपनी अंाखों में समेटने के लिए बाल्कनी के दरवाज़े पर जा पहुंची। उसी समय मेरे मन ने मुझसे एक सवाल पूछा- कि अगर एक गमले के एक पौधे से कई तितलियां, कई चिड़िएं और ढेरों खुशियां आ सकती हैं तो यदि शहर में दो-चार पार्क हों, सड़कों के किनारे वृक्ष हों और घरों के अंागन में फूलों की क्यारियां हों तो जीवन कितना सुन्दर होगा? इस प्रश्न का उत्तर मेरे होंठो पर आते-आते ठिठक गया। बदले में यही शब्द फूटे कि -काश! ऐसा हो जाए!
-----------------

Sunday, August 8, 2010

Story by Dr sharad Singh ..... The Young old-man

In that day I was riding my scooter. I was upset due to my husband’s transfer. We were not interested to go to another city. My children also worried to think that they will be lost their close friends. By this situation my mind had puzzled. So, I can not saw that old man who was suddenly came to front of my scooter. I gave the break to my scooter by full of force.
That old man shocked and stood at the front of my scooter. I was going to shout on him but by the couple of seconds I was found that I was guilty. So, I felt ashamed and I apologized to the old man.
“I am sorry! I’m really sorry!” I said.
He listens and looked me. He smiled and said, “It’s O.K.!”
“No-no, it’s my entire fault. Are you injured?” I asked him. Actually I felt nerves.
“No, I am fine. Will you drop me at the central-square?” he asked me.
“Why not? It will be big pleasure to me.” I said. He was sat back on my scooter.
That was the first meeting with that old man. At the same time we introduced each other. After few days he was came to my house. I welcomed him. He was feeling so happy to meet my children. My children also enjoyed his presence. They called him “Grandpa!”
The old man had visiting my house by the two-three days as usual. He and my children made friendship. He love me like a real father. He was from a broken family and his children were settled in own life by the left him alone. I have had not any cause to stop him to visit my house. He played with my children and there were many gifts he gave to my children.
In the vacations, my husband came to home. He met the old man. He was like him because the old man full of liveliness as a young person at the age of seventy one. But my husband was felt a trouble with him in a case. My husband told me that it is not fair that we received several gifts for our children. After all he is retired person and he brings gifts by his pension- money. I relished that and I decided, I will tell him in open words that he does not bring more gifts for the children.
Firstly, I could not spoke him any word but than I stored my courage I tell him. He shocked by the listen my words. After few seconds he told as crying, “I have doing to all of my own pleasure. It is not any type of grace or malefic. But, if you decided it in any circumstances you will be free to take your decision. I never can blame you for this because when I refused my own children so no body should be responsible for my feelings.”
He stands up and walks out by the tired steps. I have tears in my eyes and feels he was look older than his age. My husband felt too bad himself. I can not stop my self to call him.
“Please forgive me. I don’t want to hurt you.” I apologized.
“Yes, she said true. It is my mistake. But now I want to say you it is your house and we are your children. So, you should forgive us and visited us forever.” my husband speaks.
He stopped in that moment and turned from us. A thousand ray’s smile I saw on his face. And, he has look younger by his real age once again.
____________________

Thursday, August 5, 2010

पिता – दो ग़ज़लें ...............- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

(1)
बचपन में ही छूट गई थी छांह पिता की.
याद नहीं, मैंने कब पकड़ी बांह पिता की.
आशीषें, स्नेह मिला जितना भी उनका
सिर माथे रख, मैंने पकड़ी राह पिता की.
मां का सूना माथा, मौन सिसकता अब तक
उनकी पीड़ा में सुनती हूं ‘आह!‘ पिता की.
रिश्ते की मज़बूत कड़ी जाने कब खोई
यद्यपि, सबको थी बेहद परवाह पिता की.
घर की चर्चाओं में सदा बसे रहते हैं
हर कुटुम्ब में होती है इक चाह पिता की.
(2)
छूटा ही क्यों साथ पिता का, पता नहीं.
रूठा कैसे भाग्य हमारा, पता नहीं.
उनका जाना, दुनिया भर के दुख लाया
मां ने कैसे हमें सम्हाला, पता नहीं.
चूड़ी टूटी, सेंदुर छूटा, पल भर में
मां ने कैसे धैर्य निभाया, पता नहीं.
सिर्फ़ पिता को खो कर, खोया इक सम्बल
अब तक जीवन कैसे बीता, पता नहीं.
पिता बिना परिवार अधूरा लगता है
वे होते तो होता कैसा, पता नहीं.
-------------------