Wednesday, September 21, 2011

इंगलुक शिनवात्रा और महिला तस्करी की चुनौती


- डॉ. शरद सिंह 

अपने परिवार की नौवीं संतान इंगलुक शिनवात्रा उच्च शिक्षा प्राप्त महिला हैं। इंगलुक ने देश के उत्तरी शहर चियांग माइ से स्नातक की डिग्री हासिल करने के बाद अमेरिका के केंटुकी स्टेट यूनिवर्सिटी से परा-स्नातक की डिग्री हासिल की। उसके बाद अपने भाई थाकसिन द्वारा स्थापित दूरसंचार कंपनी एआईएस में प्रबंध निदेशक के पद पर कार्य किया। इंगलुक ने प्रधानमंत्री पद से पूर्व और कोई राजनीतिक पद नहीं संभाला है। वे थाईलैंड की 28 वीं प्रधानमंत्री हैं।

44 वर्षीया इंगलुक शिनवात्रा देश के पूर्व प्रधानमंत्री थाकसिन शिनवात्रा की छोटी बहन हैं अतः राजनीतिक वातावरण से उनका पुराना परिचय है। इंगलुक शिनवात्रा थाईलैंड की पहली महिला प्रधानमंत्री चुनी गईं। थाईलैंड में संसद के लिए आम चुनाव 03 जुलाई, 2011 को कराया गया था। चुनाव आयोग ने थाईलैंड में संसद के लिए हुए आम चुनाव के परिणाम की घोषणा 4 जुलाई, 2011 को की। इस आम चुनाव में इंगलुक शिनवात्रा के नेतृत्व वाली फू थाई पार्टी ने 500 सीटों वाली थाई संसद में 265 सीटें जीतीं। इस दल ने प्रधानमंत्री अभिसित वेज्जाजीवा की सत्ताधारी डेमोक्रेटिक पार्टी को पराजित किया। ब्रिटिश मूल के अभिसित वेज्जाजीवा की डेमोक्रेटिक पार्टी को कुल 159 सीटें मिलीं।  
             
      इंगलुक शिनवात्रा को चार और पार्टियों का समर्थन प्राप्त है, जिससे उनके पक्ष में बहुमत २९९ का हो गया। इंगलुक शिनवात्रा दृढ़ विचारों की महिला मानी जाती हैं लेकिन थाईलैंड की प्रधानमंत्री के रूप में उनकी राह आसान नहीं है।
महिलाओं का भरपूर समर्थन
                                     
           थाईलैंड में महिला प्रधानमंत्री के रूप में सबसे बड़ी चुनौती महिला तस्करी अर्थात्‌ वूमेन ट्रैफिकिंग की है। थाईलैंड लगभग दो दशक पहले महिलाओं की तस्करी के क्षेत्र में सबसे अग्रणी देशों में गिना जाता था। थाईलैंड अब भी वूमेन ट्रैफिकिंग के मार्ग में सहायक देश माना जाता है। महिला तस्करी के विरुद्ध विश्वसंगठन (कोलिटेशन अगेन्स ट्रैफिकिंग इन वूमेन सीएटी डब्ल्यू) की एशिया पेसफिक रिपोर्ट के अनुसार रूस, यूगोस्लाविया, पोलैंड और चेक और स्लोवाक गणराज्यों, दक्षिण अमेरिका से महिलाओं की तस्करी थाईलैंड के रास्ते से की जाती है। थाईलैंड के रास्ते संचालित महिला तस्करी नीदरलैंड और जर्मनी यूरोपीय संघ, जापान, भारत, मलेशिया और मध्य पूर्व के देशों तक फैली हुई है। इसी विश्व संगठन के अनुसार थाईलैंड चीन, वर्मा, लाओस तथा कम्पूचिया के ग्रामीण क्षेत्रों से १८ से ३० वर्ष आयु वर्ग की महिलाएं बैंकाक के रास्ते विश्व के विभिन्न देशों में भेजी जाती हैं। इस तरह निकटवर्ती देशों के साथ ही महिलाओं के साथ ही थाई महिलाएं भी तस्करी की शिकार हैं। वेश्यावृत्ति के लिए उनकी तस्करी की जाती है। इस अवैध व्यापार के कारण थाईलैंड में देह व्यापार भी फल फूल रहा है। 
अपने परिवार के साथ इंगलुक शिनवात्रा
                                                                            
इस दुश्चक्र में फंसी अभागी औरतों को नया जीवन प्रदान करने की गंभीर चुनौती इंगलुक शिनवात्रा के सामने है। बैंकाक पोस्ट के एक समाचार के अनुसार बड़ी संख्या में थाई महिलाओं को यौनाचार में धकेल दिया जाता है। इनमें से अधिकांश औरतें गरीब घरों की होती हैं जिन्हें अच्छे वेतन वाली नौकरी का लालच दे कर दुश्चक्र में फंसाया जाता है। जून 1997 में इसी तरह की एक घटना प्रकाश में आई। महिला तस्करी से जुड़े एक आदमी ने तीन बहनों को कुआलालंपुर, मलेशिया में एक रेस्तरां में नौकरी दिलाने का वादा किया। वह उन्हें मलेशिया तो ले गया किंतु नौकरी दिलाने के बजाय उन्हें वेश्यावृत्ति में झोंक दिया। तीनों बहनों में से एक बहन किसी प्रकार अपनी मां को फोन करने में सफल हो गई। तब मां ने बेटियों को बचाने के लिए थाई पुलिस के आगे गुहार की।
विजयी मुद्रा में इंगलुक शिनवात्रा
                               
थाई पुलिस ने मलेशियाई पुलिस के साथ मिलकर एक सफल प्रयास किया और तीनों बहनों को वेश्यावृत्ति के दलदल से बचा लिया। किंतु अधिकांश लड़कियां और महिलाएं जो एक बार इस दलदल में फंसती हैं, उनका उबर पाना बिना कानूनी प्रयास के लगभग असंभव रहता है। एशियाई आर्थिक संकट के कारण स्थितियां और अधिक दुरूह हो चली हैं। एशियाई देशों की मुद्रा के मूल्य के गिरावट ने महंगाई बढ़ाने के साथ-साथ रोजगार के अवसर कम कर दिए हैं और पारिवारिक आय पर भी करारी चोट की है। ऐसी दशा में वूमेन ट्रैफिकिंग जैसे अपराध महिलाओं के जीवन को तेजी से अपनी लपेट में लेता जाएगा।  
इंगलुक शिनवात्रा
      एक महिला होने के नाते इंगलुक शिनवात्रा को महिलाओं की पीड़ा समझ कर उन्हें ट्रैफिकिंग के भयावह अपराध से बचाना होगा जिसके लिए सबसे पहले महिला तस्करी के विरुद्ध कानून और कड़ा करना आवश्यक होगा। चुनाव जीतने के बाद इंगलुक शिनवात्रा ने अपनी फेकबुक पोस्ट में कहा था कि एक प्रधानमंत्री के रूप में उनकी प्राथमिकताओं में रोजगार उपलब्ध कराना और आंतरिक शांति व स्थिरता स्थापित करना रहेगा।
                                                                    
इंगलुक ने सत्य, न्याय और सभी के लिए कानून के शासन से वादा किया तथा सन्‌ 2020 तक अपने लक्ष्यों को प्राप्त कर लेने की आशा व्यक्त की थी। यदि इंगलुक शिनवात्रा अपने घोषित उद्देश्यों में सफल हो पाती हैं तथा वूमेन ट्रैफिकिंग पर अंकुश लगा पाती हैं तो उनका यह कार्य एशिया प्रशांत क्षेत्र ही नहीं अपितु समूचे एशिया पर सकारात्मक प्रभाव डालेगा। 
(साभार- दैनिकनईदुनियामें 04.09.2011 को प्रकाशित मेरा लेख)

Friday, September 9, 2011

ये जीवट वाली औरतें

- डॉ. शरद सिंह

    सुबह होते ही लगभग हर दूसरे-तीसरे घर में प्रतीक्षा होने लगती है उस जीवट औरत की जो आमतौर पर कामवाली बाई के नाम से जानी जाती है। चाहे उसे उसके नाम से पुकारा जाए, चाहे उसे कोई नाम दे दिया जाए किंतु इससे कामवाली बाइयों का महत्व कम नहीं होता है। यदि वह समय पर नहीं आती है तो मालकिन का मानसिक तनाव सिर चढ़कर बोलने लगता है। देर-सबेर उसके आते ही यह तनाव फट पड़ता है। इतनी देर से क्यों आई? आज फिर कोई बहाना? यदि ऐसे ही देर किया करोगी तो तुम्हारी छुट्टी मैं कोई और कामवाली ढूंढ़ लूंगी! ऐसे न जाने कितने वाक्य हैं जो कामवाली कहलाने वाली औरतों को आए दिन सुनने पड़ते हैं।

        
कामवाली बाइयों को डांटते-फटकारते समय शायद ही किसी को याद रहता हो कि उनका भी घर परिवार है और उन पर भी ढेरों जिम्मेदारियां हैं। यदि वह चुपचाप मालकिन के मनोनुकूल काम करती रहे तो सब ठीक है लेकिन जहां उसने एक भी गड़बड़ की तो उसके साथ कहा सुनी तय रहती है। यदि किसी कार्यालय में काम करने वाली महिला अपने कार्यालय में देर से पहुंचती है तो वह पूरी आशा रखती है कि उसके अधिकारी को उसके प्रति दयाभाव दिखाना चाहिए और उसकी लेटलतीफी को अनदेखा कर देना चाहिए लेकिन कामवाली बाई की लेटपतीफी सहनीय नहीं होती है।

       
बहरहाल, एक ओर जिनके तीन-चार बच्चे हों (या इससे भी अधिक) कम या अनिश्चित आमदनी वाला पति हो, सास-ससुर, ननद-देवर यानी भरा-पूरा परिवार हो, वह अलस्सुबह जागकर पहले अपने घर के काम निपटाती है फिर चल पड़ती है चार पैसे कमाने की जुगत में। उसकी लालसा रहती है कि उसे अधिक से अधिक घरों में काम मिल जाए ताकि कुछ अधिक पैसे कमा सके। 
पहले घर में पहुंच कर वह झाडू लगाती है, बरतन मांजती है, यदि कपड़े धोने का काम भी साथ में है तो कपड़े भी धोती है, फिर भोजन पकाती है। भोजन पकाने के बाद उसे खाने की मेज पर या फ्रिज में रखने के बाद उसके काम की समाप्ति होती है। यही क्रम दूसरे घर में रहता है। फिर तीसरे, चौथे, पांचवें अर्थात जितने घरों में वह काम करती है, यही सारी काम उसे करने होते हैं। एक ही काम को बार-बार दोहराते हुए न तो उसे बोर होने का समय रहता है और न अधिकार। पैसे कमाने हैं तो काम तो करना ही पड़ेगा। सुबह से शाम तक या लगभग रात तक कामवाली बाई का दायित्व निभाने के बाद जब वह थकी-हारी अपने घर लौटती है तो अकसर उसे हिस्से में ही आते हैं उसके अपने घर के काम-काज। इस व्यस्ततम दिनचर्या में जिस भी घर में पहुंचने में उसे देर हो जाती है वहां चार बातें सुनने को मिलती हैं।                         
देर होने का कारण भले ही छोटा क्यों न हो, उसे बढ़ा-चढ़ाकर बताना उसकी विवशता हो जाती है ताकि मालकिन पसीज जाए और उसे काम से निकालने के बारे में न सोचे। वह सच है कि शहरों में अब कामवाली बाइयों की यूनियनें गठित होने लगी हैं। राज्य सरकारें भी उसके अधिकारों और सम्मान के बारे में सजग हो चली है। लोकसभा में महिला एवं बालविकास मंत्री कृष्णा तीरथ द्वारा महिलाओं का कार्यस्थल में लैंगिक उत्पीड़न से संरक्षण संबंधी विधेयक 2010 पटल पर रखा गया था। यद्यपि इसमें घरेलू नौकरानियों के दैहिक शोषण के संबंध में स्पष्ट व्याख्या नहीं थी। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने घरों में काम करने वाली महिलाओं को कामवाली बाई के बदले बहन जी अथवा दीदी के संबोधन से पुकारने की अपील की। उनका मानना है कि इससे घरेलू काम-काज करने वाली औरतों के सम्मान को बढ़ाया जा सकता है। उन्होंने घरेलू नौकरानियों की महापंचायत के आयोजन किए जाने का भी आह्वान किया। उन्हें फोटोयुक्त परिचय पत्र तथा प्रशिक्षण दिए जाने की भी योजना है।
       
महाराष्ट्र और केरल की भांति दिल्ली राज्य सरकार घरेलू कामगार एक्ट लागू करने के लिए प्रयास कर रही है। जिनके अंतर्गत कामवाली बाई को साप्ताहिक अवकाश के साथ-साथ अन्य सुविधाएं लेने की भी पात्र होंगी। दिल्ली सरकार के श्रम विभाग द्वारा साप्ताहिक अवकाश, न्यूनतम वेतन तथा अन्य सुविधाओं का खाका तैयार किया जा चुका है। यह लाभ उन सभी कामवाली बाइयों को मिलेगा जो अपना पंजीयन कराएंगी। यदि वह सब यथावत होता है तो इसमें कोई संदेह नहीं कि कामवाली बाइयों की जीवन दशा में सकारात्मक सुधार होकर रहेगा।

  
घरेलू जीवन के रोजमर्रा के तंत्र में कामवाली बाइयों के महत्व को किसी भी तरह से कम करके नहीं आंका जा सकता है। चाहे कामकाजी महिलाएं हों या खांटी घरेलू महिलाएं, कामवाली बाइयों के बिना उनके जीवन की तस्वीर पूरी नहीं उभरती है। कम से कम भारत में तो कामवाली बाइयों को बुनियादी आवश्यकता कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
(साभार- दैनिकनईदुनियामें 24.07.2011 को प्रकाशित मेरा लेख)