Monday, July 30, 2012

मेरी नई पुस्तक - डॉ. अम्बेडकर का स्त्री विमर्श...

अपनी नई पुस्तक के लिए आप सभी का स्नेह चाहती हूं. कृपया इसे अपना स्नेह प्रदान करें...... 
 
पुस्तक का नाम - डॉ. अम्बेडकर का स्त्री विमर्श
लेखिका- डॉ.(सुश्री) शरद सिंह 
सहलेखक- गुलाब चंद

प्रकाशक – भारत बुक सेन्टर, 17, अशोक मार्ग, लखनऊ (उत्तर प्रदेश)- 226001

Woman discourse of Dr Ambedkar 
written by Dr (Ms) Sharad Singh, 
Co-writer Mr Gulab Chand

Published by Bharat Book Centre, 17, Ashok Marg, Lucknow  (UP) -226001

इस पुस्तक का विवरण एवं भूमिका अवलोकनार्थ प्रस्तुत कर रही हूं....... 





पुस्तक की भूमिका





पुस्तक के फ्लैप्स 



Friday, July 27, 2012

बीड़ी जलाइ ले ....

  - डॉ. शरद सिंह
 
जागरूकता के अभाव में बीड़ी बनाने वाली महिलाओं और उनके परिवार के सदस्यों पर ज़बर्दस्त खतरा मंडराता रहता है।
                                                                    

      मालती बीड़ी बनाती है। जिस समय मालती बीड़ी बनाती है उस समय उसका बेटा उसकी गोद में लेटा हुआ किलकारियां भरता रहता है। उस दौरान नियमित रूप से प्रतिदिन तम्बाकू के बारीक कण मालती और उसके दुधमुंहे बेटे की सांसों में प्रवेश करते रहते हैं। मालती नहीं जानती है कि बीड़ी लपेटने का काम उसे नाक-मुंह पर कपड़ा बांध कर करना चाहिए। मालती नहीं जानती है कि लगातार बैठे-बैठे बीडि़यां लपेटने से उसकी उंगलियों में उठने वाली मरोड़ और कमर में होने वाले दर्द से कैसे बचा जाए? मालती नहीं जानती है कि इस काम ने जिस प्रकार उसकी मंा को अस्थमा का मरीज बनाया उसी तरह उसे या उसके बेटे को किसी भी प्राणघातक बीमारी से जकड़ सकता है। वह तो बस इतना जानती है कि बीडि़यां बना कर वह अपने परिवार को कम से कम एक समय की रोटी तो दे ही सकती है। वह सिर्फ़ इतना जानती है कि यदि बीड़ी न होती तो वह और क्या बनाती? उसे तो और कुछ बनाना आता ही नहीं है। बीड़ी लपेटने का काम मालती के परिवार को जीने का सहारा तो दे रहा है लेकिन उनसे बदले में धीरे-धीरे जीवन ले भी रहा है। यही विडम्बना है इस काम की। 
‘इंडिया इनसाइड’ के जुलाई 2012 अंक  में प्रकाशित डॉ शरद सिंह का लेख

सुहागरानी की कहानी इससे अलग नहीं है। विवाह के साल भर बाद सुहागरानी ने एक बेटे को जन्म दिया।  अपनी गोद में अपने बेटे को लिटा कर वह पूरी-पूरी दोपहर बीडि़यां लपेटती रहती। वह अपने बेटे के लिए पैसे जोड़ना चाहती थी। सट्टेदार उसके पति का परिचित था अतः उसकी बनाई बीडि़यों में ‘छट्टा की बीडि़यां’ (ख़राब बनी बीडि़यां) अधिक नहीं निकलती थीं। उसे अमूमन ठीक-ठाक पैसा मिल जाता था। सुहागरानी ने अपने इकलौते बेटे के लिए बीडि़यां बना कर अतिरिक्त पैसे जोड़े किन्तु बदले में अपने बेटे से उसका स्वास्थ्य छीन लिया। सुहागरानी के बेटे को तीन वर्ष की आयु में पहुंचते तक दमा रोग हो गया। सुहागरानी और उसके पति ने अपने बेटे का बहुत इलाज कराया किन्तु विशेष लाभ नहीं हुआ। बीड़ी में भरे जाने वाले ज़र्दा (तम्बाकू) के कण उसके बेटे के फेफड़ों पर अपना असर दिखा चुके थे। दवाओं के कारण इतना अवश्य हुआ कि सुहागरानी का बेटे जीवित है, दमे के रोगी का जीवन जी रहा है। दुर्भाग्यवश, सुहागरानी यह मानने को कभी तैयार नहीं हुई कि उसके बीडि़यां बनाने के दौरान वातावरण में उड़ने वाले ज़र्दे के कण (पार्टीकल्स) के कारण उसके बेटे को दमा हुआ। परिणामतः उसने बीडि़यां लपेटना अनवरत जारी रखा है।
देश में लगभग 50 लाख श्रमिक बीड़ी श्रमिक के रूप में कार्यरत हैं जिनमें अधिकांश महिला श्रमिक हैं। बीड़ी उद्योग मनुष्य द्वारा तम्बाकू के प्रयोग से जुड़ा एक महत्वपूर्ण उद्योग है। इस उद्योग में बीड़ी लपेटने का काम मुख्य रूप से औरतों द्वारा किया जाता है। ये औरतें प्रमुखतः निम्न आर्थिक वर्ग की रहती हैं। इनकी आर्थिक स्थिति ही इन्हें बीड़ी लपेटने के कार्य के लिए प्रेरित करती है। इसके साथ ही दूसरा प्रेरक कारण होता है इनका सामाजिक बंधन और तीसरा, अशिक्षा।
 बीड़ी लपेटने (बीड़ी रोलिंग) का काम करने वाली औरतें उस वर्ग की रहती हैं जिसमें शिक्षा का प्रसार न्यूनतम है। ऐसे लगभग प्रत्येक परिवार की एक ही कथा है कि आमदनी कम और खाने वाले अधिक। जिसके कारण एक अप्रत्यक्ष चक्र चलता रहता है -आर्थिक तंगी के कारण अपने बच्चों को शिक्षा के बदले काम में लगा देना इस प्रकार के अधिकांश व्यक्ति अकुशल श्रमिक के रूप में अपना पूरा जीवन व्यतीत कर देते हैं। ठीक यही स्थिति इस प्रकार के समुदाय की औरतों की रहती है। ऐसे परिवारों की बालिकाएं अपने छोटे भाई-बहनों को सम्हालने और अर्थोपार्जन के छोटे-मोटे तरीकों में गुज़ार देती हैं। इन्हें शिक्षित किए जाने के संबंध में इनके माता-पिता में रुझान रहता ही नहीं है। ‘लड़की को पढ़ा कर क्या करना है?’ जैसा विचार इस निम्न आर्थिक वर्ग पर भी प्रभावी रहता है। इस वर्ग में बालिकाओं का जल्दी से जल्दी विवाह कर देना उचित माना जाता है। ‘आयु अधिक हो जाने पर अच्छे लड़के नहीं मिलेंगे’, जैसे विचार अवयस्क विवाह के कारण बनते हैं। छोटी आयु में घर-गृहस्थी में जुट जाने के बाद शिक्षित होने का अवसर ही नहीं रहता है।
‘इंडिया इनसाइड’ के जुलाई 2012  

मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में फैले बुन्देलखण्ड भू-भाग में औरतों को आज भी पूरी तरह से काम करने की स्वतंत्रता नहीं है। गांव और शहरी क्षेत्र, दोनों स्थानों में आर्थिक रूप से निम्न तथा निम्न मध्यम वर्ग के अनेक परिवार ऐसे हैं जिनके घर की स्त्रियां आज भी तीज-त्यौहारों पर ही घर से बाहर निकलती हैं और वह भी घूंघट अथवा सिर पर साड़ी का पल्ला ओढ़ कर। इस परिवेश में बीड़ी लपेटने का काम मुख्य रूप से औरतों द्वारा किया जाना स्वाभाविक है। यह काम ऐसा है जिसे वे अपने घर के किसी कोने में बैठ कर, सिर पर पल्ला या घूंघट ओढ़ कर भी कर सकती हैं। इसीलिए बुन्देलखण्ड में बीड़ी लपेटने के काम में औरतों की संलग्नता सर्वाधिक है। 
बीड़ी महिला श्रमिकों द्वारा समय-समय पर अपनी समस्याओं को ले कर प्रदर्शन एवं आंदोलन किए जाते हैं। ‘सेवा’ जैसे अनेक सामाजिक संगठन तथा श्रमिक संगठन उनके इस प्रयास को सहायता एवं समर्थन देते रहते हैं। स्थानीय स्तर पर भी आवाज़ें उठाई जाती हैं। किन्तु जागरूकता का अभाव होने के कारण बीड़ी बनानेवालियों और उनके परिवार के सदस्यों को स्वास्थ्य के प्रति जोखिम से छुटकारा अभी भी नहीं है। 
(‘इंडिया इनसाइड’ के जुलाई 2012 अंक में मेरे स्तम्भ ‘वामा’ में प्रकाशित मेरा लेख साभार)

Sunday, July 8, 2012

आर्थिक जगत की विश्वसनीय साथी

 
-डॉ. शरद सिंह


     परिवार में आर्थिक कार्यों का संचालन सदियों से कौन करता चला आ रहा है? जाहिर है कि स्त्री। पहले पुरुष का काम था धनार्जन और
स्त्री का काम था उस धन का परिवार के हित में उपयोग और सही ‘इन्वेस्टमेंट’। यह प्रायः गहनों के रूप में हुआ करता था। बहरहाल, जब स्त्री को धन के संचालन की समझ हमेशा से रही तो उसे एक न एक दिन आर्थिक मामलों की विशेषज्ञ के रूप में सामने तो आना ही था। चंदा कोचर, इंदिरा नूयी, शहनाज़ हुसैन, रीता सिंह आदि वे नाम हैं जो आज भारत के आर्थिक जगत् में मील का पत्थर साबित हो रहे हैं या कहा जाए तो एक ऐसा लाईस हाऊस जिसके प्रकाश में देश की अन्य महिलाएं भी तेजी से आगे बढ़ रही हैं। अनेक भारतीय महिलाएं आर्थिक मामलों में सलाह देने का काम कर रही हैं तो कई ने पूरे आत्मविश्वास के साथ अपना व्यापार चला रखा है।  आर्थिक जगत भी महिलाओं को विश्वसनीय और मेहनती निवेशक, सहयोगी अथवा कर्मचारी के रूप में स्वीकार कर चुका है। व्यापार-व्यवसाय के क्षेत्रा में महिलाएं अब आर्थिक मामलों को ले कर भयभीत नहीं रहती हैं वरन् आत्मनिर्भर होती जा रही हैं। 
रीता सिंह

         मेस्को स्टील ग्रुप की रीता सिंह के ये उद्गार मायने रखते हैं कि -‘जब मैंने अपना बिजनेस शुरू किया था तो मुझे यह भी नहीं पता था कि कर्ज लेने के लिए बिजनेस प्रपोजल किस तरह से लिखा जाता है। लेकिन मैंने कभी मुड़कर नहीं देखा।’ 

बैकिंग क्षेत्र में भी महिलाओं ने अपना सिक्का जमा रखा है। चंदा कोचर भारतीय उद्योग जगत और बैंकिंग के क्षेत्र में जाना माना नाम हैं। चंदा कोचर ने अपनी मेहनत, विश्वास और लगन से पुरुष प्रधान बैंकिंग व्यवसाय में अपनी एक अलग पहचान बनाई। मैनेजमेंट ट्रेनी की छोटी सी पोस्ट से बैंक के उच्चतम पद तक पहुंचने वाली चंदा की सफलता एक महिला की दृढ़ इच्छाशक्ति की कहानी कहती है। आज अनेक महिलाएं चंदा कोचर से प्रेरणा ले रही हैं।
चंदा कोचर

फोर्ब्स पत्रिका में दुनिया की सशक्त महिलाओं की सूची में जगह बनाने वाली चंदा का जन्म 17 नवंबर 1961 को जोधपुर, राजस्थान में हुआ था। उनकी स्कूली पढ़ाई जयपुर से हुई। इसके बाद वे मुंबई आ गईं जहां पर जय हिन्द कालेज से आर्ट्स में स्नातक की डिग्री हासिल की। सन् 1982 में स्नातक की डिग्री लेने के बाद उन्होंने मुंबई के जमनालाल बजाज इंस्टिट्यूट आफ बिजनेस स्टडी से मैनेजमेंट में मास्टर डिग्री हासिल की। मैनेजमेंट स्टडी में अपनी शानदार प्रस्तुति के लिए उन्हें ‘वोकहार्ड्ट गोल्ड मेडल’ और कास्ट एकाउंटेंसी में सर्वाधिक अंक के लिए ‘जेएन बोस गोल्ड मेडल’ दिया गया। 1984 में मास्टर डिग्री लेने के बाद चंदा ने आईसीआईसीआई बैंक में मैनेजमेंट ट्रेनी के रूप में प्रवेश किया और अपने काम और अनुभव के साथ-साथ वे लगातार आगे बढ़ती गईं। उन्होंने बैंक को सफलता के नए आयामों तक पहुंचाया। उनके नेतृत्व में ही बैंक ने अपने रीटेल बिजनेस की शुरुआत की। बैंकिंग के क्षेत्र में अपने योगदान के कारण चंदा को कई सम्मान प्रदान किए गए जिसमें भारत सरकार द्वारा दिया जाने वाला ‘पद्म विभूषण’ भी शामिल है। चंदा कोचर के बारे में फार्च्यून पत्रिका ने लिखा था कि उन्होंने अपने बैंक की अंतर्राष्ट्रीय पहुंच को और विस्तार दिया है। 
नैना लाल किदवई

    फार्च्यून पत्रिका ने कारोबार जगत की सर्वाधिक 10 प्रभावशाली महिलाओं की सूची में शामिल पेप्सिको की भारतीय अमेरिकी अध्यक्ष एवं मुख्य कार्यकारी अधिकारी भारतीय मूल की इंदिरा नूयी और एचएसबीसी इंडिया की मुख्य कार्यकारी नैना लाल किदवई ने भी आर्थिक जगत् में अपनी विशेष जगह बना रखी है। 
इंदिरा नूयी

28 अक्टूबर 1955 को मद्रास में जन्मी और इंदिरा नूयी ने 1974 में मद्रास क्रिष्चियन कालेज से रसायन विज्ञान में स्नातक की डिग्री और कलकत्ता के इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ मैनेजमेंट से प्रबंधन में स्नातकोत्तर डिप्लोमा हासिल किया। भारत में अपने कैरियर की शुरुआत करके, नूई ने जॉनसन एंड जॉनसन और कपडे़ की फर्म मेट्टुर बिअर्डसेल में उत्पाद प्रबंधक के पद पर काम किया। सन् 1978 में वह येल स्कूल ऑफ मैनेजमेंट में भर्ती हुई और सार्वजनिक और निजी प्रबंधन में मास्टर डिग्री प्राप्त किया तथा 1980 में स्नातक होकर, नूई ने बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप में काम किया। सन् 1994 में नूई, पेप्सीको में शामिल हुईं और 2001 में उन्हें अध्यक्ष और सीओ नामित किया गया। इंदिरा नूयी के बारे में फार्च्यून पत्रिका ने लिखा था कि -‘उनके नेतृत्व में पेप्सिको कम्पनी तेज प्रगति किया है। सभी संकेत सकारात्मक मिल रहे हैं। कम्पनी का राजस्व 35.1 अरब डालर पर जा पहुंचा है। वहीं कम्पनी को कुल 6.4 अरब डालर का संचालन लाभ हुआ है। कम्पनी ने पिछले साल की तुलना में इस साल प्रति शेयर तीन डालर अधिक की कमाई की है।’ आर्थिक जगत की पत्रिका फार्च्यून ने यह भी लिखा था कि ‘2001 में क्वेकर फूड्स के अधिग्रहण, जिसमें नूयी ने केंद्रीय भूमिका निभाई थी, से पेप्सिको को खास लाभ हुआ।’
शहनाज़ हुसैन

       भारतीय महिलाएं वे सारे मिथक तोड़ती जा रही हैं जिनमें उन्हें ‘आर्थिक व्यवस्थापन’ के क्षेत्रा के योग्य नहीं समझा जाता था और उनसे पारिवारिक खर्चों के बारे में भी हिदायत दी जाती थी कि वे परिवार के पुरुषों से पूछे बिना कहीं कुछ भी खर्च न करें। आज महिलाएं आर्थिक जगत की विश्वसनीय साथी बन कर उभरी हैं।

(साभार- दैनिक ‘नेशनल दुनियामें 08.07.2012 को प्रकाशित मेरा लेख)