Saturday, December 21, 2013

छोड़े जा रहा है सवालों का जखीरा

Sharad Singh
- डॅा. (सुश्री) शरद सिंह


(‘इंडिया इन साइड’ के November 2013 अंक में ‘वामा’ स्तम्भ में प्रकाशित मेरा लेख आप सभी के लिए ....आपका स्नेह मेरा उत्साहवर्द्धन करता है.......)
 
सन 2013 जाते-जाते सवालों का जखीरा छोड़ जाएगा, यह भला किसने सोचा था? पांच राज्यों में विधान सभा चुनावों ने जो परिणाम दिए उनसे सन् 2014 और उसके आगे की भारतीय राजनीति की दिषा और दषा तय होगी। बरहहाल, चुनाव तो कोई न कोई परिणाम लाते ही हैं और परिदृष्य भी बदल देते हैं मगर कुछ सवाल वे हैं जिनके उत्तर ढूंढना नए साल की सबसे बड़ी चुनौती होगी।
सन् 2013 के अनुत्तरित सवालों में औरतों से जुड़े सवालों का प्रतिषत अधिक है। सन् 2013 में ‘निर्भया’ को न्याय मिलना था। उसे न्याय मिला। किन्तु ‘निर्भया-कांड’ का एक जघन्य अपराधी ‘जुवेनाइल’ के दायरे में आने के कारण न्यूनतम सजा का भागीदार बना। अपराध के समय उसकी उम्र 18 वर्ष से कुछ माह कम थी। समूचा देष सोच में डूब गया कि अपराध बालिगों का और सजा नाबालिगों वाली, क्या यह उचित है? ‘जुवेनाइल’ किसे कहा जाना चाहिए? वर्तमान लागू कानून के अनुसार 7 वर्ष से 18 वर्ष की आयु वर्ग किषोर यानी जुवेनाइल के दायरे में आती है। हत्या, चोरी, मार-पीट जैसे अपराध परिस्थितिजन्य आवेष में आ कर घटित हो जाते हैं। बिलकुल गैरइरादतन भी। लेकिन बलात्कार गैरइरादतन कदापि नहीं होता। जो मस्तिष्क बलात्कार करने के बारे में सोच सकता हो, योजना बना सकता हो और जो शरीर इस अपराध को अंजाम दे सकता हो उसे ‘नाबालिग’ के दायरे में कैसे रखा जा सकता है? तो क्या जुवेनाइल की आयु सीमा बदलनी होगी? इस प्रष्न का उत्तर सन् 2014 को देना पड़ेगा।
                    

कोई युवती अपने साथ आपत्तिजनक कृत्य किए जाने का विरोध करती है तो क्या सभी युवतियों को संदेह की दृष्टि से देखा जाना चाहिए? संदेह इस आधार पर कि कोई भी युवती या स्त्री किसी भी ‘सज्जन पुरुष’ को कटघरे में खड़ा कर सकती है। यह भय एवं संदेह मीडिया के समक्ष केन्द्रीय मंत्री फारुख अबदुल्ला ने जताया था। उनके इस बयान का विरोध हुआ और उन्होंने क्षमा मांग ली। यह घटना भी एक ज्वलंत प्रष्न छोड़ गई। जिस देष में, जिस समाज में तेजपाल, आसाराम, नारायण साईं, जस्टिस एके गांगुली जैसे लोग हों वहां किसी भी स्त्री को आगे बढ़ने के लिए कितनी विकट बाधाएं पार करनी पड़ती हैं, यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। समाज का परिदृश्य ऐसा है कि जिसमें आज भी लड़कियां खुल कर बयान नहीं कर पाती हैं कि उसके साथ किसी ने गलत कृत्य किया है। कुछ साहसी लड़कियां एवं स्त्रियां सामने आई और उन्होंने कुत्सित मानसिकता वाले पुरुषों को बेनकाब किया तो इससे भयभीत सिर्फ उन्हीं पुरुषों को होना चाहिए जो स्त्रियों के प्रति घृणित सोच रखते हैं, उन्हें कैसा भय जो वास्तव में सज्जन पुरुष हैं। 
    

चाहे आध्यात्म का क्षेत्र हो या पत्रकारिता का स्त्रियों के प्रति घृणित अपराध में लिप्त दिखाई दिया। इससे भी बढ़ कर खेद जनक घटना यह रही कि एक पूर्व न्यायाधीष पर अपनी लाइंटर्न के साथ अषोभनीय कृत्य करने की घटना सामने आई। जांच कमेटी बैठी। लॉ इंटर्न के यौन शोषण मामले में पूर्व जज एके गांगुली पर लगे आरोपों की जांच कर रही सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय कमेटी तो रिपोर्ट में जस्टिस गांगुली का व्यवहार प्रथम दृष्टया ‘अवांछित’ और ‘यौन प्रकृति’ कहा गया। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है, ‘इंटर्न जस्टिस गांगुली के साथ 24 दिसंबर 2012 को नई दिल्ली स्थित ली-मेरिडीयन होटल के कमरे में रात 08 बजे से रात 10.30 बजे तक थी। इस तथ्य को गांगुली ने भी नहीं नकारा है। रिपोर्ट के मुताबिक गांगुली 3 फरवरी 2012 को रिटायर होने के बाद इस होटल में अपनी पुस्तक लेखन के लिए रुके थे और इंटर्न उनकी मदद कर रही थी। कमेटी का मानना है कि इस दौरान उन्होंने इंटर्न के साथ गलत किया।
सन् 2013 में जिस तरह एक के बाद एक घटनाएं सामने आईं और प्रतिष्ठित माने जाने वाले चेहरों से पर्दा उठा वह सन् 2014 के लिए एक प्रष्न छोड़ गया है कि क्या पुरुष वर्ग अपनी मानसिकता की समीक्षा करेगा और अपने आचरण को स्त्रियों के प्रति सकारात्मक बनाएगा?
                 

एक और प्रष्न है जो सन् 2014 को मथेगा। वह है धारा 370 का प्रष्न। कष्मीर को धारा 370 के अंतर्गत विषेषाधिकार दिए गए हैं। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 370 एक ‘‘अस्थायी प्रबंध’’ के जरिए जम्मू और कश्मीर को एक विशेष स्वायत्ता वाला राज्य का दर्जा देता है। भारतीय संविधान के भाग 21 के तहत, जम्मू और कश्मीर को यह ‘‘अस्थायी, परिवर्ती और विशेष प्रबंध’’ वाले राज्य का दर्जा मिलता है। भारत के सभी राज्यों में लागू होने वाले कानून भी इस राज्य में लागू नहीं होते हैं। जम्मू और कश्मीर के लिए यह प्रबंध शेख अब्दुल्ला ने 1947 में किया था। शेख अब्दुल्ला को राज्य का प्रधानमंत्री महाराज हरि सिंह और जवाहर लाल नेहरू ने नियुक्त किया था।
इस अनुच्छेद के अनुसार रक्षा, विदेश से जुड़े मामले, वित्त और संचार को छोड़कर बाकी सभी कानून को लागू करने के लिए केंद्र सरकार को राज्य से मंजूरी लेनी पड़ती है। इस प्रकार राज्य के सभी नागरिक एक अलग कानून के दायरे के अंदर रहते हैं, जिसमें नागरिकता, संपत्ति खरीदने का अधिकार और अन्य मूलभूत अधिकार शामिल हैं। इसी धारा के कारण देश के दूसरे राज्यों के नागरिक इस राज्य में किसी भी तरीके की संपत्ति नहीं खरीद सकते हैं। अनुच्छेद 370 के कारण ही केंद्र राज्य पर आर्थिक आपातकाल (अनुच्छेद 360) जैसा कोई भी कानून राज्य पर नहीं लागू कर सकता है। केंद्र राज्य पर युद्ध और बाहरी आक्रमण के मामले में ही आपातकाल लगा सकता है। केंद्र सरकार राज्य के अंदर की गड़बडि़यों के कारण इमरजेंसी नहीं लगा सकता है, उसे ऐसा करने से पहले राज्य सरकार से मंजूरी लेना आवष्यक है।
क्या धारा 370 पर बौद्धिक बहस होगी और इसे बदला जा सकेगा? इस प्रष्न का उत्तर भी सन् 2014 को देना होगा। 
  

27 अगस्त को कवाल कस्बे में हुये एक बवाल ने पूरे मुजफ्फरनगर को अपने आगोश में ले लिया था। इस घटना में एक स्कूली लड़की से छेड़छाड़ की घटना ने विकराल रूप ले लिया। मुजफ्फरनगर, शामली, और आस पास के जिलों तक ये आग इतनी तेजी से फैली जिसे सम्भालने के लिये केंद्र सरकार को संज्ञान लेना पड़ा और अर्धसैनिक बल वहां तैनात करने पड़े। इन दंगो में करीब 50 हज़ार लोग विस्थापित होकर 58 रिफ्यूजी कैम्प में पहुंच गए। क्या इक्कीसवीं सदी में आ कर ऐसे दंगे राजनीतिक एवं सामाजिक असफलता नहीं है?
सवालों को क्रम यहीं समाप्त नहीं होता है। सुपर पावर बनने के स्वप्न देखने वाला देष घोटालों से कैसे पार पाएगा? यह भी एक गंभीर प्रष्न है। सन् 2014 को इन सभी सवालों के जवाब ढूंढने ही होंगे।


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India Inside, December  2013-Dr Sharad Singh's Article
 
 

Friday, December 20, 2013

December Moon : A Film by Dr Sharad Singh

Dear Friends,

"December Moon : A Film by Dr Sharad Singh"
 Plz See and Share .....


Wednesday, December 18, 2013

लिव इन रिलेशन पर बहुचर्चित उपन्यास ‘कस्बाई सिमोन’



 मुक्ति की राह पर रोशनी
 युवा उपन्यासकार शरद सिंह ने अपनी विशिष्ट कथा-शैली और अछूते विषयों के चुनाव के कारण
पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है। उनकी सद्य प्रकाशित कृति ‘कस्बाई सिमोन’ में भी उनकी यह विशेषता देखी जा सकती है। यह उपन्यास ‘लिव इन रिलेशनशिप’ जैसे विषय को लेकर है, जो खासकर भारतीय समाज के लिए अपेक्षाकृत नया है। जिस समाज में प्रेम करने को अक्षम्य अपराध की तरह देखने का आम चलन हो, वहां ऐसे विषय पर कलम चलाना साहस की बात कही जाएगी। वस्तुत: हिंदी साहित्य के स्त्री विमर्श के क्षेत्र में यह उपन्यास एक अहम हस्तक्षेप है, जिसमें न सिर्फ स्त्री की सदियों पुरानी परतंत्रता का प्रतिकार किया गया है, बल्कि उसे मुक्ति का विकल्प भी दिखाया गया है। कस्बाई सिमोन, लेखिका: शरद सिंह, प्रकाशक: सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली-2, मूल्य: 300 रु.
(दैनिक हिन्दुस्तान, 29.09.2012 में प्रकाशित टिप्पणी )

लिव इन रिलेशनशिप पर उपन्यास (A Novel on Live in Relation)
 
लिव इन रिलेशनशिप आज के समय में तेजी से बढ़ रहा है। एक समय था जब ऐसे संबंधों पर लोग खुलकर बात करना पसंद नहीं करते थे। लेकिन आज लोग खुलकर लिव इन रिलेशन शिप में रहते हैं और इस बात को जगजाहिर भी करते हैं। लिव इन रिलेशनशिप के जहां कुछ फायदे हैं वही इसके कुछ नुकसान भी हैं। यानी जैसे हर सिक्के के नकारात्मक और सकारात्मक पहलू होते हैं, इस रिश्ते में भी कुछ ऐसा ही है। इन्हीं पहलुओं के खंगाला गया है इस उपन्यास में।

Tuesday, December 3, 2013

अवसान और अवदान के बीच


- डॅा. (सुश्री) शरद सिंह

(‘इंडिया इन साइड’ के November 2013 अंक में ‘वामा’ स्तम्भ में प्रकाशित मेरा लेख आप सभी के लिए ....आपका स्नेह मेरा उत्साहवर्द्धन करता है.......)

असमंजस में हूं कि एक ऐसे व्यक्ति को ‘स्वर्गीय’ लिखना उचित होगा या नहीं जो स्वर्ग और नरक के होने या न होने पर यकीन ही नहीं करता थां ?
‘मैं स्वर्ग या नरक जैसी धारणाओं पर विश्वास नही करता हूं।’ यह कहना था राजेन्द्र यादव का। हिन्दू माइथालाॅजी में स्वर्ग और नरक की अवधारणा है लेकिन मुझे विश्वास है कि इस अवधारणा से परे राजेन्द्र यादव आत्मिक रूप में भी हिन्दी साहित्य के निकट, बहुत निकट रहेंगे। उन्होंने हिन्दी साहित्य में ‘स्त्री विमर्श’, ‘दलित विमर्ष’ को एक विचारधारा एवं लेखकीय विषय के रूप में स्थापित किया।

जहां तक स्त्री विमर्श का सवाल है तो इस पर जब कभी चर्चा उठी है तो वह गरमा-गर्म बहस पर जा कर थमी है। यह विषय ही ऐसा है जिस पर अकसर मतभेद होते रहते हैं। कोई इसे स्त्री-देह का विमर्श मानता है तो कोई स्त्री की स्वतंत्रता का। स्वयं स्त्रियां इसे क्या मानती हैं? इस पर भी छिटपुट मतभेद देखने को मिल जाते हैं किन्तु बहुप्रतिशत लोग यही मानते हैं कि यह विमर्श स्त्री की समुचित स्वतंत्राता का है। यदि स्त्री-देह की बात की जाए तो देह मनुष्य का बुनियादी अस्तित्व है और स्त्री इस बुनियाद से परे नहीं है। यदि प्रकृति ने स्त्री और पुरुष ही नहीं अपितु प्रत्येक प्राणी को देह दी है तो उस पर उसे अधिकार भी दिया है। प्रत्येक प्राणी अपनी देह का स्वयं स्वामी होता है। दुर्भाग्यवश स्त्री के साथ इसके विपरीत हुआ। प्रकृति के द्वारा नहीं, पुरुषप्रधान समाज के द्वारा। स्त्री की सोच को उस सांचे में ढाला गया जिसमें उसे अपनी देह के बारे में सोचने का अधिकार भी धीरे-धीरे कम होता गया। स्त्री को कितने कपड़े पहनने चाहिए? किस प्रकार के कपड़े पहनने चाहिए? उसे कितना पढ़ना-लिखना चाहिए? समाज-परिवार के मसलों में कितना हस्तक्षेप करना चाहिए? आदि-आदि तय किया पुरुषों ने और दुर्भाग्य यह कि स्त्रियों ने इसे स्वीकार भी कर लिया। कम से कम भारतीय स्त्रियों के संदर्भ में तो यह कहा ही जा सकता है कि आज भी साठ से सत्तर प्रतिशत स्त्रियां वही सोचती हैं और करती हैं जो पुरुष प्रधान समाज निर्देशित है। फिर भी स्त्री-विमर्श के संदर्भ में एक सुखद तथ्य यह भी है कि हिन्दी साहित्य में स्त्री-विमर्श को एक वैचारिक आन्दोलन के रूप में एक पुरुष ने स्थापित किया और उसमें स्त्रियों की सहभागिता को हरसंभव तरीके से बढ़ाया। यह नाम है राजेन्द्र यादव का। यह सच है कि स्त्रीविमर्श के अपने वैचारिक आन्दोलन के कारण उन्हें समय-समय पर अनेक कटाक्ष सहने पड़े हैं तथा लेखिकाओं के लेखन को ‘बिगाड़ने’ का आरोप भी उन पर लगाया जाता रहा है किन्तु सभी तरह के कटाक्षों और आरोपों से परे राजेन्द्र यादव ने साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ के पटल पर लेखिकाओं को अपने विचारों को खुल कर सामने रखने का भरपूर अवसर दिया। राजेन्द्र यादव अपने सामाजिक सरोकार रखने वाले साहित्यक विचारों और उद्देश्य को ले कर सदा स्पष्ट रखे। उन्होंने कभी गोलमोल या बनावटी बातों का सहारा नहीं लिया। यूं भी अपनी स्पष्टवादिता के लिए वे विख्यात रहे हैं।
Rajendra Yadav

राजेन्द्र यादव ने स्त्री स्वातंत्र्य की पैरवी की तो उसे अपने जीवन में भी जिया। एक बार जयंती रंगनाथन को साक्षात्कार देते हुए उन्होंने स्त्री विमर्श पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि ‘‘मैंने हमेशा स्पष्ट कहा है कि स्त्री विमर्श पर बात करनी है तो मंा, बेटी और बहन इन तीन संबंधों पर पर बात नहीं करूंगां घर के अंदर भी स्त्री को जितनी आजादी चाहिए, बहन-बेटी को जो फ्रीडम चाहिए, एजुकेशन चाहिए, मैंने दी है। बेटी को जि़न्दगी में एक बार थप्पड़ मारा, आज तक उसका अफसोस है। बाद में जि़न्दगी के सारे निर्णय उसने खुद ही लिए, यह फ्रीडम तो देनी ही पड़ेगी।’’ वे स्त्री-लेखन और पुरुष लेखन के बुनियादी अन्तर को हमेशा रेखांकित करते रहे हैं। उनके अनुसार ‘‘जो पुरुष मानसिकता से लिखा गया है और जो स्त्री की मानसिकता से लिखा गया है, बेसिक अंतर है। दो अलग एप्रोच हैं। उस चीज को तो हमें मानना होगा।’’
From left : Dr Varsha  Singh, Rajendra Yadav and Dr Sharad Singh at Sagar MP


निःसंदेह, यह एक ऐसा तथ्य है जिसको नकारा नहीं जा सकता है कि हिन्दी साहित्य में लेखिकाओं को यदि किसी ने सही अर्थ में मुखरता प्रदान की तो वह हैं राजेन्द्र यादव। यह हिन्दी साहित्य जगत में सतत् परिवर्तन की प्रक्रिया थी जो कभी न कभी, कहीं से तो शुरू होनी ही थी। इस यात्रा का प्रस्थान बिन्दु बना राजेन्द्र यादव का का वह साहस जो उन्हें यश-अपयश के बीच अडिग बनाए रखा। लेखिकाओं के नामों की लम्बी सूची है जिन्हें राजेन्द्र यादव ने अपने संपादन में स्त्री के सच को उजागर करने दिया। जब समाज में पुरुष का वर्चस्व हो तो वही तो सबसे पहले रास्ता देगा आगे बढ़ने वालों के लिए। यही किया राजेन्द्र यादव ने।
From left : Dr Sharad Singh, Rajendra Yadav and Dr Dinesh Kushwah at Sagar MP


राजेन्द्र जी में एक खूबी यह भी थी कि वे हवा के विपरीत रुख को भी अपने पक्ष में करने का हुनर रखते थे। चित्रकार प्रभु जोषी ने अपने संस्मरण में लिखा था कि राजेन्द्र जी ने उनसे ‘हंस’ के लिए ‘न्यूड’ चित्र बनाए। वे चित्र ‘हंस’ में छपे। अच्छा खासा बवाल मचा। राजेन्द्र जी ने प्रभु जोषी को पत्र लिखा कि ‘‘ तुम मुझे जूते पड़वा के एकांतवास में लौट गए हो। राक्षस कहीं के! जल्दी से ‘कला में न्यूड्स’ पर एक टिप्पणी भेजो।’’ इसके उत्तर में प्रभु जोषी ने लिखा कि ‘‘एक कृति के लिए सही जगह कलादीर्घा है। वहां वही आता है जिसकी कला में रूचि हो। आपने ‘हंस’ पर न्यूड को सवार करके जगत-दर्षन में बदला तो अब आप भुगतो।’’
राजेन्द्र यादव ‘भुगतने की कला’ जानते थे। उन्होंने ‘हंस’ में ‘कला में शील-अष्लील पर एक धमाकेदार संपादकीय लिखा और तमाम विरोधी बहस को अपने पक्ष में कर लिया। अपनी इसी खूबी के चलते राजेन्द्र जी हिन्दी साहित्य जगत में अपनी पकड़ बनाए रखी। विवाद और राजेन्द्र यादव का साथ तो चोली-दामन का साथ था। वे विवादों में रस लेते थे और विवाद उनमें। जहां विवाद होते हैं वहीं तर्क-वितर्क होते हैं और जहां तर्क-वितर्क होते हैं वहीं वैचारिक उर्वरता बनी रहती है। राजेन्द्र जी से जुड़े विवाद सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य जगत में उर्वरक का काम करते थे। भले ही उस उर्वरक ने खर-पतवार को भी पोसा लेकिन नए विचारों का जो संचरण किया वह हमेषा मायने रखेगा।
Dr Sharad Singh and Rajendra Yadav at Delhi,2013

ये चुनाव वर्ष है। राजेन्द्र यादव की दृष्टि ने चुनाव के परिदृश्य का आकलन करना अभी शुरू ही किया था कि नियति ने उनकी अंाखें बंद कर दीं। स्त्रियों की जिस स्वतंत्रता का सपना उन्होंने देखा वह 2013 के इस चुनावों में आकार ले सकेगा या नहीं यह तो चुनाव परिणाम ही बताएगा। शायद, स्वर्ग नहीं, नरक नहीं, किन्तु साहित्य जगत के बहुत करीब खड़े रह कर राजेन्द्र जी देख रहे होंगे कि स्त्रियां राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक स्तर पर अपने अधिकारों को हासिल कर पा रही हैं या नहीं।
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मानसिक रोग, तलाक और सुप्रीमकोर्ट का फैसला


- डॅा. (सुश्री) शरद सिंह

(‘इंडिया इन साइड’ के October 2013 अंक में ‘वामा’ स्तम्भ में प्रकाशित मेरा लेख आप सभी के लिए ....आपका स्नेह मेरा उत्साहवर्द्धन करता है.......)

सन 2013 दाम्पत्य जीवन और पति-पत्नी के पारस्परिक संबंधों के कानूनी पक्ष की दृष्टि से महत्वपूर्ण कहा जाएगा। इस वर्ष के पूर्वार्द्ध पत्नी को पति के उस सम्पत्ति में से भी हिस्सा दिए जाने का कानून पारित किया गया जो पति को विरासत के रूप में मिली हो। इसी क्रम में सुप्रीमकोर्ट ने एक बहुत महत्वपूर्ण फैसला दिया है जिसके अनुसार जीवनसाथी में से किसी एक का सिर्फ़ मानसिक बीमारी से ग्रस्त होना तलाक का आधार नहीं हो सकता है। दोनों में अलगाव की मंजूरी उसी स्थिति में दी जा सकती है, जब उस बीमारी के कारण साथ रहना संभव न रह जाए। सुप्रीम कोर्ट ने आंध्र प्रदेश के डॉक्टर दंपती के मामले में यह फैसला सुनाते हुए तलाक की अर्जी नामंजूर कर दी। कोर्ट ने कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम के अनुसार मानसिक बीमारी होने के आधार पर तलाक नहीं दिया जा सकता है। पति की दलील थी कि उसकी पत्नी सिजोफ्रेनिया की मरीज है। इस आधार को अनुचित मानते हुए हाईकोर्ट ने मामले को खारिज कर दिया। हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीमकोर्ट में चुनौती दी गई। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को सही ठहराया। खंडपीठ के अनुसार मानसिक बीमारी को साबित करने के लिए हाईकोर्ट के सामने रखे गए दस्तावेजों में खामी पाई गई थी। उसकी बीमारी इतनी गंभीर नहीं थी कि उसके आधार पर तलाक दिया जाए। इसी आधार पर हाईकोर्ट ने निचली अदालत द्वारा दिए गए तलाक के फैसले को निरस्त कर दिया था।
                              

वह मानसिक स्थिति जब इंसान सही और ग़लत में भेद नहीं कर पाता है और अपने भ्रम पर ही अटूट विश्वास करने लगता है, उसी स्थिति में वह आत्मघात जैसे क़दम उठाता है। मनोवैज्ञानिक इस स्थिति को सीजोफ्रेनिया कहते हैं। यह भ्रम को सच मान लेने की चरम स्थिति है। मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि सीजोफ्रेनिया का मनोरोग आत्मीयता और प्रेम पा कर ठीक होने लगता है। अतः पति और पत्नी के संबंध में जहां परस्पर प्रेम ही सबसे प्रमुख आधार होता है, सीजोफ्रेनिया की स्थिति उत्पन्न होनी ही नहीं चाहिए। यदि ऐसा होता है तो इसके लिए दूसरे पक्ष की जिम्मेदारी को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। 

         

भारतीय संविधान की धारा-14 के अंतर्गत महिलाओं एवं पुरुषों को आर्थिक, राजनैतिक एवं सामाजिक स्तर पर समान अवसर प्रदान किए जाने का प्रावधान है, धारा-15 में लिंग के आधार पर भेद-भाव को अमान्य किया गया है तथा धारा-16 एवं धारा 39 के अंतर्गत् सार्वजनिक नियुक्तियों के मामले में स्त्राी-पुरुषों को समान अवसर एवं जीविका के समान अधिकार प्रदान किए जाने का विधान है । समय-समय पर उच्चतम न्यायालय ने भी ऐसे कानूनों को बनाए जाने की आवश्यकता प्रकट की जिससे कि महिलाओं के अधिकारों को और अधिक सुरक्षा एवं संरक्षण मिल सके। इस दिशा में शाहबानो एवं प्रतिभारानी (1984 उ.न्या. 648) प्रकरणों के निर्णयों को रेखांकित किया जा सकता है। इसी प्रकार अनेक ऐसे अधिनियम पारित किए गए जो महिलओं के कल्याण तथा उनके विरूद्ध अपराध, अत्याचार एवं शोषण को रोकने की राह में मील का पत्थर साबित हुए। ठीक इसी प्रकार महत्वपूर्ण है घरेलू हिंसा के विरुद्ध कानून जो 26 अक्टूबर 2006 से पूरे देश में समान रूप से लागू किया जा चुका है। इस कानून के कई महत्वपूर्ण पहलू हैं। सबसे पहला महत्वपूर्ण पहलू तो ये है कि घरेलू हिंसा के विरुद्ध यह कानून सभी स्त्रिायों को सार्वभौमिक दृष्टि से देखने वाला है।

            

भारत में तलाक निश्चित रूप से एक आसान प्रक्रिया नहीं है। तलाक की पूरी प्रक्रिया है कि लंबे समय तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। यहां विभिन्न धर्मों के अस्तित्व के कारण अलग-अलग विवाह अधिनियम बनाए गए हैं। मुस्लिम महिला अधिनियम, 1986 तलाक पर मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए पारित किया गया था। अंतर जाति और अंतर - धर्म विवाह के लिए तलाक कानून विशेष विवाह अधिनियम, 1956 के अंतर्गत अनुमोदित कर रहे हैं। हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13-बी के अंतर्गत एक पति और पत्नी के आपसी तलाक केवल जब वे कम से कम एक वर्ष के लिए अलग रहता है, फाइल कर सकते हैं। कुछ संयुक्त रूप से उनके लिए कुछ अपरिहार्य परिस्थितियों के कारण वैवाहिक संबंध जारी रखने की असमर्थता के बारे में उल्लेख करना होगा। दोनों पक्षों ने स्वेच्छा से शादी भंग करने के लिए सहमत होना होगा। सन् 2012 में केंद्रीय मंत्रीमंडल ने तलाक की प्रक्रिया को आसान बनाने वाले विधेयक को मंजूरी दे दी। संशोधित विधेयक के अनुसार पत्नी ‘वैवाहिक संबंध पूरी तरह से टूटने’ के आधार पर दायर किए गए तलाक के दावे को चुनौती दे सकती है लेकिन पति के पास ये अधिकार नहीं होगा। विवाह कानून (संशोधन) विधेयक 2010 पत्नी को पति की जायदाद में हिस्से का भी अधिकार देता है। पत्नी को पति की जायदाद में हिस्सा देने के अलावा विधेयक में तलाक लेने की स्थिति में गोद लिए बच्चों को भी अन्य बच्चों के समान संपत्ति में अधिकार देना भी शामिल है।

                      

सन् 2010 में एक महत्वपूर्ण किन्तु दिलचस्प निर्णय लिया गया जिसके अनुसार यदि पति-पत्नी आपस में बातचीत नहीं करते हैं तो ऐसा करने वाला अपने साथी पर क्रूरता करने का दोषी ठहराया जा सकता है और पीडित पक्षकार को केवल इसी आधार पर तलाक मिल सकती है। इसलिये ऐसे सभी पतियों और पत्नियों को सावधान होने की जरूरत है, जो बात-बात पर मुःह फुलाकर बैठ जाते हैं और महनों तक अपने साथी से बात नहीं करते हैं। वैसे तो मुंह फुलाना और मनमुटाव होना पति-पत्नी के रिश्ते में आम बात है, लेकिन यदि इसके कारण दूसरे साथी को सदमा लगे या वह सीजोफ्रेनिया की चरम स्थिति में पहुंच जाए तो तलाक हो सकता है। सम्भवतः इन्हीं मानसिक पीड़ाओं को कानूनी समर्थन प्रदान करते हुए भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा है कि चुप्पी क्रूरता का परिचायक है।

                   
प्रायः यह देखा गया है कि अधिकतर पत्नी से छुटकारा पाने के लिए उसे पागल करार देने का प्रयास किया जाता है जबकि वह दिमागी रूप से पूर्ण स्वस्थ रहती है। कई बार पत्नी का पागलपन सिद्ध करने के लिए उसे क्रोध दिला कर उन्माद की स्थिति तक पहुंचा दिया जाता है, उसकी अनदेखी की जाती है, उसके प्रति चुप्पी साध ली जाती है और इस तरह उसे चिड़चिड़े स्वभाव में जीने के लिए विवष किया जाता है। क्रोध या अवसाद में की गई उसकी प्रत्येक हरकत को पागलपन बता कर तलाक पाने के लिए याचिका दायर कर दी जाती है। इस तरह के प्रकरणों में सुप्रीमकोर्ट का यह फैसला कि सिर्फ़ मानसिक बीमारी से ग्रस्त होना तलाक का आधार नहीं हो सकता है, झूठे प्रकरणों को रोकने में सहायक सिद्ध होगा और पत्नी को मानसिक प्रताड़ना से बचा सकेगा।
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मां तो बस, मां है!


 - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

 (‘इंडिया इन साइड’ के September 2013 अंक में ‘वामा’ स्तम्भ में प्रकाशित मेरा लेख आप सभी के लिए ....
आपका स्नेह मेरा उत्साहवर्द्धन करता है.......)

‘मां’ एक जादुई शब्द है.......एक ऐसा शब्द जिसमें राहत की ठंडी छंाह है, सहारे का भरोसा है और जीवन का संवाद है। मंा की कोख में नौ महीने सांसें लेने के बाद जब शिशु पहली बार इस दुनिया में अपनी आंखें खोलता है और उसके नन्हें से मुख से जो पहला स्वर फूटता है, वह भी सिर्फ़, और सिर्फ ‘मां’ होता है। बच्चा जब चलना सीखता है और कहीं ठोकर खा कर गिरता है जो ‘मंा’ कह कर ही रोता है। यहंा तक कि जब व्यक्ति की आयु परिपक्व होती है और जब कभी उस पर कोई दुख का पहाड़ टूटता है तो वह ‘ओ मां!’ कह कर आर्तनाद करता है। ऐसे समय वह अपनी उस मां को याद करता है और उसके आंचल में छुप कर संकटों से बच जाना चाहता है जिसे उसने कई दिनों, कई महीनों या कई सालों से नहीं देखा होता है। 
                                             
            आजकल मांएं आधुनिक जीवनचर्या के साथ क़दम से क़दम मिला कर चलने का प्रयास कर रही हैं। अकसर लोग युवा मांओं पर ये आरोप लगाते हैं कि वे अपने बच्चों के प्रति उतनी ममतामयी नहीं रह गई हैं अर्थात् उतना ध्यान नहीं देती हैं जितना कि एक पीढ़ी पहले की मांएं ध्यान देती थीं। जबकि सच तो ये है कि मां चाहे जितनी भी आधुनिका क्यों न हो जाए अपने बच्चे के प्रति अपने कर्तव्यों अथवा ममता को कभी अनदेखा नहीं करती है। मात्र चंद अपवादों के आधार पर कोई एक निष्कर्ष निकाल कर दुनिया की सारी मंाओं को लांछित नहीं किया जा सकता है। किन्तु कभी सोचा है किसी ने कि दुनिया की मांएं कितनी पीढ़ी से सतत् उपेक्षा की शिकार होती आई हैं। वयस्कता की सीढ़ी चढ़ते ही बच्चे अपनी मां से विमुख होने लगते हैं। कितने बच्चे हैं जो बड़े होने पर अपने पिता के बदले अपनी मां से कोई सलाह लेना पसन्द करते हैं? मां परिवार की अनिवार्य किन्तु उपेक्षित सदस्या बन कर रह जाती है। उसकी सेहत का ध्यान लगभग किसी को नहीं रहता है। वह पर्याप्त भोजन करती है या नहीं, उसकी कमर में दर्द तो नहीं रहता है, उसे जितने विटामिनों की आवश्यकता है उतने विटामिन उसे मिल रहे हैं या नहीं, उसे रूटीन स्वास्थ्य-जांच की आवश्यकता है या नहीं? ये तमाम ऐसे प्रश्न है जिनके उत्तर पचहत्तर प्रतिशत ‘वयस्क-बच्चों’ के पास नहीं होंगे। वे अपनी मंा के आंचल से बहुत पहले बाहर जो आ चुके हैं...अब वे बड़े हो चुके हैं।

तन और मन से वयस्क होने के साथ-साथ बौद्धिक वयस्कता भी जरूरी होती है। बौद्धिकता का अर्थ चार कि़ताबें पढ़ कर तर्कषील होना ही नहीं है, बौद्धिकता का अर्थ यह भी है कि व्यक्ति अपने प्रियजन के बारे में कितना सकारात्मक सोच पाता है। एक बेटा यदि अपनी मां की चिन्ता करता है, उसकी देख-भाल के लिए समय निकालता है तो वह निःसंदेह बौद्धिक है। इस नजरिए से देखा जाए तो मां से बढ़कर बौद्धिक कोई हो ही नहीं सकता है। एक मां हमेशा यही कामना करती है कि जिस परिवेश में उसकी संतान को पलना, बढ़ना और जीना है वह परिवेष साफ़-सुथरा और सुरक्षित रहे। अपनी इस आकांक्षा के बदले उसे यदि कोई चाह रहती है तो बस, अपनी संतान के थोड़े से प्यार के मिलने की चाह। विडम्बना है कि भौतिकवादी दौड़ में मां की यह चाह बहुत पीछे छूट जाती है। वयस्क संतान की वृ़द्धा मां अपने वृद्ध जीवनसाथी के साथ जीवन से जूझती रहती है या फिर उस वृद्ध जीवनसाथी का भी साथ छूट जाने पर कुत्ते-बिल्ली जैसे पालतू पषुओं और एक अदद ‘केयर टेकर’ के भरोसे अपनी बची-खुची सांसें जीती रहती है। फिर भी उसके दिल से दुआ ही निकलती है अपनी संतान के प्रति।
विखण्डित परिवारों में मां की स्थिति और भी अधिक उपेक्षित हो जाती है। उसके वे ही बच्चे उसे अपने पास नहीं रखना चाहते हैं जिनको उसने कभी अपनी बांहों में झुलाया था, जिन्हें वह अपनी गोद में ले कर सारी-सारी रात बैठी रही थी और जिन्हें उसने उंगली पकड़ कर चलना सिखाया था। जिस मां ने परिवार से परिचित कराया उसके लिए ही परिवार में स्थान न होना जितना दुर्भाग्यपूर्ण लगता है उतना ही हास्यास्पद भी। खैर, अब हम ‘मदर्स डे’ भी मनाने लगे हैं चलो, एक दिन मां का भी हुआ। उस दिन हम मां को शुभकामनापत्र दे सकते हैं, फूल दे सकते हैं या फिर कोई अच्छा-सा उपहार दे सकते हैं। क्या इतने के सहारे मां के तीन सौ चैंसठ दिन कट जाएंगे? वहीं अगर इस एक दिन के लिए ही सही, हर वयस्क बच्चा अपनी मां के पास पहुंच कर एक पूरा दिन उसके साथ, उसी के ढंग से बिताए तो शायद एक ऐसे दिन के सहारे मंा को शेष तीन सौ चैंसठ दिन बिताने कठिन नहीं लगेंगे? फिर उसे प्रतीक्षा भी रहेगी ‘अपने इस एक दिन’ के आने की। टेलीविजन पर एक विज्ञापन आता है जिसमें अपने बेटे के एक फोन के लिए तरसती मां को दिखाया जाता है। उस विज्ञापन में बेटे को अपनी भूल का अहसास होता है और वह मां को आश्वस्त करता है कि अब वह फोन किया करेगा। एक अच्छा संदेश देता विज्ञापन है यह किन्तु वास्तविक जीवन में इस तरह की भूल का अहसास कम हो चला है।
मां हमसे दूर कभी नहीं होती है, दूर तो होते जाते हैं हम अपनी मां से, अपनी मां की ममता से और फिर ढूंढ लेते हैं नितान्त अनौपचारिक एवं प्रकृतिक संबंध को औपचारिक ढंग से मनाने के तरीके....फिर भी मां कुछ नहीं कहती है, न टोंकती है और न रोकती है, न ही उलाहना देती है। मां उसी में खुश रहती है जिसमें उसके बच्चे खुश रहें। 


.....और अंत में कवि जॉन ब्लेक की एक कविता की कुछ पंक्तियां -

मां ! मैं खुश हूं कि तुम मेरी मां हो
तुमने एक बहुत ही कठिन जीवन चुना
स्त्री का जीवन जीने से
अधिक कठिन है मां का जीवन जीना,
मैं युद्ध में था तो तुम दुआ करती रहीं
मेरे जीवन के लिए,
मैं लौटा घायल हो कर तो तुम
मेरे घाव घोती-सुखाती रहीं,
मैं लौटा हर बार थक कर तुम्हारे पास
और तुमने मुझे विदा दिया हर बार
ऊर्जा से भर कर ,
यदि मैं तुम्हारी जगह होता तो
कभी नहीं कर पाता ऐसा
तुमने किया क्योंकि तुम कर सकती थीं
क्योंकि तुम एक मां हो.....