Tuesday, December 3, 2013

मां तो बस, मां है!


 - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

 (‘इंडिया इन साइड’ के September 2013 अंक में ‘वामा’ स्तम्भ में प्रकाशित मेरा लेख आप सभी के लिए ....
आपका स्नेह मेरा उत्साहवर्द्धन करता है.......)

‘मां’ एक जादुई शब्द है.......एक ऐसा शब्द जिसमें राहत की ठंडी छंाह है, सहारे का भरोसा है और जीवन का संवाद है। मंा की कोख में नौ महीने सांसें लेने के बाद जब शिशु पहली बार इस दुनिया में अपनी आंखें खोलता है और उसके नन्हें से मुख से जो पहला स्वर फूटता है, वह भी सिर्फ़, और सिर्फ ‘मां’ होता है। बच्चा जब चलना सीखता है और कहीं ठोकर खा कर गिरता है जो ‘मंा’ कह कर ही रोता है। यहंा तक कि जब व्यक्ति की आयु परिपक्व होती है और जब कभी उस पर कोई दुख का पहाड़ टूटता है तो वह ‘ओ मां!’ कह कर आर्तनाद करता है। ऐसे समय वह अपनी उस मां को याद करता है और उसके आंचल में छुप कर संकटों से बच जाना चाहता है जिसे उसने कई दिनों, कई महीनों या कई सालों से नहीं देखा होता है। 
                                             
            आजकल मांएं आधुनिक जीवनचर्या के साथ क़दम से क़दम मिला कर चलने का प्रयास कर रही हैं। अकसर लोग युवा मांओं पर ये आरोप लगाते हैं कि वे अपने बच्चों के प्रति उतनी ममतामयी नहीं रह गई हैं अर्थात् उतना ध्यान नहीं देती हैं जितना कि एक पीढ़ी पहले की मांएं ध्यान देती थीं। जबकि सच तो ये है कि मां चाहे जितनी भी आधुनिका क्यों न हो जाए अपने बच्चे के प्रति अपने कर्तव्यों अथवा ममता को कभी अनदेखा नहीं करती है। मात्र चंद अपवादों के आधार पर कोई एक निष्कर्ष निकाल कर दुनिया की सारी मंाओं को लांछित नहीं किया जा सकता है। किन्तु कभी सोचा है किसी ने कि दुनिया की मांएं कितनी पीढ़ी से सतत् उपेक्षा की शिकार होती आई हैं। वयस्कता की सीढ़ी चढ़ते ही बच्चे अपनी मां से विमुख होने लगते हैं। कितने बच्चे हैं जो बड़े होने पर अपने पिता के बदले अपनी मां से कोई सलाह लेना पसन्द करते हैं? मां परिवार की अनिवार्य किन्तु उपेक्षित सदस्या बन कर रह जाती है। उसकी सेहत का ध्यान लगभग किसी को नहीं रहता है। वह पर्याप्त भोजन करती है या नहीं, उसकी कमर में दर्द तो नहीं रहता है, उसे जितने विटामिनों की आवश्यकता है उतने विटामिन उसे मिल रहे हैं या नहीं, उसे रूटीन स्वास्थ्य-जांच की आवश्यकता है या नहीं? ये तमाम ऐसे प्रश्न है जिनके उत्तर पचहत्तर प्रतिशत ‘वयस्क-बच्चों’ के पास नहीं होंगे। वे अपनी मंा के आंचल से बहुत पहले बाहर जो आ चुके हैं...अब वे बड़े हो चुके हैं।

तन और मन से वयस्क होने के साथ-साथ बौद्धिक वयस्कता भी जरूरी होती है। बौद्धिकता का अर्थ चार कि़ताबें पढ़ कर तर्कषील होना ही नहीं है, बौद्धिकता का अर्थ यह भी है कि व्यक्ति अपने प्रियजन के बारे में कितना सकारात्मक सोच पाता है। एक बेटा यदि अपनी मां की चिन्ता करता है, उसकी देख-भाल के लिए समय निकालता है तो वह निःसंदेह बौद्धिक है। इस नजरिए से देखा जाए तो मां से बढ़कर बौद्धिक कोई हो ही नहीं सकता है। एक मां हमेशा यही कामना करती है कि जिस परिवेश में उसकी संतान को पलना, बढ़ना और जीना है वह परिवेष साफ़-सुथरा और सुरक्षित रहे। अपनी इस आकांक्षा के बदले उसे यदि कोई चाह रहती है तो बस, अपनी संतान के थोड़े से प्यार के मिलने की चाह। विडम्बना है कि भौतिकवादी दौड़ में मां की यह चाह बहुत पीछे छूट जाती है। वयस्क संतान की वृ़द्धा मां अपने वृद्ध जीवनसाथी के साथ जीवन से जूझती रहती है या फिर उस वृद्ध जीवनसाथी का भी साथ छूट जाने पर कुत्ते-बिल्ली जैसे पालतू पषुओं और एक अदद ‘केयर टेकर’ के भरोसे अपनी बची-खुची सांसें जीती रहती है। फिर भी उसके दिल से दुआ ही निकलती है अपनी संतान के प्रति।
विखण्डित परिवारों में मां की स्थिति और भी अधिक उपेक्षित हो जाती है। उसके वे ही बच्चे उसे अपने पास नहीं रखना चाहते हैं जिनको उसने कभी अपनी बांहों में झुलाया था, जिन्हें वह अपनी गोद में ले कर सारी-सारी रात बैठी रही थी और जिन्हें उसने उंगली पकड़ कर चलना सिखाया था। जिस मां ने परिवार से परिचित कराया उसके लिए ही परिवार में स्थान न होना जितना दुर्भाग्यपूर्ण लगता है उतना ही हास्यास्पद भी। खैर, अब हम ‘मदर्स डे’ भी मनाने लगे हैं चलो, एक दिन मां का भी हुआ। उस दिन हम मां को शुभकामनापत्र दे सकते हैं, फूल दे सकते हैं या फिर कोई अच्छा-सा उपहार दे सकते हैं। क्या इतने के सहारे मां के तीन सौ चैंसठ दिन कट जाएंगे? वहीं अगर इस एक दिन के लिए ही सही, हर वयस्क बच्चा अपनी मां के पास पहुंच कर एक पूरा दिन उसके साथ, उसी के ढंग से बिताए तो शायद एक ऐसे दिन के सहारे मंा को शेष तीन सौ चैंसठ दिन बिताने कठिन नहीं लगेंगे? फिर उसे प्रतीक्षा भी रहेगी ‘अपने इस एक दिन’ के आने की। टेलीविजन पर एक विज्ञापन आता है जिसमें अपने बेटे के एक फोन के लिए तरसती मां को दिखाया जाता है। उस विज्ञापन में बेटे को अपनी भूल का अहसास होता है और वह मां को आश्वस्त करता है कि अब वह फोन किया करेगा। एक अच्छा संदेश देता विज्ञापन है यह किन्तु वास्तविक जीवन में इस तरह की भूल का अहसास कम हो चला है।
मां हमसे दूर कभी नहीं होती है, दूर तो होते जाते हैं हम अपनी मां से, अपनी मां की ममता से और फिर ढूंढ लेते हैं नितान्त अनौपचारिक एवं प्रकृतिक संबंध को औपचारिक ढंग से मनाने के तरीके....फिर भी मां कुछ नहीं कहती है, न टोंकती है और न रोकती है, न ही उलाहना देती है। मां उसी में खुश रहती है जिसमें उसके बच्चे खुश रहें। 


.....और अंत में कवि जॉन ब्लेक की एक कविता की कुछ पंक्तियां -

मां ! मैं खुश हूं कि तुम मेरी मां हो
तुमने एक बहुत ही कठिन जीवन चुना
स्त्री का जीवन जीने से
अधिक कठिन है मां का जीवन जीना,
मैं युद्ध में था तो तुम दुआ करती रहीं
मेरे जीवन के लिए,
मैं लौटा घायल हो कर तो तुम
मेरे घाव घोती-सुखाती रहीं,
मैं लौटा हर बार थक कर तुम्हारे पास
और तुमने मुझे विदा दिया हर बार
ऊर्जा से भर कर ,
यदि मैं तुम्हारी जगह होता तो
कभी नहीं कर पाता ऐसा
तुमने किया क्योंकि तुम कर सकती थीं
क्योंकि तुम एक मां हो.....


 

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