Tuesday, December 3, 2013

अवसान और अवदान के बीच


- डॅा. (सुश्री) शरद सिंह

(‘इंडिया इन साइड’ के November 2013 अंक में ‘वामा’ स्तम्भ में प्रकाशित मेरा लेख आप सभी के लिए ....आपका स्नेह मेरा उत्साहवर्द्धन करता है.......)

असमंजस में हूं कि एक ऐसे व्यक्ति को ‘स्वर्गीय’ लिखना उचित होगा या नहीं जो स्वर्ग और नरक के होने या न होने पर यकीन ही नहीं करता थां ?
‘मैं स्वर्ग या नरक जैसी धारणाओं पर विश्वास नही करता हूं।’ यह कहना था राजेन्द्र यादव का। हिन्दू माइथालाॅजी में स्वर्ग और नरक की अवधारणा है लेकिन मुझे विश्वास है कि इस अवधारणा से परे राजेन्द्र यादव आत्मिक रूप में भी हिन्दी साहित्य के निकट, बहुत निकट रहेंगे। उन्होंने हिन्दी साहित्य में ‘स्त्री विमर्श’, ‘दलित विमर्ष’ को एक विचारधारा एवं लेखकीय विषय के रूप में स्थापित किया।

जहां तक स्त्री विमर्श का सवाल है तो इस पर जब कभी चर्चा उठी है तो वह गरमा-गर्म बहस पर जा कर थमी है। यह विषय ही ऐसा है जिस पर अकसर मतभेद होते रहते हैं। कोई इसे स्त्री-देह का विमर्श मानता है तो कोई स्त्री की स्वतंत्रता का। स्वयं स्त्रियां इसे क्या मानती हैं? इस पर भी छिटपुट मतभेद देखने को मिल जाते हैं किन्तु बहुप्रतिशत लोग यही मानते हैं कि यह विमर्श स्त्री की समुचित स्वतंत्राता का है। यदि स्त्री-देह की बात की जाए तो देह मनुष्य का बुनियादी अस्तित्व है और स्त्री इस बुनियाद से परे नहीं है। यदि प्रकृति ने स्त्री और पुरुष ही नहीं अपितु प्रत्येक प्राणी को देह दी है तो उस पर उसे अधिकार भी दिया है। प्रत्येक प्राणी अपनी देह का स्वयं स्वामी होता है। दुर्भाग्यवश स्त्री के साथ इसके विपरीत हुआ। प्रकृति के द्वारा नहीं, पुरुषप्रधान समाज के द्वारा। स्त्री की सोच को उस सांचे में ढाला गया जिसमें उसे अपनी देह के बारे में सोचने का अधिकार भी धीरे-धीरे कम होता गया। स्त्री को कितने कपड़े पहनने चाहिए? किस प्रकार के कपड़े पहनने चाहिए? उसे कितना पढ़ना-लिखना चाहिए? समाज-परिवार के मसलों में कितना हस्तक्षेप करना चाहिए? आदि-आदि तय किया पुरुषों ने और दुर्भाग्य यह कि स्त्रियों ने इसे स्वीकार भी कर लिया। कम से कम भारतीय स्त्रियों के संदर्भ में तो यह कहा ही जा सकता है कि आज भी साठ से सत्तर प्रतिशत स्त्रियां वही सोचती हैं और करती हैं जो पुरुष प्रधान समाज निर्देशित है। फिर भी स्त्री-विमर्श के संदर्भ में एक सुखद तथ्य यह भी है कि हिन्दी साहित्य में स्त्री-विमर्श को एक वैचारिक आन्दोलन के रूप में एक पुरुष ने स्थापित किया और उसमें स्त्रियों की सहभागिता को हरसंभव तरीके से बढ़ाया। यह नाम है राजेन्द्र यादव का। यह सच है कि स्त्रीविमर्श के अपने वैचारिक आन्दोलन के कारण उन्हें समय-समय पर अनेक कटाक्ष सहने पड़े हैं तथा लेखिकाओं के लेखन को ‘बिगाड़ने’ का आरोप भी उन पर लगाया जाता रहा है किन्तु सभी तरह के कटाक्षों और आरोपों से परे राजेन्द्र यादव ने साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ के पटल पर लेखिकाओं को अपने विचारों को खुल कर सामने रखने का भरपूर अवसर दिया। राजेन्द्र यादव अपने सामाजिक सरोकार रखने वाले साहित्यक विचारों और उद्देश्य को ले कर सदा स्पष्ट रखे। उन्होंने कभी गोलमोल या बनावटी बातों का सहारा नहीं लिया। यूं भी अपनी स्पष्टवादिता के लिए वे विख्यात रहे हैं।
Rajendra Yadav

राजेन्द्र यादव ने स्त्री स्वातंत्र्य की पैरवी की तो उसे अपने जीवन में भी जिया। एक बार जयंती रंगनाथन को साक्षात्कार देते हुए उन्होंने स्त्री विमर्श पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि ‘‘मैंने हमेशा स्पष्ट कहा है कि स्त्री विमर्श पर बात करनी है तो मंा, बेटी और बहन इन तीन संबंधों पर पर बात नहीं करूंगां घर के अंदर भी स्त्री को जितनी आजादी चाहिए, बहन-बेटी को जो फ्रीडम चाहिए, एजुकेशन चाहिए, मैंने दी है। बेटी को जि़न्दगी में एक बार थप्पड़ मारा, आज तक उसका अफसोस है। बाद में जि़न्दगी के सारे निर्णय उसने खुद ही लिए, यह फ्रीडम तो देनी ही पड़ेगी।’’ वे स्त्री-लेखन और पुरुष लेखन के बुनियादी अन्तर को हमेशा रेखांकित करते रहे हैं। उनके अनुसार ‘‘जो पुरुष मानसिकता से लिखा गया है और जो स्त्री की मानसिकता से लिखा गया है, बेसिक अंतर है। दो अलग एप्रोच हैं। उस चीज को तो हमें मानना होगा।’’
From left : Dr Varsha  Singh, Rajendra Yadav and Dr Sharad Singh at Sagar MP


निःसंदेह, यह एक ऐसा तथ्य है जिसको नकारा नहीं जा सकता है कि हिन्दी साहित्य में लेखिकाओं को यदि किसी ने सही अर्थ में मुखरता प्रदान की तो वह हैं राजेन्द्र यादव। यह हिन्दी साहित्य जगत में सतत् परिवर्तन की प्रक्रिया थी जो कभी न कभी, कहीं से तो शुरू होनी ही थी। इस यात्रा का प्रस्थान बिन्दु बना राजेन्द्र यादव का का वह साहस जो उन्हें यश-अपयश के बीच अडिग बनाए रखा। लेखिकाओं के नामों की लम्बी सूची है जिन्हें राजेन्द्र यादव ने अपने संपादन में स्त्री के सच को उजागर करने दिया। जब समाज में पुरुष का वर्चस्व हो तो वही तो सबसे पहले रास्ता देगा आगे बढ़ने वालों के लिए। यही किया राजेन्द्र यादव ने।
From left : Dr Sharad Singh, Rajendra Yadav and Dr Dinesh Kushwah at Sagar MP


राजेन्द्र जी में एक खूबी यह भी थी कि वे हवा के विपरीत रुख को भी अपने पक्ष में करने का हुनर रखते थे। चित्रकार प्रभु जोषी ने अपने संस्मरण में लिखा था कि राजेन्द्र जी ने उनसे ‘हंस’ के लिए ‘न्यूड’ चित्र बनाए। वे चित्र ‘हंस’ में छपे। अच्छा खासा बवाल मचा। राजेन्द्र जी ने प्रभु जोषी को पत्र लिखा कि ‘‘ तुम मुझे जूते पड़वा के एकांतवास में लौट गए हो। राक्षस कहीं के! जल्दी से ‘कला में न्यूड्स’ पर एक टिप्पणी भेजो।’’ इसके उत्तर में प्रभु जोषी ने लिखा कि ‘‘एक कृति के लिए सही जगह कलादीर्घा है। वहां वही आता है जिसकी कला में रूचि हो। आपने ‘हंस’ पर न्यूड को सवार करके जगत-दर्षन में बदला तो अब आप भुगतो।’’
राजेन्द्र यादव ‘भुगतने की कला’ जानते थे। उन्होंने ‘हंस’ में ‘कला में शील-अष्लील पर एक धमाकेदार संपादकीय लिखा और तमाम विरोधी बहस को अपने पक्ष में कर लिया। अपनी इसी खूबी के चलते राजेन्द्र जी हिन्दी साहित्य जगत में अपनी पकड़ बनाए रखी। विवाद और राजेन्द्र यादव का साथ तो चोली-दामन का साथ था। वे विवादों में रस लेते थे और विवाद उनमें। जहां विवाद होते हैं वहीं तर्क-वितर्क होते हैं और जहां तर्क-वितर्क होते हैं वहीं वैचारिक उर्वरता बनी रहती है। राजेन्द्र जी से जुड़े विवाद सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य जगत में उर्वरक का काम करते थे। भले ही उस उर्वरक ने खर-पतवार को भी पोसा लेकिन नए विचारों का जो संचरण किया वह हमेषा मायने रखेगा।
Dr Sharad Singh and Rajendra Yadav at Delhi,2013

ये चुनाव वर्ष है। राजेन्द्र यादव की दृष्टि ने चुनाव के परिदृश्य का आकलन करना अभी शुरू ही किया था कि नियति ने उनकी अंाखें बंद कर दीं। स्त्रियों की जिस स्वतंत्रता का सपना उन्होंने देखा वह 2013 के इस चुनावों में आकार ले सकेगा या नहीं यह तो चुनाव परिणाम ही बताएगा। शायद, स्वर्ग नहीं, नरक नहीं, किन्तु साहित्य जगत के बहुत करीब खड़े रह कर राजेन्द्र जी देख रहे होंगे कि स्त्रियां राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक स्तर पर अपने अधिकारों को हासिल कर पा रही हैं या नहीं।
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3 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 5-12-2013 को चर्चा मंच पर दिया गया है
    कृपया पधारें
    धन्यवाद

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    1. हार्दिक आभार दिलबाग विर्क जी.....

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  2. राजेंद्र जी का काल चिंतन उनकी पहचान बन गया...

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