Wednesday, May 14, 2014

बहुजन साहित्य की संकल्पना अधिक हितकर ...


'फारवर्ड प्रेस' पत्रिका के 'बहुजन साहित्यिक वार्षिकी' (May 2014)में बहुजन साहित्य की अवधारणा पर एक अत्यंत महत्वपूर्ण परिचर्चा आयोजित की गई जिसमें पंकज बिष्ट, मंगलेश डबराल, सुरेन्र्द स्निग्ध, जयप्रकाश कर्दम, विजय बहादुर सिंह, प्रेमपाल शर्मा, मूलचंद सोनकर, डॉ.रामचंद्र, कृष्णा अग्निहोत्री, रामधारी सिंह दिवाकर, अनिता भारती, राणा प्रताप, गिरिजेश्वर प्रसाद, पुंज प्रकाश सहित मेरे विचार भी शामिल हैं। यूं तो ये पूरा विशेषांक पठनीय है पर मैं बहुजन साहित्य पर प्रकाशित अपने विचार यहां शेयर कर रही हूं-
Dr Sharad Singh's view on Bahujan literature published in spacial issue of  'Forward Press' Magazine, May 2014 

1 comment:

  1. रचनाधर्मिता का जाति-मज़हब नहीं होता...ये स्वतः पुष्पित-पल्लवित होती है...

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