Monday, June 29, 2015

लेखिकाओं के जोखिम : संदर्भ स्त्री विमर्श (भाग दो) - डॉ. शरद सिंह

Dr Sharad Singh


जब कोई कवयित्री काव्य पाठ करने के लिए मंच पर खड़ी होती है तो प्रत्येक श्रोता की यही धारणा होती है कि यह स्त्री है इसलिए यह कविता तरन्नुम में ही पढ़ेगी। गोया स्त्री के लिए गाना अनिवार्य हो। इसी प्रकार की पूर्वाग्रही धारणाएं स्त्री-लेखन की सीमाएं तय करने लगती हैं। ये सीमाएं हैं ....

1. लेखिकाओं को मुख्य रूप से स्त्रियों के बारे में ही लिखना चाहिए। गोया लेखिकाएं पुरुषों के बारे में समुचित ढंग से नहीं लिख सकती हों। जबकि पुरुषों के बारे में लेखिकाएं क्या सोचतीं हैं, यह स्त्री-लेखन का अत्यंत महत्वपूर्ण पक्ष होता

2. स्त्री-लेखन को प्रिय: शील और अश्लील की अग्नि-परीक्षा से गुज़रना पड़ता है। "उफ उसने इतना खुल कर कैसे लिख दिया?" भले ही लेखिका आत्मकथा लिख रही हो। स्त्री के प्रति पूर्वाग्रह भरा दृष्टिकोण यहां भी आड़े आने लगता है।

3. जहां तक पूर्वाग्रह का सवाल है, कई बार कुछ लेखिकाओं की कुंठा अथवा पारिवारिक दबाव भी अपनी सहधर्मी लेखिकाओं के लेखन पर अनावश्यक उंगली उठा कर उन्हें हतोत्साहित करने लगता है।

.....इस विषय पर शेष चिंतन अगली कड़ी में।



Tuesday, June 16, 2015

लेखिकाओं के जोखिम : संदर्भ स्त्री विमर्श - डॉ. शरद सिंह

Dr Sharad Singh

         




हिन्दी साहित्य में स्त्री विमर्श की धारणा बहुत पुरानी नहीं है। यह समाज में स्त्रियों की जागरूकता एवं उनकी   अपने    अधिकारों के  प्रति सजगता के साथ विकसित हुई है। 21 वीं  सदी  के  आरम्भ  तक लेखिकाओं के सृजन की महत्ता को साहित्य जगत ने एक स्वर से स्वीकार कर लिया। विडम्बना यह कि इसके बावजूद लेखिकाओं को उस संकीर्ण मानसिकता का सामना करना पड़ता है जो उसके लेखन मार्ग में जोखिम बन कर प्रस्तुत होती रहती है। यहां मात्र बिन्दुवार चर्चा कर रही हूं -

          1. लेखिका जब किसी अन्य स्त्री की पीड़ा का वर्णन करती है तो उसे उसकी अपनी पीड़ा मान लिया जाता है और उसी के आधार पर लेखिका के प्रति दृष्टिकोण रच लिया जाता है।


         2. यदि लेखिका की नायिका ‘बोल्ड’ है तो अधिकांश पाठक यही मान कर चलते हैं कि लेखिका की जीवनचर्या भी ‘बोल्ड’ होगी। वे उससे मिलने का अवसर पाने पर उससे उसकी नायिका जैसी ‘बोल्डनेस’ की आशा रखते हैं।


        3. जहां तक ‘बोल्ड’ का मामला है तो यदि कथानक स्त्रीजीवन  की   गहराइयों   को  उजागर  कर  के  उसकी समस्याओं को सामने रखने वाला है तो उसे आंखमूंद कर ‘बोल्ड’ का तमगा पहना दिया जाता है। यानी कथानक की गहराई में उतरने का  कष्ट करने से  पहले ही  धारणा का निर्माण। 


       फिलहाल ये तीन जोखिम विचार-विमर्श के पटल पर रख रही हूं शेष अगली कड़ी में।




Tuesday, June 2, 2015

कबीर और सहजसमाधि परम्परा .....


संत कबीर जयंती पर....




रायपुर, छत्तीसगढ़ से प्रकाशित नारी का संबल पत्रिका में प्रकाशित मेरा लेख....