Wednesday, March 23, 2016

विवादों के रंग और सद्कार्यों की उमंग

An article of Dr (Miss) Sharad Singh
 

"दैनिक सागर दिनकर" में  23. 03. 2016 को प्रकाशित मेरे लेख






विवादों के रंग और सद्कार्यों की उमंग 

- डॉ. शरद सिंह 
    
देश के राजनीतिक पटल पर पिछले कई माह से लाल, पीले, काले, हरे, केसरिया रंग उड़ते दिखाई दे रहे हैं। ये रंग विवादों के हैं। उन विवादों के जिनकी जड़ें देश की आजादी के पहले से मजबूत थी और आज भी ये विवाद हरियाए हुए हैं। विवादों की सतत श्रृंखला देख-देख कर तो यही लगता है कि कुछ समय बाद षायद यह कहा जाने लगे कि हम विवादप्रिय हैं। विवादों का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। विवादों के रंग उड़-उड़ कर एक-दूसरे के चेहरे रंगे जा रहे हैं और रंग उड़ाने वाले ताल ठोंक कर अपनी-अपनी प्रसन्नता का प्रदर्शन कर रहे हैं। एक विवाद समाप्त हो नहीं पाता है कि दूसरा सामने खड़ा मिलता है। वैसे जहां विचारों को प्रकट करने की स्वतंत्रता होगी, वहां विवाद तो उपजेंगे ही। बेशक लोकतंत्र में विवादों की पर्याप्त जगह रहती है। इसे लोकतंत्र की स्वस्थ परंपरा का प्लस-प्वांइट कहा जा सकता है। लेकिन विवाद भी तो प्लस तरीके से होना चाहिए। सिर्फ़ हाय-हाय करने से, देश को मिटाने के नारे लगाने से विवाद का वास्तविक स्वरूप उभर कर नहीं आ पाता है।
जेएनयू के प्रांगण में जिस विवाद का रंग खेला गया वह दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा। कुतर्कों की पिचकारी से इतिहास के रंगों को बदला नहीं जा सकता है। कश्मीर भारतीय राजनीति की दुखती रग है। रियासतों के विलय के समय यदि कश्मीर की समस्या को लौहपुरुष वल्लभ भाई पटेल को नहीं सौंपा गया तो उसका खामियाजा आज तक भुगतना पड़ रहा है। 30 अगस्त 1968 को लोकसभा में धारा 370 पर बोलते हुए भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि ‘‘जम्मू-कश्मीर और शेष भारत के बीच में आज एक मनोवैज्ञानिक दीवार खड़ी है। यह दीवार जम्मू-कश्मीर में अस्थिरता की स्थिति उत्पन्न करती है। यह दीवार भारत विरोधी तत्वों को बल प्रदान करती हैै। यह दीवार एकीकरण के मार्ग में बाधा है। समय आ गया है कि अब यह मनोवैज्ञानिक रुकावट दूर कर दी जाए और जम्मू-कश्मीर अन्य राज्यों की तरह भारतीय गणराज्य में आदर और बराबरी का स्थान प्राप्त करे। ....जिन परिस्थतियों में विशेष दर्जा दिए जाने की बात कही गई थी, वे परिस्थितियां आज नहीं हैं।’’
कश्मीर की समस्या पर अब तक इतना लहू बह चुका है कि अब लहू के इस लाल रंग का शांतिपूर्ण ढंग से निपटारा किया जाना जरूरी हो गया है। जेएनयू प्रकरण ने इस समस्या की गंभीरता को एक नए ढंग से रेखांकित कर दिया। एक बार फिर कुछ युवा दूषित राजनीति के जाल में फंसे हुए दिखाई पड़े । इन युवाओं ने यदि जल समस्या, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार या बढ़ते अपराधों को मुद्दा बनाया होता या फिर राजनीति के काले पक्ष को उजागर करने का साहस किया होता तो उनका अभियान सार्थक सिद्ध होता। उन्हें जनसमर्थन भी मिलता लेकिन देश को कोसने में उनका साथ भला कौन देगा? किसने किसके कंधे पर बंदूक रखी और किसके सीने को निषाने पर रखा, यह विचारणीय है।
जेएनयू में देश विरोधी नारे लगने और इस पर हो रही सियासत पर बॉलीवुड की दिग्गज हस्तियों का भी चिंतित हो उठना स्वाभाविक था। अंकुश’, ‘तेजाबऔर प्रतिघातजैसी फिल्में बना चुके चर्चित डायरेक्टर एन चंद्रा ने जहां जेएनयू और कथित असहिष्णुता के मुद्दे पर फिल्म बनाने की बात कही, वहीं प्रयाग फिल्म फेस्टिवल के उद्घाटन समारोह में उन्होंने अपनी यह इच्छा प्रकट की थी। लेकिन ऐसे संवेदनशील विषयों पर फिल्म बनाते समय इस बात का ध्यान उन्हें रखना होगा कि कहीं कोई गलत तत्व महिमामंडित न हो जाए।
जेएनयू विवाद थमा नहीं था कि संसद का सत्र आरम्भ हो गया। अब संसद को तो बरसाना बनना ही था। जी हां, लट्ठमार होली वाला बरसाना। ब्रज के बरसाना गांव में होली एक अलग तरह से खेली जाती है जिसे लठमार होली कहते हैं। ब्रज में वैसे भी होली खास मस्ती भरी होती है क्योंकि इसे कृष्ण और राधा के प्रेम से जोड़ कर देखा जाता है। यहाँ की होली में मुख्यतः नंदगांव के पुरूष और बरसाने की महिलाएं भाग लेती हैं, क्योंकि कृष्ण नंदगांव के थे और राधा बरसाने की थीं। नंदगांव की टोलियां जब पिचकारियां लिए बरसाना पहुंचती हैं तो उनपर बरसाने की महिलाएं खूब लाठियां बरसाती हैं। पुरुषों को इन लाठियों से बचना होता है और साथ ही महिलाओं को रंगों से भिगोना होता है। नंदगांव और बरसाने के लोगों का विश्वास है कि होली की लाठियों से किसी को चोट नहीं लगती है। अगर चोट लगती भी है तो लोग घाव पर मिट्टी मलकर फिर शुरु हो जाते हैं। इस दौरान भांग और ठंडाई का भी जमकर सेवन किया जाता है। राजनीति में शक्तिसम्पन्नता का नषा भांग या ठंडाई से कम नहीं होता है। संसद भवन में राजनीतिक शक्ति से परिपूर्ण लोग ही विराजते हैं, बेषक उन्हें यह शक्ति जनता ने ही दी होती है। लेकिन सदन का बहिष्कार, नारेबाजी, झूमाझटकी संसद में भी चलती रहती है। इस बार संसद में दो महिलाओं के बीच लट्ठमार होली की नौबत आते-आते बची। जरा याद कीजिए कि किस प्रकार स्मृति ईरानी ने उनके उत्तर पर विरोधियों के संतुष्ट न होने पर अपना सिर काट कर विरोधियों के चरणों में रख देने की हुंकार भरी तो विरोध में अपना स्वर मुखर करती हुई मायावती ने कहा कि वे स्मृति ईरानी के उत्तर से संतुष्ट नहीं हैं अतः स्मृति को अपना वचन पूरा करना चाहिए। स्मृति ईरानी ने भी ललकारा कि वे यानी मायावती चाहें तो उनका सिर काट सकती हैं। इस दृष्य के बाद तो संसद को भारतीय राजनीति का बरसाना कहने का दिल करता है।
राजनीति अथवा राजनीतिज्ञ हमेशा गड़बड़ ही करते हों यह जरूरी नहीं है। अनेक अच्छे काम भी इन्हीं के सौजन्य से होते हैं। वह कहावत है न कि यदि इरादे नेक हों तो काम भी नेक होते हैं। नेकी का एक काम सुरखी विधान सभा की विधायक पारुल साहू ने किया। यूं तो वे अच्छे काम करती ही रहती हैं लेकिन यह काम ठीक वैसा ही है जैसे किसी ने माथे पर तिलक लगा कर प्यार से होली की शुभकामनाएं दी हों। वे उस बच्ची को देखने बुंदेलखण्ड मेडिकल कॉलेज पहुंचीं जहां वह बच्ची सरिता इलाज के लिए भर्ती है जिसे उसके पिता ने जान से मारने का प्रयास किया था। उसकी मां पारिवारिक कलह के चलते पहले ही मौत को गले लगा चुकी है और उसकी दो बहनों की मौत घटना स्थल पर हो गई थी। सरिता बच गयी थी। उसका इलाज मेडिकल कालेज में चल रहा है। सुरखी विधायक पारुल साहू रविवार को सरिता को देखने बुन्देलखंड मेडिकल कॉलेज गईं। सरिता जैसीनगर क्षेत्र के बदौआ गांव की है। जो 16 मार्च 2016 को पिता चन्द्रभान गौड़ द्वारा कैंचा से किए गए हमले में घायल हुई थी, इसी हमले में उसकी दो बहनों की मौत घटना स्थल पर हो गई थी। रविवार को विधायक जिस समय सरिता के पलंग के पास पहुंचीं, उस दौरान सरिता बेसुध पड़ी थी। उसके घुटने का घाव खुला था। विधायक ने पाया कि ड्यूटी वाली नर्स मोबाईल पर गाने सुन रही थी और ड्यूटी वाला डॉक्टर अस्पताल के बाहर किसी मेडिकल स्टोर में बैठा था। विधायक के पहल करने पर उस जख्मी बच्ची के खुले घाव की ड्रेसिंग हो सकी। इसके पहले गोया इलाज का केवल दिखावा किया जा रहा था। विधायक के पहुंचने के बाद लगभग चैबीस घंटे के भीतर लगभग साढ़े तीन हजार की दवा मेडिकल स्टोर से खरीदी गईं। विधायक ने स्पष्ट शब्दों में डॉक्टर से कहा ‘‘बच्ची की जान बचाना है। इलाज में किसी भी तरह की कोताही न हो। पैसों की बात हो या दवाई की। मुझे बताएं, मैं व्यवस्था करूंगी।’’
इस अच्छे काम की मिठास ने एक बार फिर भरोसा दिलाया कि यदि जनसेवक अपने कर्तव्यों के प्रति सजग रहें तो जनता की आशाओं में खरे उतर सकते हैं।
मिठास की दिशा में विश्व सूफी सम्मेलन को भी याद किया जाना जरूरी है। सूफी सम्मेलन में पाकिस्तान समेत 20 देशों के 200 से भी अधिक मशहूर सूफी विद्वानों ने समारोह में भाग लिया।  कार्यक्रम से पहले अखिल भारतीय उलेमा और एआईयूएमबी के संस्थापक अध्यक्ष सैयद मोहम्मद अशरफ ने कहा था  कि समारोह का उद्देश्य दुनियाभर में हिंसक उग्रवाद से लड़ने के लिए इस्लाम के शांति और सहिष्णुता के संदेश को फैलाना है। तमाम विवादों को परे रख कर सूफी सम्मेलन में मुक्त कंठ से ‘‘भारत माता की जय’’ के नारे लगाए गए। विश्व सूफी सम्मेलन के आखिरी दिन जारी घोषणापत्र में आतंकवाद को इंसानियत और इस्लाम का दुश्मन घोषित किया गया। पाकिस्तान से आए सूफी धर्मगुरू ताहिर उल कादरी ने इस मौके पर भारत-पाकिस्तान से साथ मिलकर आतंकवाद से लड़ने की अपील की। पाकिस्तान के जाने-माने धर्मगुरू और सूफी विद्वान ताहिर उल कादरी की ये अपील दिल्ली में चल रहे विश्व सूफी सम्मेलन के आखिरी दिन गूंजी। ताहिर उल कादरी ने आतंकवाद को पूरी इंसानियत का दुश्मन बताते हुए इसके खात्मे की अपील की। विश्व सूफी सम्मेलन में दुनिया भर से डेढ़ सौ से ज्यादा विद्वान जुटे थे। सम्मेलन के आखिरी दिन विश्व सूफी फोरम ने अपना घोषणापत्र जारी किया। इसमें कहा गया, “हम तालिबान, अल कायदा जैसे आतंकवादी संगठनों की उस विचारधारा की निंदा करते हैं, जो इंसानियत के खिलाफ है और दुनिया भर में तबाही फैला रही है। हमारी मुस्लिम नौजवानों से पुरजोर अपील है कि वो शांति और इस्लाम के दुश्मन ऐसे आतंकी संगठनों से खुद को दूर रखें और कट्टरपंथी सोच से बचें।
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