Wednesday, August 3, 2016

चर्चा प्लस ... इरोम के संघर्ष का दूसरा अध्याय ..... डाॅ. शरद सिंह


Dr Sharad Singh
मेरा कॉलम  "चर्चा प्लस" "दैनिक सागर दिनकर" में (03. 08. 2016) .....

My Column Charcha Plus‬ in "Dainik Sagar Dinkar" .....

जब कोई औरत कुछ कर गुज़रने की ठान लेती है तो उसके इरादे किसी चट्टान की भांति अडिग और मजबूत सिद्ध होते हैं। इरोम जैसी सोलह साल लम्बी भूख हड़ताल का कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता। वे अपना जीवन दांव पर लगा कर निरन्तर संघर्ष करती रही हैं। और अब वे राजनीति में सक्रिय हो कर अफस्पा कानून का विरोध करने जा रही हैं। इरोम के संघर्ष और उनके जीवन के दूसरे अध्याय का भी स्वागत किया जाना चाहिए।

अपना 16 साल पुराना अनशन अगले माह समाप्त करने की घोषणा कर लोगों को चैंका देने वाली मणिपुर की ‘लौह महिला’ इरोम चानू शर्मिला ने कहा कि अपने आंदोलन के प्रति आम लोगों की बेरूखी ने उन्हें यह फैसला करने के लिए बाध्य कर दिया। इरोम ने मीडिया से कहा कि वह सशस्त्र बल विशेष शक्ति अधिनियम (आफ्सपा) हटाने की उनकी अपील पर सरकार की तरफ से कोई ध्यान नहीं देने और आम नागरिकों की बेरूखी से मायूस हुई हैं जिन्होंने उनके संघर्ष को ज्यादा समर्थन नहीं दिया। उन्होंने राज्य में इनर लाइन परमिट सिस्टम के क्रियान्वयन के लिए चले आंदोलन में स्कूली छात्रों के इस्तेमाल की आलोचना की। इरोम सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (आफ्सपा) को हटाने की मांग को लेकर 16 साल से अनशन कर रहीं मणिपुर की ‘आयरन लेडी’ इरोम चानू शर्मिला ने घोषणा की कि वह नौ अगस्त 2016 को अपना अनशन समाप्त कर देंगी और निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में राज्य विधानसभा का चुनाव लड़ेंगी।
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper

कौन हैं इरोम चानू शर्मिला

इरोम चानू शर्मिला का जन्म 14 मार्च 1972 को इम्फाल के पास एक गांव में हुआ । इरोम शर्मिला 5 भाई और 3 बहनों में सबसे छोटी हैं। एक साधारण परिवार की इरोम की माता घरेलू महिला और पिता सरकारी पशु चिकित्सा विभाग में नौकरी रहे हैं। सितंबर 2000 में इरोम ह्यूमन राइट्स अलर्ट नामक संस्था से जुड़ी और उसके साथ ही आर्म्ड़ फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट के प्रभावों की छानबीन करने के लिए गठित पीपुल्स इंक्वायरी कमीशन के साथ भी इरोम ने काम किया। इरोम शर्मीला ने मात्र 28 वर्ष की आयु में अपनी भूख हड़ताल आरम्भ की थी। उस समय कुछ लोगों को लगा था कि यह एक युवा स्त्री द्वारा भावुकता में उठाया गया कदम है और शीघ्र ही वह अपना हठ छोड़ कर सामान्य ज़िन्दगी में लौट जाएगी। वह भूल जाएगी कि मणिपुर में सेना के कुछ लोगों द्वारा स्त्रियों को किस प्रकार अपमानित किया गया। किन्तु 28 वर्षीया इरोम शर्मीला ने न तो अपना संघर्ष छोड़ा और न आम ज़िन्दगी का रास्ता चुना। वे न्याय की मांग को लेकर संघर्ष के रास्ते पर जो एक बार चलीं तो उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। यह स्त्री का वह जुझारूपन है जो उसकी कोमलता के भीतर मौजूद ऊर्जस्विता से परिचित कराता है।

इरोम ने क्यों चुना यह रास्ता

शर्मीला ने यह रास्ता क्यों चुना इसे जानने के लिए सन् 2000 के पन्ने पलटने होंगे। सन् 2000 के 02 नवम्बर को मणिपुर की राजधानी इम्फाल के समीप मलोम में शान्ति रैली के आयोजन के सिलसिले में इरोम शर्मीला एक बैठक कर रही थीं। उसी समय मलोम बस स्टैण्ड पर सैनिक बलों द्वारा अंधाधुंध गोलियां चलाई गईं। जिसमें करीब दस लोग मारे गए। इन मारे गए लोगों में 62 वर्षीया लेसंगबम इबेतोमी तथा बहादुरी के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित सिनम चन्द्रमणि भी शामिल थीं। एक ऐसी महिला जिसे बहादुरी के लिए सम्मानित किया गया और एक ऐसी स्त्री जो ‘सीनियर सिटिजन’ की आयु सीमा में आ चुकी थी, इन दोनों महिलाओं पर गोलियां बरसाने वालों को तनिक भी हिचक नहीं हुई? इस नृशंसता ने शर्मीला के अंतर्मन को हिला दिया। इससे पहले भी अनेक ऐसी घटनाएं हो चुकी थीं जिसमें सुरक्षाबल के सैनिकों द्वारा निरपराध और निहत्थे नागरिकों पर गोलियां चलाई गई थीं। शर्मीला ने इस घटना की तह में पहुंच कर मनन किया और पाया कि यह सेना को मिले ‘अफस्पा’ रूपी विशेषाधिकार का दुष्परिणाम है। इस कानून के अंतर्गत सेना को वह विशेषाधिकार प्राप्त है जिसके तहत वह सन्देह के आधार पर बिना वारण्ट कहीं भी घुसकर तलाशी ले सकती है, किसी को गिरफ्तार कर सकती है तथा लोगों के समूह पर गोली चला सकती है। 
इस घटना के बाद इरोम ने निश्चय किया कि वे इस दमनचक्र का विरोध कर के रहेंगी चाहे कोई उनका साथ दे अथवा न दे। इरोम शर्मीला ने भूख हड़ताल में बैठने की घोषणा की और मणिपुर में लागू कानून सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (अफस्पा) को हटाए जाने की मंाग रखी। इस एक सूत्रीय मांग को लेकर उन्होंने अपनी भूख हड़ताल आरम्भ कर दी। शर्मीला ने 03 नवम्बर 2000 की रात में आखिर बार अन्न ग्रहण किया और 04 नवम्बर 2000 की सुबह से उन्होंने भूख हड़ताल शुरू कर दी। इस भूख हड़ताल के तीसरे दिन सरकार के आदेश पर इरोम शर्मीला को गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर आत्महत्या करने का आरोप लगाते हुए धारा 309 के तहत कार्रवाई की गई और न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। उल्लेखनीय है कि धारा 309 के तहत इरोम शर्मीला को एक साल से ज्यादा समय तक न्यायिक हिरासत में नहीं रखा जा सकता था इसलिए एक साल पूरा होते ही कथिततौर पर उन्हें रिहा कर दिया गया। जवाहरलाल नेहरू अस्पताल का वह वार्ड जहां उन्हें रखा गया है, उसे जेल का रूप दे दिया गया। वहीं उनकी नाक से जबरन तरल पदार्थ दिया जाता रहा।

क्या है ‘अफस्पा’ कानून

अफस्पा कानून एक तरह से आपातकालीन स्थिति लागू करने जैसा ही है। इस कानून के मुख्य बिन्दु हैं - 1-केन्द्र और राज्य सरकार किसी क्षेत्र को गड़बड़ी वाला क्षेत्र घोषित करती है यानी डिस्टब्र्ड एरिया घोषित होने के बाद अफस्पा लगाया जा सकता है। 2-सेना को बिना वारंट तलाशी, गिरफ्तारी तथा जरूरत पड़ने पर शक्ति का इस्तेमाल करने की इजाजत है। इतना ही नहीं, सेना संदिग्ध व्यक्ति को गोली से उड़ा भी सकती है। 3-सेना गिरफ्तार व्यक्ति को जल्दी से जल्दी स्थानीय पुलिस को सौंपने को बाध्य है। लेकिन जल्द से जल्द की कोई व्याख्या नहीं की गई है और न ही कोई समय सीमा तय है। इसकी आड़ में सेना असीमित समय तक किसी भी व्यक्ति को अपने कब्जे में रख सकती है। 4-इस कानून के दायरे में काम करने वाले सैनिकों के खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती है। मानवाधिकार उल्लंघन या कानून की आड़ में ज्यादती किए जाने का आरोपी सैनिक पर, केन्द्र की अनुमति से ही मुकदमा चलाया जा सकता है या सजा दी जा सकती है।
इस प्रकार यह कानूनी सुरक्षा के नाम संविधान द्वारा प्रदत्त नागरिक मौलिक अधिकारों का पूर्णतः हनन है । इसके चलते कई बार मानव अधिकार कमीशन के दबाव में इस कानून को लेकर मंथन हुआ जिसके तहत प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2004 में इस कानून में सुधार की संभावना तलाशने के लिए जस्टिस बी.पी.जीवन रेड्डी कमेटी गठित की लेकिन नतीजा कुछ निकला कर नहीं आया और आज भी यह कानून यथावत है । 
‘अफस्पा’ शासन के 53 वर्षों में 2004 का वर्ष मणिपुर की महिलाओं द्वारा किए गए एक और संघर्ष के लिए चर्चित रहा। असम राइफल्स के जवानों द्वारा थंगजम मनोरमा के साथ किये बलात्कार और हत्या के विरोध में मणिपुर की महिलाओं ने कांगला फोर्ट के सामने नग्न होकर प्रदर्शन किया। उन्होंने जो बैनर ले रखा था, उसमें लिखा था ‘भारतीय सेना आओ, हमारा बलात्कार करो’। इस प्रदर्शन पर बहुत हंगामा हुआ। मीडिया ने इसे भरपूर समर्थन दिया तथा दुनिया के सभी देशों का ध्यान मणिपुर की स्थिति की ओर आकर्षित हुआ।

अचानक लिया निर्णय नहीं है यह

सन् 2014 में अपने एक साक्षात्कार में इरोम ने कहा था कि ‘‘मैं अब शादी करना चाहती हूं। एक बार मेरा मकसद हासिल हो जाए, तो मैं डेसमंड के साथ पति-पत्नी के रिश्ते में रहना चाहती हूं। मैं वोट भी डालना चाहती हूं।’’ उल्लेखनीय है कि भारत में हिरासत में रखे गए लोगों को वोट डालने का अधिकार नहीं है। यद्यपि ऐसे उदाहरण भी हैं जब जे़ल में सज़्ा काट रहे लोगों ने चुनाव लड़े और चुनाव जीता भी है।
अब अपने अनशन के सोलहवें वर्ष में इरोम ने अदालत में कहा कि ‘‘किसी भी राजनीतिक दल ने मेरे लोगों की आफ्सपा हटाने की मांग को नहीं उठाया। इसीलिए मैंने ये विरोध खत्म करने और 2017 के असेंबली चुनावों की तैयारी करने का फैसला किया है। मैं 9 अगस्त 2016 को अदालत में अपनी अगली पेशी के समय भूख हड़ताल खत्म कर दूंगी।’’ इरोम के इस निर्णय से उनके कुछ समर्थकों को निराशा हुई। लेकिन प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवन के लिए अपने ढंग से निर्णय लेने का अधिकार होता है, इरोम को भी है। अतः उनके इस निर्णय का सभी को स्वागत करना चाहिए। वे अपने उद्देश्य से नहीं हट रही हैं, वे सिर्फ रास्ता बदल रही हैं। यूं भी जब सोलह साल में देश की जनता उनके समर्थन में सरकार को राजी नहीं कर सकी तो उसे इरोम के इस निर्णय का समर्थन करना ही चाहिए। अब वे राजनीति में सक्रिय हो कर अफस्पा कानून का विरोध करने जा रही हैं। इरोम के संघर्ष और उनके जीवन के दूसरे अध्याय का भी स्वागत किया जाना चाहिए।

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1 comment:

  1. बहुत अच्छी विस्तृत जानकारी
    सार्थक प्रस्तुति।

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