Friday, September 30, 2016

चर्चा प्लस ... यदि हम हिन्दी का भला चाहते हैं .... डाॅ. शरद सिंह

मेरा कॉलम  "चर्चा प्लस"‬ "दैनिक सागर दिनकर" में (21. 09. 2016) .....
 
My Column Charcha Plus‬ in "Dainik Sagar Dinkar" .....
  
 
यदि हम हिन्दी का भला चाहते हैं ...
- डॉ. शरद सिंह
 
हिन्दी के मार्ग में कहीं न कहीं सबसे बड़ा रोड़ा इसकी रोजगार से बढ़ती दूरी की है। इस तथ्य से हम मुंह नहीं मोड़ सकते हैं कि हमारे युवाओं में यहां युवा का अर्थ एक पीढ़ी पहले के युवाओं से भी है, अंग्रेजी पढ़ कर अच्छे रोजगार के अवसर बढ़ जाते हैं जबकि हिन्दी माध्यम से की हुई पढ़ाई कथित ‘स्लम अपॉर्च्युनिटी’ देती है। इस बुनियादी बाधा को दूर करने के लिए हमें तय करना होगा कि हम पढ़ाई के लिए हिन्दी का कौन-सा स्वरूप रखें जिससे हिन्दी रोजगार पाने के लिए की जाने वाली पढ़ाई का शक्तिशाली माध्यम बन सके।

वर्ष 2016 का हिन्दी मास भी समाप्त हो गया लेकिन हिन्दी का कितना भला हुआ? मुझे याद आ रही है विगत वर्ष अर्थात् सन् 2015, जुलाई की 19 तारीख। मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति एवं हिन्दी भवन न्यास के तत्वावधान में भोपाल में पावस व्याख्यानमाला का आयोजन में मनोज श्रीवास्तव ने एक महत्वपूर्ण तथ्य रखा था कि हम बार-बार संयुक्त राष्ट्रसंघ स्वीकृत भाषासूची में हिन्दी को शामिल किए जाने की मांग करते हैं, किन्तु विश्व श्रम संगठन अथवा सार्क संगठन में भी हिन्दी के लिए स्थान क्यों नहीं मांगते हैं? उसी समय विश्वनाथ सचदेव ने इस ओर ध्यान दिलाया कि जहां हम हिन्दी के प्रति अगाध चिन्ता व्यक्त करते नहीं थकते हैं, वहीं अंग्रेजी माध्यम के शासकीय विद्यालय खोल रहे हैं, क्या यह हमारा अपनी भाषा के प्रति दोहरापन नहीं है?
यह अत्यंत व्यावहारिक पक्ष है कि हम अपने दैनिक बोलचाल में खड़ी बोली का प्रयोग करते हैं जो आसानी से सबकी समझ में आ जाती है। यहां तक कि अहिन्दी भाषी भी इसे समझ लेते हैं किन्तु जब हिन्दी के विद्वान तकनीकी अथवा वैज्ञानिक शब्दावली के लिए जिन हिन्दी शब्दों का चयन करते हैं, वे प्रायः संस्कृतनिष्ठ होते हैं। जैसे- ‘चार पैरों वाले’ के स्थान पर ‘चतुष्पादीय’। जब किसी को पांव में ठोकर लगती है तो उससे हम यह नहीं पूछते कि ‘तुम्हारे पद में आघात तो नहीं लगा?’ हम यही पूछते हैं कि ‘तुम्हारे पैर में चोट तो नहीं लगी?’ जिस शब्दावली से विद्यार्थी परिचित होता है, उससे इतर हम उसके सामने इतनी कठिन शब्दावली परोस देते हैं कि वह तुलनात्मक रूप से अंग्रेजी को सरल मान कर उसकी ओर आकर्षित होने लगता है। संदर्भवश एक बात और (व्यक्तिगत राग-द्वेष से परे यह बात कह रही हूं) कि जो संस्कृतनिष्ठ हिन्दी शब्दावली की पैरवी करते हैं वे ही महानुभाव अपने बेटे-बेटियों को ही नहीं वरन् पोते-पोतियों को अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा दिलाने की होड़ में जुटे हुए भारी ‘डोनेशन’ देते दिखाई पड़ते हैं और गर्व से कहते मिलते हैं। कोई विद्यार्थी किस भाषाई माध्यम को शिक्षा के लिए चुनता है (अथवा उसे चुनने के लिए प्रेरित किया जाता है) यह मसला उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना कि भाषा को ले कर हमारे दोहरे चरित्र का मसला है। हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्ज़ा दिलवाने तथा विश्वस्तर पर हिन्दी को प्रतिष्ठित कराने की लड़ाई आज आरम्भ नहीं हुई है, यह तो पिछली सदी के पूर्वार्द्ध से छिड़ी हुई है।
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हिन्दी के पक्ष में संघर्ष

पं. मदन मोहन मालवीय ने हिन्दी को प्रतिष्ठा दिलाने के लिए सतत् प्रयास किया। न्यायालय में हिन्दी को स्थापित कराया। महामना पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने हिंदी भाषा के उत्थान एवं उसे राष्ट्र भाषा का दर्जा दिलाने के लिए इस आन्दोलन को एक राष्ट्र व्यापी आन्दोलन का स्वरुप दे दिया और हिंदी भाषा के विकास के लिए धन और लोगो को जोड़ना आरम्भ किया। आखिरकार 20 अगस्त सन् 1896 में राजस्व परिषद् ने एक प्रस्ताव में सम्मन आदि की भाषा में हिंदी को तो मान लिया पर इसे व्यवस्था के रूप में क्रियान्वित नहीं किया। लेकिन 15 अगस्त सन् 1900 को शासन ने हिंदी भाषा को उर्दू के साथ अतिरिक्त भाषा के रूप में प्रयोग में लाने पर मुहर लगा दी।
बीसवीं सदी में थियोसोफिकल सोसाइटी की एनी बेसेंट ने कहा था, ‘भारत के सभी स्कूलों में हिंदी की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए।’
पुरुषोत्तम दास टंडन ने महामना के आदर्शों के उत्तराधिकारी के रूप में हिंदी को निज भाषा बनाने तथा उसे राष्ट्र भाषा का गौरव दिलाने का प्रयास आरम्भ कर दिया था। सन् 1918 ई. में हिंदी साहित्य सम्मेलन के इन्दौर अधिवेशन में सभापति पद से भाषण देते हुए महात्मा गांधी ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के योग्य ठहराते हुए कहा था कि, ‘मेरा यह मत है कि हिंदी ही हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा हो सकती है और होनी चाहिए।’ इसी अधिवेशन में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि प्रतिवर्ष 6 दक्षिण भारतीय युवक हिंदी सीखने के लिए प्रयाग भेजें जाएं और 6 उत्तर भारतीय युवक को दक्षिण भाषाएं सीखने तथा हिंदी का प्रसार करने के लिए दक्षिण भारत में भेजा जाएं। इन्दौर सम्मेलन के बाद उन्होंने हिंदीसेवा को राष्ट्रीय व्रत बना दिया। दक्षिण में प्रथम हिंदी प्रचारक के रूप में महात्मा गांधी ने अपने सबसे छोटे पुत्र देवदास गांधी को दक्षिण में चेन्नई भेजा। महात्मा गांधी की प्रेरणा से सन् 1927 में मद्रास में तथा सन् 1936 में वर्धा में राष्ट्रभाषा प्रचार सभाएं स्थापित की गईं।
अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्रसंघ के अधिवेशन में हिन्दी में भाषण दिया था। वे चाहते रहे कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा होने का सम्मान मिले। इसीलिए जो हिन्दी के प्रति अनिच्छा प्रकट करते थे उनके लिए अटल बिहारी का कहना था कि ‘‘क्या किसी भाषा को काम में लाए बिना, क्या भाषा का उपयोग किए बिना, भाषा का विकास किया जा सकता है? क्या किसी को पानी में उतारे बिना तैरना सिखाया जा सकता है?’’
क्या हम आज महामना मदनमोहन मालवीय और अटल बिहारी वाजपेयी के उद्गारों एवं प्रयासों को अनदेखा तो नहीं कर रहे हैं? वस्तुतः ‘राष्ट्रभाषा’ शब्द प्रयोगात्मक, व्यावहारिक व जनमान्यता प्राप्त शब्द है। राष्ट्रभाषा सामाजिक, सांस्कृतिक स्तर पर देश को जोड़ने का काम करती है अर्थात् राष्ट्रभाषा की प्राथमिक दायित्व देश में विभिन्न समुदायों के बीच भावनात्मक एकता स्थापित करना है। राष्ट्रभाषा का प्रयोग क्षेत्र विस्तृत और देशव्यापी होता है। राष्ट्रभाषा सारे देश की सम्पर्कभाषा होती है। इसका व्यापक जनाधार होता है। राष्ट्रभाषा का स्वरूप लचीला होता है और इसे जनता के अनुरूप किसी रूप में ढाला जा सकता है।

सम्मेलनों में सिमटी हिन्दी चिन्ता

पहला विश्व हिन्दी सम्मेलन 10 जनवरी से 14 जनवरी 1975 तक नागपुर में आयोजित किया गया था। सम्मेलन का आयोजन राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के तत्वावधान में हुआ। सम्मेलन से सम्बन्धित राष्ट्रीय आयोजन समिति के अध्यक्ष महामहिम उपराष्ट्रपति बी. डी. जत्ती थे। सम्मेलन के मुख्य अतिथि थे मॉरीशस के प्रधानमंत्रा शिवसागर रामगुलाम। सम्मेलन में तीन महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किए गए थे- 1.संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को आधिकारिक भाषा के रूप में स्थान दिया जाए 2. वर्धा में विश्व हिन्दी विद्यापीठ की स्थापना हो तथा 3. विश्व हिन्दी सम्मेलनों को स्थायित्व प्रदान करने के लिये अत्यन्त विचारपूर्वक एक योजना बनायी जाए।
भोपाल में आयोजित विश्व हिन्दी सम्मेलन इस क्रम में दसवां सम्मेलन था। सन् 1975 से 2015 तक प्रत्येक विश्व हिन्दी सम्मेलन में हिन्दी के प्रति वैश्विक चिन्ताएं व्यक्त की जाती रहीं, हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए योजनाएं बनती रहीं किन्तु  यदि हम अंग्रेजी के प्रति अपनी आस्था और समर्पण को इसी तरह बनाए रहेंगे, एक ओर विश्व हिन्दी सम्मेलन जैसे महत्वांकांक्षी आयोजन करेंगे और दूसरी ओर ठीक उसी समय अंग्रेजी माध्यम के सरकारी विद्यालय खोलेंगे तो हमारे हिन्दी के प्रति आग्रह को विश्व किस दृष्टि से ग्रहण करेगा?
हिन्दी के प्रति हमारी कथनी और करनी में एका होना चाहिए। हिन्दी समाचारपत्र अपनी व्यवसायिकता को महत्व देते हुए अंग्रेजी के शीर्षक छापते हैं जबकि एक भी अंग्रेजी समाचारपत्र ऐसा नहीं मिलेगा जिसमें हिन्दी लिपि में अथवा हिन्दी के शब्दों को शीर्षक के रूप में प्रयोग में लाया जा रहा हो। ‘‘सैलेब्स’’ हिन्दी के समाचारपत्र में मिल जाएगा लेकिन अंग्रेजी के समाचारपत्र में ‘‘व्यक्तित्व’’ अथवा ऐसा ही कोई और शब्द शीर्षक में देखने को भी नहीं मिलेगा।

हिन्दी को रोजगार से जोड़ना होगा
विश्व में हिन्दी का गौरव तभी तो स्थापित हो सकेगा जब हम अपने देश में हिन्दी को उचित मान, सम्मान और स्थान प्रदान कर दें। हिन्दी के मार्ग में कहीं न कहीं सबसे बड़ा रोड़ा इसकी रोजगार से बढ़ती दूरी की है। इस तथ्य से हम मुंह नहीं मोड़ सकते हैं कि हमारे युवाओं में यहां युवा का अर्थ एक पीढ़ी पहले के युवाओं से भी है, अंग्रेजी पढ़ कर अच्छे रोजगार के अवसर बढ़ जाते हैं जबकि हिन्दी माध्यम से की हुई पढ़ाई कथित ‘स्लम अपॉर्च्युनिटी’ देती है। इस बुनियादी बाधा को दूर करने के लिए हमें तय करना होगा कि हम पढ़ाई के लिए हिन्दी का कौन-सा स्वरूप रखें जिससे हिन्दी रोजगार पाने के लिए की जाने वाली पढ़ाई का शक्तिशाली माध्यम बन सके। दो में से एक मार्ग तो चुनना ही होगा- या तो संस्कृतनिष्ठ हिन्दी को विभिन्न विषयों का माध्यम बना कर युवाओं को उससे भयभीत कर के दूर करते जाएं या फिर हिन्दी के लचीलेपन का सदुपयोग करते हुए उसे रोजगार की भाषा के रूप में चलन में ला कर युवाओं के मानस से जोड़ दें। यूं भी भाषा के साहित्यिक स्वरूप से जोड़ने का काम साहित्य का होता है, उसे बिना किसी संशय के साहित्य के लिए ही छोड़ दिया जाए। आखिर हिन्दी को देश में और विदेश में स्थापित करने के लिए बीच का रास्ता ही तो चाहिए जो हिन्दी को रोजगारोन्मुख बनाने के साथ उसके लचीलेपन को उसकी कालजयिता में बदल दे।

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Sunday, September 25, 2016

चर्चा प्लस ... राष्ट्रवादी चिंतक पं. दीनदयाल उपाध्याय .... डाॅ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
मेरा कॉलम  "चर्चा प्लस"‬ "दैनिक सागर दिनकर" में (21. 09. 2016) .....
 
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राष्ट्रवादी चिंतक पं. दीनदयाल उपाध्याय
- डॉ. शरद सिंह
 
दीनदयाल उपाध्याय में देश सेवा की ललक थी उतनी ही अध्ययन के प्रति अभिरुचि थी। वे एक चिन्तक, लेखक, सम्पादक, संगठनकर्ता एवं राजनीतिज्ञ ही नहीं अपितु एक अच्छे पाठक भी थे। उनके कंधे में टंगे रहने वाले थैले में दो या तीन किताबें अवश्य रहती थीं। दीनदयाल उपाध्याय की बहुमुखी प्रतिभा का सभी सम्मान करते थे, चाहे वे संघ के अनुयायी हों या किसी और दल के। यहां मैं अपनी पुस्तक ‘‘राष्ट्रवादी व्यक्तित्व : दीनदयाल उपाध्याय’’ के कुछ अंश साझा कर रही हूं। 

25 सितंबर 1916 को राजस्थान के धनकिया नामक ग्राम में जन्में पं. दीनदयाल उपाध्याय को परिवार का स्नेह अधिक समय तक न मिल सका। जब माता-पिता उनसे बिछड़े तब उनकी आयु मात्र आठ वर्ष ही थी। दुर्भाग्य ऐसा था कि कुछ ही समय बाद दीनदयाल जी के भाई शिवदयाल की भी निमोनिया से पीड़ित होने के कारण मृत्यु हो गई। माता-पिता के अभाव में उनका पालन-पोषण उनके मामा ने किया। जो राजस्थान के गंगापुर रेलवे स्टेशन पर मालगार्ड के रूप में कार्यरत थे। उनके मामा ने उनसे शादी का कई बार आग्रह किया लेकिन वे शादी के प्रस्तावों को नकार देते थे। शायद राष्ट्र की सेवा का व्रत लेकर ही वे जन्मे थे, जिस कारण सभी सांसारिक बंधनों से दूर वे केवल भारत माता के बंधन में ही रहे। उन्होंने भारतीय संस्कृति एवं राष्ट्र के लिए अथक कार्य किया। 
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पं. दीनदयाल उपाध्याय एक सच्चे कर्मयोगी थे। वे अत्यंत सादगी से रहना पसंद करते थे। उनका मानना था कि व्यक्ति को इच्छाओं के वशीभूत नहीं रहना चाहिए, बल्कि इच्छाओं को अपने वश में रखना चाहिए। वे यह भी मानते थे कि विचारों की उच्चता ही व्यक्ति को उत्कृष्ट बनाती है। दीनदयाल उपाध्याय सभी को अपना मानते थे। उनके मन में जाति, धर्म, भाषा, अमीर, गरीब आदि का कोई भेद नहीं था। उनके इस स्वभाव के संबंध में मुम्बई की एक महिला कार्यकर्ता ने अपने उद्गार प्रकट किए थे कि ‘‘हमारे यहां अनेक नेता आते रहते हैं। कोई नेता आ रहा हो तो उनकी अच्छी देख-भाल करने की चिन्ता तो मन में होती ही है। किन्तु दीनदयाल उपाध्याय आने वाले हों तो ऐसी कोई चिन्ता मुझे नहीं होती थी । लगता था मानों अपना ही कोई भाई या सगा-संबंधी आ रहा है।’’


अहम् से परे

पंडित दीनदयाल उपाध्याय सहज व्यक्ति थे। वे अहंकार से कोसों दूर रहते थे। सन् 1960 की एक घटना है, कानपुर में संघ-शिक्षा वर्ग का शिविर था। दीनदयाल उपाध्याय भी शिविर में शामिल थे। दोपहर के भोजन के पश्चात् सभी शिविरार्थी अपना-अपना लोटा ले कर नल पर हाथ धोने के लिए पंक्तिबद्ध खड़े थे। उस पंक्ति में एक चंचल प्रकृति का कार्यकर्ता भी था। उसने जैसे ही देखा कि एक धोती-कुर्ताधारी शांत स्वभाव का कार्यकर्ता पानी भरने के लिए अपना लोटा नल के नीचे रख रहा है, वैसे ही वह चंचल कार्यकर्ता लपक कर आया और उसने लोटा उठा कर परे फेंक दिया। धोती-कुर्ताधारी कार्यकर्ता उसके इस कृत्य पर शान्त रहा। उसने अपना लोटा उठाया और पंक्ति में सबसे पीछे जा कर खड़ा हो गया क्यों कि उसकी पारी व्यर्थ जा चुकी थी। वह चंचल कार्यकर्ता अपनी इस शरारत पर अत्यन्त प्रसन्न था। कुछ देर बाद कक्षाएं पुनः आरम्भ हुईं। बौद्धिक वर्ग की कक्षा में उस धोती-कुर्ताधारी युवक का परिचय कराते हुए कहा गया कि ये पंडित दीनदयाल उपाध्याय हैं और ये आपकी बौद्धिक वर्ग की कक्षा लेंगे।
वहां लोटा फेंकने वाला कार्यकर्ता भी विद्यार्थी के रूप में उपस्थित था। जैसे ही उसे इस बात का पता चला कि उसने जिसका लोटा फेंका था वह और कोई नहीं पंडित दीनदयाल उपाध्याय थे। उसे तो मानां काटो तो खून नहीं। वह भाग कर शिविर संचालक के पास पहुंचा क्योंकि दीनदयाल उपाध्याय का सामना करने का साहस उसमें नहीं था। शिविर संचालक ने उसे समझाया कि यदि दीनदयाल उपाध्याय को अपने वरिष्ठ होने का अहंकार होता तो वे उसी समय डांटते या अन्य किसी तरह से दंडित करते किन्तु उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया। अतः वह भयभीत न हो। इस प्रकार शिविर संचालक द्वारा समझाए जाने के बाद वह चंचल कार्यकर्ता साहस करके दीनदयाल उपाध्याय के पास गया और उनके पैर पकड़ लिए। दीनदयाल उपाध्याय ने उसे गले से लगाते हुए कहा - ‘‘मैं तुम्हारे भीतर उपस्थित ऊर्जा को प्रणाम करता हूं। तुम इसका सही मार्ग पर उपयोग करोगे ऐसा मुझे विश्वास है।’’ 


व्यक्तिगत आलोचना के विरोधी

राजनीति के क्षेत्र में एक-दूसरे पर व्यक्तिगत छींटाकशीं करना हमेशा सामान्य बात रही है, विशेषरूप से चुनाव के दौरान तो इसका और भी वीभत्स रूप सामने आने लगता है। जौनपुर लोकसभा क्षेत्र से जब दीनदयाल उपाध्याय को चुनाव के लिए खड़ा किया गया तो उनके साथी यादवराज देशमुख ने अपने पत्रकारिता के अनुभवों के आधार पर उन्हें सलाह दी कि -‘‘पंडित जी, चुनाव सभाओं में आपके भाषण कुछ अधिक आक्रामक होने चाहिए। प्रतिपक्ष पर तीखा प्रहार किए बिना चुनाव अभियान में रंग नहीं चढ़ पाएगा। मतदाताओं पर रचनात्मक एवं शिक्षात्मक भाषणों का प्रभाव नहीं पड़ता है।’’
एक अन्य कार्यकर्त्ता ने भी देशमुख का समर्थन करते हुए कहा कि -‘‘हां, पंडित जी, आपको अपने भाषणों में विरोधी नेता की जम कर टांग खि्ांचाई करना चाहिए।’’
‘‘ टांग खि्ांचाई से आपका आशय?’’ दीनदयाल उपाध्याय ने पूछा।
‘‘आशय यही कि आप उसके व्यक्तिगत जीवन का बखिया उधेड़ दीजिए।’’ उस कार्यकर्त्ता ने स्पष्ट किया।
‘‘देखिए, यदि आप लोगों को ऐसा लगता है कि मेरा प्रभाव नहीं पड़ेगा तो मैं चुनाव से हट जाता हूं। लेकिन केवल मत बटोरने के लिए अपने भाषणों में किसी पर व्यक्तिगत लांछन नहीं लगा सकूंगा। चाहे अपने हों या विरोधी, किसी की भी व्यक्तिगत आलोचना को मैं अनैतिक कार्य मानता हूं और मैं इसका विरोधी हूं।’’ दीनदयाल उपाध्याय दो-टूक ढंग से आगाह कर दिया कि उनसे घटिया राजनीति की आशा कोई न रखे।
पं. दीनदयाल उपाध्याय ने सदैव स्वच्छ राजनीति का पक्ष लिया। वे स्पष्टवादी थे और राजनीति में भी वे सभी से स्पष्टता की अपेक्षा रखते थे। 


सदा प्रासंगिक रहेंगे विचार 

पं. दीनदयाल उपाध्याय राष्ट्र को सर्वोपरि मानते थे। उनका कहना था कि राष्ट्र विभिन्न समाजों, समूहों एवं कुशलताओं से बनी एक ऐसी इकाई है जो मानव सभ्यता को सच्चे अर्थ में परिभाषित करती है। वे नागरिकों के लिए राष्ट्रीयता को सबसे बड़ी पूंजी मानते थे।
पं. दीनदयाल प्रकृति की महत्ता को सम्मान देते थे। वे प्राकृतिक सम्पदा के दुरुपयोग के विरोधी थे। उनके अनुसार प्रकृति का दोहन उसी सीमा तक किया जाना चाहिए जिस सीमा तक प्रकृति को क्षति न पहुंचे। पं. दीनदयाल जी ने मनुष्य एवं राष्ट्र के समुचित विकास के लिए सांस्कृतिक स्वतंत्रता को अति आवश्यक माना। इस संबंध में उन्होंने अपने एक लेख में लिखा था कि ‘‘15 अगस्त 1947 को हमने एक लड़ाई जीती है। अपने विकास के मार्ग के रोड़ों को दूर करने के लिए हमें स्वतंत्रता की आवश्यकता थी। अब हमारी आत्मानुभूति का मार्ग प्रशस्त हो गया है। अब मानव की प्रगति के लिए हमें इसकी सहायता करनी है। पं. दीनदयाल देश के विकास के लिए भूमि के उचित वितरण एवं समुचित देखभाल को मुख्य आधार मानते थे। वे कृषि की सुव्यवस्था के लिए कृषियोग्य भूमि का उचित बन्दोबस्त किया जाना आवश्यक समझते थे। पं. दीनदयाल भविष्य के भारत की अपनी संकल्पना में आर्थिक, सामाजिक, बौद्धिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक दृष्टि से सुदृढ़ भारत को देखा था। उन्होंने कहा था कि ‘‘परतंत्रता के कारण दुनिया के अन्य राष्ट्रों की तुलना में हम बराबरी में खड़े नहीं हो सके। परन्तु अब हम स्वाधीन हो गए हैं। अब हमें इस कमी को पूरा करना चाहिए।’’
पं. दीनदयाल उपाध्याय ने राष्ट्र एवं मनुष्यता को आधार में रख कर जीवन के प्रत्येक पक्षों पर चिन्तन किया तथा अपने मौलिक विचार सब के सामने रखे। चाहे प्रकृति के उचित दोहन का विषय हो या सांस्कृतिक स्वतंत्रता की आवश्यकता पर का, धर्म संबंधी विचार हों या फिर भूमि के उचित वितरण चिन्ता दीनदयाल जी के विचार प्रत्येक देश, काल एवं परिस्थितियों में प्रासंगिक रहेंगे तथा दिशाबोध कराते रहेंगे। इसीलिए उनके विचारों को राजनीतिक मतभेदों से परे रख कर देखा जाता है। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने पं. दीनदयाल उपाध्याय की मृत्यु पर शोक प्रकट करते हुए कहा था कि ‘‘मुझे श्री उपाध्याय जी की मृत्यु की खबर सुन कर गहरा आघात पहुंचा है। श्री उपाध्याय देश के राजनीतिक जीवन में एक प्रमुख भूमिका अदा कर रहे थे। उनकी ऐसी दुखद परिस्थितियों में असामयिक और अप्रत्याशित मुत्यु से उनका कार्य अधूरा रह गया है। जनसंघ व कांग्रेस के बीच मतभेद चाहे जो हों मगर श्री उपाध्याय सर्वाधिक सम्मान प्राप्त नेता थे और उन्होंने अपना जीवन देश की एकता और संस्कृति को समर्पित कर दिया था।’’

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Wednesday, September 14, 2016

चर्चा प्लस ... बुंदेलखंड को विवाद नहीं, विकास चाहिए .... डाॅ. शरद सिंह

Dr Sharad Singh
मेरा कॉलम  "चर्चा प्लस"‬ "दैनिक सागर दिनकर" में (14. 09. 2016) .....
 
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बुंदेलखंड को विवाद नहीं, विकास चाहिए
- डॉ. शरद सिंह
 एक बार फिर राजनीति के बैरोमीटर का पारा चढ़ने लगा है। आगामी वर्ष उत्तर प्रदेश में होने वाले चुनावों ने माहौल अभी से गर्मा दिया है। कोई पुराने चेहरों को सामने लाने की योजना बना रहा है तो कोई नए चेहरे मैदान में उतार रहा है। भजपा, सपा, और बासपा के अतिरिक्त कांग्रेस भी उत्तर प्रदेश में जोर आजमाइश के लिए बांहें चढ़ा चुकी है। इस बार राहुल गांधी का बुंदेलखंड दौरा क्या रंग लाएगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा। लेकिन बुंदेलखंड पर राजनीतिक दांव लगाने वालों को यह भली-भांति समझना होगा कि यह क्षेत्र विवाद नहीं विकास चाहता है।

उत्तर प्रदेश में आगामी वर्ष होने वाला चुनाव ने राजनीतिक परिसर में हलचल मचा रखी है। कोई ‘चाय पर चर्चा’ के जरिए मतदाताओं का ध्यानाकर्षण कर रहा है तो कोई ‘खाट पर चर्चा’ कर रहा है। दो बहुएं जिनकी आयु में दादी और पोती जितना अन्तर है, राजनीतिक मैदान में कमर कस कर खड़ी हो गई हैं। इनमें एक बहू है दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित तो दूसरी बहू है उत्तर प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव। शीला दीक्षित उन्नाव की बहू हैं तो डिंपल यादव सैफई की। ये दोनों बहुएं बुंदेलखण्ड का भी रुख करेंगी, लेकिन फिलहाल राहुल गांधी अपने पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अंतर्गत 15 सितम्बर 2016 से बुंदेलखंड में ‘‘रोड शो’’ करेंगे।
पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार राहुल गांधी 15 सितंबर को चित्रकूट पहुंचेंगे। वे चित्रकूट में भगवान के दर्शन के बाद रोड शो आरम्भ करेंगे। वहां रोड शो करते हुए लोगों को अपनी पार्टी की घोषणाओं के बारे में अवगत कराएंगे। इसके बाद 16 सितंबर को बुंदेलखंड के बांदा और महोबा में रोड शो कर जनता के बीच जाएंगे। राहुल गांधी 17 सितंबर को ऐतिहासिक नगरी झांसी पहुंचेंगे। झांसी में भी वह रोड शो के माध्यम से अपनी पार्टी की घोषणाओं के बारे में बताएंगे और कांग्रेस को जिताने की अपील करेंगे। 17 सितंबर को ही वह जालौन, राठ और हमीरपुर में भी रोड शो करेंगे।
यह राहुल गांधी का बुंदेलखंड का पहला दौरा नहीं है, इससे पूर्व भी वे बुंदेलखंड के दौरे कर चुके हैं। अपने पिछले दौरे में राहुल गांधी ने ‘पृथक बुंदेलखण्ड’ की बात उठाई थी। यह मांग कोई नई नहीं थी। इस बार वे मोदी सरकार की कमियां गिनाने के मूड में हैं। बीच-बीच में उत्तर प्रदेश सरकार पर भी चुटकी लेते रहेंगे। उनके भाषणों पर वाद-विवाद भी होंगे और दूसरे नेता भी अपनी पार्टी के ऐजेंडे ले कर जनता के बीच उतरेंगे। लेकिन इन सभी को बुंदेलखंड की आवश्यकताओं को ध्यान रखना होगा। 
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विकास की बाट जोहता बुंदेलखंड
 
बुंदेलखण्ड के विकास के लिए उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश दोनों राज्यों में वर्षों से पैकेज आवंटित किए जा रहे हैं जिनके द्वारा विकास कार्य होते रहते हैं किन्तु विकास के सरकारी आंकड़ों से परे भी कई ऐसे कड़वे सच हैं जिनकी ओर देख कर भी अनदेखा रह जाता है। जहां तक कृषि का प्रश्न है तो औसत से कम बरसात के कारण प्रत्येक दो-तीन वर्ष बाद बुंदेलखंड सूखे की चपेट में आ जाता है। कभी खरीफ तो कभी रबी अथवा कभी दोनों फसलें बरबाद हो जाती हैं। जिससे घबरा कर कर्ज में डूबे किसान आत्महत्या जैसा पलायनवादी कदम उठाने लगते हैं। इन सबके बीच स्त्रियों की दर और दशा पर ध्यान कम ही दिया जाता है। उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में फैला बुंदेलखंड आज भी जल, जमीन और सम्मानजनक जीवन के लिए संघर्षरत है। दुनिया भले ही इक्कीसवीं सदी में कदम रखते हुए विकास की नई सीढ़ियां चढ़ रहा है लेकिन बुंदेलखंड आज भी बुनियादी सुविधाओं के लिए जूझ रहा है।

बुंदेलखंड की समस्याएं

आर्थिक पिछड़ेपन का दृष्टि से बुंदेलखंड आज भी सबसे निचली सीढ़ी पर खड़ा हुआ है। विगत वर्षों में बुन्देलखण्ड में किसानों द्वारा आत्महत्या और महिलाओं के साथ किए गए बलात्कार की घटनाएं यहां की दुरावस्था की कथा कहती हैं। भूख और गरीबी से घबराए युवा अपराधी बनते जा रहे हैं। यह भयावह तस्वीर ही बुंदेलखंड की सच्ची तस्वीर है। यह सच है कि यहां की सांस्कृतिक परम्परा बहुत समृद्ध है किन्तु यह आर्थिक समृद्धि का आधार तो नहीं बन सकती है। आर्थिक समृद्धि के लिए तो जागरूक राजनैतिक स्थानीय नेतृत्व, शिक्षा का प्रसार, जल संरक्षण, कृषि की उन्नत तकनीक की जानकारी का प्रचार-प्रसार, स्वास्थ्य सुविधाओं की सघन व्यवस्था और बड़े उद्योगों की स्थापना जरूरी है। वन एवं खनिज संपदा प्रचुर मात्रा में है किन्तु इसका औद्योगिक विकास के लिए उपयोग नहीं हो पा रहा है। कारण की अच्छी चौड़ी सड़कों की कमी है जिन पर उद्योगों में काम आने वाले ट्राले सुगमता से दौड़ सकें। रेल सुविधाओं के मामले में भी यह क्षेत्र पिछड़ा हुआ है। सड़क और रेल मार्ग की कमी औघेगिक विकास में सबसे बड़ी बाधा बनती है। स्वास्थ्य और शिक्षा की दृष्टि से बुंदेलखंड की दशा औसत दर्जे की है।
लगभग साल भर पहले बुंदेलखंड के अंतर्गत आने वाले मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश के कांग्रेसी राहुल गांधी के साथ प्रधानमंत्री से मिले थे और राहत राशि के लिये विशेष पैकेज और प्राधिकरण की मांग रखी थी। एक पैकेज की घोषणा भी हुई लेकिन यह स्थायी हल साबित नहीं हुआ। यूं भी, इस क्षेत्र के उद्धार के लिये किसी तात्कालिक पैकेज की नहीं बल्कि वहां के संसाधनों के बेहतर प्रबंधन की आवश्यकता है। साथ ही इस बात को समझना होगा कि मात्र आश्वासनों और परस्पर एक-दूसरे को कोसने वाली राजनीति से इस क्षेत्र का भला होने वाला नहीं है।

पृथक राज्य कोई हल नहीं

पृथक बुंदेलखण्ड राज्य की मांग करने वालों का यह मानना है कि यदि बुंदेलखण्ड स्वतंत्र राज्य का दर्जा पा जाए तो विकास की गति तेज हो सकती है। यह आंदोलन राख में दबी चिंनगारी के समान यदाकदा सुलगने लगता है। बुंदेलखंड राज्य की लड़ाई तेज करने के इरादे से 17 सितंबर 1989 को शंकर लाल मेहरोत्रा के नेतृत्व में बुंदेलखंड मुक्ति मोर्चा का गठन किया गया था। आंदोलन सर्व प्रथम चर्चा में तब आया जब मोर्चा के आह्वान पर कार्यकर्ताओं ने पूरे बुंदेलखंड में टीवी प्रसारण बंद करने का आंदोलन किया। यह आंदोलन काफी सफल हुआ था। इस आंदोलन में पूरे बुंदेलखंड में मोर्चा कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारियां हुईं। आंदोलन ने गति पकड़ी और मोर्चा कार्यकर्ताओं ने वर्ष 1994 में मध्यप्रदेश विधानसभा में पृथक राज्य मांग के समर्थन में पर्चे फेंके। कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ा और वर्ष 1995 में उन्होंने शंकर लाल मेहरोत्रा के नेतृत्व में संसद भवन में पर्चे फेंक कर नारेबाजी की। तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव के निर्देश पर स्व. मेहरोत्रा व हरिमोहन विश्वकर्मा सहित नौ लोगों को रात भर संसद भवन में कैद करके रखा गया। विपक्ष के नेता अटल विहारी वाजपेई ने मोर्चा कार्यकर्ताओं को मुक्त कराया। वर्ष 1995 में संसद का घेराव करने के बाद हजारों लोगों ने जंतर मंतर पर क्रमिक अनशन शुरू किया, जिसे उमा भारती के आश्वासन के बाद समाप्त किया गया। वर्ष 1998 में वह दौर आया जब बुंदेलखंडी पृथक राज्य आंदोलन के लिए सड़कों पर उतर आए। आंदोलन उग्र हो चुका था। बुंदेलखंड के सभी जिलों में धरना-प्रदर्शन, चक्का जाम, रेल रोको आंदोलन आदि चल रहे थे। इसी बीच कुछ उपद्रवी तत्वों ने बरुआसागर के निकट 30 जून 1998 को बस में आग लगा दी थी, जिसमें जन हानि हुई थी। इस घटना ने बुंदेलखंड राज्य आंदोलन को ग्रहण लगा दिया था। मोर्चा प्रमुख शंकर लाल मेहरोत्रा सहित नौ लोगों को रासुका के तहत गिरफ्तार किया गया। जेल में रहने के कारण उनका स्वास्थ्य काफी गिर गया और बीमारी के कारण वर्ष 2001 में उनका निधन हो गया। पृथक्करण की मांग ले कर राजा बुंदेला भी सामने आए।
आज भी जब तब पृथक बुंदेलखण्ड की मांग उठती रहती है। चुनावों के समय इस मांग को समर्थन दिया जाने लगता है और चुनाव ख़त्म होते ही जोश ठंडा पड़ जाता है। वैसे, बुंदेलखंड की आर्थिक दशा को देख कर तो यही कहा जा सकता है कि एक कमजोर राज्य के नवनिर्माण से बेहतर है कि प्रशासनिक दृष्टि से जिलों और संभागों को यथास्थिति रखते हुए विकास पर ध्यान केन्द्रित किया जाए।

समझना होगा जरूरतों को

पिछले कुछ सालों से किसानों के मुद्दों को जिस तरह उत्तर प्रदेश कांग्रेस उठा रही है उससे ये स्पष्ट हो गया है कि किसान कार्ड उसके लिए अहम होने जा रहा है। बुंदेलखंड के किसानों के आधार पर राहुल गांधी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की तैयारी का शंखनाद कर चुके हैं। शेष राजनीतिक दल भी पीछे नहीं रहेंगे। किन्तु पूर्व के अनुभवों के आधार पर इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है कि विकास के बुनियादी मुद्दे आरोप-प्रत्यारोप और वाद-विवाद में दब कर रह जाएंगे। स्थानीय नेतृत्व को समर्थन देना और उसे मजबूत बनाना भी महत्वपूर्ण कदम साबित हो सकता है। वैसे, एक बार फिर राजनीति के बैरोमीटर का पारा चढ़ने लगा है। आगामी वर्ष उत्तर प्रदेश में होने वाले चुनावों ने माहौल अभी से गर्मा दिया है। कोई पुराने चेहरों को सामने लाने की योजना बना रहा है तो कोई नए चेहरे मैदान में उतार रहा है। भजपा, सपा, और बासपा के अतिरिक्त कांग्रेस भी उत्तर प्रदेश में जोर आजमाइश के लिए बांहें चढ़ा चुकी है। इस बार राहुल गांधी का बुंदेलखंड दौरा क्या रंग लाएगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा। लेकिन बुंदेलखंड पर राजनीतिक दांव लगाने वालों को यह भली-भांति समझना होगा कि यह क्षेत्र विवाद नहीं विकास चाहता है।

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Thursday, September 8, 2016

चर्चा प्लस ... विघ्नहर्ता के देश में महिला -जीवन में विध्न .... डाॅ. शरद सिंह

Dr Sharad Singh
मेरा कॉलम  "चर्चा प्लस"‬ "दैनिक सागर दिनकर" में (07. 09. 2016) .....
 
My Column Charcha Plus‬ in "Dainik Sagar Dinkar" .....
  
विघ्नहर्ता के देश में महिला -जीवन में विध्न
- डॉ. शरद सिंह
 
श्रीगणेश विध्नहर्ता हैं, यही मानते हुए सदा उनसे प्रार्थना की जाती है कि उनकी कृपा से प्रत्येक कार्य निर्विघ्न संम्पन्न हों। भारत की धर्मपरायण आमजनता में महिलाएं ही सबसे अधिक धर्मध्वजा संवाहक मानी जाती हैं। भारतीय स्त्रियां आमतौर पर धर्मपरायण ही होती हैं, चाहे वे कितनी भी पढ़-लिख जाएं अथवा वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपना लें। वे आस्था और वैज्ञानिक ज्ञान को समानान्तर रखते हुए आराम से दोनों को साधे रखती हैं। किन्तु दुख की बात यह है कि विध्नहर्ता श्री गणेश से विध्नविनाश की रोज प्रार्थना करने वाली स्त्रियों के जीवन में दिन प्रतिदिन विध्न बढ़ते ही जा रहे हैं। बलात्कार, अपहरण, अपमान आदि रोजमर्रा की बात हो चली है। महिला-जीवन प्रगति कर रहा है किन्तु सुरक्षा पर प्रश्नचिन्ह के साथ।

महिला-जीवन प्रगति कर रहा है किन्तु सुरक्षा पर प्रश्नचिन्ह के साथ। लेकिन क्या सारे अपराधियों को विध्नहर्ता के खाते में डाल कर हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा जाना चाहिए? भारतीय समाज में महिलाओं में स्वतंत्रता और आधुनिकता का विस्तार के साथ ही उनके प्रति संकीर्णता का भाव बढ़ गया। महिलाओं के विरू‘ होने वाले अपराधों को देख कर कई बार ऐसो लगने लगता है जैसे 21वीं सदी में भी आधुनिक समाज की दृष्टि अभी भी महिलाएं मात्र स्त्री हैं और उन्हें सड़ी-गली परम्पराओं से बागे नहीं आना चाहिए। स्त्री आज भी निरीह, भोग्या और उत्पीड़न की आसान शिकार मानी जाती है। इसी मानसिकता का घातक परिणाम है कि महिलाओं के प्रति छेड़छाड़, बलात्कार, यातनाएं, अनैतिक व्यापार, दहेज मृत्यु तथा यौन उत्पीड़न जैसे अपराधों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है जबकि देश में महिलाओं को अपराधों के विरुद्ध कानूनी संरक्षण दिए जाने का प्रावधान है।
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper

कानून तो अनेक हैं

देश में महिलाओं को अपराधों और अपराधियों से बचाने के लिए यू ंतो ढ़ेर सारे कानून बनाए गए हैं, लेकिन अपराध के आंकड़े शर्म से सिर झुका लेने को विवश करते हैं। महिलाओं की सुरक्षा के लिए जो प्रमुख कानून हैं उनमें अनैतिक व्यापार (निवारण) अधिनियम 1956, दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961, कुटुम्ब न्यायालय अधिनियम 1984, महिलाओं का अशिष्ट-रुण्ण प्रतिषेध अधिनियिम 1986, गर्भाधारण पूर्व लिंग-चयन प्रतिषेध अधिनियम 1994, सती निषेध अधिनियम 1987, राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम 1990, घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005, बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम 2006, कार्यस्थल पर महिलाओं का लैंगिक उत्पीड़न (निवारण, प्रतिषेध, प्रतितोष) अधिनियम 2013 प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त 16 दिसंबर, 2012 को देश की राजधानी दिल्ली में हुए ‘निर्भया कांड’ के परिप्रेक्ष्य में दंड विधि (संशोधन) 2013 पारित किया गया और यह कानून 3 अप्रैल, 2013 को देश में लागू हो गया. इस कानून में प्रावधान किया गया है कि तेजाबी हमला करने वालों को 10 वर्ष की सजा और बलात्कार के मामले में अगर पीड़ित महिला की मृत्यु हो जाती है तो बलात्कारी को न्यूनतम 20 वर्ष की सजा होगी। इसके साथ ही महिलाओं के विरुद्ध अपराध की एफआईआर दर्ज नहीं करने वाले पुलिसकर्मियों को दंडित का भी प्रावधान है। इस कानून के मुताबिक महिलाओं का पीछा करने और घूर-घूर कर देखने को भी गैर जमानती अपराध घोषित किया है। लेकिन त्रासदी है कि इन कानूनों के होते हुए भी महिलाओं पर अत्याचार थमने का नाम नहीं ले रहा है. देश में घरेलू हिंसा, बलात्कार, कन्या भ्रूण हत्या, दहेज-मृत्यु, अपहरण और अगवा, लैंगिक दुव्र्यवहार और ऑनर किलिंग की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं।

शर्मनाक आंकड़े

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की एक रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं को सुरक्षा उपलब्ध कराने के बावजूद भी 2014 में प्रतिदिन 100 महिलाओं का बलात्कार हुआ और 364 महिलाएं यौनशोषण का शिकार हुई। रिपोर्ट के मुताबिक 2014 में केंद्रशासित और राज्यों को मिलाकर कुल 36735 मामले दर्ज हुए। यह दुखद है कि दर में कमी आने के बजाए हर वर्ष बलात्कार के मामले में वृद्धि हुई है। सरकारी ऐजेंसी के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2004 में बलात्कार के कुल 18233 मामले दर्ज हुए जबकि वर्ष 2009 में यह संख्या बढ़कर 21397 हो गई। इसी तरह वर्ष 2012 में 24923 मामले दर्ज किए गए और 2014 में यह संख्या 36735 हो गई। तुलना करने पर साफ पता चलता है कि वर्ष 2004 की तुलना में वर्ष 2014 स्त्रीविरुद्ध अपराध के आंकड़े दुगुने हो गए। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं के लिए मध्यप्रदेश सबसे अधिक असुरक्षित राज्य के रुप में उभरा है। पिछले वर्ष यहां सबसे अधिक 5076 बलात्कार के मामले दर्ज किए गए। इसी तरह राजस्थान में 3759, उत्तरप्रदेश में 3467, महाराष्ट्र में 3438 और दिल्ली में 2096 बलात्कार के मामले दर्ज किए गए। महिलाओं की सुरक्षा के मामले में मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, राजस्थान और दिल्ली की दशा बिहार से भी बदतर है। आंकड़ों से उजागर हुआ है कि 2014 में बिहार में बलात्कार के कुल 1127 मामले दर्ज हुए। संपूर्ण साक्षरता वाले राज्य केरल में भी महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं। केरल में एक वर्ष में बलात्कार के कुल 1347 मामले दर्ज किए गए।
वस्तुतः देश के अधिकांश राज्य महिलाओं की सुरक्षा के प्रश्न पर कटघरे में खड़े दिखाई देते हैं। उल्लेखनीय है कि महिलाएं सिर्फ सड़कों व सार्वजनिक स्थानों पर ही नहीं बल्कि अपने घर-परिवार के बीच भी असुरक्षित हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार रिश्तेदारों द्वारा बलात्कार किए जाने की घटनाओं में अप्रत्याशित रुप से वृद्धि हुई है। दुष्कर्म की घटनाओं में तकरीबन 95 फीसदी मामलों में दुष्कर्मी पीड़िता के जान-परिचय का व्यक्ति होता है। यूनिसेफ की रिपोर्ट ‘हिडेन इन प्लेन साइट’ से उजागर हुआ है कि भारत में 15 साल से 19 साल की उम्र वाली 34 फीसद विवाहित महिलाएं ऐसी हैं, जिन्होंने अपने पति या साथी के हाथों शारीरिक या यौन हिंसा झेली हैं। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष तथा वाशिंगटन स्थित संस्था ‘इंटरनेशनल सेंटर पर रिसर्च ऑन वुमेन’ की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 10 में से 6 पुरुषों ने कभी न कभी अपनी पत्नी अथवा प्रेमिका के साथ हिंसक व्यवहार करते हैं। रिपोर्ट में यह भी सामने आया कि 52 प्रतिशत महिलाओं ने स्वीकार किया कि उन्हें अपने पति अथवा प्रेमी से किसी न किसी तरह हिंसा का सामना करना पड़ा है।

कुछ क़दम उठाने ही होंगे

श्रीगणेश विध्नहर्ता हैं, यही मानते हुए सदा उनसे प्रार्थना की जाती है कि उनकी कृपा से प्रत्येक कार्य निर्विघ्न संम्पन्न हों। भारत की धर्मपरायण आमजनता में महिलाएं ही सबसे अधिक धर्मध्वजा संवाहक मानी जाती हैं। भारतीय स्त्रियां आमतौर पर धर्मपरायण ही होती हैं, चाहे वे कितनी भी पढ़-लिख जाएं अथवा वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपना लें। वे आस्था और वैज्ञानिक ज्ञान को समानान्तर रखते हुए आराम से दोनों को साधे रखती हैं। किन्तु दुख की बात यह है कि विध्नहर्ता श्री गणेश से विध्नविनाश की रोज प्रार्थना करने वाली स्त्रियों के जीवन में दिन प्रतिदिन विध्न बढ़ते ही जा रहे हैं। बलात्कार, अपहरण, अपमान आदि रोजमर्रा की बात हो चली है। महिला-जीवन प्रगति कर रहा है किन्तु सुरक्षा पर प्रश्नचिन्ह के साथ।
स्त्रियों को बढ़ते अपराधों से बचाने के लिए कुछ क़दम उठाने ही होंगे। जैसे पहला कदम है कि स्त्री के प्रति उन पुरुषों की सोच को बदलना होगा जो स्त्री को मात्र देह अथवा उपभोग की वस्तु के रूप में देखते हैं। ऐसे पुरुषों की सोच को बदलने के लिए कानूनी ही नहीं अपितु सामाजिक स्तर पर भी कठोरता बरतनी होगी। किसी भी आयुवर्ग के बलात्कारी का सामाजिक बहिष्कार भी जरूरी है जिससे ऐसे अपराधियों पर भय व्याप्त हो सके। दूसरा कदम है शौचालय का। ग्रामीण अंचलों एवं झुग्गी-बस्तियों में टी.वी. और मोटरसायकिलें तो मिल जाती है किन्तु शौचालय नहीं मिलता है। इस बुनियादी आवश्यकता के प्रति किसी का ध्यान ही नहीं जाता है। जबकि शौचालय के अभाव में स्त्रियों को समय-असमय घर से बाहर अकेले निकलने को विवश होना पड़ता है। फिर भी न तो वे स्त्रियां घर में शौचालय की मांग करती हैं और न घर के पुरुष इस ओर ध्यान देते हैं। इस प्रकार जागरूकता की कमी समस्या को जस का तस बनाए हुए है। कम से कम वर्ष 21 वीं सदी के इस दूसरे दशक में तो यह मुद्दा समाप्त हो ही जाना चाहिए। तीसरा कदम है स्त्री शिक्षा का। यदि आंकड़ों पर ही शिक्षा को मापें तब भी स्त्री-शिक्षा का आंकड़ा शत-प्रतिशत पर नहीं पहुंच सका है। स्त्रियों में आत्मबल शिक्षा द्वारा ही जागृत किया जा सकता है। चैथा कदम है राजनीति में स्त्रियों के वास्तविक स्थान का। देखने में आता है कि सारे निर्णय पति अथवा परिवार के पुरुष लेते हैं और सरपंच अथवा पार्षद स्त्रियां ‘रबर स्टैम्प’ की भांति उनके निर्णय पर खामोशी से मुहर लगाती रहती हैं। राजनीति में स्त्रियों के बढ़ते वर्चस्व की तस्वीर वाले कोलाज़ का यह टुकड़ा निहायत भद्दा और झुठ का पुलन्दा है। इस टुकड़े की कड़ाई से जांच किए जाने की जरूरत है वरना हमारे स्त्री-प्रगति के किस्से थोथे चने की तरह बजते रहेंगे और स्त्रियां उसी तरह दोयम दर्जे पर ही खड़ी रहेंगी। पांचवा कदम है स्त्री द्वारा आत्मावलोकन का। जी हां, स्त्रियों को अपने भीतर झांकना चाहिए। चाहे वह मां हो, सास हो, बेटी हो, बहू हो या किसी भी रूप में हो, उसे खुद को परखना होगा कि वह अन्य स्त्रियों के प्रति कितनी सहज और उत्तरदायित्वपूर्ण है? स्त्रियों की बहुत सारी समस्याएं तो मात्र इसी बात समाप्त हो सकती है कि यदि एक स्त्री पर संकट आए तो दूसरी स्त्रियां उसके पक्ष में जा खड़ीं हों और उसकी मदद करें।
यदि इस तरह कुछ महत्वपूर्ण कदम गंभीरता से उठाए जाएं तो विध्नहर्ता भी आगे बढ़ कर सहायता करेंगे। वो कहते हैं न कि ‘‘हिम्मते मर्दा तो मददे खुदा!’’
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