Thursday, December 1, 2016

हिन्दी साहित्य, स्त्री और आत्मकथा - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
" #हिन्दी_साहित्य, #स्त्री और #आत्मकथा " - मेरे कॉलम #चर्चा_प्लस में "दैनिक सागर दिनकर" में ( 30.11. 2016) .....
My Column #Charcha_Plus in "Sagar Dinkar" news paper


 

हिन्दी साहित्य, स्त्री और आत्मकथा
 
- डॉ. शरद सिंह


हिन्दी में लेखिकाओं द्वारा आत्मकथा लिखने की परम्परा पुरानी नहीं है। यदि यह विधा लेखिकाओं की कलम से अधिकतर दूर रही तो इसका सबसे बड़ा कारण है सामाजिक दबाव। किसी भी स्त्री के लिए अपने जीवन का सच उजागर करना कोई आसान काम नहीं है। जब स्त्री आत्मकथा लिखती है तो उसे धमाके के रूप में देखा जाता है, विशेष रूप से लेखन के क्षेत्र से जुड़ी स्त्रियों की आत्मकथा। लेखिकाओं की आत्मकथा उंगलियों पर गिनी जा सकती है। पर अब स्त्री और उसकी आत्मकथा के अस्तित्व को एक साथ स्वीकार करने का वातावरण जन्म ले चुका है, एक बौद्धिक सकारात्मक बोध की तरह।

लेखिकाओं की आत्मकथा लेखकों की आत्मकथा की अपेक्षा अधिक चौंकाती है। इन्हें पढ़ने वाले स्तब्ध रह जाते हैं कि ‘क्या ऐसा भी हुआ है?’ चाहे अमृता प्रीतम की ‘रसीदी टिकट’ हो, कमला दास की ‘मेरी कहानी’, तस्लीमा नसरीन की ‘अमार मेयीबेला’, ‘उताल हवा’, ‘क’,‘सेई सोब अंधोकार’, ‘अमी भालो नेई-तुमी भालो थेको प्रियो देश’, प्रभा खेतान की ‘अन्या से अनन्या’, कृष्णा अग्निहोत्री की दो खण्डों की आत्मकथा ‘लगता नहीं है दिल मेरा’ तथा ‘और......और औरत’। इनके अलावा मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथात्मक पुस्तकें ‘कस्तूरी कुण्डल बसै’ झूलानट’ तथा ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ ने भी सभी को चौंकाया।
‘स्त्री’ और ‘मुक्ति’- ये दोनों शब्द सदियों से परस्पर एक-दूसरे का पूरक बनने के लिए छटपटाते रहे हैं किन्तु ऐसे अनेक कारण हैं जिन्होंने इस पूरकता की राह में सदैव रोड़े अटकाए। स्त्री के संदर्भ में मुक्ति का विषय कठिन भी है और सरल भी। सैद्धांतिक रूप में यह सदैव सरल जान पड़ा है किन्तु प्रायोगिक रूप में अत्यंत कठिन। किसी हद तक प्रतिबन्धित। हिन्दी लेखन के आरम्भिक समय में पुरुष वर्चस्व साफ़-साफ़ दिखाई पड़ता है। एक कारण यह भी था कि हिन्दी कहानियों में स्त्री का वही स्वरूप उभर कर आया जो पुरुष-प्रधान समाज में पुरुषों द्वारा सोचा, समझा और रचा जाता है। इसीलिए उस दौर की कहानियों के स्त्रीपात्र अतिवादी आदर्श की चादर ओढ़ कर खड़े दिखाई देते हैं। 

Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper
आज प्रतिमान बदलते जा रहे हैं। यह माना जाता है कि स्त्रियों का प्रथम बंधन देह से प्रारम्भ होता है। इसीलिए कहानियों में भी देहमुक्ति का विषय बनना स्वाभविक है। कई बार हिन्दी कथासंसार में लेखिकाओं के संदर्भ में देहमुक्ति को उनके लेखन की ‘बोल्डनेस’ ठहरा दिया जाता है जिससे विषय की गंभीरता की सरासर अवहेलना हो जाती है। प्रश्न यह उठता है कि स्त्री की देहमुक्ति का क्या आशय है? क्या हिन्दी में लेखिकाओं द्वारा जो दैहिक संदर्भ प्रस्तुत किए जा रहे हैं वे अनुपयोगी हैं? क्या वे अपरिष्कृत हैं? क्या इस प्रकार के संदर्भों से बच कर उन विषयों पर विस्तृत दृष्टि डाली जा सकती है जिनके जन्म में देह आधारभूत तत्व है? या फिर ऐसे विषयों को अछूता छोड़ दिया जाना चाहिए क्योंकि ऐसे विषयों पर लेखन से कुछ परम्परागत मानक टूटते हैं? ये बहुत सारे प्रश्न हैं जो महिला कथालेखन की चर्चा आते ही सिर उठाने लगते हैं। और जब प्रश्न हो आत्मकथा का तो प्रश्नों का अंबार लग जाता है।
साहित्य में अनेक विधाएं हैं जिनके द्वारा साहित्यकारों ने अपने जीवन के गोपन पक्षों को सार्वजनिक किया है। पाठकों को उन कक्षों में प्रवेश की अनुमति दी है जिनमें रह कर उन्होंने नितान्त अपने दुख, सुख और प्रेम को जिया है। प्रेमपत्रों का प्रकाशन इसी तारतम्य की एक कड़ी है। डायरी को प्रकाशित करा कर भी अपने निजी को सार्वजनिक किया गया है। आत्मकथा इसी प्रकार की एक विधा है जिसमें व्यक्ति, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, अपने जीवन की, अपने अनुभवों की पर्तें खोलता है। इसकी शैली ‘जो जैसा है,वैसे ही’ की रहती है। इसीलिए लेखिकाओं द्वारा अपनी आत्मकथा का प्रकाशन कराए जाने पर अच्छा खासा बवाल मच जाता है। अनेक प्रश्न उठ खड़े होते हैं कि क्या उन्हें ऐसा लिखना चाहिए था? क्या उन्हें फलां के साथ अपने अंतःसंबंधों को उजागर करना चाहिए था? क्या यह एक लेखिका के लिए सामाजिक दृष्टि से उचित है? क्यों कि अतंतः वह एक स्त्री है। स्त्री से उसके जीवन में यही अपेक्षा की जाती है कि वह देह और आत्मा को अलग-अलग दो खांचों में रख कर जिए। फिर भी कुछ लेखिकाओं ने सामाजिक दबाव की चिन्ता किए बिना अपने जीवन के उन पक्षों को आत्मकथा के रूप में सबके सामने लाने का साहस किया।
मैत्रेयी पुष्पा ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ में लिखती हैं कि ‘‘जिन्दगी जो थी तन मन से घिरी हुई। मेरे लिए उसको दो भागों में बांट कर देखना कठिन था। जब शरीर और मन को काट कर देखने की बात होती, मैं बहुत उदास और खिन्न हो जाती।’
प्रभा खेतान ने ‘अन्या से अनन्या’ में डॉ. सर्राफ के साथ अपने संबंधों का बेहिचक विवरण दिया। पढ़ने वालों ने इसे प्रभा खेतान का साहस और दुस्साहस माना। कृष्णा अग्निहोत्री की आत्मकथा (दो खण्डों में) ‘लगता नहीं है दिल मेरा’ तथा ‘और......और औरत’ ने उस सुगबुगाहट की याद ताजा करा दी जो तसलीमा नसरीन की आत्मकथा ‘क’ के प्रकाशित होने पर साहित्य जगत में हुई थी। तसलीमा ने कई दिग्गज साहित्यकारों के साथ अपने अंतःसंबंधों का खुलासा किया था। जिस पर उन साहित्यकारों को ‘पीड़ा’ पंहुची थी। उनकी इस ‘पीड़ा’ के संबंध में तसलीमा ने अपने एक साक्षात्कार में उन्मुक्त भाव से कहा था कि जिन्होंने मेरा भावनात्मक दोहन किया उन्हें मेरी आत्मकथा में अपना नाम आने पर आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
साहित्य में एक ओर ‘स्त्री साहित्य’ को अलग करके देखा ताजा है और उसमें स्त्री के जीवन को अक्षरशः पाने की आशा रखी जाती है वहीं दूसरी ओर यदि आत्मकथा के रूप में कोई स्त्री अपने जीवन के प्रत्येक पन्ने को अक्षरशः उतार देती है तो उस पर कई प्रकार की प्रतिक्रियाएं होती हैं। कुछ लोग चौंकते हैं , कुछ स्तब्ध रह जाते हैं, कुछ सच की स्वीकारेक्ति पर प्रसन्न होते हैं तो कुछ इस बात से नाराज हो उठते हैं कि आत्मकथा लेखिका ने उन से जुड़े संर्दभां को प्रकाश में क्यों लाया। अपेक्षाओं का यह दुहरा-तिहरा मापदण्ड साहित्यजगत में खलबली मचाता है। वैसे जब भी कोई स़्त्री चाहे वह किसी भी विधा से जुड़ी हो स्वयं को सार्वजनिक रूप से यथास्थिति सामने रखती है तो पुरुषप्रधान सोच सकते में आ जाती है जबकि कई सि़्त्रयां भी पुरुषवादी सोच के पक्ष में जा खड़ी होती हैं। वे भी ऐसी आत्मकथाओं पर किंचित असहज हो उठती हैं। सम्भवतः इसका कारण यह है कि वे जिए गए जीवन के यथास्थिति प्रकाशन को स्वीकार करने से इसलिए हिचकती हैं कि वे स्वयं को एक स़्त्री से पहले मां, बहन, बेटी के रूप में पाती हैं और अपने इन्हीं संबंधियों के रोष से भयभीत हो उठती हैं। यह स्वाभाविक है। क्योंकि स्त्री चाहे किसी भी क्षेत्र में अपनी पहचान बना चुकी हो, उसे उसकी पहचान से परे पहले एक स्त्री के रूप में ही देखा जाता है। सदियों की बेड़ियां आसानी से नहीं टूटती हैं। चित्रकार अमृता शेरगिल ने जब अपना आत्मचित्र (सेल्फ पोट्रट) बनाया तो लोग चौंके। पुरुष स्त्री देह को अनावृत करे तो कोई बात नहीं लेकिन यदि स्त्री स्वयं अपनी देह को अनावृत करे तो कलाजगत भी चौंकता है। यहां भी वही अपेक्षा के दोहरे-तिहरे मापदण्ड की बात आती है।
कमलादास ने अपने यौवनारम्भ की घटनाओं को बेझिझक लिख डाला। अपनी भावनात्मक और दैहिक इच्छा को भी छिपाया नहीं। लोग चौंके। इससे पूर्व अमृता प्रीतम ने इमरोज़ और साहिर लुधियावनी से अपने संबंधों को सबके सामने रख दिया। उनके इस साहस ने उन सभी लोगों के मुंह पर ताला लगा दिया जो इन बिन्दुओं पर चटखारे ले कर ‘गॉसिप’ करते थे। मैत्रेयी पुष्पा ने अपनी आत्मकथात्मक पुस्तकों के माध्यम से अपने जीवन के उन पक्षों को सामने रखा जिसके बारे में आम पाठक सोच नहीं सकता था कि वे किस संघर्ष से गुज़र कर इस ऊंचाई तक पहुंची हैं। इन सबसे से परे, कृष्णा अग्निहोत्री की आत्मकथा है। यद्यपि उनके दुख-सुख तसलीमा से अलग हैं फिर भी वे अनुभव कहीं न कहीं एक जैसे हैं जो भावनात्क शोषण के हैं। इसमें स्वनामधन्य संपादकों द्वारा भावनात्मक- शोषण किए जाने का उल्लेख है। सुखद यह लगा कि इस पर उस ढंग से प्रतिक्रिया नहीं हुई जैसी कि तसलीमा नसरीन के ‘क’ पर हुई थी। जबकि शायद यह भारतीय साहित्यकारों, संपादकों के सोच में आए खुलेपन का प्रमाण है। धीरे-धीरे यह तथ्य स्वीकार किया जाने लगा है कि लेखिका एक स्त्री होने के साथ-साथ पुरुषों की भांति एक मनुष्य भी है जिसका अपना एक जीवन है, अपने दुख-सुख हैं और जिन्हें गोपन रखने अथवा उजागर करने का उसे पूरा-पूरा अधिकार है। उसके भीतर वे सभी संवेग होते हैं जो एक आम स्त्री में होते हैं, अन्तर मात्र यही होता है कि आम स्त्री उन संवेगों को व्यक्त करने का साहस नहीं संजो पाती है जबकि आत्मकथा लिखने वाली स्त्री साहस के साथ सब कुछ सामने रख देती है-जो जैसा है, वैसा ही। जैसा कि अपनी आत्मकथा के संबंध में कृष्णा अग्निहोत्री का कहना है कि, ‘‘मेरा बयान नंगा रहे...एकदम प्राकृतिक...साफ़! अहसासों की पर्तें कुछ इस तरह उघड़ती जाएं कि उनकी बारीक रेखाएं भी पढ़त से बाहर न रहें।’’
स्त्री और उसकी आत्मकथा के अस्तित्व को एक साथ स्वीकार करने का वातावरण बहुत पहले जन्म ले चुका है और उसमें हिन्दी की लेखिकाओं की आत्मकथाओं की कड़ियों का जुड़ते जाना स्त्री से उसके समूचे अस्तित्व के साथ स्वीकार किए जाने जैसा है। एक बौद्धिक सकारात्मक बोध की तरह।
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