Sunday, June 26, 2016

पृथक-बुंदेलखण्ड आंदोलन में स्त्री कहां? ... शरद सिंह..-.. आउटलुक (04 July 2016)

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Out Look - 04 July 2016 - Dr Miss Sharad Singh

"आउटलुक" (04 July 2016) में प्रकाशित मेरा लेख - "पृथक-बुंदेलखण्ड आंदोलन में स्त्री कहां?" - शरद सिंह


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Where Woman Is In Separate-Bundelkand Movement ?" my article published in "Outlook" (04 July 2016) - Sharad Singh


लेख
पृथक-बुंदेलखण्ड आंदोलन में स्त्री कहां?

- शरद सिंह    

बुंदेलखण्ड के विकास के लिए उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश दोनों राज्यों में वर्षों से पैकेज आवंटित किए जा रहे हैं जिनके द्वारा विकास कार्य होते रहते हैं किन्तु विकास के सरकारी आंकड़ों से परे भी कई ऐसे कड़वे सच हैं जिनकी ओर देख कर भी अनदेखा रह जाता है। जहां तक कृषि का प्रश्न है तो औसत से कम बरसात के कारण प्रत्येक दो-तीन वर्ष बाद बुंदेलखंड सूखे की चपेट में आ जाता है। कभी खरीफ तो कभी रबी अथवा कभी दोनों फसलें बरबाद हो जाती हैं। जिससे घबरा कर कर्ज में डूबे किसान आत्महत्या जैसा पलायनवादी कदम उठाने लगते हैं। इन सबके बीच स्त्रियों की दर और दशा पर ध्यान कम ही दिया जाता है। उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में फैला बुंदेलखंड आज भी जल, जमीन और सम्मानजनक जीवन के लिए संघर्षरत है। यहां महिलाओं की दुखगाथाएं एक अलग ही तस्वीर दिखाती हैं। क्या इन सबके लिए सिर्फ सरकारें ही जिम्मेदार हैं अथवा बुंदेलखण्ड के नागरिक भी अपने दायित्वों के प्रति कहीं न कहीं लापरवाह हैं? यह एक अहम् प्रश्न है। 
Out Look - 04 July 2016 ... Prithak Bundelkhand Andolan me Stri kahan - Dr Miss Sharad Singh
पृथक बुंदेलखण्ड राज्य की मांग करने वालों का यह मानना है कि यदि बुंदेलखण्ड स्वतंत्र राज्य का दर्जा पा जाए तो विकास की गति तेज हो सकती है। यह आंदोलन राख में दबी चिंनगारी के समान यदाकदा सुलगने लगता है। बुंदेलखंड राज्य की लड़ाई तेज करने के इरादे से 17 सितंबर 1989 को शंकर लाल मेहरोत्रा के नेतृत्व में बुंदेलखंड मुक्ति मोर्चा का गठन किया गया था। आंदोलन सर्व प्रथम चर्चा में तब आया जब मोर्चा के आह्वान पर कार्यकर्ताओं ने पूरे बुंदेलखंड में टीवी प्रसारण बंद करने का आंदोलन किया। यह आंदोलन काफी सफल हुआ था। इस आंदोलन में पूरे बुंदेलखंड में मोर्चा कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारियां हुईं। आंदोलन ने गति पकड़ी और मोर्चा कार्यकर्ताओं ने वर्ष 1994 में मध्यप्रदेश विधानसभा में पृथक राज्य मांग के समर्थन में पर्चे फेंके। कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ा और वर्ष 1995 में उन्होंने शंकर लाल मेहरोत्रा के नेतृत्व में संसद भवन में पर्चे फेंक कर नारेबाजी की। तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव के निर्देश पर स्व. मेहरोत्रा व हरिमोहन विश्वकर्मा सहित नौ लोगों को रात भर संसद भवन में कैद करके रखा गया। विपक्ष के नेता अटल विहारी वाजपेई ने मोर्चा कार्यकर्ताओं को मुक्त कराया। वर्ष 1995 में संसद का घेराव करने के बाद हजारों लोगों ने जंतर मंतर पर क्रमिक अनशन शुरू किया, जिसे उमा भारती के आश्वासन के बाद समाप्त किया गया। वर्ष 1998 में वह दौर आया जब बुंदेलखंडी पृथक राज्य आंदोलन के लिए सड़कों पर उतर आए। आंदोलन उग्र हो चुका था। बुंदेलखंड के सभी जिलों में धरना-प्रदर्शन, चक्का जाम, रेल रोको आंदोलन आदि चल रहे थे। इसी बीच कुछ उपद्रवी तत्वों ने बरुआसागर के निकट 30 जून 1998 को बस में आग लगा दी थी, जिसमें जन हानि हुई थी। इस घटना ने बुंदेलखंड राज्य आंदोलन को ग्रहण लगा दिया था। मोर्चा प्रमुख शंकर लाल मेहरोत्रा सहित नौ लोगों को रासुका के तहत गिरफ्तार किया गया। जेल में रहने के कारण उनका स्वास्थ्य काफी गिर गया और बीमारी के कारण वर्ष 2001 में उनका निधन हो गया।  पृथक्करण की मांग ले कर राजा बुंदेला भी सामने आए। आज भी पृथक बुंदेलखण्ड की मांग सुगबुगाती रहती है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि बुंदेलखण्ड ने अपनी स्वतंत्रता एवं अस्मिता के लिए लम्बा संघर्ष किया है और इस संघर्ष के बदले बहुत कुछ खोया है। अंग्रेजों के समय में हुए बुंदेला संघर्ष एवं स्वतंत्रता आंदोलन के कारण इस भू-भाग को विकास के मार्ग से बहुत दूर रखा गया। यहां उतना ही विकास कार्य किया गया जितना  अंग्रेज प्रशासकों अपनी सैन्य सुविधाओं के लिए आवश्यक लगा। जब कोई क्षेत्र विकास की दृष्टि से पिछड़ा रह जाता है तो उसका सबसे बुरा असर पड़ता है वहां की स्त्रियों के जीवन पर। अतातायी आक्रमणकारी आए तो स्त्रियों को पर्दे और सती होने का रास्ता पकड़ा दिया गया। उसे घर की दीवारों के भीतर सुरक्षा के नाम पर कैद रखते हुए शिक्षा से वंचित कर दिया गया। यह बुंदेलखण्ड की स्त्रियों के जीवन का सच है। मानो अशिक्षा का अभिशाप पर्याप्त नहीं था जो उसके साथ दहेज की विपदा भी जोड़ दी गई। नतीजा यह हुआ कि बेटी के जन्म को ही पारिवारिक कष्ट का कारण माना जाने लगा। अशिक्षित और आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों की बालिकाएं अपने छोटे भाई-बहनों को सम्हालने और अर्थोपार्जन के छोटे-मोटे तरीकों में गुज़ार देती हैं। इन्हें शिक्षित किए जाने के संबंध में इनके माता-पिता में रुझान रहता ही नहीं है। लड़की को पढ़ा कर क्या करना है?’ जैसा विचार इस निम्न आर्थिक वर्ग पर भी प्रभावी रहता है। छोटी आयु में घर-गृहस्थी में जुट जाने के बाद शिक्षित होने का अवसर ही नहीं रहता है।
यह एक स्याह सच है कि बुंदेलखण्ड में पिछले दशकों में पुरुषांे की अपेक्षा स्त्रियों का अनुपात तेजी से घटा। इसके लिए जिम्मेदार है वह परम्परागत सोच कि बेटे से वंश चलता है या फिर बेटी पैदा होगी तो उसके लिए दहेज जुटाना पड़ेगा। नतीजा यह कि बुंदेलखण्ड में भी लड़कियों की कमी होने लगी है। अन्य प्रदेशों की भांति यहां भी ओडीसा तथा अन्य प्रदेशों के आदिवासी अंचलों से लड़कियांे को ब्याह कर लाया जा रहा है। आमतौर पर यह विवाह सामान्य विवाह नहीं है। ये अत्यंत ग़रीब घर की लड़कियां होती हैं जिनके घर में दो-दो, तीन-तीन दिन चूल्हा नहीं जलता है, ये उन घरों की लड़कियां हैं जिनके मां-बाप के पास इतनी सामर्थ नहीं है कि वे अपनी बेटी का विवाह कर सकें, ये उन परिवारों की लड़कियां हैं जहंा उनके परिवारजन उनसे न केवल छुटकारा पाना चाहते हैं वरन् छुटकारा पाने के साथ ही आर्थिक लाभ कमाना चाहते हैं। ये ग़रीब लड़कियां कहीं संतान प्राप्ति के उद्देश्य से लाई जा रही हैं तो कहीं मुफ़्त की नौकरानी पाने की लालच में खरीदी जा रही हैं। इनके खरीददारों पर उंगली उठाना कठिन है क्योंकि वे इन लड़कियों को ब्याह कर ला रहे हैं। इस मसले पर चर्चा करने पर अकसर यही सुनने को मिलता है कि क्षेत्र में पुरुष और स्त्रियों का अनुपात बिगड़ गया है। लड़कों के विवाह के लिए लड़कियों की कमी हो गई है। माना कि यह सच है कि सोनोग्राफी पर कानूनी शिकंजा कसे जाने के पूर्व कुछ वर्ष पहले तक कन्या भ्रूणों की हत्या की दर ने लड़कियों का प्रतिशत घटाया है लेकिन मात्र यही कारण नहीं है जिससे विवश हो कर सुदूर ग्रामीण एवं आदिवासी अंचलों की अत्यंत विपन्न लड़कियों के साथ विवाह किया जा रहा हो। यह कोई सामाजिक आदर्श का मामला भी नहीं है। वस्तुतः जब बेटियां ही नहीं होंगी तो बेटों के लिए बहुएं कहां से आएंगी?  
एक सर्वे के अनुसार प्रति हजार लड़कों के अनुपात में लड़कियों की संख्या पन्ना में 507, टीकमगढ़ में 901, छतरपुर में 584, दमोह में 913 तथा सागर में 896 पाया गया। यह आंकड़े न केवल चिंताजनक हैं अपितु ओडीसा से लड़कियों को ब्याह कर लाने की विवशता की जमीनी सच्चाई भी उजागर करते हैं।  
बुंदेलखण्ड में किए गए लगभग सभी आंदोलनों एवं विकास की तमाम मांगों के बीच स्त्रियों के लिए अलग से कभी कोई मुद्दा नहीं उठाया गया जिससे विकास की वास्तविक जमीन तैयार हो सके। पृथक बुंदेलखण्ड राज्य के ऐजेंडे में स्त्रीपक्ष को एक स्वतंत्र मुद्दा बनाया जाना जरूरी है ताकि भविष्य में बुंदेलखण्ड की स्त्रियों को अपने अधिकारों के लिए पहली सीढ़ी से संघर्ष न करना पड़े। राजनीतिक मुद्दों के बीच स्त्री के अधिकारों का सामाजिक मुद्दा बेहद जरूरी है।  

Wednesday, June 22, 2016

चर्चा प्लस ... कैराना‬ का कड़वा सच ... - डॉ. ‪शरद सिंह‬

Dr (Miss) Sharad Singh
मेरा कॉलम ‪#‎चर्चा_प्लस‬ "दैनिक सागर दिनकर" में (22. 06. 2016) .....
 
My Column ‪#‎Charcha_Plus‬ in "Dainik Sagar Dinkar" .....


चर्चा प्लस 
कैराना‬ का कड़वा सच
- डॉ. शरद सिंह‬
पक्ष और विपक्ष कैराना के मामले में कोई भी तर्क दें अथवा अपनी सफाई प्रस्तुत करें किन्तु इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता है कि कहीं कोई चूक तो जरूर हुई है। बिना आग के धुंआ नहीं निकलता है। यदि यह मान लिया जाए कि भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश के आगामी चुनाव को ध्यान में रख कर शोर मचा रही है तो यह भी मानना पड़ेगा कि अखिलेश सरकार और मायावती के स्वर भी उसी चुनावी परिदृश्य को ध्यान में रख कर आपस में मिल रहे हैं। लेकिन इस राजनीतिक विवाद के माहौल में कैराना का कड़वा सच कहीं धुंधला न पड़ जाए।

राजनीति वो पर्दा है जो सच को इस तरह अपने भीतर छुपा लेता है कि बड़े से बड़ा सच भी झूठा और बड़े से बड़ा झूठ भी सच दिखाई देने लगता है। एक भ्रम की स्थिति निर्मित हो जाती है। इस भ्रम वे कारण गुम होने लगते हैं वे तथ्य जिन पर सबसे पहले ध्यान जाना चाहिए। कैराना मामले में भी यही सब कुछ हो रहा है। राजधानी दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के कैराना में हिंदू परिवारों के पलायन के मामले ने एक बार फिर अखिलेश सरकार और उत्तर प्रदेश की कानून व्यवस्था पर सवाल खड़े कर दिए हैं। कैराना में कथित रुप से बढ़ते अपराध के चलते 346 हिंदू परिवारों का अपने गांव से पलायन हो गया है। पलायन के पीछे का सच कांग्रेस भी जानना चाहती है और इसीलिए वह जांच की मांग कर रही है। इसके साथ ही कांग्रेस का मानना है कि कैराना मामले का लाभ उठा कर भाजपा हिंदू वोटों को अपनी मुट्ठी में कर लेना चाहती है जिससे उत्तर प्रदेश में अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव में भी लाभ मिल सके। मामला गंभीर है। भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में धर्म के आधार पर पलायन का समाचार चिन्ता में डालने वाला ही कहा जाएगा। मामले की गंभीरता को देखते हुए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को भी आगे आना पड़ा।
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper

शुरुआत कहां से हुई?
इस मामले की शुरुआत स्थानीय बीजेपी सासंद हुकुम सिंह के उस आरोप से हुई जिसमें उन्होंने खुलाया किया कि कैराना से हिन्दू परिवार बड़ी संख्या में पलायन कर चुके हैं और शेष पलायन करने के लिए बाध्य हैं। सासंद हुकुम सिंह ने कैराना से पलायन करने वाले 346 हिंदू परिवारों की सूची सौंपते हुए यह आरोप लगाया कि कैराना को कश्मीर बनाने की कोशिश की जा रही है। हुकुम सिंह ने कहा कि यहां हिंदुओं को धमकाया जा रहा है, जिससे हिंदू परिवार बड़ी संख्या में पलायन कर रहे हैं। हुकुम सिंह के इतना कहते ही भारतीय जनता पार्टी ने अखिलेश सरकार पर निशाना साधा। भारतीय जनता पार्टी ने अखिलेश सरकार की सोची समझी रणनीति भी करार दिया। प्रत्युत्तर में अखिलेश यादव और मायावती ने भारतीय जनता पार्टी पर आरोप जड़ने आरम्भ कर दिए। इस राजनीतिक नूराकुश्ती में कैराना की पीड़ा को गहराई से महसूस करने का किसी को मानो ध्यान नहीं रहा। अपने घर से विस्थापित होना और वह भी भय के कारण, किसी भी परिवार के जीवन का सबसे दुखद पहलू हो सकता है। अखिलेश सरकार ने सांसद हुकुम सिंह के आरोप को झूठ करार दिया। दूसरी ओर सांसद हुकुम सिंह ने दावा किया है कि उन्होंने कैराना से पलायन करने वाले हर घर का सत्यापन कराया है। विभिन्न संचार माध्यमों ने भी अपने-अपने स्तर पर कमर कस ली और अपने स्तर पर जांच करने निकल पड़े। कुछ ने आरोप को सच पाया तो किसी ने कहा कि इस लिस्ट में ऐसे भी नाम शामिल हैं जो आर्थिक और कारोबारी वजह से पलायन कर चुके थे।
पक्ष और विपक्ष कैराना के मामले में कोई भी तर्क दें अथवा अपनी सफाई प्रस्तुत करें किन्तु इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता है कि कहीं कोई चूक तो जरूर हुई है। बिना आग के धुंआ नहीं निकलता है। यदि यह मान लिया जाए कि भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश के आगामी चुनाव को ध्यान में रख कर शोर मचा रही है तो यह भी मानना पड़ेगा कि अखिलेश सरकार और मायावती के स्वर भी उसी चुनावी परिदृश्य को ध्यान में रख कर आपस में मिल रहे हैं। लेकिन इस राजनीतिक  विवाद के माहौल में कैराना का कड़वा सच कहीं धुंधला न पड़ जाए।
    
कैराना का इतिहास
कैराना सामान्य जगह नहीं है। प्राचीन काल में कर्णपुरी के नाम से जाना जाता था और माना जाता है कि महाभारत काल में कर्ण का जन्म यहीं हुआ था। विद्वानों के अनुसार कैराना प्राचीन काल में कर्णपुरी के नाम से जाना जाता था जो कालान्तर में बिगड़ कर कैराना हो गया। यद्यपि यह पूरी तरह से प्रमाणिक नहीं है। कैराना के नाम को ले कर एक कथा और भी प्रचलित हैै कि कैराना का नाम ‘कै और राणा’ नाम के राणा चैहान गुर्जरों के नाम पर पड़ा और माना जाता है कि राजस्थान के अजमेर से आए राणा देव राज चैहान और राणा दीप राज चैहान ने कैराना की नींव रखी।  कैराना के आस-पास कलश्यान चैहान गोत्र के गुर्जर समुदाय के 84 गांव हैं। सोलहवीं सदी में मुगल बादशाह जहांगीर ने अपनी आत्मकथा ‘‘तुजुक-ए-जहांगीरी’ में कैराना की अपनी यात्रा के बारे में लिखा है।
राजधानी दिल्ली से करीब 100 किलोमीटर और उत्तर प्रदेश के मुझफ्फरनगर से 50 किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश के उत्तर पश्चिम में हरियाणा की सीमा पर यमुना किनारे बसा कैराना का ऐतिहासिक महत्व रहा है। उत्तर प्रदेश के शामली जिले का कैराना तहसील पहले मुजफ्फरनगर जिले की तहसील थी। 2011 में मायावती ने शामली को एक अलग जिला घोषित किया। जिसमें कैराना भी शामिल हो गया। कैराना एक लोकसभा और विधानसभा सीट भी है। इसी कैराना में शास्त्रीय गायक अब्दुल करीम खां हुए जिन्होंने भारतीय शास्त्रीय संगीत के मशहूर कैराना घराना की स्थापना की। भारत रत्न से सम्मानित होने वाले पंडित भीमसेन जोशी भी कैराना घराने के गायक हैं। यह घटना किंवदंती बन चुकी है कि एक बार संगीतकार मन्ना डे जब किसी काम से कैराना पहुंचे। कैराना की सीमा में प्रवेश करने से पहले उन्होंने अपने जूते उतारकर हाथों में पकड़ लिए। इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने जवाब दिया कि यह धरती महान संगीतकारों की है और इस धरती पर वो जूतों के साथ नहीं चल सकते।
पंडित भीमसेन जोशी और रोशन आरा बेगम जैसे बड़े शास्त्रीय संगीतकार देने वाले कैराना आज राजनीतिक विवाद की चक्की में पिस रहा है।

कैराना के आंकड़े
सासंद हुकुम सिंह ने कैराना से पलायन करने वाले 346 हिंदू परिवारों की सूची प्रस्तुत कर के एक ऐसा आंकड़ा सामने रख दिया कि जिनके बाद सभी कैराना के तमाम आंकड़ों को खंगालने को विवश हो उठे। 2011 जनगणना के अनुसार कैराना तहसील की की जनसंख्या एक लाख 77 हजार 121 थी जिसमें कैराना नगर पालिका की आबादी करीब 90 हजार थी। कैराना नगर पालिका परिषद के इलाके में 81 प्रतिशत मुस्लिम, 18 प्रतिशत हिंदू हैं तथा एक प्रतिशत अन्य धर्मों को मानने वाले लोग हैं।

और कड़वा सच है ....
कैराना मामले में बड़ी संख्या में हिन्दुओं के पलायन का सच जो भी हो किन्तु एक अकाट्य सच तेजी से उभर कर सामने आया, वह है कैराना में कानून व्यवस्था की बिगड़ी दशा। एसपी शामली विजय भूषण के अनुसार मुकीम गैंग के 29 सदस्य पुलिस के रेकॉर्ड में पंजीकृत हैं। इनमें से चार लोग पुलिस मुठभेड़ में मारे जा चुके हैं, जबकि मुकीम सहित बाकी 25 सदस्य जेल में हैं। इसके अलावा वहां फुरकान गैंग सक्रिय रहा है, लेकिन उसके गिरोह के भी सभी सदस्य इस समय जेल में हैं। मुकीम खूंखार अपराधी है। अभी वह जेल में है, लेकिन अधिकतर व्यावसायियों का आरोप है कि वह पुलिस की मदद से जेल से ही अपना गैंग चलाता है और अपने लड़कों को रंगदारी लेने के लिए भेजता है। जेल से फिरौती की मांग की जाती है, फोन पर धमकी दी जाती है। अगर पैसे नहीं दिए जाएं तो हत्या करा दी जाती है। वहीं, अन्य व्यापारियों का कहना है कि कैराना में हत्याएं लूट और अपहरण आम बात हो गई है। एक स्थानीय महिला के अनुसार-‘‘हम डर में हैं। हमारे बच्चे भी डरते हैं। शाम को निकल नहीं सकते। जब चाहे अपराधी लूट करते हैं। हमारे पड़ोसी तंग आकर जा चुके हैं। पुलिस कुछ करती नहीं जिससे माहौल और खराब हो रहा है। अपराधी किसी भी धर्म के हों, उन्हें सजा मिले।’’ इसी तरह एक अन्य स्थनीय नागरिक का कहना है कि ‘‘पिछले कुछ सालों से कैराना और आसपास के इलाकों में अपराध बढ़ा है। व्यवसायी वर्ग खौफजदा है।’’ कुछ अन्य कैराना निवासियों ने याद दिलाया कि इस इलाके में जिन अपराधों के बाद खौफ का माहौल है, उसमें दो मुस्लिम लड़कियों से बलात्कार के बाद हत्या  का मामला है और इस अपराध के अपराधी भी मुस्लिम हैं।
कुल मिला कर जो सच सामने आता जा रहा है उसका स्याह पक्ष यही है कि कैराना पर साम्प्रदायिकता का नहीं बल्कि अपराधियों के आतंक का ग्रहण लगा हुआ है। प्रश्नचिन्हों से घिरी हुई कैराना की कानून व्यवस्था और अपराधियों की दबंगई ने ही वहां के नागरिकों को अपना घर-द्वार छोड़ कर पलायन करने को विवश कर दिया है। इस कड़वे सच को स्वीकार करते हुए अखिलेश सरकार केा क़दम उठाने होंगे, सिर्फ़ राजनीतिक बचाव से कैराना की दशा नहीं सुधरेगी।
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Wednesday, June 15, 2016

चर्चा प्लस ... ‘‪उड़ता पंजाब‬’ से उठे सवाल ... - डॉ. ‪शरद सिंह‬

Dr (Miss) Sharad Singh


मेरा कॉलम ‪#‎चर्चा_प्लस‬ "दैनिक सागर दिनकर" में (15. 06. 2016) .....
 
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चर्चा प्लस 
उड़ता पंजाब’ से उठे सवाल 
- डॉ. शरद सिंह‬


उड़ता पंजाब में आपत्तिजनक माने गए दृश्य एवं संवाद सचमुच आपत्तिजनक माने जा सकते हैं, उदाहरण के लिए कुत्ते का नाम जैकी चैन रखा जाना। किसी व्यक्ति और वह भी दुनिया भर में सम्मान की दृष्टि से देखे जाने वाले अभिनेता के नाम का यूं मज़ाक उड़ाना उचित नहीं है। फिर भी प्रश्न यह उठता है कि जब बॉलीवुड एडल्टकॉमेडी बनता है और अश्लील नृत्य और संवाद परोसता है तब सेंसर बोर्ड आपत्ति क्यों नहीं करता जबकि सभी जानते हैं कि वीडियो सीडी का पायरेसी बाज़ार इन फिल्मों और इन फिल्मों के आपत्तिजनक दृश्यों को घर-घर तक पहुंचाता रहता है। सेंसर बोर्ड की भूमिका क्या संतुलित नहीं होनी चाहिए?

         फिल्म ‘उड़ता पंजाब’ पर सेंसरशिप का मामला बॉम्बे हाई कोर्ट तक पुहंच गया। बॉम्बे हाई कोर्ट ने सेंसर बोर्ड को नसीहत देते हुए कहा कि सेंसर बोर्ड का काम फिल्मों को सर्टिफिकेट देना है। दर्शकों को अपनी चॉइस है और उन्हें फिल्म देखकर खुद तय करने देना चाहिए। फिल्म में कुछ अश्लील दृश्यों को आपत्तिजनक बताने पर कोर्ट ने कहा, आप क्यों परेशान हैं, मल्टिप्लेक्स के दर्शक काफी परिपक्व हैं । फिल्में सिर्फ ऐसे कॉन्टेन्ट से नहीं चलतीं, उनमें एक कहानी होनी चाहिए। चाहे यह टीवी हो या सिनेमा, लोगों को इसे देखने दीजिए। सबकी अपनी चॉइस है। सेंसर बोर्ड का काम सर्टिफिकेट देना है।
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper
सेंसर बोर्ड के वकील ने कोर्ट से कहा कि फिल्म ‘उड़ता पंजाब’ में इस्तेमाल किए गए शब्द बेहद आपत्तिजनक हैं। ‘उड़ता पंजाब’ का डायलॉग ‘जमीन बंजर तो औलाद कंजर’ तो कुछ ज्यादा ही आपत्तिजनक है। सेंसर बोर्ड के पक्ष के वकील ने कहा, हमें फिल्म से कोई दिक्कत नहीं है लेकिन ‘कंजर’ और बाकी दूसरे शब्द फिल्म में फिट नहीं होते। दूसरी तरफ फिल्मनिर्माता के वकील ने कोर्ट में कहा कि फिल्म में मनमाने तरीके से कट लगाए हैं। फिल्मनिर्माता के पक्ष के वकील ने दलील दी कि फिल्म में ‘चित्ता वे’ शब्द पर सेंसर बोर्ड ने आपत्ति दर्ज कराई है जबकि इसी शब्द के साथ फिल्म का ट्रेलर पास कर दिया गया था। न्यायमूर्ति धर्माधिकारी ने नशीले पदार्थों की लत पर बनी ‘उड़ता पंजाब’ की तुलना पूर्व में जारी एक अन्य फिल्म ‘गो, गोवा गॉन’ से करते हुआ कि फिल्म में गोवा की स्थिति दर्शायी है जहां लोग पार्टी में मेलजोल बढ़ाने के लिए जाते हैं तथा प्रतिबंधित ड्रग्स लेते हैं। न्यायाधीश ने कहा, ‘‘यदि गोवा को उस फिल्म में ड्रग के दुरुपयोग के स्थल के रूप में दिखाया जा सकता है तो ‘उड़ता पंजाब’ में पंजाब को दिखाने में क्या बुराई है।’’ सेंसर बोर्ड के वकील ने दलील दी कि फिल्म में 13 बदलाव करने का समीक्षा समिति का सुझाव संबंधी आदेश मनमाना नहीं है तथा समिति ने यह सुझाव देते समय अपना दिमाग लगाया है। वकील ने कहा, ‘‘हम पंजाब एवं उसके लोगों के सन्दर्भ तथा फिल्म में इस्तेमाल की गई भाषा को लेकर आपत्ति कर रहे हैं।’’ दलीलों को सुनते हुए अदालत ने कहा कि वह सेंसर बोर्ड द्वारा दिये गये दो सुझावों से संतुष्ट नहीं है। इन सुझावों में समिति ने चंडीगढ़, अमृतसर, तरनतारन, जशनपुरा, मोगा एवं लुधियाना जैसे स्थानों का सन्दर्भ हटाने को कहा है। समीक्षा समिति के अन्य सुझावों के बारे में सेंसर बोर्ड के वकील ने कहा कि वह इस बारे में शुक्रवार को अपनी दलील देंगे। इसके बाद अदालत ने मामले को टाल दिया। अनुराग कश्यप की प्रोडक्शन कंपनी फैंटम फिल्म्स के वकील रवि कदम ने कहा कि आदेश बिना सोचे समझे जारी किया गया और यह मनमाना है। उन्होंने कहा, ‘‘पंजाब अवधारणा का अभिन्न अंग है तथा इसे फिल्म से अलग नहीं किया जा सकता।’’ कश्यप ने कहा कि पहले कभी भी बोर्ड या सरकार के साथ उनके झगड़ों में उन्होंने कभी यह महसूस नहीं किया कि उन्हें चुप किया जा रहा है, लेकिन यह मामला अलग है।
सेंसर बोर्ड की आपत्तियां
सेंसर बोर्ड ने फिल्म की शुरुआत में दिखे पंजाब के साइन बोर्ड को हटाने के लिए कहा गया है। दृश्यों और संवादों से पंजाब, जालंधर, चंडीगढ़, अमृतसर, तरनतारन, जशनपुरा, अंबेसर, लुधियाना और मोगा के नाम हटाना। पहले गाने से कुछ आपत्तजिनक शब्द हटाना। दूसरे गाने से आपत्तजिनक शब्दों को हटाना। कुछ गालियों के अलावा चुसा हुआ आम, गश्ती जैसे शब्दों को हटाना। इलेक्शन, एमपी, पार्टी, एमएलए, पंजाब और पार्लियामेंट जैसे शब्दों को हटाना। गाना नंबर 3 से सरदार के शरीर के पिछले हिस्से के खुजाने के दृश्य को हटाना। इंजेक्शन द्वारा ड्रग्स लेने के क्लोजअप शॉट्स को हटाना। भीड़ पर टॉमी के पेशाब करने के दृश्य को हटाना। ‘जमीन बंजर तो औलाद कंजर’ को हटाना। कुत्ते का नाम जैकी चैन से बदलना। सेंसर बोर्ड के अनुसार पहला डिस्क्लेमर ऑडियो विजुअल होना चाहिए और उसे बदलकर ऐसा करना होगा-यह फिल्म ड्रग्स के बढ़ते कुप्रभाव और इसके खिलाफ जारी जंग पर केंद्रति है। फिल्म के जरिए आज के युवा और सामाजिक तानेबाने पर ड्रग्स के बुरे असर को दिखाने की कोशिश की गई है। हम सरकार और पुलिस के ड्रग्स के खिलाफ संघर्ष की सराहना करते हैं।
विवाद का राजनीतिकरण
पंजाब में विपक्षी दल जहां सत्तारूढ़ अकाली दल-भाजपा पर ‘उड़ता पंजाब’ पर रोक लगाने के लिए अपने प्रभाव का इस्तेमाल करने का आरोप लगा रहे हैं, वहीं पंजाब के उप मुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल ने कहा कि सरकार को फिल्म से कोई लेना देना नहीं है और यह फिल्म निर्माताओं और सेंसर बोर्ड के बीच का मामला है। बादल के विरोधी और पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष अमरिंदर सिंह ने कहा कि उन्होंने ‘उड़ता पंजाब’ के निर्माताओं को पत्र लिखकर अनुरोध किया है कि 17 जून को इसे अमृतसर में रिलीज करने के लिए इसकी बिना सेंसर वाली सीडी उन्हें मुहैया कराएं। कश्यप को बसपा अध्यक्ष मायावती का समर्थन मिला जिन्होंने कहा कि ‘उड़ता पंजाब’ में कुछ गलत नहीं है और पार्टी इसका समर्थन करती है। उधर अशोक पंडित के बाद सेंसर बोर्ड के एक और सदस्य चंद्रमुख शर्मा ने भी इसके प्रमुख पहलाज निहलानी के कामकाज के खिलाफ सामने आते हुए कहा कि वह उनसे अनुरोध करेंगे कि सरकार के पास जाएं और सीबीएफसी का नाम बदलकर ‘सरकार का ‘पीआरओ’ करने के लिए कहें। पहलाज निहलानी भी पीछे नहीं रहे, उन्होंने स्वयं को ‘पीएम का चमचा’ घोषित कर के प्रधानमंत्री को भी लपेट लिया जबकि प्रधानमंत्री का इस प्रकरण से कोई लेनादेना नहीं है। लेकिन इस तरह से प्रधानमंत्री का नाम लिए जाने से विपक्षी दलों को राजनीतिक रंग गहरा करने का एक और आधार मिल गया।
सेंसर बोर्ड और फिल्म निर्माताओं की भूमिका
केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत एक संस्था है जो चलचित्र अधिनियम 1952 के अंतर्गत् फिल्मों के सार्वजनिक प्रदर्शन का नियंत्रण करता है। केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड द्वारा फिल्मों को प्रमाणित करने के बाद ही भारत में उसका सार्वजनिक प्रदर्शन कर सकते है। बोर्ड में केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त अध्यक्ष एवं गैर-सरकारी सदस्यों को शामिल किया गया है। बोर्ड का मुख्यालय मुंबई में स्थित है और इसके नौ क्षेत्रीय कार्यालय है जो मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, बैंगलूर, तिरुवनंतपुरम, हैदराबाद, नई दिल्ली, कटक और गुवहाटी में स्थित है। क्षेत्रीय कार्यालयों में सलाहकार पैनलों की सहायता से फिल्मों का परीक्षण करते है। चलचित्र अधिनियम 1952, चलचित्र (प्रमाणन) नियम 1983 तथा 5(ख) के तहत केन्द्र सरकार द्वारा जारी किए गए मार्गदर्शिका के अनुसरण करते हुए प्रमाणन की कार्यवाही की जाती है। फिल्मों को चार वर्गों के अन्तर्गत प्रमाणित किया जाता है।
फिल्म ‘उड़ता पंजाब’ के मामले में एक बार फिर सेंसर बोर्ड की कार्यप्रणाली पर प्रश्नचिन्ह उठ खड़े हुए हैं। इससे पहले भी कई फिल्में ऐसी रही जिन्हें सेंसर बोर्ड ने किसी न किसी वजह से या तो रोक दिया या फिर उसमें कई सारे सीन कटवा दिए। सेंसर बोर्ड अभी तक 1952 में बने नियमों के हिसाब से चल रहा है। यह सारे नियम अंग्रेजों द्वारा ही बनाए गए थे। फिल्म निर्माता कई बार मांग कर चुके हैं कि इन नियमों को समय के हिसाब से बदला जाना चाहिए।
‘उड़ता पंजाब’ में आपत्तिजनक माने गए दृश्य एवं संवाद सचमुच आपत्तिजनक माने जा सकते हैं, उदाहरण के लिए कुत्ते का नाम जैकी चैन रखा जाना। किसी व्यक्ति और वह भी दुनिया भर में सम्मान की दृष्टि से देखे जाने वाले अभिनेता के नाम का यूं मज़ाक उड़ाना उचित नहीं है। फिर भी प्रश्न यह उठता है कि जब बॉलीवुड एडल्टकॉमेडी बनता है और अश्लील नृत्य और संवाद परोसता है तब सेंसर बोर्ड आपत्ति क्यों नहीं करता जबकि सभी जानते हैं कि वीडियो सीडी का पायरेसी बाज़ार इन फिल्मों और इन फिल्मों के आपत्तिजनक दृश्यों को घर-घर तक पहुंचाता रहता है। ‘देल्ही बेल्ली’ के गालियों से भरपूर संवाद ‘क्या कूल हैं हम’, मस्ती’, ‘ग्रांड मस्ती’, ‘मिर्च’ के वयस्क दृश्यों को न केवल सिनेमाघरों में बल्कि प्रचार-प्रसार के भी भरपूर मौके मिले। सेंसर बोर्ड को उत्तेजना भड़काऊ ‘आईटम सांग्स’ पर आपत्ति नहीं होती जिनकों स्वयं ख्यातिलब्ध अभिनेत्रियां करती हैं किन्तु किसी-किसी फिल्म पर अचानक गाज गिर जाती है। सेंसर बोर्ड की भूमिका क्या संतुलित नहीं होनी चाहिए? इस प्रश्न पर गंभीरता से विचार किए जाने और सेंसर बोर्ड के नियमों को एक बार फिर तय किए जाने की आवश्यकता है। लेकिन क्या फिल्म निर्माताओं को कोई दायित्व नहीं है? फिल्म निर्माताओं को भी बॉलीवुड की प्रतिष्ठा को ध्यान में रख कर फिल्में बनानी चाहिए क्योंकि यही फिल्में दुनिया भर में भारतीय फिल्मों के रूप में देश का प्रतिनिधित्व करती हैं।

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Sunday, June 12, 2016

लेख .... स्त्री अधिकार और डॉ. आंबेडकर - शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
12.06.2016, ‘जनसत्ता’ में प्रकाशित लेख आप सब से शेयर कर रही हूं आप भी इसे पढि़ए.... http://epaper.jansatta.com/c/10948954
(12.06.2016) my article published in "Jansatta" news paper. Please read and share ....
 

लेख  
स्त्री अधिकार और डॉ. आंबेडकर 
- शरद सिंह
आमतौर पर यही मान लिया जाता है कि बाबासाहेब आंबेडकर समाज के दलित वर्ग के उद्धार के संबंध में क्रियाशील रहे। अतः उन्होंने दलित वर्ग की स्त्रियों के विषय में ही चिन्तन किया होगा। किन्तु आंबेडकर राष्ट्र को एक नया स्वरूप देना चाहते थे। एक ऐसा स्वरूप जिसमें किसी भी व्यक्ति को दलित जीवन न जीना पड़े। डॉ. आंबेडकर की दृष्टि में वे सभी भारतीय स्त्रियां दलित श्रेणी में थीं जो मनुवादी सामाजिक नियमों के कारण अपने अधिकारों से वंचित थीं।
बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर यह भली-भांति समझ गए थे कि जब तक स्त्रियों का ध्यान शिक्षा की ओर नहीं जाएगा तथा वे आत्मसम्मान को नहीं जानेंगी तब तक स्त्रियों का उद्धार संभव नहीं है। वे स्त्रियों को शिक्षा के महत्व से परिचित कराते थे। उन्होंने शिक्षा के साथ ही जीवन की उन बुनियादी बातों की ओर भी ध्यान आकृष्ट किया जिन पर आमतौर पर किसी का ध्यान नहीं जाता था। वे जहां भी, जो भी समझाते, एकदम स्पष्ट शब्दों में, जिससे उनकी कही हुई बातों का स्त्रियां सुगमता से समझ जातीं और आत्मसात करतीं। डॉ. आंबेडकर ने महाड में चर्मकार समुदाय की स्त्रियों को सम्बोधित करते हुए कहा था कि ‘‘साफ-सुथरा जीवन व्यतीत करो। इसकी कभी चिंता न करो कि तुम्हारे वस्त्र फटे-पुराने हैं। यह ध्यान रखो कि वे साफ हैं। आपके वस्त्र की स्वतंत्रता पर कोई प्रतिबंध नहीं लगा सकता और न ही कोई तुम्हें जेवरात के चुनाव से रोक सकता है। अपने मन को स्वच्छ बनाने का ध्यान रखो और आत्म सहायता की भावना अपने में पैदा करो।’’
इसी सभा में डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि ‘‘तुम्हारे पति और पुत्र शराब पीते हैं तो उन्हें खाना मत दो। अपने बच्चों को स्कूल भेजो। स्त्री-शिक्षा उतनी ही आवश्यक है जितनी कि पुरुष शिक्षा।’’
डॉ. आंबेडकर जिन दिनों जनजागरण अभियान के अंतर्गत मध्यप्रदेश, मुंबई और मद्रास (अब चेन्नई) का तूफानी दौरा कर रहे थे, उन दिनों उन्होंने मालाबार में दलित समुदाय के स्त्रियों को अपने भाषण के द्वारा समझाया कि ‘‘तुम्हारे गांव में ब्राह्मण चाहे कितना भी निर्धन क्यों न हो अपने बच्चों को पढ़ाता है। उसका लड़का पढ़ते-पढ़ते डिप्टी कलेक्टर बन जाता है। तुम ऐसा क्यों नहीं करतीं? तुम अपने बच्चों को पढ़ने क्यों नहीं भेजतीं? क्या तुम चाहती हो कि तुम्हारे बच्चे सदैव मृत पशुओं का मांस खाते रहें? दूसरों का जूठन बटोर कर चाटते रहे?’’
Jansatta, 12.06.2016 ... Stri Adhikar Aur Ambedkar - Dr Sharad Singh
19 जुलाई 1942 को नागपुर में सम्पन्न हुई ‘दलित वर्ग परिषद्’ की सभा में उपस्थित हजारों स्त्रियों को सम्बोधित करते हुए डॉ. आंबेडकर ने कहा था,‘‘‘नारी जगत् की प्रगति जिस अनुपात में हुई होगी, उसी मानदण्ड से मैं उस समाज की प्रगति को आंकता हूं।’’
नागपुर सभा में ही डॉ. आंबेडकर ने ग़रीबीरेखा से नीचे जीवनयापन करने वाली स्त्रियों से आग्रह किया था कि ‘‘आप सफ़ाई से रहना सीखो, सभी अनैतिक बुराइयों से बचो, हीन भावना को त्याग दो, शादी-विवाह की जल्दी मत करो और अधिक संताने पैदा मत करो। पत्नी को चाहिए कि वह अपने पति के कार्य में एक मित्र, एक सहयोगी के रूप में दायित्व निभाए। लेकिन यदि पति गुलाम के रूप में बर्ताव करे तो उसका खुल कर विरोध करो, उसकी बुरी आदतों का खुल कर विरोध करना चाहिए और समानता का आग्रह करना चाहिए।’’
डॉ. आंबेडकर के इन विचारों को कितना आत्मसात किया गया इसके आंकड़े घरेलू हिंसा के दर्ज़ आंकड़ें ही बयान कर देते हैं। जो दर्ज़ नहीं होते हैं ऐसे भी हजारों मामले हैं। सच तो यह है कि स्त्रियों के प्रति डॉ. आंबेडकर के विचारों को हमने भली-भांति समझा ही नहीं। उनके मानवतावादी विचारों के उन पहलुओं को लगभग अनदेखा कर दिया जो भारतीय समाज का ढांचा बदलने की क्षमता रखते हैं। जिन चौराहों पर डॉ. आंबेडकर की प्रतिमा पूरे सम्मान के साथ लगाई गई उनके आस-पास बसी बस्तियों में गंदगी के अंबार को वहां के निवासी ही दूर नहीं कर पाते हैं। गरीबीरेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले परिवारों में बच्चों की संख्या के विषय में कोई रोक-टोक नहीं है। अधिक हुआ तो ‘जितने हाथ-उतना काम’ वाला मुहावरा ओढ़ लेते हैं। स्त्री-पुरुष की जिस समानता की कल्पना डॉ. आंबेडकर ने की थी वह भी बहुसंख्यक परिवारों में आज भी नहीं है। पुरुष घर का मुखिया है, स्त्री को बराबरी का आर्थिक अधिकार भी नहीं है, भले ही वह कमाऊ स्त्री हो। वे रुढ़िवादियों से इन प्रश्नों के तार्किक उत्तर पूछते थे कि क्यों स्त्रियों को शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे बुनियादी अधिकारों से वंचित किया जाए? इस प्रश्न का सटीक एवं तार्किक उत्तर किसी के पास नहीं था।
हिन्दू समाज में ही नहीं अपितु भारतीय समाज के सभी वर्गों की स्त्रियों की दशा सुधारने की दिशा में डॉ. आंबेडकर ने ध्यान दिया। वे मुस्लिम समाज में स्त्रियों की पिछड़ी दशा के प्रति भी चिन्तित थे। आंबेडकर ने भारत विभाजन का तो पक्ष लिया पर मुस्लिम समाज में व्याप्त बाल विवाह की प्रथा और महिलाओं के साथ होने वाले दुव्र्यवहार की घोर निंदा की। उन्होंने कहा, ‘‘बहुविवाह और रखैल रखने के दुष्परिणाम शब्दों में व्यक्त नहीं किए जा सकते जो विशेष रूप से एक मुस्लिम महिला के दुःख के स्रोत हैं। जाति व्यवस्था को ही लें, हर कोई कहता है कि इस्लाम गुलामी और जाति से मुक्त होना चाहिए, जबकि गुलामी अस्तित्व में है और इसे इस्लाम और इस्लामी देशों से समर्थन मिला है। हालांकि कुरान में वर्णित ग़ुलामों के साथ उचित और मानवीय व्यवहार के बारे में पैगंबर के विचार प्रषंसा योग्य हैं लेकिन इस्लाम में ऐसा कुछ नहीं है जो इस अभिशाप के उन्मूलन का समर्थन करता हो। यदि गुलामी खत्म भी हो जाए पर फिर भी मुसलमानों के बीच जाति व्यवस्था रह जाएगी।’’
डॉ. आंबेडकर मुस्लिम स्त्रियों को गुलामों जैसी दशा से मुक्त कराना चाहते थे। उन्होंने अपने लेखों में मुस्लिम समाज में पर्दा प्रथा की भी आलोचना की। उन्होंने आगे लिखा कि भारतीय मुसलमान अपने समाज का सुधार करने में विफल रहे हैं जबकि इसके विपरीत तुर्की जैसे देशों ने अपने आपको बहुत बदल लिया है। अतः भारतीय मुसलमानों को भी अपनी स्त्रियों की दशा सुधारने के बारे में विचार करना चाहिए। आगे चल कर डॉ. आंबेडकर के इन सकारात्मक विचारों का मुस्लिम समाज सुधारकों पर व्यापक प्रभाव पड़ा।
देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद डॉ. भीमराव आंबेडकर की अध्यक्षता में एक समिति की स्थापना की गई। डॉ. आंबेडकर स्त्री-पुरुष समानता के अग्रदूत थे। वे स्त्रियों विकास में बाधा के लिए धर्म व जाति प्रथा को दोषी मानते थे। वे जानते थे इन बाधाओं को संवैधानिक ढंक से ही दूर किया जा सकता है। उन्होंने जाति-धर्म व लिंग निरपेक्ष संविधान में उन्होंने सामाजिक न्याय की पकिल्पना की। हिन्दू कोड बिल के जरिए उन्होंने संवैधानिक स्तर से महिला हितों की रक्षा का महत्वपूर्ण कार्य किया । डा. आंबेडकर ने महिलाओं को मतदान करने का अधिकार प्रदान कर उनकी राजनैतिक अधिकारों की। हिन्दू समाज के लिए कोई पर्सनल लॉ नहीं था। भारतीय हिन्दू समाज में विवाह, उतराधिकार, दत्तक, निर्भरता या गुजारा भत्ता आदि का नियम-कानून एक समान नहीं था। इसाई तथा पारसियों में एक समय में एक स्त्री से शादी का प्रावधान था। वहीं मुस्लिम समुदाय में चार शादियों को मान्यता प्राप्त है। लेकिन हिन्दू समाज में कोई पुरूष पर कोई सीमा नहीं थी। विधवा को मृत पति के संपत्ति पर अधिकार नहीं था। सवर्ण समाज में विधवा विवाह की परंपरा नहीं थी। इन्हीं परिस्थितियों को ध्यान में रख कर हिन्दू कोड बिल तैयार किया गया जिसमें में हिन्दू विवाह अधिनियम, विशेष विवाह अधिनियम, गोद लेना (दत्तक ग्रहण) अधिनियम, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, निर्बल तथा साधनहीन पारिवारिक सदस्यों का भरण पोषणउतराधिकारी अधिनियम, हिन्दू विधवा को पुनर्विवाह अधिनियम आदि का प्रवधान था। डॉ. आंबेडकर ने जैसे ही हिन्दू कोड बिल को संसद में पेश किया। संसद के अंदर और बाहर विरोध की लहर दौड़ गई। धार्मिक कट्टरपंथियों से लेकर आर्य समाजी तक डॉ. अंबेडकर के विरोधी हो गए। संसद में भी इस बिल का विरोध किया गया और सदन में इस बिल को सदस्यों का समर्थन नहीं मिल पा रहा था। किन्तु डॉ. अंबेडकर अडिग रहे। उनका कहना था कि- ‘‘मुझे भारतीय संविधान के निर्माण से अधिक दिलचस्पी और खुशी हिन्दू कोड बिल पास कराने में है।’’
डॉ. आंबेडकर ने विधेयक को विखंडित करके लागू किए जाने के विरोध में डॉ. भीमराव आंबेडकर ने नेहरू मंत्रिमण्डल से अपना त्यागपत्र भी दे दिया था। अंततः सरकार को हिन्दू कोड बिल विधेयक पास करना पड़ा। हिन्दू कोड बिल के जैसा महिला हितों की रक्षा करने वाला विधान बनाना भारतीय कानून के इतिहास की महत्वपूर्ण घटना है। न्यायशास्त्र की दृष्टि से ‘रामायण’ का विश्लेषण करते हुए किन्तु डॉ. अंबेडकर ने कहा कि ‘‘अगर राम और सीता का मामला मेरे कोर्ट में होता तो मैं राम को आजीवन कारावास की सजा देता।’’ उनके  शब्द स्त्रियों के प्रति उनकी तीव्र मानवीयता की ओर संकेत करते हैं।
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