Monday, February 27, 2017

डॉ (सुश्री) शरद सिंह " निर्मल साहित्य सम्मान 2017 " से सम्मानित

Dr (Miss) Sharad Singh Honored by " Nirmal Sahitya Samman 2017 "

आर्ष परिषद् सागर द्वारा पंचम वार्षिकोत्सव समारोह एवं युवा महोत्सव 2017 के अवसर पर मुझे (डॉ शरद सिंह को) स्त्रीविमर्श एवं कथा साहित्य में विशेष अवदान के लिए ‘‘निर्मल साहित्य सम्मान 2017’’ से सम्मानित किया। वैसे यह महोत्सव विगत 12 जनवरी 2017 को आयोजित किया गया था किन्तु उसी दिन मैं विश्व पुस्तक मेला, दिल्ली में कहानीपाठ के लिए आमंत्रित थी अतः उस समय समारोह में मैं उपस्थित नहीं हो सकी थी। अतः कल दिनांक 27.02.2017 को श्यामलम संस्था एवं आर्ष परिषद् के संयुक्त आयोजन में मुझे यह सम्मान प्रदान किया गया। मैं हृदय से आभारी हूं आर्ष परिषद् एवं श्यामलम् संस्था परिवार के इस आत्मीयता की एवं उत्साहवर्द्धन की।
       इस अवसर पर डॉ. वर्षा सिंह, डॉ. सुरेश आचार्य, डॉ. सुशील तिवारी, डॉ. महेश तिवारी, डॉ. शशि कुमार सिंह, उमाकांत मिश्र, डॉ. कुसुम सुरभि अवस्थी, कपिल बैसाखिया, रमाकांत मिश्र, रिषभ भारद्वाज, डॉ. श्याम मनोहर सिरोठिया, निर्मलचंद ‘निर्मल, डॉ. वंदना गुप्ता, डॉ. गजाधर सागर, अशीष ज्योतिषी, आशीष द्विवेद्वी, जे.पी. पाण्डेय, शिवरतन यादव आदि बड़ी संख्या में साहित्यकार एवं कलाविद् उपस्थित थे।
Dr (Miss) Sharad Singh Honored by Nirmal Sahitya Samman 2017

Dr (Miss) Sharad Singh Honored by Nirmal Sahitya Samman 2017

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Wednesday, February 22, 2017

गरल पीते हैं पर शिव नहीं बनते

Dr Sharad Singh
मेरे कॉलम चर्चा प्लस में "दैनिक सागर दिनकर" में ( 22.02. 2017) .....My Column #Charcha_Plus in "Sagar Dinkar" news paper

 

चर्चा प्लस : 


गरल पीते हैं पर शिव नहीं बनते
- डॉ. शरद सिंह

प्रतिदिन अखबार का पन्ना खोलते ही या फिर रात को टीवी पर प्राईम टाईम समाचार देखते हुए हम सभी न जाने कितने घूंट गरल के पीते हैं। गरल यानी ज़हर। जी हां, यह ज़हर ही तो है जो अमानवीय घटनाओं के रूप में हमारे दिमाग़ी-शरीर में सदमें का नील डालता रहता है। हम जैसे शिव का नीलकंठ हों। शिव ने तो गरल पिया और जगत का कल्याण कर दिया लेकिन हम अपना, अपने परिवार या अपने समाज का भी कल्याण नहीं कर पाते हैं। क्यों कि हम गरल तो पीते हैं मगर स्वयं को शिव नहीं बना पाते हैं।
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper
भगवान शिव का पौराणिक देवताओं में एक विशेष स्थान है। माना जाता है कि शिव संहारक भी है, शिव पालक भी है। पौराणिक ग्रंथों में शिवरात्रि से जुडी अनेकों कथाएं है। ‘शिवपुराण’ की एक कथा के अनुसार एक बार देवताओं और असुरों के बीच समुद्र मंथन किया गया। क्षीर सागर के मंथन के लिए भगवान् विष्णु ने कछुए का अवतार लेकर स्तम्भ को आधार दिया। वासुकी नाग को सागर मंथन की रस्सी बनाया गया और स्तम्भ के शीर्ष पर ब्रह्मा विराजमान हुए। नाग के एक छोर को देवताओं ने तो दुसरे छोर को असुरों ने पकड़ा और सागर का मंथन शुरू किया। जैसे जैसे सागर मंथन शुरू हुआ समुद्र से अलग अलग वस्तुएं बाहर आने लगी। देवता और दानव आपस में चीज़ें बांटने लगे। जब अमृत निकला तो दोनों में बहस होने लगी की कौन अमृत पिएगा। ऐसे में भगवन विष्णु ने छल से मोहिनी रूप धर असुरों को आसक्त कर दिया और देवताओं को अमृत पिला दिया। अमृत के बाद निकला ब्रह्मांड का सबसे तीव्र और खतरनाक विष हलाहल। अब हलाहल को ग्रहण करने के लिए कोई भी तैयार नहीं हुआ ना देवता ना असुर। हलाहल इतना भीषण विष था कि जो कोई भी इसके सम्पर्क में आये उसकी मृत्यु सुनिश्चित थी। ऐसे में जब सबने हार मान ली तो भगवान् शिव ने हलाहल को ग्रहण करने का निर्णय लिया। शिव ने हलाहल पी लिया लेकिन उसे अपने गले से नीचे नहीं उतरने दिया। भीषण विष के प्रभाव से भगवान शिव का गला नीला पड़  गया। इसके बाद भगवान शंकर को नीलकंठ नाम दिया गया। भगवान शिव के हलाहल पीने से देवता और असुर दोनों की समस्या का निवारण हो गया और समुद्र मंथन में आई बाधा टल गयी। प्रतिवर्ष उत्साह से शिवरात्रि मनाने वाले हम लोग गरल पीना तो सीख गए लेकिन जगत का उद्धार करना नहीं सीख सके हैं। प्रतिदिन अखबार का पन्ना खोलते ही या फिर रात को टीवी पर प्राईम टाईम समाचार देखते हुए हम सभी न जाने कितने घूंट गरल के पीते हैं। गरल यानी ज़हर। जी हां, यह ज़हर ही तो है जो अमानवीय घटनाओं के रूप में हमारे दिमाग़ी-शरीर में सदमें का नील डालता रहता है। हम जैसे शिव का नीलकंठ हों। शिव ने तो गरल पिया और जगत का कल्याण कर दिया लेकिन हम अपना, अपने परिवार या अपने समाज का भी कल्याण नहीं कर पाते हैं। क्यों कि हम गरल तो पीते हैं मगर स्वयं को शिव नहीं बना पाते हैं।
महिलाओं के विरुद्ध अपराध, बुजुर्गों के विरुद्ध अपराध, साइको होता युवावर्ग ये सभी हमारी चिन्ता के विषय हैं। ये चिन्ता के विषय होने भी चाहिए। हताहत होने वाले व्यक्ति आखिर हमारे समाज का अभिन्न हिस्सा होते हैं। फिर भी लगभग प्रतिदिन आधा दर्जन जघन्य वारदात पढ़ने को मिल जाती हैं। अपराध-समाचारों को प्रमुखता न देने वाले आख़बार में भी एक पन्ने पर कम से कम चार ऐसे समाचार पढ़ने को मिल जाते हैं जिनमें किसी युवती, किसी नाबालिग बच्ची अथवा किसी उम्रदराज़ महिला के शोषण किए जाने या फिर उसके साथ अमानवीय ढंग से मारपीट किए जाने की घटना दर्ज़ होती है। पिछले कुछ वर्षों में बलात्कार के मामले इतनी तेजी से बढ़े हैं कि उनके आंकड़े स्तब्ध कर देते हैं। हाल ही में एक युवती के रेल से कट कर मर जाने का समाचार अख़बारों में छपा। वह युवती शौच के लिए घर से बाहर निकली थी। रास्ते में उसे दो-तीन युवकों ने घेर लिया और उसके साथ बदसलूकी करने लगे। वह युवती घबरा कर भागी और रेलवे लाईन पर जा पहुंची। घबराहट में सामने से आती रेल पर उसका ध्यान नहीं गया और वह रेल से कट कर मर गई। क्या किसी युवती की ऐसी दर्दनाक मौत होनी चाहिए? क्या वह युवती किसी की बेटी, किसी की बहन या इस समाज का हिस्सा नहीं थी? लेकिन उसकी दर्दनाक मौत एक ऐसा समाचार बन कर रह गई जिसे हम लगभग रोज पढ़ते हैं और उससे नज़रें भी चुराते हैं। इस पर हम चटखारे ले कर चर्चा करते हैं कि किसने किसको ‘‘गधा’’ कहा और किसने किसको ‘‘संपत्ति’’ कहा लेकिन अपराध के बढ़ते दर और क्रूरता पर चिन्तन करने से हम कतराते हैं। क्यों कि हमें लगता है कि ऐसा करने से क्या फायदा? हम कौन अपराध रोक सकते हैं? मिथक में ही सही पर शिव भी तो ऐसा सोच सकते थे कि मैं दूसरों के लिए क्यां स्वयं कष्ट उठाऊं? वे भी समुद्र मंथन में निकले गरल को अपने कंठ में धारण करने से मना कर सकते थे। तब क्या इस संसार का अस्तित्व होता? कम से कम शिवारात्रि को धूम-धाम से मनाते समय नही ंतो मनाने के बाद हमें इस बारे में एक बार सोचना चाहिए।
राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो की नवीनतम जानकारी के अनुसार वर्ष 2015 में भारत में महिलाओं के साथ अपराध के कुल 327394 मामले दर्ज किए गए। महिलाओं के साथ सबसे ज्यादा अपराध उत्तरप्रदेश में 35527 दर्ज हुए। इसके बाद पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, राजस्थान और मध्यप्रदेश का स्थान आया है। बड़े राज्यों में तमिलनाडु में सबसे कम मामले 5847 मामले दर्ज हुए। देश में दहेज प्रताड़ना के 9894 मामले दर्ज हुए। उत्तरप्रदेश में 2766, बिहार में 1867, झारखंड में 1552 और कर्नाटक में 1541 मामले दर्ज हुए।
अपहरण के दर्ज मामलों की कुल संख्या 59277 रही है। महिलाओं के अपहरण के सबसे ज्यादा मामले उत्तरप्रदेश में 10135 दर्ज हुए है।् इसके बाद बिहार में 5158 महाराष्ट्र में 5096, असम में 5039 और मध्यप्रदेश में 4547 मामले दर्ज हुए। उल्लेखनीय है कि महिलाओं के अपहरण का सबसे बड़ा कारण उन्हें शादी के मजबूर करना पाया गया। अपहरण के 31715, 53.60 प्रतिशतद्ध मामलों में महिलाओं का अपहरण ही शादी के लिए किया गया। वर्ष 2014 में ऐसे मामलों की संख्या 30874 थी, यानी इस कारण से किए गए अपहरणों की संख्या में वृद्धि हुई है।
राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो ने जब 30 अगस्त 2016 को भारत में अपराधों के आकंड़े जारी किए तो मध्यप्रदेश का एक दुखदायी पक्ष उभरकर सामने आया कि यहां महिलाओं के साथ बलात्कार  के सबसे ज्यादा मामले दर्ज हुए। एनसीआरबी के अनुसार भारत में महिलाओं के साथ बलात्कार के कुल 34651 मामले दर्ज हुए। यानी देश में हर घंटे बलात्कार के कहीं न कही चार मामले दर्ज होते हैं। इनमें से सबसे ज्यादा बलात्कार के मामले मध्यप्रदेश 4391 में दर्ज हुए हैं। इसके बाद महाराष्ट्र, 4144 राजस्थान, 3644 और फिर उत्तरप्रदेश 3025 का स्थान आता है। ओडिशा में बलात्कार के 2251 मामले दर्ज हुए हैं।
राष्ट्रीय राजधानी में अधिकांश वरिष्ठ नागरिक, जिन अपराधों के शिकार होते हैं उनमें लूटपाट के 145 मामले, ठगी के 123 मामले, हत्या के 14 मामले, गंभीर रूप से घायल करना के 9 मामले, जबरन वसूली के 3 मामले, गैर इरादतन हत्या के 2, और भारतीय दंड संहिता के अन्य धाराओं के तहत अधिकतम 950 मामले शामिल हैं। वर्ष 2014 में एनसीआरबी ने पहली बार वरिष्ठ नागरिकों के खिलाफ हुए अपराधों की गणना की थी, जिसमें राष्ट्रीय राजधानी में अपराध दर प्रति एक लाख 89 थी जो बढ़कर साल 2015 हो गई। अर्थात यह वृद्धि प्रति एक लाख 19.8 है। एनसीआरबी के आंकड़े गत 30 अगस्त को जारी किए गए। देखभाल और माता-पिता के कल्याण और वरिष्ठ नागरिक अधिनियम, 2007 में 60 साल या उससे अधिक उम्र के लोगों को वरिष्ठ नागरिक के रूप में पारिभाषित किया गया है। वरिष्ट नागरिकों पर हो रहे जुर्म के मामले को दर्ज कराने की मुहिम की शुरुआत 2014 से की गई है। एनसीआरबी के आंकड़े के अनुसार, साल 2015 में देशभर में वरिष्ठ नागरिकों के खिलाफ हुए विभिन्न अपराधों के कुल 20,532 मामले दर्ज किए गए, जबकि साल 2014 में यह संख्या 18,714 थी। लगातार दूसरे साल 2015 में भी दिल्ली वरिष्ठ नागरिकों के लिए सबसे असुरक्षित शहर के रूप में दर्ज की गई है। यह जानकारी ‘भारत में अपराध’ के आंकड़ों के आधार पर एनसीआरबी की रिपोर्ट में दी गई।
  हम आंकड़े बांचते हैं और पुलिस व्यवस्था तथा प्रशासन को कोसते हैं। यदि हमारा राजनीतिक दृष्टिकोण रहा तो उस राजनीतिक दल की नीतियों को कोस लेते हैं जिनसे हमारे विचार नहीं मिलते हैं। हम ठीक उसी तरह का आचरण अपनाते हैं जैसे कोई काग़ज़ी शेर हो, जो न अपना प्रभाव छोड़ सकता है और न कुछ कर सकता है। स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि आज हम अपने ‘सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय’ के सिद्धांत को भुला कर सिर्फ़ अपनी बेटियों, अपनी बहनों की सुरक्षा के लिए दुआएं करना जानते हैं, पराई बेटी या बहन के लिए नहीं। जिस दिन हम महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों के विरुद्ध होने वाले अपराधों पर अंकुश लगाने में सफल हो जाएंगे, उस दिन सच्चे अर्थ में कल्याणकारी बन जाएंगे और शिवत्व को प्राप्त लेंगे।
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Monday, February 20, 2017

लेखिका शरद सिंह का व्यक्तित्व एवं कृतित्व

डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
आधुनिक हिन्दी कथा लेखन के क्षेत्र में डॉ. (सुश्री) शरद सिंह का महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने अपने पहले उपन्यास ‘‘पिछले पन्ने की औरतें’’ से हिन्दी साहित्य जगत में अपनी विशेष उपस्थिति दर्ज़ कराई। परमानद श्रीवास्तव जैसे समीक्षकों ने उनके इस उपन्यास को हिन्दी उपन्यास शैली का ‘‘टर्निंग प्वाइंट’’ कहा है। यह हिन्दी में रिपोर्ताजिक शैली का ऐसा पहला मौलिक उपन्यास है जिसमें आंकड़ों और इतिहास के संतुलिक समावेश के माध्यम से कल्पना की अपेक्षा यथार्थ को अधिक स्थान दिया गया है। यही कारण है कि यह उपन्यास हिन्दी के ‘‘फिक्शन उपन्यासों’’ के बीच न केवल अपनी अलग पहचान बनाता है अपितु शैलीगत एक नया मार्ग भी प्रशस्त करता है। ‘‘पिछले पन्ने की औरतें’’ के बाद रिपोर्ताज़ शैली के कई उपन्यास हिन्दी में आए किन्तु उस तरह का जोखिम किसी में भी अब तक दिखाई नहीं दिया है जैसा कि शैलीगत जोखिम ‘‘पिछले पन्ने की औरतें’’ में उठाया गया था। शरद सिंह जहां एक ओर नए कथानकों को अपने उपन्यासों एवं कहानियों का विषय बनाती हैं वहीं उनके कथा साहित्य में धारदार स्त्रीविमर्श दिखाई देता है। शरद सिंह के तीनों उपन्यासों ‘‘पिछले पन्ने की औरतें’’, ‘‘ पचकौड़ी’’ और कस्बाई सिमोन’’ के कथानकों में परस्पर भिन्नता के साथ ही इनमें शैलीगत् भिन्नता भी है। ‘‘पिछले पन्ने की औरतें’’ में वे जहां बेड़िया समाज की स्त्रियों के जीवन पर विस्तार से प्रकाश डालती हैं, वहीं पचकौड़ी में बुन्देलखण्ड के सामंतवादी परिवेश में स्त्रीजीवन की दशा का चित्रण करते हुए वर्तमान सामाज, राजनीति एवं पत्रकारिता पर भी गहरा विमर्श करती हैं। ‘‘कस्बाई सिमोन’’ में वे एक अलग ही विषय उठाती हुई ‘‘लिव इन रिलेशन’’ को अपने उपन्यास का आधार बनाती हैं। इसी प्रकार उनकी प्रत्येक कहानियों के कथानक एक नए प्रसंग एवं परिस्थिति से साक्षात्कार कराते हैं।
अपने कथालेखन के विषयों के संदर्भ में स्वयं शरद सिंह का मानना है कि ‘‘मेरे कथानक समाज और आम स्त्रियों के जीवन से उठ कर आते हैं।’’


व्यक्तित्व :

व्यवहार में सरल, सहज, मिलनसार एवं आकर्षक व्यक्तित्व की धनी लेखिका शरद सिंह का जन्म मध्यप्रदेश के एक छोटे से जिले पन्ना में 29 नवम्बर 1963 को हुआ था। जब वे साल भर की थीं तभी उनके सिर से उनके पिता श्री रामधारी सिंह का साया उठ गया। उनका तथा उनकी बड़ी बहन वर्षा सिंह का पालन-पोषण उनकी मां विद्यावती सिंह क्षत्रिय ने किया। उनकी विधवा मां को अपने ससुराल पक्ष से कोई सहारा न मिलने के कारण अपने पिता संत श्यामचरण सिंह के घर रहना पड़ा। शरद सिंह जी के नाना संत श्यामचरण सिंह शिक्षक होने के साथ ही गांधीवादी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। तत्कालीन मध्यभारत (वर्तमान वर्धा एवं छत्तीसगढ़ क्षेत्र) में उन्होंने अपने प्राणों की परवाह न करते हुए नशाबंदी के लिए अभियान चलाए। वे बालिका शिक्षा के प्रबल समर्थक थे। इसीलिए उन्होंने अपने पुत्र कमल सिंह के साथ ही पुत्री विद्यावती सिंह को भी पढ़ने-लिखने के लिए सदैव प्रोत्साहित किया। उदारमना संत श्यामचरण सिंह ने उज्जैन स्थित अपना घर बेच कर स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की सहायता की। इससे उन्हें समाज में तो सम्मान मिला किन्तु आर्थिक स्थिति डावांडोल हो गई। तब पुत्री विद्यावती सिंह ने नौकरी करने का निर्णय किया और शीघ्र ही वे शिक्षका बन गईं। उन्होंने अपने छोटे भाई कमल सिंह की पढ़ाई का जिम्मा भी अपने ऊपर ले लिया। घर की आर्थिक स्थिति सम्हल गई। किन्तु नियति ने कुछ और ही विधान रच रखा था। विद्यावती सिंह का देवरिया (उत्तर प्रदेश) निवासी रामधारी सिंह से विवाह हुआ। वे एक के बाद एक तीन पुत्रियों की मां बनीं। जिनमें मंझली पुत्री जन्म लेने के कुछ माह बाद ही चल बसी। उनके ससुराल पक्ष को पुत्रियों का जन्म नहीं भाया और उनका व्यवहार कटु होता चला गया। इस बीच विद्यावती सिंह शिक्षण कार्य भी करती रहीं। जब वे अपने पिता के घर पर थीं तभी एक दिन अचानक अपने पति रामधारी सिंह की मुत्यृ की सूचना मिली। इसके बाद मानो उनका जीवन ही बदल गया। ससुराल पक्ष के मुंहमोड़ लेने के बाद उन्होंने तय किया कि वे किसी भी परिवारजन से एक पैसा भी लिए बिना अपनी दोनों पुत्रियों का लालन-पालन करेंगी। मां की यही दृढ़ता उनकी दोनों पुत्रियों में भी आई।

शरद सिंह की मां विद्यावती सिंह अपने समय की ख्यातिलब्ध लेखिका एवं कवयित्री रही हैं। वे विद्यावती ‘‘मालविका’’ के नाम से साहित्य सृजन करती रही हैं। ‘‘हिन्दी संत साहित्य पर बौद्ध धर्म का प्रभाव’’ विषय पर लिखे गए शोधात्मक गं्रथ पर विद्यावती जी को जहां आगरा विश्वविद्यालय ने पीएच. डी. की उपाधि प्रदान की वहीं इस ग्रंथ ने उन्हें हिन्दी साहित्य में उल्लेखनीय प्रतिष्ठा दिलाई। यह कहा जा सकता है कि साहित्य सृजन का गुण शरद सिंह को अपनी मां एवं बहन डॉ. वर्षा सिंह से विरासत में मिला। डॉ. वर्षा सिंह हिन्दी ग़ज़ल के क्षेत्र में प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हैं। उनके पांच ग़ज़ल संग्रह एवं ग़ज़ल विधा पर एक शोधात्मक पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है।

शरद सिंह जी अपने नामकरण के संबंध में बताती हैं कि जब उनकी मां को प्रसव के उपरांत यह बताया गया कि उन्होंने पुत्री को जन्म दिया है तो उनकी मां के मुख से यही निकला-‘‘वर्षा विगत शरद ऋतु आई। मेरी बड़ी बेटी का नाम वर्षा रखा गया है और अब छोटी का नाम शरद रखूंगी।’’ यद्यपि बाद में परिवार के कुछ लोगों ने मां को समझाना चाहा कि यह ‘‘लड़कों वाला नाम’’ है किन्तु मां को यही नाम भा गया था और वे अपनी बेटी को यही नाम देना चाहती थीं। तब शरद जी के नाना संत श्यामचरण सिंह ने हस्तक्षेप किया और तय हुआ कि ‘‘शरद कुमारी सिंह’’ नाम रखा जाएगा। लेकिन वास्तव में इस नाम का प्रयोग कभी किया ही नहीं गया और जन्मपत्री से लेकर विद्यालय में दाखिले के समय भी ‘‘शरद सिंह’’ नाम ही रखा गया।

शरद सिंह जी की आरम्भिक स्कूली शिक्षा पन्ना में महिला समिति द्वारा संचालित शिशुमंदिर विद्यालय में हुई। इसके बाद शासकीय मनहर कन्या उच्चतर माध्यमिक वि़द्यालय, पन्ना में दसवीं कक्षा तक अध्ययन किया। इस बीच उनके नाना संत श्यामचरण सिंह का निधन हो गया। उन्हें अपने नाना से बेहद लगाव था। उनकी मनोदशा देखते हुए मां ने उन्हें मामा कमल सिंह के पास पढ़ने भेज दिया। इस प्रकार शरद सिंह जी ने शहडोल जिले के छोटे से कस्बे बिजुरी जो मुख्यरूप से कोयला उत्पादक क्षेत्र था, में अपने मामा जी के पास रहते हुए ग्यारहवीं बोर्ड परीक्षा उत्तीर्ण की। वे अपनी पढ़ाई के बारे में बताती हैं कि ‘‘मेरी दीदी वर्षा सिंह बायोलॉजी की छात्रा रहीं, इसलिए मुझे भी विज्ञान विषय अच्छा लगता था। या यूं कहूं कि उनकी देखा-देखी मैंने भी आर्ट और साईंस में से साईंस को चुना। मगर ग्यारहवीं में कुछ ऐसे अनुभव हुए जिन्होंने मुझे विज्ञान विषय छोड़ने पर मजबूर कर दिया। एक अनुभव तो ट्यूशन को ले कर था। हमारे स्कूल के केमिस्ट्री के शिक्षक प्रत्येक छात्र को विवश करते थे कि विद्यालयीन समय के बाद सब उनसे ट्यूशन पढ़ा करें। ट्यूशन न पढ़ने पर वे फेल करने की धमकी दिया करते थे। मुझे स्वाध्याय की आदत थी इसलिए मैंने ट्यूशन ज्वाइन नहीं किया। मामा जी के कारण वे मुझे प्रैक्टिकल में फेल तो नहीं कर सके लेकिन साईंस टीचर्स की इस लोलुपता ने मुझे उनके प्रति विमुख कर दिया। दूसरी घटना जूलॉजी के प्रैक्टिकल के समय की है। हमारे जूलॉजी के शिक्षक ट्यूशनखोर नहीं थे वे एक अच्छे शिक्षक थे। लेकिन मुझे अपने जीवन में जब पहली बार मेंढक का डिसेक्शन करना पड़ा और एक गलत नस कट जाने के कारण पूरी डिसेक्शन-ट्रे खून से भर गई तो मेरे हाथ-पैर कांपने लगे। तब मुझे पहली बार अनुभव हुआ कि मैं रक्तरंजित दृश्य नहीं देख सकती हूं। उस दिन मुझे अपने शिक्षक के कहने पर उस कटे हुए मृत मेंढक की टांगें पकड़नी पड़ीं। जिसके कारण दो दिन तक मुझसे खाना नहीं खाया गया। तभी मैंने तय कर लिया था कि हायर सेकेंड्री के बाद मैं साईंस विषय छोड़ कर आर्ट में दाखिला ले लूंंगी।’’

उस समय दस धन दो प्रणाली लागू नहीं थी अतः विद्यालय के बाद की शिक्षा के लिए वे वापस पन्ना अपनी मां के पास आ गईं। जहां उन्होंने शासकीय छत्रसाल स्नातकोत्तर महाविद्यालय में बी. ए. प्रथम वर्ष में दाखिला लिया। उनके विषय थे- हिन्दी विशिष्ट, अर्थशास्त्र और इतिहास। अपने महाविद्यालय में वे एक कुशाग्रबुद्धि की छात्रा के रूप में जानी जाती थीं। साहित्यिक गतिविधियों के साथ ही वे खेलकूद में भी आगे थीं। अपने महाविद्यालयीन जीवन में उन्होंने कैरम, टेबलटेंनिस तथा बैडमिंटन में छात्रावर्ग की ट्राफियां जीतीं। उन्होंने बी.ए. तृतीय वर्ष की पढ़ाई मध्यप्रदेश के ही दमोह नगर के शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय से की। उस दौरान उन्होंने अपने महाविद्यालय की पत्रिका का आमुख भी डिज़ाइन किया। उन्हें बी.ए. की उपाधि सागर विश्वविद्यालय से प्राप्त हुई। इसके बाद परिवार में चल रहे उतार-चढ़ावों के कारण उन्होंने स्वाध्यायी छात्रा के रूप में अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय से मध्यकालीन भारतीय इतिहास विषय में पहला एम. ए. किया। इस दौरन वे पत्रकारिता से जुड़ चुकी थीं।              

शरद जी की मां विद्यावती मालविकासन् 1988 में सेवानिवृत्ति के बाद संभागीय मुख्यालय सागर में जा बसीं। उस समय तक उनकी बड़ी बहन वर्षा जी मध्यप्रदेश वि़द्युत मंडल में नौकरी करने लगी थीं। उन्होंने भी अपना स्थानांतरण सागर करा लिया। इस प्रकार सन् 1988 से शरद सिंह जी का स्थाई निवास सागर हो गया। सागर में उनका परिचय विख्यात पुरातत्वविद् प्रो. कृष्णदत्त बाजपेयी से हुआ। शरद जी ने उन्हें अपने वे प्रकाशित लेख दिखाए जो उन्होंने इतिहास एवं पुरास्थलों पर लिखे थे। शरद जी की रुचि देखते हुए प्रो. बाजपेयी ने उन्हें प्राचीन भारतीय इतिहास एवं पुरातत्व में एम.ए. करने की सलाह दी। शरद जी को सलाह बहुत भाई और उन्होंने दूसरा एम.ए. प्राचीन भारतीय इतिहास एवं पुरातत्व विषय में मेरिट में प्रथम स्थान पाते हुए किया। इसके लिए उन्हें स्वर्णपदक से भी सम्मानित किया गया।

शरद जी की अध्ययनयात्रा अन्य विद्यार्थियों की भांति आसान नहीं रही। प्राचीन भारतीय इतिहास एवं पुरातत्व में एम.ए. प्रथम वर्ष की परीक्षा प्रथम श्रेणी के अंकों से उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने द्वितीय वर्ष की तैयारी शुरू कर दी किन्तु इस बीच बी. एड. के रिक्रूटमेंट टेस्ट में वे चुन ली गईं और सभी ने उन्हें बाध्य किया कि जब वे पहले से ही एक एम.ए. कर चुकी हैं तो बी. एड. के इस व्यावयायिक अध्ययन के अवसर को उन्हें नहीं छोड़ना चाहिए। अंततः उन्होंने भी बी. एड. करना स्वीकार कर लिया और इस एक वर्षीय पाठ्यक्रम में प्रौढ़शिक्षा विषय में ‘‘डिस्टिंक्शन’’ हासिल करते हुए प्रथम श्रेणी मेरिट में स्थान पाया। इसके बाद उन्होंने प्राचीन भारतीय इतिहास एवं पुरातत्व विषय की अपनी अधूरी पढ़ाई को पूरा करने के लिए एम.ए. द्वितीय वर्ष की स्वाध्यायी छात्रा के रूप में परीक्षा दी। उन्होंने डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर (पूर्व सागर विश्वविद्यालय) में मेरिट में प्रथम स्थान पाते हुए एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की और स्वर्णपदकभी प्राप्त किया। 
अपने संस्मरणात्मक-लेख ‘‘डॉ. विवेकदत्त झा : जिनके शब्द कभी भुलाए नहीं जा सकते’’ में डॉ शरद सिंह ने अपनी पीएच. डी. के संबंध में अपने अनुभवों को इन शब्दों में लिखा है- ‘‘डॉ. विवेकदत्त झा से मेरा परिचय विख्यात इतिहासविद् प्रो. कृष्णदत्त बाजपेयी ने कराया था। सन् 1988 में जब मैंने सागर में निवास आरम्भ किया तब मुझे प्रो. कृष्णदत्त बाजपेयी से प्राचीन भारतीय इतिहास पर चर्चा-परिचर्चा का सुअवसर प्राप्त हुआ। उस समय वे पद्माकर नगर के अपने आवास में रहने आ चुके थे। मैंने अकसर अपनी मां डॉ. विद्यावती ‘मालविका’ या फिर अपनी बड़ी बहन डॉ. वर्षा सिंह के साथ उनसे मिलने जाया करती थी। मैंने उन्हें अपने वे प्रकाशित लेख दिखाए जो मैंने नचना, अजयगढ़, कालंजर आदि बुंदेलखण्ड और विशेष रूप से पन्ना ज़िले के इतिहास एवं पुरास्थलों पर लिखे थे। उस समय मैं अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय से मध्यकालीन भारतीय इतिहास में एम. ए. कर चुकी थी। लेकिन प्राचीन भारतीय इतिहास एवं पुरास्थलों के प्रति मेरी रुचि देखते हुए प्रो. बाजपेयी ने मुझे प्राचीन भारतीय इतिहास एवं पुरातत्व में एम.ए. करने की सलाह दी। मुझे उनकी सलाह बहुत भाई और मैंने स्वाध्यायी छात्रा के रूप में दूसरा एम.ए. प्राचीन भारतीय इतिहास एवं पुरातत्व विषय में मेरिट में प्रथम स्थान पाते हुए किया। इसके लिए मुझे विश्वविद्यालय की ओर से स्वर्णपदक से भी सम्मानित किया गया। एम. ए. करने के दौरान डॉ. विवेकदत्त झा से मेरा परिचय हुआ। पुरास्थलों के प्रति उनका रुझान एवं बस्तर क्षेत्र में की गई उनकी खोजों ने मुझे अत्यंत प्रभावित किया। इसीलिए जब कुछ समय बाद मैंने डॉक्टरेट करने का निर्णय लिया तो मुझे गाईड के रूप में सबसे पहला स्मरण डॉ. विवेकदत्त झा का ही आया। तब तक प्रो. कृष्णदत्त बाजपेयी का निधन हो चुका था और उनके बाद डॉ. विवेकदत्त झा ही थे जिनके मार्ग निर्देशन में मैं अपना शोधकार्य करना चाहती थी।
     सन् 1998 में मैं डॉ. विवेकदत्त झा से मिली और उनसे गाईड बनने का अनुरोध किया। वे सहर्ष मान गए। उन्होंने मुझसे शोध क्षेत्र संबंधी मेरी रुचि की जानकारी ली और मुझे ‘‘छतरपुर जनपद की मूर्ति कला का अध्ययन’’ विषय में शोधकार्य करने की सलाह दी। छतरपुर जिले के अंतर्गत् खजुराहो भी आता था जो मेरी रुचि का केन्द्रबिन्दु था। मैंने उत्साहपूर्वक अपना कार्य आरम्भ कर दिया। डॉ. झा के निर्देशानुसार छतरपुर ज़िले में उपलब्ध मूर्तियों को क्लासीफाई करते हुए शैव प्रतिमाओं से अपना कार्य आरम्भ किया। डॉ. झा बहुत तार्किक ढंग से अपनी बात कहते थे, चाहे वह किसी का हौसला बझ़ाने की ही बात क्यों न हो। मैंने अन्य छात्रों के संबंध में तो उनकी यह खूबी देखी ही थी, साथ ही मुझे स्वयं भी इसका अनुभव हुआ। हुआ यूं कि जब मैंने अपना आधार-कार्य डॉ. झा को नोट्स के रूप में दिखाया तो वे मुझे प्रोत्साहित करते हुए बोले -‘‘शिव कल्याणकारी होते हैं, आपने उन्हीं से अपना कार्य आरम्भ किया है, बहुत बढ़िया।’’
मैंने 24 महीने के न्यूनतम समय में अपना कार्य पूर्ण कर लेना चाहती थी। संयोगवश उन्हीं दिनों डॉ. झा को विश्ववि़द्यालय के ब्याज़ हॉस्टल्स का इंचार्ज बना दिया गया। जिससे उनकी व्यस्तता इतनी अधिक बढ़ गई कि मैंने अपने शोधकार्य की जांच करवाने उनके पास विभाग में पहुंचती तो वे छात्रों से घिरे पाए जाते। आए दिन कोई न कोई उलझन छात्रों के आगे आ जाती और वे उसे ले कर डॉ. झा के सम्मुख जा खड़े होते। उन दिनों मोबाईल तो थे नहीं कि मैंने उनसे उनकी तात्कालिक व्यस्तता का पता लगा कर विभाग जाने, न जाने का निर्णय लेती।
दो-तीन बार यह स्थिति आई कि मुझे अपना शोधकार्य जंचवाए बिना ही विभाग से वापस लौटना पड़ा। मुझे लगा कि इस तरह तो मैं 24 महीने की समय सीमा में अपना कार्य पूरा नहीं कर सकूंगी। अंततः एक दिन मैंने डॉ. झा से मैंने स्पष्ट शब्दों में पूछा-‘‘सर, यदि आपकी व्यस्तता इसी तरह चलती रही तो मैं निर्धारित समय में अपनी पीएच.डी. कभी पूरी नहीं कर सकूंगी। अब बताइए कि मैं क्या करूं?’’
डॉ. झा मेरी हताशा और झुंझलाहट भांप गए और वे सहज भाव से मुस्कुराते हुए बोले,‘‘मैं भी आपसे इस बारे में चर्चा करना चाह रहा था। मैं तो यहां के झमेले में इतना उलझ गया हूं कि मैं किसी भी तरह का आश्वासन देने की स्थिति में नहीं हूं। एक छात्र का मामला सुलझ नहीं पाता है कि दूसरा सामने आ खड़ा होता है। अब ये बच्चे जो अपने घर से दूर रह रहे हैं, मुझ पर भरोसा कर के मेरे पास दौड़े-दौड़े आते हैं तो मेरा भी दायित्व बन जाता है कि मैंने इनकी समस्याओं को सुलझाऊं। लेकिन इन सब चक्कर में आपकी समस्या बढ़ती जा रही है। मैं जानता हूं कि आप न्यूनतम समय सीमा में अपना शोधकार्य पूरा कर लेना चाहती हैं। मुझे विश्वास है कि आप पूरा कर भी सकती हैं और इसीलिए मेरी आपको सलाह है कि यदि आप जल्दी अपना कार्य समाप्त करना चाहती हैं तो अपना गाईड बदल लें।’’
मैंने उनकी बात सुर कर अवाक रह गई। मेरे गाईड स्वयं मुझसे कह रहे थे कि मैं उनके स्थान पर कोई और गाईड चुन लूं? कहीं डॉ. झा मुझसे नाराज़ तो नहीं हो गए? 
‘‘सर, आप ये क्या कह रहे हैं?’’ मुझे लगा कि उन्होंने मेरी बात का बुरा मान गए है।
‘‘अरे, घबराइए नहीं! मैंने बहुत प्रैक्टिकल बात कर रहा हूं। मुझे आपकी कार्यक्षमता और लेखन पर पूरा भरोसा है। आप जब चाहे मुझसे सलाह ले सकती हैं। बस, ऑफीशयली आप ऐसे सिंसियर गाईड के अंडर में काम करिए जो सब झमेलों से दूर रहता हो।’’ डॉ. झा ने मुझे तसल्ली देते हुए कहा।
‘‘मैं ऐसा नहीं कर सकती हूं।’’ मैंने कहा।
‘‘आपको यही करना चाहिए, मैं भी नहीं चाहता हूं कि आपके कार्य में अनावश्यक विलम्ब हो और वह भी मेरे कारण। मुझे इससे दुख होगा।’’ डॉ. झा ने मुझे समझाते हुए कहा।
‘‘तो फिर आप ही सुझाइए कि मुझे किसके अंडर में काम करना चाहिए?’’ मैंने उन्हीं से पूछा। तब उन्होंने प्रो. कृष्णदत्त बाजपेयी के सुपुत्र डॉ. एस. के. बाजपेयी का नाम सुझाया और साथ में यह भी कहा कि, ‘‘आप चिन्ता न करें, मैं उनसे इस बारे में बात कर लूंगा।’’
उन्होंने जैसा कहा था, वैसा ही किया। उन्होंने डॉ. एस. के. बाजपेयी से मेरे बारे में चर्चा की और वे मेरे गाईड बनने को सहर्ष तैयार हो गए। चूंकि उस समय तक मेरी आर.डी.सी. नहीं हुई थी अतः मैंने अपना विषय बदलने का निर्णय लिया जिसके लिए डॉ. बाजपेयी भी मान गए। इसके बाद मैंने ‘‘खजुराहो की मूर्तिकला का सौंदर्यात्मक अध्ययन’’ विषय में डॉ. एस.के. बाजपेयी के मार्ग निर्देशन में अपना शोधकार्य निर्धारित समय सीमा यानी 24 माह में पूर्ण कर लिया। जैसा कि डॉ. विवेकदत्त झा ने डॉ. बाजपेयी के बारे में कहा था, वे ठीक वैसे ही ‘‘सिंसियर गाईड’’ निकले। बेशक़ मैंने डॉ. विवेकदत्त झा के आधीन शोधकार्य नहीं किया लेकिन जब भी मुझे किसी सलाह की आवश्यकता पड़ी तो बेझिझक मैंने उनसे सलाह ली और उन्होंने भी उचित निर्देशन दिया। यह मेरा सौभाग्य रहा कि उन्हें मेरे कार्य के प्रति पूरा विश्वास था। जब मेरा पीएच. डी. का वाईवा होना था उस समय डॉ. झा का बस्तर जाने का कार्यक्रम तय हो गया। उनकी अनुपस्थिति में डॉ. अग्रवाल ने चार्ज सम्हाला। मुझे पता चला कि इतिहासकार डॉ. एस. आर. शर्मा को मेरा वाईवा लेने आना है। मैंने डॉ. झा से कहा कि यदि वाईवा वाले दिन वे भी सागर में ही रहते तो अच्छा रहता, मुझे उनकी उपस्थिति से संबंल मिलता। तब डॉ. झा ने जो कहा, वह मुझे आज तक शब्दशः याद है-‘‘आपने शोध का अपना पूरा कार्य स्वयं किया है, फिर चिन्ता कैसी? परीक्षक जो भी पूछे उत्तर दे दीजिएगा। मुझे पूरा विश्वास है कि आराम से वाईवा दे लेंगी।’’ उनके इन शब्दों ने मुझे भरोसा दिलाया और मैंने सचमुच बहुत शांत भाव से अपना वाईवा दिया।’’ 

इसी दौरान उन्होंने इम्मानुएल ब्याज़ उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, सागर में शिक्षिका का कार्य करना आरम्भ कर दिया था। इसके बाद स्थानीय जैन उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में भी उन्होंने लगभग तीन साल शिक्षण कार्य किया। तदोपरांत डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर के आडियो वीजुएल रिसर्च सेंटर में उनकी नियुक्ति असिस्टेंट प्रोड्यूसर के रूप में हो गई और शिक्षण कार्य से उनका नाता सदा के लिए टूट गया। ए.वी.आर.सी. में काम करते हुए उन्होंने अनेक शैक्षणिक फिल्मों के लिए पटकथालेखन, संपादन सहित फिल्म निर्माण का कार्य किया। किन्तु शीघ्र ही उन्हें अहसास हुआ कि वे एक कर्मचारी के रूप में बंधकर कार्य नहीं कर सकती हैं। तब उन्होंने स्वतंत्र लेखिका के रूप में लेखन कार्य करने एवं समाज सेवा से जुड़ने निर्णय लिया। उनके इस निर्णय के संबंध में वे बताती हैं कि -‘‘मेरे इस निर्णय ने मुझे अपने और परायों के भेद को अच्छी तरह समझा दिया। अरे लगी-लगाई नौकरी छोड़ दी कहते हुए कुछ लोगों ने मुंह मोड़ लिया लेकिन वहीं कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्होंने मेरे इस निर्णय का स्वागत किया। मेरे इस निर्णय में मेरा हर तरह से साथ दिया मेरी दीदी वर्षा सिंह ने।’’

शरद सिंह अपने अविवाहित रहने के संबंध में हंस कर कहती हैं कि ‘‘कोई ऐसा नहीं मिला जो मुझे पूरी तरह समझ पाता।’’


कृतित्व :

शरद सिंह जी ने बाल्यावस्था से ही लेखनकार्य शुरू कर दिया था। वे अपने लेखन एवं प्रकाशन के संबंध में बताती हैं कि -‘‘मुझे लेखन की प्रेरणा मिली अपनी मां डॉ. विद्यावती मालविकाजो स्वयं सुविख्यात साहित्यकार रहीं हैं। मेरी दीदी डॉ. वर्षा सिंह जो ग़ज़ल विधा की सुपरिचित हस्ताक्षर हैं। मैं बचपन में मां और दीदी दोनों की रचनाएं पत्रा-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते देखती और सोचती कि किसी दिन मेरी रचनाएं भी कहीं प्रकाशित हों। इस संदर्भ में रोचक प्रसंग यह है कि उस समय मैं कक्षा आठ में पढ़ती थी। मैंने अपनी पहली रचना मां और दीदी को बिना बताए, उनसे छिपा कर वाराणसी से प्रकाशित होने वाले समाचारपत्र दैनिक ‘‘आज’’ में छपने के लिए भेज दी। कुछ दिन बाद जब वह रचना प्रकाशित हो गई और वह अंक मां ने देखा तो वे चकित रह गईं। यद्यपि उनसे कहीं अधिक मैं चकित रह गई थी। उस समय मुझे आशा नहीं थी कि मेरी पहली रचना बिना सखेद वापसीके प्रकाशित हो जाएगी। आज इस प्रसंग के बारे में सोचती हूं तो लगता है कि उस समय जो भी साहित्य संपादक थे उनके हृदय में साहित्यिक-नवांकुरों को प्रोत्साहित करने की भावना अवश्य रही होगी। शेष प्रेरणा जीवन के अनुभवों से ही मिलती गई और आज भी मिलती रहती है जो विभिन्न कथानकों के रूप में मेरी कलम के माध्यम से सामने आती रहती है।’’

24 जुलाई 1977 को शरद सिंह जी की पहली कहानी दैनिक जागरण के रीवा (म.प्र.) संस्करण में प्रकाशित हुई जिसका शीर्षक था भिखारिन। स्त्री विमर्श संबंधी उनकी पहली प्रकाशित कहानी - काला चांदथी जो जबलपुर (म.प्र.) से प्रकाशित होने वाले समाचारपत्र दैनिक नवीन दुनिया, के नारीनिकुंजपरिशिष्ट में 28 अप्रैल 1983 को प्रकाशित हुई थी। इस परिशिष्ट का संपादन वरिष्ठ साहित्यकार राजकुमार सुमित्रकिया करते थे। राष्ट्रीय स्तर पर उनकी प्रथम चर्चित कहानी गीला अंधेराथी। जो मई 1996 में भारतीय भाषा परिषद् कलकत्ता से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘‘वागर्थ’’ में प्रकाशित हुई थी। उस समय वागर्थके संपादक प्रभाकर श्रोत्रिय थे।

‘‘फेमिना’’(हिन्दी संस्करण) के सितम्बर 2016 के अंक में प्रकाशित उनका वक्तव्य उनकी लेखनयात्रा से परिचित कराता है- ‘‘भाषा-शैली की दृष्टि से कच्ची सी कहानी। उस समय मेरी आयु 14 वर्ष थी। कविताएं, नवगीत, व्यंग्य, रिपोर्ताज़, बहुत कुछ लिखती रही मैं अपनी लेखन यात्रा में। उम्र बढ़ने के साथ जीवन को देखने का मेरा दृष्टिकोण बदला, अपने छात्र जीवन में कुछ समय मैंने संवाददाता के रूप में पत्रकारिता भी की। उस दौरन में मुझे ग्रामीण जीवन को बहुत निकट से देखने का अवसर मिला। मैंने महसूस किया कि शहरों की अपेक्षा गांवों स्त्रियों का जीवन बहुत कठिन है।

सच्चे अर्थों में मैं अपनी पहली कहानी गीला अंधेराको मानती हूं। यह कलकत्ता से प्रकाशित होने वाली साहित्यिक पत्रिका वागर्थके मई 1996 अंक में प्रकाशित हुई थी। गीला अंधेराको मैं अपनी डेब्यू स्टोरीभी कह सकती हूं। यह एक ऐसी ग्रामीण स्त्री की कहानी है जो सरपंच तो चुन ली जाती है लेकिन उसके सारे अधिकार उसकी पति की मुट्ठी में रहते हैं। स्त्रियों के विरुद्ध होने वाले अपराध को देख कर वह कसमसाती है। उसका पति उसे कोई भी क़दम उठाने से रोकता है, धमकाता है लेकिन अंततः वह एक निर्णय लेती है आंसुओं से भीगे गीले अंधेरे के बीच। इस कहानी में बुंदेलखंड का परिदृश्य और बुंदेली बोली के संवाद हैं।

मेरी इस पहली कहानी ने मुझे ग्रामीण, अनपढ़ स्त्रियों के दुख-कष्टों के क़रीब लाया। शायद यहीं से मेरे स्त्रीविमर्श लेखन की यात्रा भी शुरू हुई। अपने उपन्यासों पिछले पन्ने की औरतें’, ‘पचकौड़ीऔर कस्बाई सिमोनकी नींव में गीला अंधेराकहानी को ही पाती हूं। दरअसल, मैं यथार्थवादी लेखन में विश्वास रखती हूं और अपने आस-पास मौजूद जीवन से ही कथानकों को चुनती हूं, विशेषरूप से स्त्री जीवन से जुड़े हुए।’’ 

शरद सिंह का मानना है कि पत्रकारिता और फिल्म निर्माण के अनुभवों ने उनके लेखन को विविधता प्रदान की।

शरद सिंह जी ने यूनीसेफ, रेडियो एवं टेलीविजन के लिए अनेक धारावाहिक लिखे हैं।


टेलीफिल्म्स एवं डाक्यूमेंट्रीज़ :

   1. दूरदर्शन के लिए डाक्यूमेंट्रीज़ एवं टेलीफिल्म्स की पटकथा लेखनं।

   2. यूजीसी के लिए शैक्षिक टेली फिल्म्स की पटकथा लेखन एवं संपादन।

   3. यूनीसेफ एवं आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों के लिए रेडियो धारावाहिक लेखन।


मंचन  : छुई मुई डॉट कामनाटक का प्रसार भारती द्वारा देश के पांच शहरों में मंचन।


सम्मान एवं पुरस्कार :

1.            संस्कृति विभाग, भारत सरकार का गोविन्द वल्लभ पंत पुरस्कार -2000’ ‘न्यायालयिक विज्ञान की नई चुनौतियां’, पुस्तक के लिए।

2.            साहित्य अकादमी, मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद, म.प्र. शासन का ‘‘पं. बालकृष्ण शर्मा नवीन पुरस्कार’’

3.            मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन का ‘‘वागीश्वरी सम्मान

4.            ‘नई धारासम्मान, पटना, बिहार।

5.            ‘विजय वर्मा कथा सम्मान’, मुंबई ।

6.          ‘पं. रामानन्द तिवारी स्मृति प्रतिष्ठा सम्मान’, इन्दौर मध्य प्रदेश।

7.            ‘जौहरी सम्मान’, भोपाल मध्यप्रदेश।

8.            ‘गुरदी देवी सम्मान’, लखनऊ, उत्तर प्रदेश।

9.           ‘अंबिकाप्रसाद दिव्य रजत अलंकरण-2004’, भोपाल, मध्य प्रदेश।

10.       ‘श्रीमंत सेठ भगवानदास जैन स्मृति सम्मान’, सागरमध्य प्रदेश।

11.      ‘कस्तूरी देवी चतुर्वेदी लोकभाषा लेखिका सम्मान -2004’, भोपाल, मध्य प्रदेश।

12.         ‘‘मां प्रभादेवी सम्मान’’, भोपाल, मध्य प्रदेश।

13.         ‘‘‘शिव कुमार श्रीवास्तव सम्मान’’, सागरमध्य प्रदेश।

14.         ‘‘पं. ज्वाला प्रसाद ज्योतिषी सम्मान’’, सागरमध्य प्रदेश।

15.         ‘‘निर्मल साहित्य सम्मान’’, सागरमध्य प्रदेश।

16.      मकरोनिया नगर पालिका परिषद्, सागर द्वारा ‘‘नागरिक सम्मान’’

                 - आदि अनेक राष्ट्रीय एवं प्रादेशिक स्तर के सम्मान।


अनुवाद :  

1.            कहानियों का पंजाबी, उर्दू, उड़िया, मराठी एवं मलयालम में अनुवाद

2. दो कहानी संग्रह पंजाबी में अनूदित एवं प्रकाशित


शोध  : 

      शरद सिंह के कथासाहित्य पर देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में शोध।


व्याख्यान :

अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी सिंहस्थ 2016 उज्जैन, चंडीगढ़ लिटरेचर फेस्टिवल, अजमेर लिटरेचर फेस्टिवल, अंतर्राष्ट्रीय इतिहास सेमिनार आदि राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय आयोजनों में साहित्य, इतिहास एवं पुरातत्व विषय पर व्याख्यान।


स्तम्भ लेखन :

1.            ‘नेशनल दुनिया’ (दिल्ली) में महिला कॉलम।

2.            ‘इंडिया इन साईड’ (लखनऊ) मासिक पत्रिका में वामामहिला कॉलम।

3.            ‘दैनिक आचरण’ (सागर) समाचारपत्र में बतकावव्यंग्य कॉलम।

4.            दैनिक सागर दिनकरसमाचारपत्र में चर्चा प्लसकॉलम।


ब्लॉग लेखन एवं वेब-संचालन : सन् 2010 से निरन्तर....

 शरदाक्षरा’                     


 समकालीन कथायात्रा’              


     ‘ए मिरर ऑफ इंडियन हिस्ट्री’    


    शरद सिंह’            



फेसबुक पेज संचालन : पिछले पन्ने की औरतेंसन् 2012 से निरन्तर....               



प्रमुख रेडियो धारावाहिक -

1.            आधी दुनिया पूरी धूप (स्त्री जागरूकता विषयक-नाट्य धारावाहिक -13 एपीसोड )

2.            मियां बीवी और शांताबाई (हास्य-नाट्य धारावाहिक -10 एपीसोड)

3.            गदर की चिनगारियां (1857 की क्रांति में महिलाओं के योगदान पर-नाट्य धारावाहिक- 13 एपीसोड)

4.            1857-बुन्देलखण्ड की क्रांतिभूमि के महायोद्धा (नाट्य धारावाहिक-13 एपीसोड)

5.            फैमिली नंबर वन (यूनीसेफ हेतु नाट्य धारावाहिक-13 एपीसोड)

6.            यूनीसेफ हेतु धरावाहिक के अंतर्गत् 04 एपीसोड

7.            आकाशवाणी भोपाल हेतु सॉफ्टवेयरप्रोडक्शन के अंतर्गत् 03 एपीसोड

8.            अक्कड़-बक्कड़ बम्बे बो (बाल धारावाहिक-13 एपीसोड )

9.            ज्ञान दर्शन (इग्नू) लखनऊ केन्द्र के लिए खजुराहो पर फीचर

10.         ‘‘सुभद्रा कुमारी चौहान की कहानियां’’ (नाट्य धारावाहिक-13 एपीसोड)

11.         ‘‘बाबा नागार्जुन का कथा साहित्य’’ (नाट्य धारावाहिक-13 एपीसोड)


अन्य नाटक, फीचर ,वार्ताओं ,कहानियों एवं कविताओं का प्रसारण -

        आकाशवाणी के सागर, छतरपुर, भोपाल, लखनऊ, जयपुर  एवं दिल्ली केन्द्र से।         

टेलीविज़न हेतु - प्रमुख फीचर :

1.            गोदना  (लोकरंजन-फीचर फिल्म)

2.            नारे सुअटा और मामुलिया (लोकरंजन-फीचर फिल्म)

3.            बीवी ब्यूटी क्वीन   (लाफ्टर सीरियल)

4.            यही है ज़िन्दगी    (एड्स संबंधी नाटक)


टेलीविज़न हेतु फिल्म पटकथा - तुम्हें आना ही होगा


यूजीसी हेतु प्रमुख शैक्षिक फिल्में -

1.            शैलाश्रयों के भित्तिचित्र (धारावाहिक-शोध, पटकथा एवं संपादन)

2.            खजुराहो की मूर्तिकला (धारावाहिक-शोध, पटकथा एवं संपादन)

3.            देउरकोठार के बौद्ध स्तूप (पटकथा एवं संपादन)

4.            संत प्राणनाथ एवं प्रणामी सम्प्रदाय (शोध, पटकथा )

5.            गर्ल्स एन.सी.सी. (शोध, पटकथा एवं संपादन)

6.            प्रो.डब्ल्यू .डी.वेस्ट ,व्यक्तित्वः भाग-दो (शोध, पटकथा एवं संपादन)

7.            आयुर्वेद एक जीवन शैली (संपादन)




        डॉ. (सुश्री) शरद सिंह की अब तक प्रकाशित पुस्तकें


उपन्यास  -


पिछले पन्ने की औरतें -बेड़िया समुदाय की स्त्रियों के जीवन पर आधारित उपन्यास                                                                        - चार संस्करण प्रकाशित.2005, 2007, 2009, 2014 सामयिक प्रकाशन, 3320-21, जटवाड़ा, दरियागंज, नई दिल्ली.110002

पचकौड़ी - सामाजिक विसंगतियों के कारण मानसिक, दैहिक शोषण का शिकार होते                                                                                              स्त्री-पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास-2009, सामयिक प्रकाशन, 3320-21, जटवाड़ा, दरियागंज, नई दिल्ली.110002

कस्बाई सिमोन - उपन्यास-लिव इन रिलेशन पर आधारित उपन्यास, 2012, सामयिक प्रकाशन, 3320-21, जटवाड़ा, दरियागंज, नई दिल्ली.110002

शिखण्डी : स्त्री देह से परे - उपन्यास-लिव इन रिलेशन पर आधारित उपन्यास, 2012, सामयिक प्रकाशन, 3320-21, जटवाड़ादरियागंजनई दिल्ली.110002



स्त्री विमर्श -


पत्तों में क़ैद औरतें -तेंदूपत्ता संग्रहण एवं बीड़ी निर्माण से जुड़ी स्त्रियों के जीवन पर आधारित पुस्तक -2010,  सामयिक प्रकाशन, 3320-21, जटवाड़ा, दरियागंज, नई दिल्ली.110002

औरत : तीन तस्वीरें -वैश्विक-समाज के विभिन्न क्षेत्रों की स्त्रियों के जीवन पर आधारित पुस्तक -2014,  सामयिक प्रकाशन, 3320-21, जटवाड़ा, दरियागंज, नई दिल्ली.110002

डॉ. अम्बेडकर का स्त्रीविमर्श - 2012, भारत बुक सेंटर, 17, अशोक मार्ग,लखनऊ, उ.प्र.


कहानी संग्रह -


बाबा फ़रीद अब नहीं आते -स्त्रियों के जीवन को रेखांकित करता कहानी-1999, सामयिक प्रकाशन, 3320-21, जटवाड़ा, दरियागंज, नई दिल्ली.110002

तीली-तीली आग -स्त्रियों के जीवन को रेखांकित करता कहानी संग्रह 2003, सामयिक प्रकाशन, 3320-21, जटवाड़ा, दरियागंज, नई दिल्ली.110002

छिपी हुई औरत और अन्य कहानियां -स्त्री जीवन पर आधारित कहानियां-2009 वाणी प्रकाशन, 21-, अंसारी रोड, दरियागंज, नईदिल्ली

राख तरे के अंगरा - बुन्देलखण्ड के सामाजिक एवं स्त्रियों के जीवन पर कहानी संग्रह -2004 , सागर प्रकाशन, मकरोनिया चौराहा, सागर, म.प्र.

गिल्ला हनेरा - पंजाबी में अनूदित कहानी संग्रह गिल्ला हनेरा’ -2005, उड़ान पब्लिकेशन, मानसा, पंजाब-151505

श्रेष्ठ जैन कथाएं - जैन धर्म की उपदेशात्मक एवं ज्ञानवर्द्धक कहानियां-2008, सुनील साहित्य सदन, 3320-21, जटवाड़ा, दरियागंज, नई दिल्ली.110002

श्रेष्ठ सिख कथाएं - जैन धर्म की उपदेशात्मक एवं ज्ञानवर्द्धक कहानियां-2012, सुनील साहित्य सदन, 3320-21, जटवाड़ा, दरियागंज, नई दिल्ली.110002


राष्ट्रवादी व्यक्तित्व श्रृंखला -


दीनदयाल उपाध्याय - जीवनी -2015, सामयिक प्रकाशन, 3320-21, जटवाड़ा, दरियागंज, नई दिल्ली.110002

श्यामा प्रसाद मुखर्जी - जीवनी -2015, सामयिक प्रकाशन, 3320-21, जटवाड़ा, दरियागंज, नई दिल्ली.110002

वल्लभ भाई पटेल - जीवनी -2015, सामयिक प्रकाशन, 3320-21, जटवाड़ा, दरियागंज, नई दिल्ली.110002

महामना मदन मोहन मालवीय- जीवनी -2016, सामयिक प्रकाशन, 3320-21, जटवाड़ा, दरियागंज, नई दिल्ली.110002

महात्मा गांधी- जीवनी -2016, सामयिक प्रकाशन, 3320-21, जटवाड़ा, दरियागंज, नई दिल्ली.110002

अटल बिहारी वाजपेयी - जीवनी -2016, सामयिक प्रकाशन, 3320-21, जटवाड़ा, दरियागंज, नई दिल्ली.110002


इतिहास -


खजुराहो की मूर्ति कला के सौंदर्यात्मक तत्व - खजुराहो की मूर्तिकला के सौंदर्य पर विहंगमदृष्टि-2006, विश्वविद्यालय प्रकाशन,चौक, वाराणसी, उ.प्र.

प्राचीन भारत का सामाजिक एवं आर्थिक इतिहास - प्राचीन भारत की सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्थाओं का विवरण -2008, विश्वविद्यालय प्रकाशन,चौक, वाराणसी, उप्र.


आदिवासी जीवन -


भारत के आदिवासी क्षेत्रों की लोककथाएं - भारत की लगभग सभी जनजातियों में प्रचलित लोककथाएं -2009, नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया, नेहरू भवन,5, इंस्टीट्यूशनल एरिया,फेज़-2, वसंत कुंज, नई दिल्ली - 110070

आदिवासियों का संसार -मध्यप्रदेश के आदिवासी जीवन पर-2005, इंटरनेशनल पब्लिशिंग कार्पोरेशन, 21-,अंसारी रोड, दरियागंज, नईदिल्ली-110002

आदिवासी परम्परा - मध्यप्रदेश के आदिवासी जीवन पर-2005, विद्यानिधि,  1/5971,कबूल नगर, शाहदरा, दिल्ली-110032 

आदिवासी लोक कथाएं -मध्यप्रदेश के आदिवासी जीवन पर-2005, साक्षरा प्रकाशन, सी-5/एस-2,ईस्ट ज्योति नगर, दुर्गापुरी चौक, शाहदरा, दिल्ली-110093

आदिवासी लोक नृत्य-गीत -मध्यप्रदेश के आदिवासी जीवन पर-2005, अरुणोदय प्रकाशन, 21-, अंसारी रोड, दरियागंज, नईदिल्ली-110002

आदिवासियों के देवी-देवता -मध्यप्रदेश के आदिवासी जीवन पर-2005, परम्परा प्रकाशन, सी-5/एस-2,ईस्ट ज्योति नगर, दुर्गापुरी चौक, शाहदरा, दिल्ली-110093

आदिवासी गहने और वेशभूषा -मध्यप्रदेश के आदिवासी जीवन पर-2005, साक्षरा प्रकाशन, सी-5/एस-2,ईस्ट ज्योति नगर, दुर्गापुरी चौक, शाहदरा, दिल्ली-110093

कोंदा मारो सींगा मारो -मध्यप्रदेश के आदिवासी जीवन पर-2005, मैत्रेय पब्लिकेशन, 4697/5, 21-, अंसारी रोड, दरियागंज, नईदिल्ली-110002

शहीद देभोबाई -मध्यप्रदेश के आदिवासी जीवन पर-2005, नवोदय सेल्स, 21-, अंसारी रोड, दरियागंज, नईदिल्ली-110002

मणजी भील और बुद्धिमान वेत्स्या -मध्यप्रदेश के आदिवासी जीवन पर-2005, साक्षरा प्रकाशन, सी-5/एस-2,ईस्ट ज्योति नगर, दुर्गापुरी चौक, शाहदरा, दिल्ली-110093


लोककथाएं -


बुंदेली लोककथाएं - बुंदेलखंड में प्रचलित लोककथाएं -2015, साहित्य अकादमी, रवीन्द्र भवन, 35 फिरोजशाह मार्ग, नई दिल्ली - 110001


नाटक संग्रह -


आधी दुनिया पूरी धूप - नारी सशक्तिकरण पर आधारित रेडियोनाट्य-श्रृंखला -2006, आचार्य प्रकाशन, 190 बी/10, राजरूपपुर, इलाहाबाद, उ.प्र.

गदर की चिनगारियां - 1857 के स्वतंत्रतासंग्राम में स्त्रियों के योगदान पर -2011, सस्ता साहित्य मंडल, एन-77, कनॉट सर्कस, नई दिल्ली-110001


विज्ञान -


न्यायालयिक विज्ञान की नई चुनौतियां -न्यायालयिक विज्ञान का परिचय एवं नई चुनौतियां -दो संस्करण प्रकाशित-2005, सामयिक प्रकाशन, 3320-21, जटवाड़ा, दरियागंज, नई दिल्ली.110002

सौर तापीय ऊर्जा - सस्ते एवं सुरक्षित ऊर्जा स्रोत के रूप में दैनिक जीवन में सौरतापीय ऊर्जा के उपयोग पर प्रकाश-2006, भारत बुक सेंटर, 17, अषोक मार्ग,लखनऊ, उ.प्र.


धर्म-दर्शन -


महामति प्राणनाथ : एक युगान्तरकारी व्यक्तित्व -संत प्राणनाथ के विचार एवं दर्शन- 2002, प्राणनाथ मिशन, 72, सिद्धार्थ एंक्लेव, आश्रम चौक, नई दिल्ली-14

श्रेष्ठ जैन कथाएं - जैन धर्म की उपदेशात्मक एवं ज्ञानवर्द्धक कहानियां-2008, सुनील साहित्य सदन, 3320-21, जटवाड़ा, दरियागंज, नई दिल्ली.110002

श्रेष्ठ सिख कथाएं - जैन धर्म की उपदेशात्मक एवं ज्ञानवर्द्धक कहानियां-2012, सुनील साहित्य सदन, 3320-21, जटवाड़ा, दरियागंज, नई दिल्ली.110002


साक्षरता विषयक -


बधाई की चिट्ठी -नवसाक्षरों हेतु प्रेरणास्पद कथा-दो संस्करण-1993, 2000, सामयिक प्रकाशन, 3320-21, जटवाड़ा, दरियागंज, नई दिल्ली.110002

बधाई दी चिट्ठी -बधाई की चिट्ठी का पंजाबी में अनुवाद-1998, भारत ज्ञान विज्ञान समिति, चंडीगढ़, पंजाब

बेटी-बेटा एक समान - नवसाक्षरों हेतु प्रेरणास्पद कथा- दो संस्करण-1993, 2000,  सामयिक प्रकाशन, 3320-21, जटवाड़ा, दरियागंज, नई दिल्ली.110002

महिलाओं को तीन ज़रूरी सलाह- नवसाक्षरों हेतु प्रेरणास्पद कथा-2004, कल्याणी शिक्षा परिषद, 3320-21, जटवाड़ा, दरियागंज, नई दिल्ली.110002

औरत के कानूनी अधिकार - नवसाक्षरों हेतु प्रेरणास्पद कथा -2004, कल्याणी शिक्षा परिषद, 3320-21, जटवाड़ा, दरियागंज, नई दिल्ली.110002

मुझे जीने दो, मां! -नवसाक्षरों हेतु प्रेरणास्पद कथा-2005, ऋचा प्रकाशन, डी-36,साउथ एक्सटेंशन भाग-एक, नई दिल्ली-110049

फूल खिलने से पहले - सुरक्षित मातृत्व के उपायों को रेखंकित करती नवसाक्षरों हेतु प्रेरणास्पद कथा-2005, परंपरा पब्लिकेशन, सी-4,ईस्ट ज्योति नगर, दुर्गापुरी चौक, शाहदरा, दिल्ली-110093

मां का दूध - स्तनपान के महत्व को रेखंकित करती नवसाक्षरों हेतु प्रेरणास्पद कथा- 2005, उत्तम प्रकाशन, 1/5971,कबूल नगर, शाहदरा, दिल्ली-110032

दयाबाई - नवसाक्षरों हेतु प्रेरणास्पद कथा-2006, नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया, नेहरू भवन,5, इंस्टीट्यूशनल एरिया,फेज़-2, वसंत कुंज, नई दिल्ली - 110070

जुम्मन मियां की घोड़ी - नवसाक्षरों हेतु पुन्नी सिंह की कहानी का रूपान्तरण-दो संस्करण-2005, 2007, नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया, नेहरू भवन,5, इंस्टीट्यूशनल एरिया,फेज़-2, वसंत कुंज, नई दिल्ली - 110070


काव्य -


पतझड़ में भीग रही लड़की -ग़ज़ल संग्रह -2011, आचार्य प्रकाशन, इलाहाबाद

आंसू बूंद चुए -नवगीत संग्रह -1988, मुकेश प्रिंटिंग, सागर, म.प्र.

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