Thursday, June 1, 2017

चर्चा प्लस .. थलाइवा और दक्षिण की करवट लेती राजनीत ...डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
थलाइवा और दक्षिण की करवट लेती राजनीति" मेरे कॉलम चर्चा प्लस में "दैनिक सागर दिनकर" में ( 24.05. 2017) ..My Column Charcha Plus in "Sagar Dinkar" news paper....

 
चर्चा प्लस
थलाइवा और दक्षिण की करवट लेती राजनीत
- डॉ. शरद सिंह 


थलाइवा का अर्थ ही होता है नेतृत्व करने वाला। तो क्या अब दक्षिण भारत में किसी ऐसे नेतृत्व का उदय होने जा रहा है जो उत्तर भारत की राजनीति को भी प्रभावित कर सकेगा? यूं तो दक्षिण भारत की राजनीति में किसी अभिनेता का पदार्पण कोई नई बात नहीं है, यदि नई बात है तो उत्तर भारत अथवा केन्द्रीय राजनीति की ओर से रजनीकांत को समर्थन मिलना। रजनीकांत का विशिष्ट प्रभाव दक्षिण भारत की राजनीति में एक नए युग का सूत्रपात कर सकता है, बशर्ते वे दक्षिण भारत की राजनीति कट्टर भाषावाद से ऊपर उठा सकें।

दक्षिण भारत में सिनेमा और राजनीति का एक अनेखा गठबंधन रहा है। कई फिल्मी सितारों ने अपनी सिनेमाई छवि के दम पर जनता का दिल जीता और राजनीति के सितारा बने। तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री दिवंगत जयललिता दक्षिण भारतीय राजनीति का वो चमकता सितारा, जो जब तक जिंदा रहा अपने करिश्माई व्यक्त्वि की चमक बिखेरता रहा। जयललिता ने तमिलनाडु की राजनीति में अन्ना द्रमुक पार्टी में वह तीन बार मुख्यमंत्री की बागडोर संभाल चुकी हैं। ’अम्मा’ ने हिंदी फिल्म इज्जत के अलावा उन्होंने वेन्निरा आदिय, चिन्नादा गोम्बदे, अनबाई थेड़ी, कुमारी कोट्टम उनकी मुख्य फिल्में रहीं। तमिलनाडु की राजनीति में आज भी अम्मा का प्रभाव है। एन. टी. रामाराव दक्षिण के दिग्गज रह चुके हैं। वह एक अभिनेता, फिल्ममेकर, डायरेक्टर, एडिटर और राजनेता होने के साथ ही तीन बार आंध्र प्रदेश की सत्ता पर आसीन हुए। राजनीति में चमकने के अलावा एनटीआर ने तीन नेशनल फिल्म अवॉर्ड अपने नाम किए हैं। दखिण के एक और नामी अभिनेता चिरंजीवी राजनीति में पिछले काफी समय से सक्रिय हैं। तेलुगु एवं हिन्दी फिल्मों के अभिनेता चिरंजीवी का वास्तविक नाम है- कोणिदेल शिवशंकर वरप्रसाद। फिल्मी पारी खेलने के बाद चिरंजीवी ने भी राजनीति को अपनाया।

Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper

तमिलनाडु ही नहीं बल्कि देश की सियासत के कद्दावर नेता मुत्तुवेल करुणानिधि ऊर्फ एम.करुणानिधि दक्षिण भारत की राजनीति में अपना एक अलग प्रभाव और दबदबा बनाए रखा था। इस बेहद वरिष्ठ राजनेता की राजनीति में पहुंचने की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। वे पहले फिल्मि पटकथा, लेखक थे और फिल्मी पर्दे पर दिखाई गई उनकी इन्हीं कहानियों ने उनके लिए राजनीति का रास्ता तैयार किया। ईसाई समुदाय से संबंध रखने वाले करुणानिधि मूलतः एक फिल्म पटकथा लेखक रहे, लेकिन फिल्मों की यह दुनिया उन्हें ज्यादा दिनों तक रास नहीं आई और वे दक्षिण भारत के बड़े सामाजिक प्रभाव वाले नेता बन गए। करुणानिधि ईवी रामास्वायमी पेरियार के द्रविड़ आंदोलन से जुड़े और उस आंदोलन के प्रचार में उन्होंने अहम भूमिका अदा की। वे लगातार फिल्मों में विधवा पुनर्विवाह, अस्पृश्यता का उन्मूलन, आत्मसम्मान विवाह, ज़मींदारी का उन्मूलन और धार्मिक पाखंड के मुद्दे उठाते गए और लोकप्रिय होते गए।
करूणानिधि ने बाकायादा विधायक के रूप में तमिलनाडु की सियासत में प्रवेश सन् 1957 में किया, जब वे तिरुचिरापल्ली जिले के कुलिथालाई विधानसभा से जीते। इसके बाद वे 1961 में डीएमके कोषाध्यक्ष बने और 1962 में राज्य विधानसभा में विपक्ष के उपनेता बने और 1967 में जब डीएमके सत्ता में आई, तब वे सार्वजनिक कार्य मंत्री बने। उनके राजनीतिक जीवन का सबसे बड़ा बदलाव तब आया जब 1969 में डीएमके (द्रविड मुनैत्र कडगम) के संस्थापक अन्नादुरई की मौत हो गई और वे अन्ना दुरई के बाद न केवल डीएमके का न केवल चेहरा बने, बल्कि पहली बार तमिलनाडु के मुख्यमंत्री बने और राष्ट्रीय स्तर पर उनकी पहचान बनी। दक्षिणी सुपरस्टार एमजीआर ने सिनेमा की उंचाईयों को छूने के साथ ही दक्षिण भारत की राजनीति को एक नया मोड़ दिया है। अन्ना द्रमुक के संस्थापक एमजीआर ने वर्ष 1977 से 1987 तक तमिलनाडु की सत्ता में अपना वर्चस्व कायम किया है। इन दस वर्षों में उन्होंने सत्ता के गलियारों में खास जगह बनाई। साथ ही वहां की जनता का विश्वास जीता।
राष्ट्रपति चुनाव को लेकर भारत की हालिया राजनीतिक घटनाक्रम में दक्षिण भारत की राजनीति एक दिलचस्प मोड़ पर आकर खड़ी है। आंध्र प्रदेश में तेलुगु देशम, वाइएसआर कांग्रेस तथा तेलंगाना राष्ट्रीय समिति (टीआरएस) तीनों प्रमुख राजनीतिक पार्टियों ने राष्ट्रपति चुनाव के लिए भाजपा के उम्मीदवार को अपने समर्थन का वादा कर दिया है। दूसरी ओर, दक्षिण भारत की राजनीति का एक संजीदा पहलू भी है। पी चिदंबरम के पुत्र पर संकट के बादल घिर आये हैं। एआइएडीएमके के दो परस्पर विरोधी धड़े नरेंद्र मोदी एवं भाजपा सरकार को अपना समर्थन प्रदान करने की स्पर्धा कर रहे हैं. कर्नाटक में, जहां भारतीय जनता पार्टी अपनी स्थिति मजबूत करती जा रही है, वहीं कांग्रेस पूरी तरह कमजोर बन कर इस परिदृश्य से बाहर होती दिखती है।
एक दिग्गज राजनीतिज्ञ के रूप में रजनीकांत के उदय के पीछे कई दिलचस्प घटनाओं का सिलसिला जुड़ा है। यह माना जाता है कि नब्बे के दशक में रजनीकांत को मेगा-कामयाबी दो फ़िल्मों से मिली थी, ’अन्नामलाई’ और ’बाशा’. 1995 में जब ’बाशा’ फ़िल्म ब्लॉकबस्टर हो गई तो सार्वजनिक जीवन में उनकी हैसियत और लोकप्रियता तेज़ी से बढ़ी। इसी दौर में जयललिता सरकार (1991-96) से उनके टकराव के प्रसंग भी उभरे। पहला बड़ा राजनीतिक रुझान दिखाते हुए रजनीकांत ने 1996 के विधानसभा चुनावों में तमिल मनीला कांग्रेस (टीएमसी) के नेता जीके मूपनार का समर्थन कर दिया। एक टीवी इंटरव्यू में उन्होंने कहा, ’अगर जयललिता दोबारा जीतकर आईं तो तमिलनाडु को भगवान भी नहीं बचा पाएंगे।’ परिणाम चौंकाने वाले रहे। डीएमके-टीएमसी गठबंधन को ज़बरदस्त बहुमत मिला। जयललिता की पार्टी एआईएडीएमके चार सीटों पर सिमट गई और जयललिता ख़ुद अपनी सीट नहीं बचा पाईं। यद्यपि 2004 में रजनीकांत ने जयललिता से रिश्ते सामान्य करने की कोशिश की। जयललिता तब तक एक स्थायी ताक़त बन चुकी थीं और उनकी अनदेखी करना संभव नहीं था। नवंबर 2004 में रजनीकांत ने अपनी बेटी ऐश्वर्या की शादी में जयललिता को बुलाया। जयललिता पहुंचीं भी, लेकिन दोस्ती इससे आगे नहीं बढ़ी। फिर भी, अक्टूबर 2014 में जब जयललिता जेल से छूटकर आईं तो रजनीकांत ने एक चिट्ठी भेजकर उनका स्वागत किया। इसमें लिखा था, ’पोएस गार्डन में आपकी वापसी से मैं बहुत खुश हूं. आपके अच्छे वक़्त की दुआ करता हूं और आपको अच्छी सेहत और शांति की शुभकामनाएं देता हूं।’
2002 में रजनीकांत ने कावेरी जल मुद्दे पर राजनीतिक बयान दिए, विरोध प्रदर्शन किया। कर्नाटक सरकार से सुप्रीम कोर्ट का आदेश मानने की मांग करते हुए उन्होंने 9 घंटे अनशन रखा। इस अनशन में विपक्ष के कई नेता और तमिल फिल्म इंडस्ट्री के बड़े लोग उनके पीछे खड़े हुए। इसके बाद रजनीकांत ने उस वक़्त के राज्यपाल पीएस राममोहन राव को एक ज्ञापन भी दिया। उस समय रजनीकांत ने रिपोर्टरों से कहा था कि ज़रूरत पड़ी तो वह प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और कन्नड़ फिल्म इंडस्ट्री के लोगों से भी बात करेंगे। पूरे अनशन के दौरान रजनीकांत समर्थक फिल्म डायरेक्टर भट्टीराजा के खि़लाफ़ नारे लगाते रहे, जिन्होंने एक दिन पहले ’बाहरी’ रजनीकांत पर तमिल एकता को खंडित करने की कोशिशें करने का आरोप लगाया था।
मार्च 2017 में आरके नगर में उपचुनाव था। ट्विटर पर तस्वीरें चलीं जिसमें रजनीकांत अपने दोस्त और भाजपा प्रत्याशी गंगई अमारन से मिले थे। गंगई अमारन के बेटे वेंकट प्रभु ने ट्वीट करके लिखा कि ‘‘थलाइवा ने मेरे पिताजी को आशीर्वाद दिया है।’’ इससे पहले जब 2014 चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी प्रचार पर निकले तो चेन्नई में रजनीकांत से भी मिले। मोदी ने उन्हें अपना अच्छा दोस्त और रजनी ने ख़ुद को मोदी का शुभचिंतक बताया। रजनीकांत ने कहा, ‘’सब जानते हैं कि मिस्टर मोदी एक मजबूत नेता और क़ाबिल एडमिनिस्ट्रेटर हैं। वो जो हासिल करना चाहते हैं, मैं उन्हें कामयाबी की शुभकामनाएं देता हूं।’’
रजनीकांत को क्षेत्रीय कट्टरता का भी सामना करना पड़ा है। इसका ताज़ा उदाहरण पिछले दिनों देखने को मिला। इस पर उनकी यह कहकर आलोचना हुई कि वह तमिल नहीं हैं, लेकिन खुद रजनीकांत ने कहा कि वह तमिल हैं। इस पर रजनीकांत ने अपने प्रशंसकों के साथ चर्चा के दौरान कहा था, “मुझे सोशल मीडिया पर कुछ तमिल लोगों द्वारा घृणा फैलाने पर दुख होता है. कभी नहीं सोचा था कि वे इतना गिर जाएंगे.” इसके साथ ही रजनीकांत ने कहा था कि “मैं 23 साल तक कर्नाटक में रहा और 43 साल से तमिलनाडु में रह रहा हूं। मैं कर्नाटक से एक मराठी के तौर पर यहां आया था, आप लोगों ने बहुत प्यार दिया, मुझे एक सच्चा तमिल बना दिया।” उन्होंने कहा कि वह सही समय आने पर राजनीति में आने का फैसला करेंगे।’’
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और रजनीकांत के बीच का तालमेल नया इतिहास रच सकता है क्यों कि इसे दक्षिण की राजनीति को उत्तर भारत की ओर से समर्थन के रूप में देखा जा रहा है। किन्तु इस समर्थन को बनाए रखने के लिए रजनीकांत को उदार नीतियां अपनानी होंगी। उल्लेखनीय है कि सन् 1965 में तमिलनाडु में भयंकर हिंदी विरोधी दंगे हुए. 50 के दशक में के कामराज और 70 के दशक में. एम. जी. रामचंद्रन ने हिंदी के खि़लाफ़ ज़ोरदार अभियान चलाया था। इन दोनों पूर्व मुख्यमंत्रियों ने तमिलनाडु में हिंदी पढ़ाने का विरोध किया था. लोगों से कहा गया कि इससे तमिल भाषा पिछड़ जाएगी और हिंदी हावी हो जाएगी। भाषा की इस राजनीति के नाम पर एम जी ने ख़ूब वोट भी बटोरे। रजनीकांत का विशिष्ट प्रभाव दक्षिण भारत की राजनीति में एक नए युग का सूत्रपात कर सकता है, बशर्ते वे दक्षिण भारत की राजनीति कट्टर भाषावाद से ऊपर उठा सकें।
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