Saturday, October 21, 2017

चर्चा प्लस ... स्वच्छता की दीपावली साल भर मनाएं हम - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस
 

स्वच्छता की दीपावली साल भर मनाएं हम
- डॉ. शरद सिंह
 

( सागर दिनकर में मेरा कॉलम चर्चा प्लस, 11.10.2017)
जब हम दीपावली के समय लक्ष्मी-आगमन की कल्पना कर के यह स्वीकार करते हैं कि देवी लक्ष्मी साफ-सुथरे घरों में ही प्रवेश करती हैं तो फिर दीपावली की रात छोड़ कर शेष 364 रातों में देवी लक्ष्मी का अनादर क्यों करते हैं? यदि हमेशा स्वच्छता बनी रहे तो हमेशा लक्ष्मी आएंगी न! इसीलिए दीपावली के घरेलू स्वच्छता अभियान के साथ हमें अपने मन के कोने-कोने को भी टटोलना होगा कि हम भारतीय दुनिया की सबसे श्रेष्ठ संस्कृति वाले हो कर भी आज शौच और गली-मोहल्ले की स्वच्छता के अभियान के क्यों मोहताज़ हैं? 

 
Charcha Plus Column by Dr Miss Sharad Singh in Sagar Dinkar Daily News Paper

दीपावली एक ऐसा त्यौहार है जो स्वच्छता के लिए प्रेरित करता है। बचपन में जब दीपावली पर निबंध लिखना पड़ता था तब उसमें हम अपने अनुभव से प्रेरित हो कर लिखते थे कि दीपावली पर घरों में साफ-सफाई होती है। खिड़की, दरवाजों और दीवारों पर रंग-रोगन किया जाता है। यह लिखते हुए हम सभी को अपने घरों में होने वाली सफाई, लिपाई और रंगा-पुताई याद आने लगती थी। उन दिनों घरों के सामने गोबर से लीप कर चूने या छुई से ढिग (आउटलाईन) धरी जाती थी। ऐसे आंगन आज शहरों में यकाकदा लेकिन गांवों में अभी भी देखने को मिल जाते हैं। गोबर से लिपे आंगन का एक साफ, गुनगुना अहसास। गोबर से लिपी मिट्टी वाले फर्श सीमेंट या टाईल्स के फर्श जितने ठंडे नहीं हुआ करते हैं। यद्यपि ऐसे गोबर लिपे फर्श में समाई रहती है स्त्रियों की कमरतोड़ मेहनत और घर को साफ-सुथरा रखने का जज़्बा।
आज हमने अपने रहन-सहन में बहुत प्रगति कर ली है। आज गांवों में भी पक्के मकान और सीमेंट के फर्श बनने लगे हैं। लेकिन ऐसा लगता है कि साफ़-सफ़ाई से रहने की भावना हम कहीं पीछे छोड़ आए हैं। पहले सीमित साधन अथवा साधनहीनता में भी जो कचरा-कूड़ा गांवों और शहरों के बाहर फेंका जाता था, उसे आज परस्पर एक-दूसरे के घर के सामने या फिर हमारे घरों के बीच खाली पड़े किसी प्लॉट पर फेंक कर सफाई का कर्त्तव्य पूरा कर लेते हैं। कहने को 21 वीं सदी में पहुंच गए हैं हम, रहन-सहन का स्तर और स्टाईल भी बदल लिया है लेकिन क्या यह शर्मनाक नहीं है कि आज भी हमें अपने लोगों को समझाना पड़ रहा है कि उन्हें शौच के लिए कहां जाना चाहिए? क्या यह लज्जित कर देने वाला संदर्भ नहीं है कि हमें ‘‘भारत स्वच्छता अभियान’’ चला कर स्वच्छता का महत्व और उसकी जरूरत समझाना पड़ रहा है? जो स्वच्छता के लिए उत्साह दीपावली के समय हमारे मन में जागता है वह साल के 365 दिन बना क्यों नहीं रह पाता है? इसीलिए दीपावली के घरेलू स्वच्छता अभियान के साथ हमें अपने मन के कोने-कोने को भी टटोलना होगा कि हम भारतीय दुनिया की सबसे श्रेष्ठ संस्कृति वाले हो कर भी आज शौच और गली-मोहल्ले की स्वच्छता के अभियान के क्यों मोहताज़ हैं? ये अभियान ऐसे नहीं हैं जिन पर दुनिया की दृष्टि न पड़ रही हो, हमें सोचना होगा कि हम दुनिया के सामने अपनी कैसी छवि रख रहे हैं? यह हमारी भीरुता ही है कि जो आज भी गांवों और शहरों के भी अनेक हिस्सों में शौचालय नहीं हैं।
आधिकारिक रूप से 1 अप्रैल 1999 से शुरू, भारत सरकार ने व्यापक ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम का पुनर्गठन किया और पूर्ण स्वच्छता अभियान शुरू किया जिसको बाद में 01 अप्रैल 2012 को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा निर्मल भारत अभियान नाम दिया गया। स्वच्छ भारत अभियान के रूप में 24 सितंबर 2014 को केंद्रीय मंत्रिमंडल की मंजूरी से निर्मल भारत अभियान का पुनर्गठन किया गया था। इसके बाद स्वच्छ भारत अभियान की विस्तृत रूपरेखा तैयार की गई। स्वच्छ भारत अभियान 2 अक्टूबर 2014 को शुरू किया गया और 2019 तक खुले में शौच को समाप्त करना इसका उद्देश्य तय किया गया। यह एक राष्ट्रीय अभियान है।
सार्वजनिक क्षेत्र की अनेक इकाइयां भी इस अभियान में अपना योगदान दे रही हैं। लेकिन ज़मीनी स्तर पर सच्चाई का एक अन्य पहलू भी है। सरकार की ओर से घर में शौचालय बनाने के लिए धनराशि दी जा रही है, शौचालय बनवाने के बाद उसकी तस्वीर सरकार के पास भेजे जाने का भी प्रावधान रखा गया है ताकि शौचालय बनवाने की झूठी रिपोर्ट तैयार न की जा सके। इस तरह सरकार के पास अपनी योजना के क्रियान्वयन का सबूत तो इकट्ठा हो जाता है किन्तु यह भी देखने में आया है कि शौचालय के मालिक सरकार के पीठ करते ही उस शौचालय के कमरे को दूसरे काम में लाने लगते हैं। शौचालय के कमरे से कमोड उखाड़ कर रसोईघर बना लेने तक की तस्वीरें सामने आई हैं। अब यदि हमारे प्रधान मंत्री यह कहते हैं कि मंदिर निर्माण से अधिक शौचालय निर्माण की आवश्यकता है तो हम शब्दों तक सीमित रहते हुए भड़क जाते हैं। उस हम बिना चिन्तन किए विपक्ष की कुर्सी पर जा बैठते हैं। जबकि यहां सवाल राजनीति का नहीं है बल्कि अपनी सोच बदलने का है। जब हम दीपावली के समय लक्ष्मी-आगमन की कल्पना कर के यह स्वीकार करते हैं कि देवी लक्ष्मी साफ-सुथरे घरों में ही प्रवेश करती है तो फिर दीपावली की रात छोड़ कर शेष 364 रातों में देवी लक्ष्मी का अनादर क्यों करते हैं? यदि हमेशा स्वच्छता बनी रहे तो हमेशा लक्ष्मी आएगी न।
बॉलीवुड भी स्वच्छता अभियान में गंभीरता से जुड़ गया है और फिल्म निदेशक नारायण सिंह की अक्षय कुमार और भूमि पेडनेकर द्वारा अभिनीत फिल्म ‘‘टॉयलेट एक प्रेमकथा’’ इसका एक दमदार सबूत है। इस फिल्म ने लोगों के दिलों को भी छुआ। लेकिन फिल्म देखने के बाद कितने लोगों ने उसके कथानक की गंभीरता को समझा या आत्मसात किया, यह कहना कठिन है। सच्चाई यह भी है कि एक करोड़ में औसतन एक हज़ार लोग आज भी खुले में शौच के लिए जाते हैं और इस एक हज़ार की जनसंख्या में एक भी लड़की ऐसी नहीं होती है जो ससुराल में शौचालय है या नहीं, यह जानना चाहे। या फिर ससुराल में शौचालय न होने पर विवाह से मना कर दे। ससुराल और विवाह की बात तो छोड़िए, इन घरों की बेटियां अपने माता-पिता से भी घर में शौचालय बनवाने का हठ नहीं करती हैं। यह स्वच्छता, स्वास्थ्य और सुरक्षा के प्रति चेतनाहीनता नहीं तो और क्या है? यह ठीक है कि कई परिवारों की स्थिति यह नहीं होती है कि वे शौचालय बनवाने के लिए जमीन या निस्तार के लिए र्प्याप्त पानी जुटा पाएं लेकिन ऐसे परिवार क्या सार्वजनिक शौचालय इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं? खुले में जाने से तो यह कहीं अधिक सुरक्षित है, विशेषरूप से महिलाओं और बच्चियों के लिए।
वैसे खुले मैंने स्वयं इस विडम्बना को झेला है। हुआ यूं था कि सन् 1998 में मंडला जिले के विक्रमपुर में मैं और मेरी दीदी वर्षा सिंह अपने मामा कमल सिंह जी के पास छुट्टी मनाने पहुंचे। मामा जी वहां हायरसेकेंड्री स्कूल में प्राचार्य थे। उन्होंने हमें आगाह किया था कि उनके घर और स्कूल में शौचालय नहीं है, आओगी तो ‘लोटा परेड’ करना पड़ेगा। हमने इस बात को गंभीरता से नहीं लिया और विक्रमपुर पहुंचे। दूसरे दिन से ही हमें भी ‘लोटा परेड’ करनी पड़ी। शर्म तो बहुत आई मगर मजबूरी थी। उस आदिवासी बाहुल्य और वनसंपदा के धनी क्षेत्र के जंगल में घूमते हुए हमने गूलर के पके हुए फल खा लिए। बहुत स्वादिष्ट थे। लेकिन उसका खामियाज़ा दूसरे दिन भुगतना पड़ा जब ठीक उस समय लोटा परेड की आवश्यकता महसूस हुई जब घर के सामने स्थित स्कूल के सुबह के सत्र की छुट्टी का समय हुआ। इधर हम घर से लोटा ले कर निकले और उधर से स्कूल से दर्जनों लड़के-लड़कियां निकले। उनके लिए हमारा यूं लोटा लिए निकलना सहज बात थी लेकिन हमारे लिए कुछ भी सहज नहीं था। वह दिन ज़िन्दगी में कभी भुला नहीं सकती हूं। यद्यपि उस घटना ने मुझे ग्रामीण महिलाओं की समस्याओं को समझने का एक और आयाम दिया। खुले में शौच जाना किस तरह किसी स्त्री के लिए अभिशाप बन सकता है, इस पर मैंने एक कहानी भी लिखी थी जिसका नाम था ‘मरद’। इस कहानी को अनेक प्रशंसक मिले। लेकिन दुख है कि कहानी लिखे जाने के डेढ़ दशक बाद भी समस्या जस की तस है।
एक बात और सोचने की है कि आज विदेश में रह रहे बच्चों और रिश्तेदारों से मिलने या फिर टूर-पैकेज पर पर्यटन के लिए विदेश जाने का तारतम्य बढ़ गया है। लेकिन विदेश घूम कर लौटने वाले, वहां की स्वच्छता से प्रभावित होने वाले भी भारत लौटते ही गोया स्वच्छता के सारे सबक भूल जाते हैं। उनके सारे अनुभव सोशल मीडिया की वॉल तक सीमित हो कर रह जाते हैं। अधिक से अधिक घर के भीतर की सजावट बदल लेते हैं लेकिन घर के बाहर खुली बजबजाती नालियों और कचरे के ढेरों की ओर ध्यान नहीं देते हैं।
जब प्रश्न घरेलू, ग्रामीण, नगरीय और देश की स्वच्छता का हो तो हमें राजनीति के चश्में को उतार कर स्वास्थ्य, सुरक्षा और सभ्यता के नजरिए से सोचना चाहिए। मंदिर अथवा किसी भी देवस्थल को हम साफ़ रखते हैं क्यों कि हम मानते हैं कि वहां देवता का वास होता है। फिर जिस देश में अनेक देवता वास कर रहों उसे हम साफ-सुथरा क्यों नहीं रख पा रहे हैं? तो चलिए, स्वच्छता की दीपावली साल भर मनाएं हम।
---------------------------

#शरद_सिंह #चर्चा_प्लस #सागर_दिनकर #दीपावली #टॉयलेट_एक_प्रेम_कथा #प्रधानमंत्री #नरेन्द्र_मोदी #भारत_स्वच्छता_अभियान #स्वच्छता

No comments:

Post a Comment