Saturday, October 21, 2017

चर्चा प्लस ... अंधेरे के विरुद्ध शंखनाद का समय - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh

अंधेरे के विरुद्ध शंखनाद का समय
- डॉ. शरद सिंह 

 
(मेरा कॉलम 'चर्चा प्लस' दैनिक 'सागर दिनकर' में, 18.10.2017)


गुलामी से आजाद हुए वर्षों व्यतीत हो गए लेकिन ग़रीबी, बेरोज़गारी, मंहगाई, भ्रष्टाचार, धर्मांधता, पाखंड जैसी समस्याएं आज भी जस के तस हैं। हर दशहरे पर हम आसुरी शक्तियों के प्रतीक रावण को जलाते हैं और हर दीपावली को दीपक से घरों को जगमगा कर सुख-समृद्धि, धन-धान्य का आह्वान करते हैं। हम कामना करते हैं कि समृद्धि की देवी लक्ष्मी आए और हमारे कष्टों को दूर कर दे। उस समय हम भूल जाते हैं कि मंहगाई देवी लक्ष्मी नहीं बढ़ाती है, आर्थिक अव्यवस्था और भ्रष्टाचार के कारण मंहगाई बढ़ती है और अपनी इन कमियों के विरुद्ध हम स्वयं डट कर खड़े नहीं होते हैं। इस बार दीपावली पर हम तमाम भ्रष्टाचार एवं अव्यवस्था के अंधेरे के विरुद्ध शंखनाद करने का निश्चय करें तभी सच्चे अर्थ में दीपक जगमगा सकेंगे। 

Charcha Plus Column by Dr Miss Sharad Singh in Sagar Dinkar Daily News Paper

यह प्रतिदिन का कार्य है कि शाम को अंधेरा घिरते ही हम अपने-अपने घरों में बल्ब, ट्यूबलाईट, दिया-बाती, चिमनी आदि किसी न किसी साधन से उजाला कर ही लेते हैं। अंधेरा होते ही ऊंची अट्टालिकाओं से ले झुग्गी झोपड़ी तक मनुष्य प्रकाश की व्यवस्था कर लेता है। फिर अपने जीवन के उस अंधकार को मिटाने के प्रश्न पर हम असहाय और निर्बल बन कर क्यों खड़े हो जाते हैं। माना कि भ्रष्टाचार और अव्यवस्था की जड़ें हमारे जीवन में बहुत गहरे तक समा चुकी हैं और भ्रष्टाचार का अंधेरा हमारे जीवन के सुख-चैन के प्रकाश को निगलता जा रहा है। लेकिन ये भ्रष्टाचारी हैं कौन? ये कोई एलियन यानी किसी दूसरे ग्रह से आए हुए प्राणी तो नहीं हैं, ये तो हमारे बीच के, हमारे अपने लोग ही हैं, फिर हम इन्हें अंधेरा फैलाने से रोक क्यों नहीं पाते हैं? कहीं हम कायर तो नहीं होते जा रहे हैं? मुझे याद है अपने बचपन में देखा हुआ महिलाओं द्वारा किया गया वह विरोध जिसने जिला प्रशासन को झुकने के लिए विवश कर दिया था। वह कोई बड़ा आंदोलन नहीं था। महिलाओं के समूह द्वारा किया गया एक छोड़ा-सा विरोध प्रदर्शन था। घटना सागर संभाग के पन्ना जिला मुख्यालय की है। यू ंतो पन्ना में तालाबों की कोई कमी नहीं है लेकिन अव्यवस्था के कारण मोहल्ला रानीगंज में पेयजल का संकट खड़ा हो गया। मोहल्लेवालों ने जिला प्रशासन से शिकायत की। जब इससे भी काम नहीं बना तो एक दिन मोहल्ले की समस्त महिलाएं खाली घड़े ले कर कलेक्ट्रेट कार्यालय के रास्ते पर बैठ गईं। महिलाओं के उस हुजूम में हाथ-हाथ भर का घूंघट (जो उस समय चलन में था) चेहरे पर डाले बहुएं भी शामिल थीं। जब तक जिला प्रशासन के जिम्मेदार अधिकारियों ने पेयजल समस्या को सुलझाने का वादा नहीं किया तब तक वे रास्ते पर डटी रहीं। प्रदर्शनकारियों द्वारा न तो कोई तोड़-फोड़ की गई और न कोई उद्दण्डता की गई। यह घरेलू महिलाओं द्वारा किया गया एक ईमानदार विरोध था जिसने प्रशासन को जागने को मजबूर कर दिया। विरोध का यह तेवर अब दिखाई ही नहीं देता है। ऐसा लगता है कि गोया सारा विरोध सोशल मीडिया तक सिमट कर रह गया है। जो विरोध सड़कों पर दिखाई देता है उसमें प्रायोजित तत्वों की इतनी मिलावट रहती है कि जिसके परिणामस्वरूप लाठीचार्ज, आगजनी के दृश्य निर्मित हो जाते हैं और निरपराधों के रक्त की नदियां बहती दिखाई देती हैं। ऐसा नहीं है कि भ्रष्टाचार के विरोध के रास्ते हें पता नहीं हैं लेकिन हजारों में से कोई एक होता है जो भ्रष्टाचारी को पकड़वाने के लिए आर्थिक अपराध शाखा की मदद लेता है। जब कोई किसी भ्रष्टाचारी को रंगेहाथों पकड़वाता है तो हम उस समाचार को पढ़ कर खुश होते हैं, उस पर दिनभर जुगाली करते हैं, उस समाचार को गर्मजोशा से व्हाट्सअप करते हैं लेकिन उसके बाद किसी अन्य भ्रष्टाचारी को पालने-पोसने वालों की पंक्ति में जा कर खड़े हो जाते हैं।
चर्चा करने में बात बहुत घिसी-पिटी और पुरानी सी लगती है कि समाज में दहेज लिया और दिया जाता है। दहेज के विरुद्ध कानून भी बने हुए हैं लेकिन प्रति वर्ष देश में करोड़ों शादियां दहेज का लेन-देन करते हुए होती हैं। अधिक हुआ तो दोनों पक्ष झूठ बोल देते हैं कि हमने तो कुछ लिया-दिया ही नहीं। रही-सही कसर सरकार पूरी कर देती है सामूहिक विवाहोत्सवों में गहने, कपड़े और गृहस्थी का सामान दे कर। मुफ़्तखोरी की बुनियाद पर नए जीवन की शुरूआत होने से मेहनत की रोटी अच्छी कैसे लगेगी? इस तरह की योजनाएं सामाजिक संस्थाओं के सुपुर्द ही रहे तो सही जरूरतमंद को इसका लाभ मिलेगा वरना हर साल कई शादीशुदा जोड़े फिर से फेरे लेते नज़र आते रहेंगे।
मुफ़्तखोरी की बात जब चली ही है तो इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है कि राजनीतिक लाभ के लिए या वोट बटोरने के लिए अथवा सस्ती लोकप्रियता के लिए आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को मुफ़्त बिजली, मुफ़्त रसोई गैस कनेक्शन जैसे लाभ दिए जाते हैं। जिसका बोझ प्रत्यक्ष रूप से सरकार उठाती दिखाई देती है जबकि असली बोझ पड़ता है हर नागरिक पर। तरह-तरह के टैक्स के रूप में प्रत्येक नागरिक उस बोझ को ढोता है। यह बोझ किसी को भी बुरा न लगे यदि सही व्यक्तियों को लाभ मिल पा रहा हो और इससे उनमें मेहनत करने की भावना जागती हो। ज़मीनी सच्चाई इससे भिन्न है और यह सच्चाई किसी से छिपी भी नहीं है फिर भी इस तरह की योजनाएं चलती रहती हैं। जरा सोचिए कि एक बार किसी व्यक्ति को कुकिंग गैस का चूल्हा और सिलेंडर मुफ़्त में दे भी दिया जाए तो वह एक सिलेंडर जीवन भर तो चलेगा नहीं। अगली बार वह सिलेंडर कैसे भरवाएगा? क्या बेहतर नहीं है कि उसे ऐसा रोजगार दिया जाए जिससे वह स्वयं गैस-चूल्हा, सिलेंडर आदि खरीदने की क्षमता पा सके। राजनीति में तो सभी एक-दूसरे पर तोहमत लगाते रहते हैं। एक कहता है कि तुम्हारे शासन में ग़रीबी बढ़ी तो दूसरा कहता है मेरे नहीं, तुम्हारे शासन में ग़रीबी बढ़ी। ग़रीबी हटाने का वादा हर शासन करता है लेकिन आजादी की लगभग तीन चौथाई सदी बाद भी ग़रीबी समाप्त नहीं हुई है। वरन् आर्थिक अस्थिरता बढ़ती ही जा रही है। करों और निजी क्षेत्रों की भूल-भुलैया में प्रत्येक नागरिक भ्रमित-सा घूम रहा है। लेकिन लगता है जैसे वह इस भ्रम से उबरना ही नहीं चाहता है।
कला कभी कलंक नहीं होती है। इस बात को ध्यान में रखते हुए ‘‘ताजमहल हमारी संस्कृति पर कलंक है’’ जैसे मानसिक प्रदूषण का भी विरोध करना होगा। यदि हमारी सोच इतनी संकुचित हो जाएगी तो फिर हम में और तालिबानों में क्या अन्तर रह जाएगा जिन्होंने बाम्बियान (अफ़गानिस्तान) में महात्मा बुद्ध की अनुपम प्रतिमा को ध्वस्त कर दिया था। हमारी संस्कृति में ऐसी संकुचित सोच के लिए कोई जगह नहीं है और न कोई जगह होनी चाहिए। वाद-विवाद स्वस्थ मुद्दों पर हों तो सुपरिणाम देते हैं अन्यथा गाली-गलौच की सूरत में बदलते चले जाते हैं। भारतीय संस्कृति शास्त्रार्थ की संस्कृति रही है, गाली-गलौच की नहीं।
एक बात और कि जब कोई तथाकथित बाबा पकड़ा जाता है तो हम चौंक जाते हैं और थू-थू करने लगते हैं लेकिन हम उस व्यक्ति की सच्चाई का आकलन करने के बारे में कभी सोचते ही नहीं है जिसे हम स्वयं ‘बाबा’ या ‘मां’ के रूप् में पूज रहे होते हैं। भले ही वह ‘बाबा’ सोने के सिंहासन पर विराजते हो या ‘मां’ फिल्मी गानों की धुन पर नाचती हो। अचम्भा तो तब होता है जब अच्छा-खासा पढ़ा-लिखा तबका ऐसे बाबाओं और मांओं की धुन पर बेखबर नाचता-झूमता नज़र आता है। जंगल बचाने और हरियाली लाने की बातें तो खूब होती हैं लेकिन सच तो यह है कि हम अपने मोहल्ले में एक पार्क भी बना नहीं पाते हैं। जो पार्क बने हुए हैं उनको बचाने की भी सुध हमें नहीं रहती है। यहां तक कि जब हम घर बनवाते हैं तो उसमें एक ऐसा छोटा-सा स्थान भी नहीं रखते हैं जिसमें कोई पेड़ लगा सकें। आमतौर पर हमारा हरियाली प्रेम गमलों में सिमट कर रह जाता है। वर्तमान आचार-व्यवहार को देख कर यही लगता है गोया हमें अपनी अगली पीढ़ी की भी चिंता नहीं है। ध्वनि प्रदूषण, वायु प्रदूषण, जंगलों का अभाव, पानी की किल्लत, नौकरियों की अस्थिरता आदि की विरासत हमारी आने वाली पीढ़ी को कब तक सहेज पाएगी? सच तो ये है कि हमें अपने भीतर के अंधेरे को समझना होगा और उसके विरुद्ध खड़े होना होगा। अपनी कमजोरियों के अंधेरों को मिटाना होगा और आने वाली पीढ़ियों की जरूरतों से सरोकार रखना होगा।
गुलामी से आजाद हुए वर्षों व्यतीत हो गए लेकिन ग़रीबी, बेरोज़गारी, मंहगाई, भ्रष्टाचार, धर्मांधता, पाखंड जैसी समस्याएं आज भी जस के तस हैं। हर दशहरे पर हम आसुरी शक्तियों के प्रतीक रावण को जलाते हैं और दीपावली को दीपक से घरों को जगमगा कर सुख-समृद्धि, धन-धान्य का आह्वान करते हैं। हम कामना करते हैं कि समृद्धि की देवी लक्ष्मी आए और हमारे कष्टों को दूर कर दे। उस समय हम भूल जाते हैं कि मंहगाई देवी लक्ष्मी नहीं बढ़ाती है, आर्थिक अव्यवस्था और भ्रष्टाचार के कारण मंहगाई बढ़ती है और अपनी इन कमियों के विरुद्ध हम स्वयं डट कर खड़े नहीं होते हैं। हमें ‘अप्प दीपो भव’ के आचरण को अपनाना होगा ताकि अपनी कमियों, अपनी भीरुता, अपनी असंवेदनशीलता के अंधकार को मिटा सकें। इस बार दीपावली पर हम तमाम भ्रष्टाचार एवं अव्यवस्था के अंधेरे के विरुद्ध शंखनाद करने का निश्चय करें तभी सच्चे अर्थ में दीपक जगमगा सकेंगे।
एक दीपक तो जलाओ
दूर हो मन का अंधेरा
क्लेश मिट जाएं, रहे बस
रोशनी का ही बसेरा

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