Wednesday, November 22, 2017

चर्चा प्लस ... इतिहास, सिनेमा और (कु)संवाद के साए में ‘पद्मावती’ - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh

चर्चा प्लस  (दैनिक सागर दिनकर, 22.11.2017)



इतिहास, सिनेमा और (कु)संवाद के साए में ‘पद्मावती’
  - डॉ. शरद सिंह
यूं आजकल चलन-सा हो गया है विवाद खड़ा कर के फिल्म को चर्चित बनाने का लेकिन संजय लीला भंसाली ने भी फिल्म बनाते समय यह नहीं सोचा होगा कि उनकी फिल्म को ले कर वाद-संवाद इस तरह अपना स्तर गवां बैठेंगे। जिस धैर्य और संयम के परिचय की अपेक्षा विरोध कर रहे राजपूतों से की जा रही है, वही अपेक्षा संजय लीला भंसाली से भी है। जावेद अख़्तर जैसे व्यक्ति से ऐसे वक्तव्य की आशा नहीं थी जो उन्होंने इस विवाद के तारतम्य में दिया है। समय रहते संयम नहीं बरता गया तो विवाद के बीच में कूद पड़ने वाले कुसंवादी वातावरण को और बिगाड़ सकते हैं।
रानी पद्मिनी अथवा रानी पद्मावती की कथा हम सभी ने सुनी है, पढ़ी है। हम उस संस्कृति के नागरिक हैं जहां पशु, पक्षी, वनस्पति और यहां तक कि पाषाण में भी देवता के होने का विश्वास रखते हैं। वहीं हम मिलजुल कर रहने में विश्वास रखते हैं। लेकिन विगत कुछ सप्ताह से फिल्म ‘पद्मावती’ को ले कर जिस तरह का विवाद खड़ा हो गया है वह हमारी सांस्कृतिक मान्यताओं एवं भावनाओं को आहत करने वाला है। मसला सिर्फ़ यह नहीं है कि इससे राजपूतों की भावना को ठेस पहुंची, मसला यह भी है कि इससे भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों को ठेस पहुंची है। यह सच है कि कुछ राजपूतों को अतिआवेश में आ कर अभिनेत्री दीपिका पादुकोण के विरुद्ध अपशब्द नहीं कहने चाहिए थे किन्तु वहीं दूसरी ओर संजय लीला भंसाली को भी राजपूतों की भावनाओं का सम्मान करते हुए विरोध कर रहे राजपूतों के प्रतिनिधियों को फिल्म की स्क्रीनिंग दिखा देनी चाहिए थी, इससे मामला उस सीमा तक नहीं बिगड़ता जितना कि बिगड़ता चला गया। संजय लीला भंसाली ने जिस हठ का परिचय दिया वह भी चकित कर देने वाला है। उन्होंने अपनी फिल्म को विवाद के बहुत बाद सेंसर बोर्ड के पास भेजा।
Column Charcha Plus, Dainik Sagar Dinkar, Dr (Miss) Sharad Singh

सिनेमा मनोरंजन का वह सशक्त माध्यम है जिसके द्वारा यदि फिल्मकार चाहे तो सामाजिक, धार्मिक, ऐतिहासिक और राजनीतिक मूल्यों का शानदार ताना-बाना बुन सकता है। यहां शानदार होने का अर्थ करोड़ों के बजट से भव्य सेट लगाने से नहीं है, यहां शानदार होने का अर्थ है आम जनता के साथ सीधा संवाद स्थापित करना। अनेक ऐसी फिल्में बन चुकी हैं जिन्होंने जनमानस पर गहरा प्रभाव डाला है। ऐसा नहीं है कि उनमें विरोधात्मक बातें नहीं थीं लेकिन उस विरोध में भी सार्थकता थी। जैसे ‘जाने भी दो यारो’ ने जैसा राजनीतिक कटाक्ष किया वह अद्वितीय था। इतिहास की बात करें तो मेहताब की ‘झांसी की रानी’ (1953) अथवा हेमामालिनी अभिनीत ‘मीरा’ (1979) को सभी ने खुले दिल से स्वीकार किया। फिल्म ‘लेकिन’ और ‘रूदाली’ में उन दूषित व्यवस्थाओं को सामने रखा गया जिनके कारण राजस्थानी समाज में स्त्रियों को कष्ट सहने पड़ते थे। इन दोनों फिल्मों का किसी ने भी विरोध नहीं किया। क्योंकि भले ही यह समाज का काला पक्ष था लेकिन सच था। लेकिन ‘पद्मावती’ को विरोध का सामना करना पड़ रहा है। राजस्थानी राजपूत समाज का कहना है कि रानी पद्मावती को जिस प्रकार सबके सामने घूमर नृत्य करते हुए दिखाया गया है, वह उचित नहीं है साथ ही अपमानजनक है। यदि मध्यकालीन राजपूत समाज की परम्पराओं पर ध्यान दिया जाए तो यह सच है कि उस समय स्त्रियों में पर्दाप्रथा का कठोरता से पालन किया जाता था। इस प्रकार के नियम राजपरिवार की स्त्रियों पर भी लागू होते थे। ऐसे वातावरण में किसी रानी के द्वारा अपनी ससुराल में नृत्य किया जाना भला कैसे संभव हो सकता है? जबकि पीढ़ियों बाद राजस्थान की ही कृष्ण भक्त राजपूत रानी मीराबाई ने जब कृष्ण की भक्ति में झूमते हुए भजन गाए उस समय उन्हें ‘कुलनाशी’ कहा गया। मीरा ने स्वयं लिखा है- ‘‘लोग कहे मीरा बाबरी, सासु कहे कुलनासी री। विष रो प्यालो राणा भेज्या, पीवां मीरा हांसी री।।’’
विवाद को हवा देने वाले कुछ प्रतिष्ठित व्यक्तियों द्वारा यहां तक कहा जा रहा है कि रानी पद्मावती थी ही नहीं। इसे सिद्ध करने के लिए वे मलिक मोहम्मद जायसी के ‘पद्मावत’ का उदाहरण देते हैं और कहते हैं कि जायसी ने अपने काव्य में काल्पनिक पात्र को पिरोया है। किन्तु इस पद्मावती के द्वारा जौहर किए जाने के संदर्भ अन्य कई ग्रंथों में मिलते हैं। जौहर के बारे में अमीर खुसरों ने अपने ग्रन्थ “तारीख-ए-अलाई’ में लिखा है कि जब अलाउद्दीन ने 1301 ई. में रणथम्भौर पर आक्रमण किया व दुर्ग को बचाने का विकल्प न रहा तो दुर्ग का राजा अपने वीर योद्धाओं के साथ किले का द्वार खोलकर शत्रुदल पर टूट पड़ा। इसके पूर्व ही वहां की वीरांगनाएं सामूहिक रुप से अग्नि में कूदकर स्वाहा हो गईं।
उल्लेखनीय है कि कर्नल जेम्स टॉड द्वारा राजस्थान का विशद इतिहास लिखा गया है जो दो खण्डों में प्रकाशित है। कर्नल टॉड ने ‘राजस्थान का इतिहास’ में लिखा है कि सन 1275 ई. में चित्तौड़ के सिंहासन पर लक्ष्मण सिंह बैठा, राजा की अवस्था उस समय छोटी थी, इसलिए उसका संरक्षक राजा के चाचा भीमसिंह को बनाया गया। राजा भीमसिंह का विवाह उस समय की अद्वितीय सुंदरी रानी पद्मिनी के साथ हुआ था, रानी की सुंदरता का जब अलाउद्दीन खिलजी को पता चला तो उसने रानी को प्राप्त करने के लिए चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया। अलाउद्दीन ने राजा के पास एक संदेश भेजा कि यदि रानी पद्मिनी को उसे दर्पण में भी दिखा देगा तो भी वह इतने से ही प्रसन्न और संतुष्ट होकर दिल्ली लौट जाएगा। राजा ने प्रजाहित में अलाउद्दीन की यह शर्त स्वीकार कर ली। रानी की एक झलक दर्पण में से अलाउद्दीन को दिखा दिया गया। रानी को दर्पण में देखने के पश्चात उसे प्राप्त करने की इच्छा से अलाउद्दीन व्याकुल हो उठा। राणा को शिविर में कैद करके अलाउद्दीन ने किले के भीतर सूचना भिजवाई कि यदि राणा को जीवित देखना चाहते हो तो पद्मिनी को मुझको सौंप दो। यह असंभव शर्त थी। स्थिति की गंभीरता देखते हुए रानी ने अपने दो सेनापतियों गोरा और बादल के साथ योजना बनाई कि शर्त मानने का दिखावा किया जाएगा और रानी तथा उसकी सहेलियों की पालकियों में सशस्त्र राजपूत सैनिक शत्रुओं के पास जाएंगे। अवसर मिलते ही सैनिक राजा को अपनी पालकी में बैठाकर वहां से चल देंगे और पालकियों के भीतर छिपे सैनिक और कहारों के रूप में चल रहे योद्धा मिलकर शत्रुओं के प्रतिरोध का सामना करेंगे। भेद खुलते ही भीषण युद्ध हुआ और जब यह स्पष्ट हो गया कि किला अब शत्रुओं के हाथों में जा सकता है तो रानी पद्मिनी ने अनेक महिलाओं सहित जौहर कर लिया। कर्नल टॉड ने लिखा है कि -‘‘शिविर और सिंह द्वार पर जो कुछ हुआ, उसे देखकर अलाउद्दीन का साहस टूट गया। पद्मिनी को पाने के स्थान पर उसने जो कुछ पाया, उससे वह युद्ध को रोककर अपनी सेना के साथ दिल्ली की ओर रवाना हो गया।’’ आज भी चित्तौड़ के किले में वह कुण्ड मौजूद है जिसमें रानी पद्मावती ने जौहर किया था। राजपूत आज भी उन्हें सती माता के रूप में याद करते हैं।
जब किसी व्यक्ति से गहन संवेदनाएं जुड़ी हों तो उसके जीवन पर फिल्म बनाते समय सावधानियां जरूरी हो जाती हैं। फिर चित्तौड़ राजघराने के वंशज आज भी मौजूद हैं जिनसे विचार-विमर्श करना तथा पहली फिल्म स्क्रीनिंग में उन्हें शामिल करना आवश्यक था। यदि ऐसा किया गया होता तो विवाद बनने के पहले ही समस्या सुलझ गई होती।
दुख तो इस बात की है कि जावेद अख़्तर जैसे वरिष्ठ साहित्यकार रानी पद्मावती के अस्तित्व पर ऐसे अजीबोगरीब वक्तव्य दे रहे हैं। लखनऊ में एक न्यूज चैनल से बातचीत में जावेद ने कहा कि राजपूत-रजवाड़े अंग्रेजों से तो कभी लड़े नहीं और अब सड़कों पर उतर रहे हैं। ये जो राणा लोग हैं, महाराजे हैं, राजे हैं राजस्थान के, 200 साल तक अंग्रेज के दरबार में खड़े रहे पगड़ियां बांधकर, तब उनकी राजपूती कहां थी। ये तो राजा ही इसीलिए हैं, क्योंकि इन्होंने अंग्रेजों की गुलामी स्वीकार की थी।’’
इतना ही नहीं फिल्म के विरोध को लेकर जावेद अख़्तर बोले कि ’देश में सेंसर बोर्ड को ही बंद कर देना चाहिए’। उनका यह भी कहना है कि ’फिल्मों को इतिहास मत समझिए और इतिहास को भी फिल्म से मत समझिए।’ इस तरह के संवाद यदि किसी और के होते तो यह मानना पड़ता कि सस्ती लोकप्रियता के लिए आग में घी डालने का काम किया जा रहा है लेकिन जावेद अख़्तर तो स्वयं ही एक प्रसिद्ध व्यक्ति हैं अतः उन्हें तो कम से कम संयम से काम लेना चाहिए। उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय इतिहास में महाकाव्यों का भी बहुत महत्व है और वे भी अतिशयोक्तियों को अलग करते हुए साक्ष्य के रूप में स्वीकार किए जाते हैं। 
यूं भी हिन्दी सिनेमा जिस दौर से गुज़र रहा है वह भी कम चिन्तनीय नहीं है। हिन्दी सिनेमा में हॉलीवुड फिल्मों की नकल के साथ ही दक्षिण भारतीय फिल्मों की नकल और रीमेक का चलन बढ़ गया है। ऐसे में मौलिक फिल्म बनाने वाले फिल्मकारों को हठ की नीति अपनाने के बजाए सावधानी रखते हुए फिल्में बनानी चाहिए। आखिर वे इतनी मेहनत आमजनता के लिए ही तो करते हैं फिर जन भावनाओं की अवहेलना क्यूं? विवाद की आंच को महसूस करते हुए कई राज्य सरकारों ने अपने राज्य में ‘पद्मावती’ के प्रदर्शन पर समस्या का समाधान होने तक के लिए रोक लगा दी है जिनमें राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और पंजाब प्रमुख हैं। यही उचित क़दम है और इसी तरह के संयमित क़दम उठाते हुए बुद्धिजीवियों को भी भड़कावे वाले संवाद करने से परहेज करना चाहिए। यह शांतिव्यवस्था एवं पारस्परिक सौहार्द्य के लिए जरूरी है।  
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