Tuesday, February 13, 2018

चर्चा प्लस ... कहीं नार्सिस्ट तो नहीं होते जा रहे हम ? ... डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस 

कहीं नार्सिस्ट तो नहीं होते जा रहे हम ?
- डॉ. शरद सिंह


(दैनिक सागर दिनकर, 07.02.2018)
सोशलमीडिया ने अपने नाम के अनुरुप सोशल न बनाते हुए आत्मकेन्द्रित बना दिया है। इसमें दूसरे के प्रति न कोई सोच है और न ही कोई विचार है। एक आभासीय संजाल है जिसमें जकड़े हुए हम अपने ही चेहरे पर मुग्ध होते जा रहे हैं। कहीं हम नारर्सिस्ट तो नहीं होते जा रहे हैं? दूसरों के दुख से परे, आत्मप्रदर्शन के बहुत करीब। लेकिन इसके लिए सोशलमीडिया से अधिक हम स्वयं दोषी हैं। प्रत्यक्ष एवं यथार्थ जिम्मेदारियों को टालते हुए सुबह से शाम तक और शाम से सुबह तक सोशल मीडिया की दुनिया में लाईक-अनलाईक के बीच भटकते रहना नार्सिस्ट होना ही तो है और यह निःसंदेह चिन्ताजनक है, हर आयुवर्ग के लिए।

Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in Sagar Dinkar Dainik
 इन दिनों टेलीविजन में एक मोबाईल कम्पनी का विज्ञापन बड़े ज़ोर-शोर से दिखाया जा रहा है जिसमें एक प्रसिद्ध अभिनेत्री सुबह नींद से जागती है और अपने मोबाईल से अपनी सेल्फी लेती है, फिर तैयार होती है तो सेल्फी लेती है। किसी से मिलती है तो सेल्फी लेती है। यहां तक कि जब वह रात को फिर बिस्तर पर जाती है तो सेल्फी लेने के बाद नींद के आगोश में जाती है। देखा जाए तो सेल्फी का मोह अगर इस तरह मन-मस्तिष्क पर धाक जमाए तो तो इसे ‘मेंटल डिसऑर्डर’ ही कहा जाएगा। यूं भी सेल्फी के जुनून ने हम आयुवर्ग के व्यक्ति को जकड़ रखा है, फिर वह चाहे किसी भी पद पर आसीन ही क्यों न हो। शायद आपको याद हो कि दक्षिण आफ्रिका के राष्ट्रपिता माने जाने वाले नेल्सन मंडेला के अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए लगभग समूचे विश्व से राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री दक्षिण आफ्रिका पहुंचे थे। वहां अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति ओबामा द्वारा एक अन्य नेता के साथ सेल्फी लेने पर उनके इस कृत्य को धिक्कारा गया था। यह सच है कि व्यक्ति अपने जीवन में आए किसी भी महत्वपूर्ण क्षण को फोटो के रूप् में संग्रहीत कर लेना चाहता है। उसकी यह प्रवृत्ति आदिम युग से उसके भीतर पलती रही है। जिसका प्रमाण वे भित्तिचित्र हैं जो गुफाओं और शिलाओं पर बने हुए हैं। लेकिन यदि मामला समय के दस्तावेजीकरण का ही है तो फिर भी ठीक है लेकिन यदि वह स्वयं को प्रदर्शित करने मात्र के लिए है तो इसे नार्सिज्म ही कहा जाएगा।
प्रचीन यूनानी कथा के अनुसार नारसिसस नदी के देवता सेफ़िसस तथा अप्सरा लीरिओप ने एक पुत्र को जन्म दिया। बालक के जन्म पर भविष्यवक्ता टीरेसियस जो घोषण की, उसके अनुसार देवता पुत्र नारिसिसस दीर्घायु होगा यदि वह अपने चेहरा न देखे। जिस दिन वह अपना चेहरा देखेगा, उसी दिन उसकी मृत्यु हो जाएगी। सेफ़िसस तथा लीरिओप ने हरसंभव प्रयास किया कि नारसिसस के आसपास कोई ऐसी वस्तु न रहे जिसमें वह अपना चेहरा देख सके। नारसिसस बड़ा हुआ। वह देखने में अत्यंत आकर्षक था। उसके इस आकर्षण पर अमीनियस नामक अप्सरा आसक्त हो गई किन्तु नारसिसस ने अमीनियस के प्रेम को ठुकरा दिया। जिससे देवता नारसिसस से अप्रसन्न हो गए। अप्रसन्न देवताओं के कोप ने अपना प्रभाव दिखाया और नारसिसस एक दिन भटकता हुआ एक जलाशय के पास जा पहुंचा। वह पानी पीने के लिए जलाशय में जैसे ही झुका, उसे अपना चेहरा पानी में दिखाई दे गया। अपने चेहरे का प्रतिबिंब पानी में देख कर वह चकित रह गया। वह स्वयं की सुंदरता पर इतना अधिक मोहित हुआ कि उसने उसी जलाशय में कूद कर अपने प्राण त्याग दिए। नारसिसस के द्वारा आत्महत्या करने के बाद जलाशय के पास एक पुष्प उगा जिसे मरनेवाले के नाम पर “नारसिसस“ अथवा नरगिस कहा जाने लगा। नरगिस पर शायर अल्लामा इक़बाल का यह शेर बहुत प्रसिद्ध है-
हज़ारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।

आज स्थिति नारसिसस ये अलग नहीं है। आए दिन समाचार पढ़ने को मिलते रहते हैं कि सेल्फी लेने के चक्कर में सेल्फी लेनेवाला हादसे का शिकार हो गया। मोबाइल से अपनी सेल्फी लेकर उसे सोशल साइट पर अपलोड करके प्रसारित करना आज एक फैशन बन गया है। अनेक प्रकार से अपने चेहरे व हाव-भाव को लेकर सेल्फी खींची जाती है और उसे सारे सोशलमीडिया के द्वारा प्रसारित किया जाता है। यह आत्ममुग्धता का ही एक प्रकार है। क्योंकि इस तरह सेल्फी लेने पर मानसिक दबाव यही रहता है कि फोटो में चार चांद लगी सुंदरता दिखनी चाहिए। सेल्फी के अलावा अपने परिवार के साथ अपनी हंसती-मुस्कराती तस्वीरें खींचकर यह जताने की ललक रखना कि जैसे कि उनका परिवार सबसे सुखी परिवार है और उनमें परस्पर अद्वितीय आत्मीयता है। यह आचरण सकारात्मक हो सकता है बशर्ते इसका दूसरा चरण तस्वीरें पोस्ट करने वाले को परेशान न करता हो कि कितने ‘लाईक्स’ आए और कितने ‘कमेंट्स’ आए। अनके महिलाएं अपने बच्चों पर अपनी ममता को लुटाते हुए अपनी सेल्फी द्वारा अब यह सिद्ध करती हैं कि वह कितनी ममतामयी व स्नेहशील हैं। इस प्रकार को सेल्फी में दिखने वाली मांएं अपनी ममता का ढिंढोरा पीटते हुए लगती हैं। आखिर पोस्ट के बाद उनका ध्यान बच्चों पर नहीं बल्कि ‘लाईक्स’ पर रहता है। यही हाल पुरुषों का रहता है और युवाओं का भी। सोशलमीडिया ने अपने नाम के अनुरुप सोशल न बनाते हुए आत्मकेन्द्रित बना दिया है। इसमें दूसरे के प्रति न कोई सोच है और न ही कोई विचार है। एक आभासीय संजाल है जिसमें जकड़े हुए हम अपने ही चेहरे पर मुग्ध होते जा रहे हैं। कहीं हम नारर्सिस्ट तो नहीं होते जा रहे हैं? दूसरों के दुख से परे, आत्मप्रदर्शन के बहुत करीब। लेकिन इसके लिए सोशलतीडिया से अधिक हम स्वयं दोषी हैं।
पहले यात्रा के दौरान सहयात्रियों में परस्पर बातचीत होती थी, परिचय का आदान-प्रदान होता था और कई बार यह परिचय दीर्घकालीन मित्रता अथवा रिश्तेदारी में भी बदल जाता था लेकिन आज स्थिति इसके बिलकुल उलट है। आज दो सहयात्री परस्पर आजू-बाजू बैठे होने पर भी अपने-अपने मोबाइल्स में खोए रहते हैं। प्रत्यक्ष को छोड़ कर आभासीय दुनिया में भटकने की यह आदत वाकई भयावह है। ज़रा सोचिए कि यदि यात्रा के दौरान कोई अप्रिय घटना घटती है तो उस समय तत्काल काम कौन आएगा वह सहयात्री या आभासीय मित्र जिसके बारे में वस्तुतः कुछ भी नहीं जानते हैं। अकसर अनेक प्रोफाईल नकली होते हैं। हमें यह भी पता नहीं होता है हमारे आभासीय मित्र ने अपने बारे में जो जानकारी डाली है वह सही है भी या नहीं। बस, हम यह सोच कर खुश होते रहते हैं कि वह हमारी पोस्ट और हमारी फोटो से निर्मित व्यक्तित्व से प्रभावित हो कर हमारा मित्र या फालोअर बन गया है। यह भ्रम हमें आत्ममुग्धता के चरमशिखर पर ले जाता है।
सोशल मीडिया के उद्देश्य में कोई खोट नहीं है। फेसबुक हो या ट्विटर या व्हाट्सएप्प या सोशल मीडिया का कोई और प्लेटफार्म उसका उद्देश्य है लोगों को परस्पर जोड़ना जिससे दुनिया भर के लोग अपनी जैसी रुचि वालों से संवाद कर सकें और परस्पर वैचारिक स्तर पर जुड़ सकें। जिससे दुनिया में एक सौहार्द्यपूर्ण अच्छा एवं स्वस्थ वातावरण बन सके। लेकिन हो रहा है इसके विपरीत। व्हाट्सएप्प पर जिस तरह वैमनस्य फैलाया जाता है उसे देख कर बचपन का वह निबंध याद आने लगता है जिसमें हमें लिखना होता था कि विज्ञान वरदान है या अभिशाप? हम निबंध में यही लिखते थे कि विज्ञान यू ंतो वरदान है लेकिन हम मनुष्यों का लोभ, लालच और अदूरदर्शिता उसे अभिशाप बना देती है। ठीक यही स्थिति सोशल मीडिया के साथ हमारी होती जा रही है। अधिकांश लोगों ने उसे अपनी अतृप्त इच्छाओं के प्रदर्शन का माध्यम बना डाला है। उस पर भी जो लोग ’फेक आईडेंटिटी’ यानी झूठे परिचय के जरिए सोशल मीडिया से जुड़ते हैं वे सबसे अधिक मानसिक बीमारी से ग्रस्त रहते हैं। सीधी सी बात है कि यदि आप गलत नहीं हैं, आपके इरादे गलत नहीं हैं तो अपना परिचय छिपाने की जरूरत ही क्या है? यदि आप अपना परिचय छिपा कर गलत परिचय के साथ किसी से जुड़ना चाहते हैं तो यह तो मित्रता की बुनियाद में ही अपराध करने जैसा कृत्य है।
मनोवैज्ञानिक नार्सिज्म को मनोरोग मानते हैं। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार “जिस व्यक्ति के आकर्षण की वस्तु बाहरी जगत् में नहीं होती, वह अपनेआप से प्रेम करने लगता है और ऐसा ही व्यक्ति आत्मप्रेमी कहलाता है।“ यह अवस्था मानसिक तनाव पैदा करती है और सहनशक्ति को घटाती चली जाती है। स्वयं को अद्वितीय समझने की घातक प्रवृत्ति दूसरों के प्रति असीम कटुता को जन्म देती है। यह सतत् क्रिया किसी भी व्यक्ति को अपराध की ओर धकेलती चली जाती है, चाहे वह अपराध छोटे से छोटा हो या बड़े से बड़ा। तनाव से मुक्त होने के लिए बाहरी वस्तुओं के प्रति रुचि अथवा आकर्षण का होना आवश्यक है। क्यों कि यह व्यक्ति को तुलनात्मक होना सिखाता है और व्यक्ति अपनी कमियों को भी जान पाता है तथा उन्हें सुधार पाता है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार संविभ्रम (पैरानोइया) और अकाल मनोभ्रश (डिमेंशिया प्रीकॉक्स) के रोगी भी नारसिज्म के शिकार होते हैं। फ्रायड के मतानुसार यह मनोलैंगिक विकार (साइको-सैक्सुअल डिसऑर्डर) को भी जन्म देता है।
आत्ममुग्धता से ग्रस्त होना यानी नार्सिस्ट होना। कहीं ऐसा न हो कि नार्सिस्ट हो कर हम अपने घर-परिवार और अपने उन प्रियजन के दुख-सुख को भी भुला बैठें जो हमारे हमारे जीवन से प्रत्यक्ष वास्ता रखते हैं। प्रत्यक्ष एवं यथार्थ जिम्मेदारियों को टालते हुए सुबह से शाम तक और शाम से सुबह तक सोशल मीडिया की दुनिया में लाईक-अनलाईक के बीच भटकते रहना नार्सिस्ट होना ही तो है और यह निःसंदेह चिन्ताजनक है, हर आयुवर्ग के लिए।
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