Thursday, December 27, 2018

साहित्यकार रमेश दुबे की पांचवीं पुण्यतिथि पर विनम्र श्रद्धांजलि - डॉ शरद सिंह

Tribute  by Dr Sharad Singh to Late Ramesh Dutt Dubey on his Fifth Death Anniversary
सागर के दिवंगत साहित्यकार रमेश दुबे की पांचवीं पुण्यतिथि दिनांक 23.12.2018 पर श्यामलम् संस्था द्वारा जे.जे. इंस्टीट्यूट, सिविल लाइन्स, सागर में आयोजित कार्यक्रम में सागर नगर के हम सभी साहित्यकारों ने स्व. दुबे जी का पुण्य स्मरण किया। "जब कोई साहित्यकार दुनिया से विदा लेता है तो वह अपने पीछे एक लेखकीय परम्परा छोड़ जाता है..." - डॉ शरद सिंह
Tribute  by Dr Sharad Singh to Late Ramesh Dutt Dubey on his Fifth Death Anniversary

Tribute  by Dr Varsha Singh to Late Ramesh Dutt Dubey on his Fifth Death Anniversary

Tribute  by Dr Sharad Singh to Late Ramesh Dutt Dubey on his Fifth Death Anniversary

Tribute  by Dr Sharad Singh to Late Ramesh Dutt Dubey on his Fifth Death Anniversary

Tribute  by Dr Sharad Singh to Late Ramesh Dutt Dubey on his Fifth Death Anniversary

Tribute  by Dr Sharad Singh to Late Ramesh Dutt Dubey on his Fifth Death Anniversary

Tribute  by Dr Sharad Singh to Late Ramesh Dutt Dubey on his Fifth Death Anniversary

Tribute  by Dr Sharad Singh to Late Ramesh Dutt Dubey on his Fifth Death Anniversary

Tribute  by Dr Sharad Singh to Late Ramesh Dutt Dubey on his Fifth Death Anniversary
 
Tribute  by Dr Sharad Singh to Late Ramesh Dutt Dubey on his Fifth Death Anniversary

Wednesday, December 26, 2018

चर्चा प्लस ... प्रकृति पर आधारित है भारतीय संस्कृति - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस
प्रकृति पर आधारित है भारतीय संस्कृति
      - डॉ. शरद सिंह
भारतीय संस्कृति ‘‘अप्प देवो भव’’ की संस्कृति है। यदि प्रत्येक मनुष्य में देवत्व के गुण जाग्रत हो जाएं तो सांस्कृतिक विकार जागने अथवा किसी विषम पल में जाग भी जाए तो उसके स्थाई रूप से बने रहने का प्रश्न ही नहीं है। संस्कृत में प्रणीत हमारा संपूर्ण वाङ्मय वेदों, उपनिषदों, रामायण, महाभारत, भागवत, भगवद्गीता आदि के रूप में विद्यमान है, जिसमें हमारे जीवन को सार्थक बनाने के सभी उपक्रमों का विस्तृत विवरण विद्यमान है। इन प्राचीन ग्रंथों में स्पष्ट रूप से व्याख्या की गई है कि संस्कृति एक शाब्दिक ईकाई नहीं वरन् जीवन की समग्रता की द्योतक है। संस्कृति मात्र चेतन तत्वों के लिए ही नहीं अपितु जड़तत्वों के लिए भी प्रतिबद्धता का आग्रह करती है।
चर्चा प्लस ...  प्रकृति पर आधारित है भारतीय संस्कृति - डॉ. शरद सिंह Charcha Plus .. Column of Dr (Miss) Sharad Singh in Daily Sagar Dinkar Newspaper
 23 दिसंबर 2018 को आर्ट्स एंड कॉमर्स कॉलेज, सागर म.प्र. के हिन्दी विभाग में प्राचार्य डॉ. जी.एस.रोहित एवं संगोष्ठी संयोजक डॉ. सरोज गुप्ता के अथक श्रम से “अतुल्य भारतः संस्कृति और राष्ट्र“ विषय पर अंतर्राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी हुई जिसमें अतिथि विद्वान के रूप में मैंने ’संस्कृति और मानव मूल्य’ पर अपना वक्तव्य दिया। इस अवसर पर संगोष्ठी में लंदन से आई लूसी गेस्ट, अमेरिका से आए भारतीय मूल के डॉ. अनुभव मिश्रा, सांची के बौद्ध भिक्षु लेखराम भंते, हटा (म.प्र.) के डॉ. श्याम सुंदर दुबे, खंडवा (म.प्र.) के डॉ श्रीराम परिहार, वाराणसी (उ.प्र.) के डॉ. संजीव सराफ, सागर (म.प्र.) की डॉ. मीना पिंपलापुरे एवं योगाचार्य विष्णु आर्य आदि विद्वानों ने भी विचार रखे। इसी संगोष्ठी मेरी दीदी डॉ. वर्षा सिंह भारतीय संस्कृति पर काव्यपाठ के लिए आमंत्रित थीं। आज ‘‘चर्चा प्लास’’ में मैं अपने वक्तव्य के कुछ अंश यहां दे रही हूं-
संस्कृति, राष्ट्र और समाज ये तीन ईकाइयां हैं, जो मानव संस्कृति को आकार देती हैं। सुसंस्कृति से सुराष्ट्र आकार लेता है और अपसंस्कृति से अपराष्ट्र। शब्द अनसुना सा लग सकता है-‘‘अपराष्ट्र’‘। किन्तु यदि राष्ट्रों की राजनीतिक स्तर पर अपराधों में लिप्तता राजनीतिक कुसंस्कारों को जन्म देती है और यही कुसंस्कार राष्ट्र में अतंकवाद की गतिविधियों को प्रश्रय देते हैं। विश्व में कई देश ऐसे हैं जो राजनीतिक दृष्टि से अपराष्ट्र की श्रेणी में गिने जा सकते हैं। वहीं भारत की संस्कृति का स्वरूप इस प्रकार का है जिसमें अपसंस्कारों की कोई जगह नहीं है। भारतीय संस्कृति ‘‘अप्प देवो भव’’ की संस्कृति है। यदि प्रत्येक मनुष्य में देवत्व के गुण जाग्रत हो जाएं तो सांस्कृतिक विकार जागने अथवा किसी विषम पल में जाग भी जाए तो उसके स्थाई रूप से बने रहने का प्रश्न ही नहीं है। संस्कृत में प्रणीत हमारा संपूर्ण वाङ्मय वेदों, उपनिषदों, रामायण, महाभारत, भागवत, भगवद्गीता आदि के रूप में विद्यमान है, जिसमें हमारे जीवन को सार्थक बनाने के सभी उपक्रमों का विस्तृत विवरण विद्यमान है। इन प्राचीन ग्रंथों में स्पष्ट रूप से व्याख्या की गई है कि संस्कृति एक शाब्दिक ईकाई नहीं वरन् जीवन की समग्रता की द्योतक है। संस्कृति मात्र चेतन तत्वों के लिए ही नहीं अपितु जड़तत्वों के लिए भी प्रतिबद्धता का आग्रह करती है। अब प्रश्न उठता है कि क्या जड़ तत्वों के लिए भी कोई सांस्कृतिक आह्वान होता है जबकि जड़ तो जड़ है, निचेष्ट, निर्जीव। फिर निर्जीव के लिए संसकृति का कैसा स्वरूप, कैसा रूप? ठीक इसी बिन्दु पर भारतीय संस्कृति की महत्ता स्वयंसिद्ध होने लगती है। भारतीय संस्कृति समस्त जड़ ओर समस्त चेतन जगत से तादात्म्य स्थापित करने का तीव्र आग्रह करती है। यही आग्रह आज हम पर्यावरण संतुलन के आग्रह के रूप में देखते हैं, सुनते हैं और उसके लिए चिन्तन-मनन करते हैं। जब प्र्रणियों का शरीर पंचतत्वों से बना हुआ है और ये पंचतत्व वही हैं जिनसे संसार के जड़ तत्वों की भी पृथक-पृथक रचना हुई है, तो जड़ और चेतन के पारस्परिक संबंध अलग कहां हैं? ये दोनों तो घनिष्ठता से परस्पर जुड़े हुए हैं।
भारतीय संस्कृति वह मार्ग सुझाती है कि वे सांस्कृतिक मूल्य कहां से सीखें जाएं जो मनावजीवन को मूल्यवान बना दे -
परोपकाराय फलन्ति वृक्षः
परोपकाराय वहन्ति नद्यः
परोपकाराय दुहन्ति गावः
परोपकारार्थमिदम् शरीरम्।
अर्थात् - वृक्ष परोपकार के लिए फलते हैं, नदियां परोपकार के लिए बहती हैं, गाय परोकार के लिए दूध देती हैं अतः अपने शरीर अर्थात् अपने जीवन को भी परोपकार में लगा देना चाहिए।
भारतीय संस्कृति की यह सबसे बड़ी विशेषता है कि वह चौरासी लाख योनियों में मनुष्य योनि को सबसे श्रेष्ठ मानती है किन्तु साथ ही अन्य योनियों की महत्ता को भी स्वीकार करती है। जिसका आशय है कि प्रकृति के प्रत्येक तत्व से कुछ न कुछ सीखा जा सकता है। और यह तभी संभव है जब प्रकृति के प्रति मनुष्य की आत्मीयता ठीक उसी प्रकार हो जैसे अपने माता-पिता, भाई, बहन, गुरु और सखा आदि प्रियजन से होती है। यह आत्मीयता भारतीय संस्कृति में जिस तरह रची-बसी है कि उसकी झलक गुरुगंभीर श्लोकों के साथ ही लोकव्यवहार में देखा जा सकता है। लोक जीवन की धारणा में पहाड़ मित्र है तो नदी सहेली है, धरती मां है तो अन्न देवता है। प्रकृति के वे सारे तत्व जिनसे मिल कर यह पृथ्वी और पृथ्वी पर पाए जाने वाले सभी जड़-चेतन मनुष्य के घनिष्ठ हैं, पूज्य हैं ताकि मनुष्य का उनसे तादात्म्य बना रहे और मनुष्य इन सभी तत्वों की रक्षा के लिए सजग रहे।
एक नदी लोकजीवन में किस तरह आत्मीय हो सकती है यह तथ्य बुन्देलखण्ड में गाए जाने वाले बाम्बुलिया लोकगीत में देखा जा सकता है। नर्मदा स्नान करने को नर्मदातट पर पहुंची मनुष्यों की टोली नर्मदा को देखते ही गा उगती है-
नरबदा मैया ऐसे तौ मिली रे
अरे, ऐसे तौ मिली के जैसे मिल गए मताई औ बाप रे
नरबदा मैया... हो....
जब नर्मदा माता है तो गंगा, यमुदना और सरस्वती की त्रिवेणी? क्या उनसे कोई नाता नहीं रह जाता है? लोकमानस त्रिवेणी से भी अपने रिश्तों को व्याख्यायित करता है-
नरबदा मोरी माता लगें रे
अरे, माता तौ लगें रे, तिरबेनी लगें मोरी बैन रे
नरबदा मैया... हो...
वहीं भोजपुरी लोकगीतों में गंगा को मां, यमुना को बहन, चांद और सूरज को भाई कहा गया है और साथ ही स्त्री की झिझक को प्रकट करते हुए यह भी कहा गया है कि इनके द्वारा अपने परदेसी पति को संदेश कैसे भिजवाऊं, तुम्हीं संदेश पहुंचाओ मेरी सखी।
चननिया छिटकी मैं का करूं गुंइया
गंगा मोरी मइया, जमुना मोरी बहिनी,
चान सुरुज दूनो भइया,
पिया को संदेस भेजूं गुंइया।
भारतीय संस्कृति में मानवमूल्य की महत्ता इतनी सघन है कि प्रकृति को भी रक्तसंबंधियों से अधिक घनिष्ठ माना जाता है। इसके उदाहरण लोकसंस्कारों में देखे जा सकते हैं जो आज भी ग्रामीण अंचलों में निभाए जाते हैं- जैसे कुआ पूजन संस्कार - विवाह के अवसर पर विभिन्न पूजा-संस्कारों के लिए जल की आवश्यकता पड़ती है। यह जल नदी, तालाब अथवा कुए से लाया जाता है। इस अवसर पर रोचक गीत गाए जाते हैं। ऐसा ही एक गीत है जिसमें कहा गया है कि विवाह संस्कार के लिए पानी लाने जाते समय एक सांप रास्ता रोक कर बैठ जाता है। स्त्रियां उससे रास्ता छोड़ने का निवेदन करती हैं किन्तु वह नहीं हटता है। जब स्त्रियां उसे विवाह में आने का निमंत्रण देती हें तो वह तत्काल रास्ता छोड़ देता है।
इसी तरह अनूठा है मातृत्व साझा करने का संस्कार - सद्यःप्रसूता जब पहली बार प्रसूति कक्ष से बाहर निकलती है तो सबसे पहले वह कुएं पर जल भरने जाती है। यह कार्य एक पारिवारिक उत्सव के रूप में होता है। उस स्त्री के साथ चलने वाली स्त्रियां कुएं का पूजन करती हैं फिर प्रसूता स्त्री अपने स्तन से दूध की बूंदें कुएं के जल में निचोड़ती हैं। इस रस्म के बाद ही वह कुएं से जल भरती है। इस तरह पह पेयजल को अपने मातृत्व से साझा कराती है क्योंकि जिस प्रकार नवजात शिशु के लिए मां का दूध जीवनदायी होता है उसी प्रकार समस्त प्राणियों के लिए जल जीवनदायी होता है।
जिस संस्कृति में पृथ्वी की रक्षा से ले कर पारिवारिक संबंधों की गरिमा तक पर समुचित ध्यान दिया जाता हो उस संस्कृति में मानवमूल्यों का पीड़ी दर पीढ़ी प्रवाहमान रहना स्वाभाविक है।    
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 26.12.2018)
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Thursday, December 20, 2018

चर्चा प्लस ... बड़ी कठिन है डगर ( एम.पी. में ) सी.एम. की - डॉ. शरद सिंह

Dr Sharad Singh
चर्चा प्लस ...
बड़ी कठिन है डगर ( एम.पी. में ) सी.एम. की
- डॉ. शरद सिंह
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कमलनाथ द्वारा मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के साथ ही कांग्रेस को एक बार फिर प्रदेश की सत्ता सम्हालने का अवसर मिला है । कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कमलनाथ के मुख्यमंत्री बनने के पूर्व ज्योतिरादित्य सिंधिया के समर्थकों ने अपने हठ का प्रदर्शन किया किन्तु समझाइश के बाद वे मान भी गए। यूं तो, अंत भला सो सब भला। लेकिन क्या सचमुच सब कुछ भला ही भला है? सरकारी खजाना संकटग्रस्त है, विरोधी कमर कसे हुए हैं, साथी भी छींटाकशी से बाज नहीं आ रहे हैं और उस पर 10 दिन में किसानों का कर्जमाफ करने की घोषणा का दबाव। बड़ी कठिन है डगर सी.एम. की। 

चर्चा प्लस ... बड़ी कठिन है डगर ( एम.पी. में ) सी.एम. की - डॉ. शरद सिंह  Charcha Plus column of Dr (Miss) Sharad Singh
 मध्यप्रदेश में नई सरकार ने शपथग्रहण कर लिया। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कमलनाथ के मुख्यमंत्री बनने के पूर्व ज्योतिरादित्य सिंधिया के समर्थकों ने अपने हठ का प्रदर्शन किया किन्तु समझाइश के बाद वे मान भी गए। अंत भला सो सब भला। कांग्रेस नेताओं की उपस्थिति में कमलनाथ ने ली मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली। लेकिन क्या सचमुच सब कुछ भला ही भला है? कदापि नहीं। नए मुख्यमंत्री के लिए मध्यप्रदेश यानी एम. पी. की डगर आसान नहीं होने वाली है। नमूना शपथग्रहण समारोह के दौरान ही दिखाई दे गया। भारतीय जनता पार्टी ने 1984 में हुए सिख विरोधी दंगों के मामले में सज्जन कुमार को सोमवार को सुनाई गई। उम्रकैद की सजा को कांग्रेस के लिए बड़ा झटका बताते हुए कहा कि इस पार्टी को इसी नरसंहार के आरोपी कमलनाथ के खिलाफ भी कार्रवाई करनी चाहिए। सिख विरोधी दंगों पर आए फैसले से जुड़ी एक प्रतिक्रिया में आम आदमी पार्टी का कहना है कि कमलनाथ को मध्य प्रदेश का सीएम नहीं बनाया जाना चाहिए। खैर इस राजनीतिक जुमलेबाजी को एक तरफ रख दिया जाए तो सबसे गंभीर मसला है कांग्रेस द्वारा की गई घोषणाओं के पूरा किए जाने का। विपक्ष ने पहले ही चेतावनी दे दी है कि वे ‘दस दिन’ अपनी उंगलियों पर गिनते रहेंगे।
उल्लेखनीय है कि विधानसभा चुनावों के परिणाम आने के बाद 11 दिसंबर को प्रेस से बात करते हुए राहुल गांधी ने कहा था कि कांग्रेस राज्य के किसानों की कर्जमाफी की घोषणा 10 दिन के अंदर करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। इस हिसाब से मध्यप्रदेश में हालत इतनी सुगम नहीं है। सरकार द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार लगभग 41 लाख किसानों ने 56,377 करोड़ रुपए का कर्ज ले रखा है। इनमें भी 21 लाख ऐसे किसान हैं जिहोंने 14,300 करोड़ रुपये का कर्ज लिया है और उनकी कर्ज अदा करने वाली तारीख भी निकल चुकी है। वहीं दूसरी ओर किसान कर्ज माफी को उचित नहीं इहराते हुए रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर उर्जित पटेल समेत डिप्टी गवर्नर एस.एस. मूंदड़ा ने कहा था कि इससे कर्ज लेने और देने वाले के बीच अनुशासन बिगड़ता है। इतना ही नहीं, स्अेट बैंक ऑफ इंडिया की 2017 में चेयरपर्सन रहीं अरुंधति भट्टाचार्य ने भी किसान कर्जमाफी का विरोध किया था। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि कर्ज लेने वाले कर्ज चुकाने के बजाय अगले चुनाव का इंतजार करने लगते हैं।
बैंक के कड़े रवैये के कारण राज्य सरकार को किसान कर्जमाफी के लिए आरबीआई से लोन लेना कठिन होगा। बैंक के कड़े दिशा-निर्देशों के कारण राज्य सरकार बहुत अधिक लोन नहीं ले पाएगी। नए नियमों के अनुसार कर्ज की सीमा एक हजार करोड़ रुपये अधिकतम कर दी गई है। उस मुसीबत यह कि रिजर्व बैंक एवं स्टेट बैंक की आपत्तियों के बावजूद मध्यप्रदेश की पिछली सरकार ने 5 अक्टूबर, 12 अक्टूबर और 9 नवंबर को क्रमशः 500 करोड़, 600 करोड़ और 800 करोड़ रुपये का कर्ज लिया था। इसके बाद 4 दिसंबर को भी लोन लिया गया था। जहां प्रदेश सरकार के पास खुद के कर्ज चुकाने के लाले पड़ने वाले हों, वहां किसानों की कर्जमाफी कैसे हो सकेगी, यह देखने का विषय रहेगा।
यह तो तय है कि कांग्रेस सरकार खजाने की हालत जनता को बताने के लिए श्वेतपत्र लाएगी। नए मुख्यमंत्री के लिए वित्तीय स्थिति को आमजनता के सामने रखना जरूरी है। इसके लिए सभी विभागों को अपनी-अपनी स्थिति को लेकर रिपोर्ट तैयार करने के निर्देश पहले ही दे दिए गए हैं।
यहां समाचार न्यूज चैनल एनडीटीवी की 10 जुलाई 2018 की उस रिपोर्ट को याद करना जरूरी है जिसमें खुलासा किया था कि -‘‘ओवरड्राफ्ट की स्थिति के बावजूद चुनावी साल में शिवराज लगा रहे घोषणाओं की झड़ी । वित्तमंत्री बेफिक्र होकर कहते हैं कि चुनावी साल में घोषणाएं कौन सी सरकार नहीं करती. कांग्रेस कह रही है सरकार घबराहट में ऐलान कर रही है। 30 मई को मंदसौर में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री ने गरीबों को घर, तेंदूपत्ता संग्राहकों के लिये चप्पल-साड़ी का ऐलान किया, कहा कि सरकार ने अभी तक गरीबों में 20000 करोड़ बांट दिये. तो वहीं 14 मई को भोपाल में बच्चों से कहा कि 12वीं के बाद सारी फीस उनके मामा भरेंगे, 75 फीसद लाने पर लैपटाप मिलेगा।’’ एनडीटीवी की इसी रिपोर्ट में कहा गया था कि-‘‘ 12 फरवरी को भोपाल के जंबूरी मैदान में धड़ाधड़ ऐलान करते हुए मुख्यमंत्री ने कहा, ’सरकार 5 साल में खेती पर 38,000 करोड़ रुपये खर्चेगी। चुनावी साल में गरीबों के बिजली के पुराने बिल माफ करने के लिए बिजली बिल समाधान योजना तो मजदूरों के लिये संबल योजना, किसानों के लिये किसान समृद्धि योजना जैसे कई ऐलान ताब़ड़तोड़ कर डाले, ये भूलकर कि इन योजनाओं ने सरकार की आर्थिक हालत खराब कर दी है। राज्य पर एक लाख 82000 करोड़ का कर्ज है, 15 साल बाद ओवर ड्राफ्ट के हालात हैं लेकिन वित्त मंत्री निश्चिंत हैं। वित्त मंत्री जयंत मलैया ने कहा, “हम संवदेनशील हैं, खजाने में कुछ दे दें तो क्या दिक्कत है, साढ़े 14 साल रेवेन्यू सरप्लस रहा है हमें कोई दिक्कत नहीं है, खजाना भले खाली हो जाए, गरीब की आंखों में आंसू नहीं देख सकते, क्या फर्क पड़ता है ओवरड्राफ्ट से।’’ तो, इस तरह भावुकता भरे बयान तत्कालीन सरकार की ओर से आते रहे।
एनडीटीवी ने जो आंकड़े दिए थे उन पर भी नज़र डालना जरूरी है- पिछली सरकार ने संबल योजना में 2500 करोड़ रुपए, बिजली बिल समाधान योजना में 3000 करोड़ रुपए, सरकारी कर्मचारियों को दिये गये सातवें वेतनमान में 1500 करोड़ रुपए, किसानों को पुराने साल की खरीद के बोनस में 2050 करोड़ रुपए, कृषक समृद्धि योजना में 4000 करोड़ रुपए और शिक्षकों को एक विभाग में समायोजित करने में 2000 करोड़ रुपए का खर्चा सरकारी खजाने पर पड़ा। सरकार ने 11 हजार करोड़ का अनुपूरक बजट लाकर हालत सुधारने की सोचा किन्तु मात्र 5000 हजार करोड़ रुपयों की ही व्यवस्था हो पाई।
मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव 2018 में कांग्रेस ने समर्थन के आधार पर बहुमत पा कर अपनी सरकार बना ली है लेकिन कर्ज में डूबा मध्यप्रदेश का सरकारी खजाना कांग्रेस सरकार के लिए कांटों भरा रास्ता है नई सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती सरकार के खराब वित्तीय हालात हैं। प्रदेश के ऊपर पौने दो लाख करोड़ रुपए से ज्यादा का कर्ज है। कर्मचारियों को सातवां वेतनमान और एरियर देने, अध्यापकों के संविलियन, भावांतर भुगतान, किसानों को प्रोत्साहन राशि देने, संबल योजना सहित अन्य योजनाओं के चलते सरकार का खर्च बहुत बढ़ गया है। जीएसटी लागू होने और पेट्रोल-डीजल पर वैट कम करने से आय घटी है। विकास योजनाओं के खर्च की पूर्ति के लिए रिजर्व बैंक के जरिए बाजार से लगातार कर्ज लिया गया है। जीएसटी के कारण टैक्स लगाने के क्षेत्र बेहद सीमित हो गए हैं। पिछली सरकार के द्वारा दी जाने वाली वित्तीय छूटों के विरुद्ध समय-समय पर विरोध भी किए जाते रहे किन्तु जयकारों के स्वर में विरोध के स्वर दबते चले गए। अंततः यही विरोध भाजपा को हार के रूप में झेलना पड़ा। भाजपा सरकार चली गई और प्रदेश की कर्ज तले दबी वित्तीय स्थिति कांग्रेस के रास्ते का रोड़ा बन गई है। फिर भी यह प्रश्न उभरता है कि यदि पिछली सरकार फिर सत्ता पर आती तो इस प्रदेशिक सरकारी कर्ज से कैसे कांग्रेस सरकार को अपने वचन पूरा करने के लिए अतिरिक्त वित्तीय संसाधन की जरूरत होगी। ऐसे में एक पार पाती? जनता को दिखाए गए सारे सपने क्या 2019 के चुनाव के बाद सरकार द्वारा खुद ही छीन लिए जाते ताकि वह सरकारी खजाने को बचा सके या फिर कर्ज का सिलसिला अनवरत चलता रहता जो कि अर्थशास्त्रियों के अनुसार घातक सिद्ध होता। बहरहाल, नई सरकार खजाने के लिए धन जुगाड़ने को एक कदम यह भी उठा सकती है कि सरकार खर्चों में कटौती की जाए।
राहुल गांधी द्वारा किए गए किसानों की कर्जमाफी के वादे को मध्यप्रदेश सरकार हर संभव पूरा करने के लिए कटिबद्ध है और अब कर्जमाफी के आदेश पर मुख्यमंत्री के हस्ताक्षर भी हो चुके हैं। इससे बढ़ने वाले आर्थिक भार के संदर्भ में यह मानना चाहिए कि इसके लिए कांग्रेस ने कोई न कोई बैकअप प्लान तय कर रखा होगा क्योंकि राहुल गांधी इस तरह की लुभावनी घोषणा नहीं करते। वह भी ऐसे समय में जब मध्यप्रदेश में विपक्ष बलशाली है और 2019 का चुनाव बाट जोह रहा है और प्रदेश की वित्तीय दशा अत्यंत कमजोर है।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 20.12.2018)
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Wednesday, December 12, 2018

चर्चा प्लस ...चुनाव-विजेता की याददाश्त और बुंदेलखंड की समस्याएं - डॉ. शरद सिंह

Dr Sharad Singh
चर्चा प्लस ... 

 चुनाव-विजेता की याददाश्त और बुंदेलखंड की समस्याएं
    - डॉ. शरद सिंह                                      
मतदान हुआ, मतगणना हुई और चुनावों के नतीजे भी आ गए। एक बार फिर सरकार का गठन और मंत्रीमंडल में नए-पुराने चेहरों के गणित। इसके ठीक पहले रिजर्वबैंक के गवर्नर उर्जित पटेल का इस्तीफा और अर्थशास्त्रियों के माथे पर चिन्ता की लकीरें। इन सबके बीच मध्यप्रदेश के पिछड़े हुए क्षेत्र बुंदेलखंड की समस्याओं का अंबार। कहावत हैं कि चुनावी विजेताओं की याददाश्त कमजोर होती है। चुनावों के दौरान किए गए वादे वे विजय के बाद भूलने लगते हैं। उम्मींद तो यही की जानी चाहिए कि इस बार के विजेताओं की यादाश्त तगड़ी निकले।    
चर्चा प्लस ...चुनाव-विजेता की याददाश्त और बुंदेलखंड की समस्याएं  - डॉ. शरद सिंह   Charcha Plus column of Dr (Miss) Sharad Singh
 बुंदेलखंड में राजनीति की फसल हमेशा लहलहाती रही है। यहां सूखे और भुखमरी पर हमेशा राजनीति गर्म रहती है। कभी सूखा राजनीति का मुद्दा बन जाता है तो कभी पीने का पानी, वाटर ट्रेन और घास की रोटियां। इस राजनीति में केंद्र और राज्य सरकारों के साथ सभी पार्टियों के नेता कूद पड़ते हैं। यह बात अलग है कि बुंदेलखंड के लोगों को सूखे और भूखमरी से भले कोई राहत न मिली हो लेकिन इन मुद्दों पर राजनीति खूब होती है। चुनाव जीतने के लिए भले ही जातीय समीकरण फिट किए जा रहे हों, लेकिन जनसभाओं में सभी नेता इन मुद्दों को हवा देते रहते हैं। 
बुंदेलखंड की भुखमरी भी सुर्खियों में रही है। यहां से खबरें आई कि लोग घास की रोटियां बनाकर खा रहे है। एनबीटी ने इस मुद्दे को जोर-शोर से उठाया था। सरकार ने इसे नकारा लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान लेकर अपनी टीम मौके पर जांच के लिए भेजी। उस टीम को लोगों ने घास की रोटियां दिखाईं और बताया कि इनको ही खाकर वे जिंदा रहते हैं। मध्य प्रदेश में वर्ष 2017 में 760 किसान और खेतिहर मजदूरों ने आत्महत्या की. विधानसभा में जुलाई, 2017 में मध्यप्रदेश सरकार ने बताया था कि राज्य में सात माह में खेती से जुड़े कुल 599 लोगों ने खुदकुशी की, जिनमें 46 बुंदेलखंड से थे।
बुंदेलखंड को सन् 2007 में सूखाग्रस्त घोषित किया गया। 2014 में ओलावृष्टि की मार ने किसानों को तोड़ दिया। सूखा और और ओलावृष्टि से यहां के किसान अब तक नहीं उबर पाए हैं। खेती घाटे का सौदा बन गई है और किसान तंगहाली में पहुंच चुके हैं। यहां के किसान लगातार कर्ज में डूबते जा रहे हैं। लगभग 80 प्रतिशत किसान साहूकारों और बैंको के कर्जे में डूबे हैं। ओलावृष्टि के दौरान तो सैकड़ों किसानों ने आत्महत्याएं तक कर लीं। इन आत्महत्याओं की वजह से ही बुंदेलखंड देश भर में सुर्खियों में रहा। अब भी हर साल यहां से किसानों की आत्महत्या की खबरें आती रहती हैं। नदियों और प्राकृतिक वॉटरफॉल वाले इस क्षेत्र में मैनेजमेंट न होने के कारण लोग बूंद-बूद पानी के लिए तरसते रहते हैं। पिछले साल 2016 में यहां पीने के पानी की ऐसी समस्या हुई कि केंद्र सरकार को ‘‘वाटर ट्रेन’’ भेजनी पड़ी। यद्यपिइ स पर खूब राजनीति हुई। कई गांव ऐसे हैं जहां 10 किलोमीटर से भी ज्यादा दूर से पीने का पानी लाना पड़ता है।
अवैध खनन के कारण भी बुंदेलखंड हमेशा चर्चा में रहा है। हर साल सैकड़ों करोड़ रुपये का अवैध खनन होता है। अवैध खनन के लिए खनन माफिया ने कुछ नदियों तक का रुख ही मोड़ दिया। प्रकृतिविद् मानते हैं कि बुंदेलखंड में अकाल जैसे हालात की असल कारण खनन है। जलपुरुष राजेंद्र सिंह कहते हैं- ‘‘नदियों की कोख चीरकर खनन हो रहा है। नदियां गड्ढों में तब्दील हो गई हैं। किसी भी नदी में मौरंग और बालू उसका जीवन होते हैं। जब इन्हें अंधाधुंध निकाला जाएगा तो नदियां कैसे रहेंगी? वह कहते हैं, नदियों का जीवन खत्म होने का मतलब भूजल समाप्त हो जाना है। आज यही सब हो रहा है, यही वजह है कि प्राकृतिक रूप से बने झील और तालाब भी सूख जाते हैं। बोरिंग करके पानी निकालना मुश्किल काम है क्योंकि यहां पानी बहुत नीचे चला गया है। कोई बोरिंग कराए भी तो वह साल-डेढ़ साल से ज्यादा नहीं टिकती। राजेंद्र सिंह कहते हैं कि अंधाधुंध खनन पर रोक लगनी चाहिए।’’
 बुंदेलखंड में खनिज भरा पड़ा है, लेकिन उससे जुड़े उद्योग नहीं हैं। ग्रेनाइट, पाइरोफाइलाइट, सिल्का सेंट, फर्शी पत्थर, बॉक्साइट, लौह अयस्क सहित कई तरह के खनिज होते हैं लेकिन उद्योग न के बराबर हैं। बुंदेलखंड में खेती खत्म होने, उद्योग न होने और बेरोजगारी-भुखमरी के कारण लोग पलायन कर रहे हैं। पलायन इस क्षेत्र के लिए एक बड़ा मुद्दा बन चुका है। जानकारों के मुताबिक 10 साल मे करीब 50 लाख लोग पलायन कर चुके हैं। किसानों ने खेती छोड़ दी है और बाहर मजदूरी कर रहे हैं। पर्यटन के लिहाज से बुंदेलखंड में चित्रकूट सहित कई जगहों का धार्मिक महत्व है। इसके अलावा जंगल, झीलें, नदियां, वाटर फॉल, किले सहित कई दर्शनीय स्थल हैं। लेकिन रखरखाव और आवागमन के साधन न होने की वजह से सभी बदहाल हैं।
बुंदेलखंड में भी पिछले दशकों में पुरुषां की अपेक्षा स्त्रियों का अनुपात तेजी से घटा और इसके लिए कम से कम सरकारें तो कदापि जिम्मेदार नहीं हैं। यदि कोई जिम्मेदार है तो वह परम्परागत सोच कि बेटे से वंश चलता है या फिर बेटी पैदा होगी तो उसके लिए दहेज जुटाना पड़ेगा। बुंदेलखंड में औरतों को आज भी पूरी तरह से काम करने की स्वतंत्रता नहीं है। गांव और शहरी क्षेत्र, दोनों स्थानों में जिन तबकों में शिक्षा का प्रसार न्यूनतम है, ऐसे लगभग प्रत्येक परिवार की एक ही कथा है कि आमदनी कम और खाने वाले अधिक। आर्थिक तंगी के कारण अपने बच्चों को शिक्षा के बदले काम में लगा देना इस प्रकार के अधिकांश व्यक्ति अकुशल श्रमिक के रूप में अपना पूरा जीवन व्यतीत कर देते हैं। ठीक यही स्थिति इस प्रकार के समुदाय की औरतों की रहती है। ऐसे परिवारों की बालिकाएं अपने छोटे भाई-बहनों को सम्हालने और अर्थोपार्जन के छोटे-मोटे तरीकों में गुज़ार देती हैं। इन्हें शिक्षित किए जाने के संबंध में इनके माता-पिता में रुझान रहता ही नहीं है। ‘लड़की को पढ़ा कर क्या करना है?’ जैसा विचार इस निम्न आर्थिक वर्ग पर भी प्रभावी रहता है। इस वर्ग में बालिकाओं का जल्दी से जल्दी विवाह कर देना उचित माना जाता है। ‘आयु अधिक हो जाने पर अच्छे लड़के नहीं मिलेंगे’, जैसे विचार अवयस्क विवाह के कारण बनते हैं। छोटी आयु में घर-गृहस्थी में जुट जाने के बाद शिक्षित होने का अवसर ही नहीं रहता है। 
अन्य प्रदेशों की भांति बुंदेलखंड में भी ओडीसा तथा आदिवासी अंचलों से अनेक लड़कियां  को विवाह करके लाया जाता हैं। यह विवाह सामान्य विवाह नहीं है। ये अत्यंत ग़रीब घर की लड़कियां होती हैं जिनके घर में दो-दो, तीन-तीन दिन चूल्हा नहीं जलता है, ये उन घरों की लड़कियां हैं जिनके मां-बाप के पास इतनी सामर्थ नहीं है कि वे अपनी बेटी का विवाह कर सकें, ये उन परिवारों की लड़कियां हैं जहां उनके परिवारजन उनसे न केवल छुटकारा पाना चाहते हैं वरन् छुटकारा पाने के साथ ही आर्थिक लाभ कमाना चाहते हैं। ये ग़रीब लड़कियां कहीं संतान प्राप्ति के उद्देश्य से लाई जा रही हैं तो कहीं मुफ़्त की नौकरानी पाने की लालच में खरीदी जा रही हैं। इनके खरीददारों पर उंगली उठाना कठिन है क्योंकि वे इन लड़कियों को ब्याह कर ला रहे हैं। इस मसले पर चर्चा करने पर अकसर यही सुनने को मिलता है कि क्षेत्र में पुरुष और स्त्रियों का अनुपात बिगड़ गया है। लड़कों के विवाह के लिए लड़कियों की कमी हो गई है। बुंदेलखंड में किए गए लगभग सभी आंदोलनों एवं विकास की तमाम मांगों के बीच स्त्रियों के लिए अलग से कभी कोई मुद्दा नहीं उठाया गया जिससे विकास की वास्तविक जमीन तैयार हो सके। यदि परिवार की स्त्री पढ़ी-लिखी होगी, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होगी तो वह अपने बच्चों के उचित विकास के द्वारा आने वाली पीढ़ी को एक विकसित दृष्टिकोण दे सकेगी। इसी विचार के साथ ‘बेटी बचाओ’ और ‘बालिका शिक्षा’, ‘जननी सुरक्षा’ जैसे सरकारी अभियान चलाए जा रहे हैं। बस, आवश्यकता है इन अभियानों से ईमानदारी से जुड़ने की। 
बुंदेलखंड एक ऐसा भू-भाग है जिसका गौरवशाली इतिहास है। यहां के लोग आक्रमणकारियों के आगे कभी नहीं झुके। स्वतंत्रता आंदोलन में भी कंधे से कंधा मिला कर योगदान दिया और अपने प्राणों की बलि दी। यह कहा जाता है कि अंग्रेजों के शासनकाल में सिर्फ़ इसीलिए बुंदेलखंड को विकास की सुविधाओं से वंचित रखा गया जिससे यहां के लोग ब्रिटिश हुकूमत का प्रतिरोध करने के लिए संसाधन न जुटा सकें। देश गुलामी से स्वतंत्र हुआ, अंग्रेज भारत छोड़ कर चले गए किन्तु दुर्भाग्यवश बुंदेलखंड में विकास की गति कछुआ चाल ही रही। आज भी यह इलाका रेल यातायात की समुचित जुड़ाव के लिए तरस रहा है। आज देश की आर्थिक दशा अनेक उतार-चढ़ाव से गुज़र रही है। ऐसे में बुंदेलखंड जैसे पिछड़े क्षेत्र का ध्यान रखा जलाना और अधिक जरूरी है। क्यों कि कमजोर ही पहले टूटता है और जो टूटा हुआ ही हो उसे सम्हालना और अधिक चुनौती भरा काम है। आज के तकनीकी विकास के आगे यहां की भौगोलिक कठिनाइयों का बहान नहीं किया जा सकता है। यदि कहीं कोई कमी दिखाई देती है तो बुंदेलखंड के विकास की दृढ़ इच्छाशक्ति की। जिन चुनावी विजेताओं ने चुनाव के दौरान अपनी इच्छाशक्ति का दम भरा था, आशा की जानी चाहिए कि वे अपने वादों को भुलाएंगे नहीं और बुंदेलखंड के पक्ष में एक स्वर्णिम अध्याय लिखेंगे।    
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 12.12.2018)
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Wednesday, December 5, 2018

चर्चा प्लस ...भारतीय सिनेजगत की महिला निर्देशक जो जोखिम लेने से नहीं डरतीं - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ...
भारतीय सिनेजगत की महिला निर्देशक जो जोखिम लेने से नहीं डरतीं
   - डॉ. शरद सिंह                                                                                                                   यदि कोई निर्माता-निर्देशक मुनाफ़े के विचार को ताक में रख कर ऐसी फिल्म बनाए जिसका सम्पूर्ण सरोकार आर्थिक लाभ कमाने के बजाए समाज एवं व्यवस्था से हो तो इसे व्यापार जगत् में ‘आत्मघाती जोखिम’ ही कहा जाएगा। भारतीय सिने जगत में अल्पसंख्यक होते हुए भी महिला निर्देशकों ने साहस के साथ इस जोखिम को बार-बार उठाया लिया। अपने परिवार के लिए एक-एक पैसे जोड़ने पर विश्वास रखने वाली महिलाएं जब सिने जगत में निर्देशक के रूप में प्रविष्ट हुईं तो उनमें से अधिकांश ने फिल्म के माध्यम से पैसे कमाने का उद्देश्य त्याग कर सामाजिक, पारिवारिक एवं वैश्विक मुद्दों पर फिल्में बनाईं, वह भी बिना किसी ‘फिल्मी मसाले’ के।                                     
 
 चर्चा प्लस ...भारतीय सिनेजगत की महिला निर्देशक जो जोखिम लेने से नहीं डरतीं - डॉ. शरद सिंह   Charcha Plus Column of Dr (Miss) Sharad Singh in Sagar Dinkar News Paper

जब प्रश्न भारतीय सिनेमा का उठता है तो आमतौर पर महिलाओं की भूमिका अभिनय और संगीत तक सिमटी दिखाई देती है। नायिका, खलनायिका, चरित्र अभिनेत्री अथवा पार्श्व गायिका पर जा कर स्त्री का अस्तित्व सिमटता दिखता है। आज भी भारतीय सिनेमा में सिर्फ 9.1 फीसदी महिला निर्देशक हैं। पिछले दो-तीन दशकों में कुछ प्रसद्धि महिला निर्देशकों को याद करें तो उनमें विजया मेहता, साईं परांजपे, अपर्णा सेन, अरूणा राजे, दीपा मेहता, कल्पना लाजमी, मीरा नायर, गुरविदंर चड्ढा, फराह खान, तनुजा चंद्रा, लीना यादव, जोया अख्तर, किरण राव, सोहना उर्वशी, मेघना गुलजार, रीमा राकेशनाथ, बेला नेगी, जेनिफर लिंच, सौंदर्य रजनीकांत, लवलीन टंडन, रीमा कागती, गौरी शिंदे और अनुषा रिजवी आदि के नाम उभर कर आते हैं। हिन्दी सिनेमा से इतर अन्य भारतीय भाषाओं में भी महिला फिल्म निर्देशकों की संख्या अत्यंत सीमित है। जैसे- भानुमती रामकृष्णा, बी. जया, मधुमिथा, बी. वी नन्दिनी रेड्डी, वी. प्रिया, लक्ष्मी रामकृष्णन, रेवती, शारदा रामनाथन, शोभा चन्द्रशेखर, सौंदर्या आर. अश्विन, श्रीप्रिया, सुहासिनी मणिरत्नम, विजया निर्मला, मृणालिनी भोसले, अरुन्धती देवी, शोनाली बोस, प्रीती अनेजा, भावना तलवार, धवनी देसाई आदि। जिन महिला निर्देशकों ने भरपूर जोखिम उठाते हुए भारतीय सिनेमा को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दिलाई उनमें प्रमुख पांच नाम हैं- मीरा नायार, दीपा मेहता, अपर्णा सेन, कल्पना लाजमी और अनुषा रिजवी।
यहां जिन पांच महिला निर्देशकों पर चर्चा की जा रही जिससे भारतीय सिनेमा में महिला निर्देशकों की उल्लेखनीय उपस्थिति का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है, साथ ही इस बात पर भी विश्वास किया जा सकता है कि गुणात्मक उपस्थिति संख्यात्मक उपस्थिति पर हमेशा भारी पड़ती है। इन पांच निर्देशकों में से मीरा नायर और दीपा मेहता ने समाज सरोकारित विषयों के प्रतिबंधित पक्षों को जिस दमदार तरीके से अपनी फिल्मों के माध्यम से सामने रखा, उतना साहस तो कलात्मक स्तर पर पुरुष निर्देशक भी नहीं कर सके।
मीरा नायर : मीरा नायर ने भारत के साथ ही अमेरिकी फिल्म इंडस्ट्री में भी अपनी एक अलग पहचान बनाई है। जुलाई 2013 में अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में ‘गेस्ट ऑफ ऑनर’ से सम्मानित किया गया। यह सम्मान उन्हें फिलिस्तीनियों के संबंध में इसराईल की नीतियों का विरोध करने के उपलक्ष्य में दिया गया था। सन् 1988 में ‘सलाम बांबे’ जैसी बेहतरीन फिल्म से अपने करियर की शुरुआत करने वाली मीरा ‘सलाम बाम्बे’ से पहले सन् 1979 में  ‘जामा स्ट्रीट मस्जिद जर्नल’, 1982 में ‘सो फार फ्राम इंडिया’, 1985 में इंडिया कैबरे’, 1987 में ‘चिल्ड्रेन ऑफ डिजायर्ड सेक्स’ चार महत्वपूर्ण लघु फिल्में बना चुकी थीं। ‘सलाम बॉम्बे’ ने प्रतिष्ठित गोल्डन कैमरा पुरस्कार और 1989 में कान फिल्मोत्सव में आडियंस अवार्ड के साथ कई पुरस्कार जीते। इस फिल्म को सर्वश्रेष्ठ विदेशी फिल्म की श्रेणी में आस्कर में भी नामांकन मिला था। ‘मॉनसून वेडिंग’, ‘द नेमसेक’ ‘मिसीसिपी मसाला‘, ‘वेनिटी फेयर’ और ‘अमेलिया’ जैसी फिल्मों का उन्होंने निर्देशन किया। वीनस का 69वां फिल्म-महोत्सव मीरा नायर की फिल्म ‘द रिलक्टेंट फंडामेंटलिस्ट’ से शुरू किया गया था। फिल्म में पाकिस्तानी मूल के ब्रिटिश अभिनेता रिज अहमद के अलावा फिल्म में हॉलीवुड कलाकार केट हडसन, लीव श्रेबर और बॉलीवुड कलाकार शबाना आजमी और ओम पुरी भी थे।यह फिल्म पाकिस्तानी लेखक मोहसिन हामिद के उपन्यास का रूपांतर है। फिल्म में चंगेज खान की भूमिका निभाने वाले रिज अहमद का कहना था कि ‘‘पहली बार 9/11 को गैर-अमरीकी नजरिए से देखा गया।’’
दीपा मेहता : सन् 1991 में दीपा मेहता ने अपने निर्देशन में पहली फीचर फिल्म ‘सेम एण्ड मी’ बनाई। इस फिल्म में ओमपुरी ने महत्वपूर्ण अभिनय किया था। इस फिल्म की कहानी टोरंटों में रहने वाले एक भारतीय लड़के और एक जूईश प्रौढ़ के पारस्परिक संबंधों पर आधारित थी। इस फिल्म को 1991 के कांस फिल्म समारोह में ऑनरेबल मेंशन अवार्ड दिया गया। सन् 1994 में दीपा ने ब्रिगेट फॉण्डा और जेसिका टेंडी को ले कर ‘केमिल्ला’ फिल्म बनाई। इसके बाद एक महिला निर्देशक के रूप में दीपा मेहता ने जिस तरह का जोखिम लिया वह भारतीय फिल्म जगत को चकित कर देने वाला था। सन् 1996 में दीपा मेहता ने फिल्म ‘फायर’ बनाई। इस फिल्म के कथानक एवं दृश्यांकन को ले कर जमकर विवाद हुआ। दो महिलाओं के बीच समलैंगिकता का रिश्ता दिखाया गया था, जो भारतीय समाज के लिए पचा पाना आसान नहीं था। फिल्म के विरोध में जगह-जगह पोस्टर जलाए गए और संस्कृति की रक्षा की दुहाई दी गई। दीपा मेहता न तो विवादों से घबराईं और न विरोधों से। सन् 1998 में उनकी अगली फिल्म आई ‘अर्थ’। यह फिल्म बाप्सी सिधावा के उपन्यास ‘आइस कैंडीमैन’ पर आधारित थी। सन् 2002 में ‘बॉलीवुड-हॉलीवुड’, 2003 में ‘द रिपब्लिक ऑफ लव’, 2005 में ‘वाटर’ 2008 में ‘हेवन ऑन अर्थ’, 2012 में ‘मिडनाइट्स चिल्ड्रेन’ नामक फिल्म बनाई। 2012 में लाईफ टाईम आर्टिस्टिक अचावमेंट के लिए गवर्नर जनरल्स परफार्मिंग आर्ट अवार्ड, 2013 में मेम्बर आफॅ द ऑर्डर ऑफ ओंटारियो सम्मान, 2013 में ऑफीसर आफॅ द आर्डर ऑफ कनाडा के सम्मान से सम्मानित किया गया।
अपर्णा सेन : अपर्णा सेन ने फिल्मों में अभिनय एवं निर्देशन के साथ लोकप्रिय बंगाली पत्रिका ‘सानंद’ का भी लम्बे समय तक संपादन किया। अपर्णा के निर्देशन में बनीं महत्वपूर्ण फिल्में थीं- 1981 में 36 चौरंगी लेन, 1984 में परोमा, 1989 सती, 1989 में पिकनिक, 1995 में युगांत, 2000 में हाउस आफ मेमोरीज, 2002 में मिस्टर और मिसेज अय्यर, 2005 में 15 पार्क एवेन्यू , 2010 में इति मृणालिनी : एन अनफिनिश्ड लेटर एवं 2013 में गोयनार बक्शो। उनकी फिल्म ‘द जैपनीज वाइफ’ को 2010 में कनाडा के कैलगरी में आयोजित ‘हिडन जेम्स’ फिल्म महोत्सव में सर्वश्रेष्ठ फिल्म के पुरस्कार दिया गया था। ‘इति मृणालिनी : एन अनफिनिश्ड लेटर’ बायोग्राफिक फिल्म है। फिल्म शुरू होती है एक वेटरन एक्ट्रेस मृनालिनी मित्रा के सुसाईड नोट से। एक अभिनेत्री जो अपने जीवन की सभी त्रासदियों का दोषी खुद को मानती है और याद करती है अपने उस समय को जब वो अपने दोस्तों के साथ सिनेमा में जाने के ख्वाब देखती थी। स्त्री मनोदशा को फिल्माने में अपर्णा सेन को महारत हासिल है। वे बिना झिझके स्त्री के अंतर्मन को बड़ी कलात्मकता से रूपहले पर्दे पर उतार देती हैं।
कल्पना लाजमी : कल्पना लाजमी प्रसिद्ध अभिनेता गुरुदत्त की भतीजी मशहूर चित्रकार ललिता लाजमी की बेटी हैं। उन्होंने अपने निर्देशन का आरम्भ श्याम बेनेगल के साथ बतौर असिस्टेंट डायरेक्टर किया। सन् 1978 में ‘डी.जी. मूवी पायोनियर ‘, 1979 में ‘ए वर्क स्टडी इन टी प्लकिंग’ तथा 1981 में ‘एलांग विथ ब्रह्मपुत्र’ के बाद 1986 में फीचर फिल्म ‘एक पल’ बनाई। 1988 में ‘लोहित किनारे’, 1993 में ‘रूदाली’, ‘1997 में ‘दरमियां’, 2001 में दमन, ‘2003 में ‘क्यों’ और 2006 में फिल्म ‘चिनगारी’ निर्देशित की।
कल्पना और भूपेन हजारिका 40 सालों से बिना शादी के साथ में एक छत के नीचे रहे। इस दौरान कल्पना लाजमी ने ‘दमन’ (दमनः ए विक्टिम आफॅ मेरिटल वायोलेंस) और ‘चिनगारी’ बनाई। ‘चिनगारी’ ग्रामीण परिवेश में वेश्यावृत्ति की कथा पर आधारित फिल्म थी। इसमें सुष्मिता सेन ने कल्पना के निर्देशन में बखूबी अभिनय किया। देखा जाए तो कामर्शियल अभिनेत्रियों में कलात्मक अभिनय की खोज का उल्लेखनीय काम कल्पना लाजमी ने किया।
अनुषा रिजवी : अनुषा फिल्म निर्देशन के क्षेत्र में आने से पहले एन.डी.टी.वी. की एक पत्रकार थीं। उनके निर्देशन में बनी उनकी पहली फिल्म ‘पीपली लाईव’ ने डरबन फिल्म समारोह में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पहला पुरस्कार जीता। ‘पीपली लाइव’ मूलतः किसानों की आर्थिक समस्या, सरकार और मीडिया के त्रिकोण पर केन्द्रित फिल्म थी। ‘पीपली लाईव’ ने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के टीआरपी खेल और सरकारी योजनाओं के रहस्य को भी फिल्म सबको बेपर्दा किया।
मीरा नायार, दीपा मेहता, अपर्णा सेन, कल्पना लाजमी और अनुषा रिजवी ने अपनी फिल्मों के द्वारा कथानकों की विविधता को प्रस्तुत किया किन्तु उन सबके मूल था स्त्री चरित्रों एवं सामाजिक सरोकार का गहन दायित्वबोध। क्या कोई पुरुष निर्देशक ‘फायर’ को इतनी संवेदनशील तटस्थता के साथ  फिल्मा पाता? चाहे ‘36 चौरंगीलेन’ की वायलेट हो या ‘फायर’ की जेठानी-देवरानी, फिलिस्तीन का मसला हो या किसानों की आत्महत्या का, पुरुष निर्देशकों से एक कदम आगे ही दिखाई देती हैं ये महिला निर्देशक। अतः भारतीय सिने जगत में इनके योगदान को अलग से ही रेखांकित किया जाना चाहिए।     
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 05.12.2018)
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