Saturday, January 5, 2019

चर्चा प्लस ...वर्ष 2019 उर्फ़ मंगलम् दंगलम् - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ...
वर्ष 2019 उर्फ़ मंगलम् दंगलम्
- डॉ. शरद सिंह
वर्ष 2019 आरम्भ हुआ है मंगलवार से। इसीलिए इस वर्ष में बहुत कुछ मंगलमय घटित होने की संभावनाएं व्यक्त की जा रही हैं। दिलचस्प बात यह है कि यह मंगलम् इस वर्ष के उत्तरार्ध में दंगलम् में बदल जाएगा। इस बीच चुनावी रणनीतियां अपने पैंतरों से माहौल को गरमाए रहेंगी। थाली के बैंगन लुढ़कते रहेंगे, नए-नए गठबंधन बंधते रहेंगे और आमजनता अपनी उम्मींदों की गठरी बांधे हमेया की तरह राजनीतिक विश्लेषक की भूमिका निभाती रहेगी। कुलमिला कर यह वर्ष गुज़रेगा जो़रदार।
चर्चा प्लस ...वर्ष 2019 उर्फ़ मंगलम् दंगलम् - डॉ. शरद सिंह Charcha Plus - Varsh 2019 Urf Magalam Dangalam -  Charcha Plus Column by Dr Sharad Singh

कुछ चौंकाने वाले परिणामों के साथ वर्ष 2018 चला गया। कुछ दुखद और कुछ सुखद घटनाएं। धूप और छांह के समान यही तो ज़िनदगी है जो नित नए अनुभव ले कर सामने आती रहती है। किसने सोचा था कि वर्ष 2019 के आने से पहले ही कुछ राजनीतिक पर्यवेक्षक यह कहने लगेंगे कि ‘‘मोदी का क़रिश्मा अब ढलान पर है’’। ये पर्यवेक्षक मानते हैं कि दो उपचुनावों के नतीजों ने दिखा दिया है कि मोदी-शाह की जोड़ी हिंदी पट्टी में अजेय नहीं है। बेशक कुछ भी भविष्यवाणी करना अभी जल्दबाजी होगी लेकिन यह तो मानना ही होगा कि वर्ष 2018 ने जाते-जाते देश की दोनों बड़ी राजनीतिक पार्टियों को अच्छा सबक सिखा दिया है। अब वर्ष 2019 में देखने का विषय यह होगा कि किस दल ने अपना सबक कितना याद रखा और उससे कितनी शिक्षा ली। विगत वर्ष के राजनीतिक परिदृश्य ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि राजनीतिक लाभों के सामने आम जनता की जरूरतें और उम्मींदें किस तरह भुला दी जाती हैं। यह भी साफ़ हो गया कि राजनीतिक लाभ के लिए धर्म की किस तरह छीछालेदर की जाती है। यहां तक कि प्रकृतिपुत्र अर्थात् पवनसुत श्रीहनुमान तक की जाति निर्धारित की जाने लगती है।
राजनीतिक स्वार्थ नेताओं से ढेर सारे अकृत्य करा देते हैं। जिसका उदाहरण है कि लालू प्रसाद यादव ने किस तरह अपमान का घूंट पीते हुए नीतीश कुमार को अपना नेता माना बल्कि चुनाव नतीजे के बाद सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनने दिया। हिन्दुत्व की सांस्कृतिक विचारधारा को विकृत कर राजनीति में ट्रम्पकार्ड बना दिया गया है। भाजपा अभी भी यह मान रही है कि योगी हिंदुत्व को उभार देंगे और केंद्र की मोदी सरकार के विकास की बातें सामने रख मिशन-2019 के लिए यूपी में पार्टी 2014 जैसा ही प्रदर्शन दोहरा सकेगी। हिंदुत्व और विकास का यह तालमेल भाजपा को फिर हिन्दी भाषी राज्यों में मजबूती दे सकेगा। भगवा वस्त्रधारी योगी यूपी के बाहर भी पार्टी के लिए वोट खींच सकेंगे। भाजपा ने यूपी से बाहर आदित्यनाथ योगी की छवि का जमकर इस्तेमाल किया। गुजरात, त्रिपुरा जैसे राज्यों में योगी से जमकर प्रचार कराया गया। कर्नाटक में भी उनकी सभाएं हुईं। इन राज्यों में भाजपा की जीत के बाद यही कहा गया कि योगी के प्रचार करने से भाजपा के पक्ष में हवा बनी और योगी जहां-जहां गए वहां भाजपा ने किस तरह जीत हासिल की। शाह ने यूपी में लोकसभा चुनाव में पिछली बार से भी अधिक सीटें जीतने का लक्ष्य रखा। लेकिन परिदृश्य तेजी से बदला। विधानसभा चुनावों में भाजपा का साथ देने वाले सामाजिक समीकरण दरकने लगी। यह दिखने लगा कि शहरी वर्ग के मतदाता का भाजपा से तेज़ी से मोहभंग हो रहा है। लेकिन वहीं दूसरी ओर कांग्रेस अपनी जीत के कुर्सी को टिकाए रखने के लिए समतल ज़मीन हासिल नहीं कर सकी है। पद को ले कर उभरे टकरावों ने उन नेताओं के चेहरों से मुखौटा उतार दिया जो पार्टी की वफ़ादारी और जनसेवा का दम भरते थे। ये मुखौटे अभी आमचुनावों तक उतरते ही रहेंगे।
हर बार चुनावों का नाम आते ही ईवीएम को लेकर चल रही बहस चलती रही है। फिलहाल 17 राजनीतिक दलों ने चुनाव आयोग से वर्ष 2019 के आम चुनाव बैलेट पेपर पर कराए जाने की अपील की है। इनमें ज्यादातर विपक्षी दल शामिल हैं। ईवीएम में गड़बड़ी संबंधी ख़बरों के चलते चुनावों की विश्वसनीयता प्रभावित हो रही है। हर बार कोई न कोई राजनीतिक दल ईवीएम को मु्द्दा बना देता है। यद्यपि चुनाव आयोग की इस मांग के प्रति दिलचस्पी नहीं है। चुनाव आयोग तो ईवीएम को भरोसेमंद कहता आ रहा है। वैसे जून में देश के मुख्य निर्वाचन आयुक्त ओ पी रावत ने चुनावों के लिए बैलेट पेपर को वापस लाने की सभी संभावनाओं को खारिज करते हुए कहा था कि ‘‘ईवीएम को बलि का बकरा बनाया जा रहा है, क्योंकि मशीनें बोल नहीं सकतीं’ और राजनीतिक दलों को अपनी हार के लिए किसी न किसी को जिम्मदार ठहराने की जरूरत होती है।’’ जबकि विधानसभा चुनावों में विपक्षी दलों द्वारा मतदान केन्द्रों और मतगणना केन्द्रों की मुस्तैदी से पहरेदारी करने पर कुछ गड़बड़ियों के मामले प्रकाश में भी आए। यदि कांग्रेसी चाकचौबंद नहीं रहते तो क्या परिणाम कुछ और होते? अटकलों से कुछ भी कहना मुनासिब नहीं है लेकिन इतना तो कहा जा सकता है कि आमजनता की समस्याएं अभी जस की तस हैं। मंहगाई की मार आज भी सीधे पेट पर पड़ रही है।
इस वर्ष होने जा रहे आम चुनावों में पलड़ा किसका भारी होगा, यह देखना रोचक रहेगा। क्योंकि विगत चुनावों में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में जो चुनाव हुए उनमें पारंपरिक प्रतिद्वंद्वी भाजपा और कांग्रेस के बीच में होते रहे हैं। लेकिन इस बार जो चुनाव हुआ उसमें मुख्य प्रतिद्वंद्विता नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के बीच बना दी गयी। लेकिन चुनावों के बाद का अब तक का दृश्य विचित्र रहा। राजस्थान में पद को ले कर उठी तकरार जल्दी सुलझ गई। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और राज्य कांग्रेस के अध्यक्ष सचिन पायलट ने समीकरण सुलझा लिया। छत्तीसगढ़ में तो पहले ही सब साफ हो गया था कि बागडोर किसके हाथों में जाएगी लेकिन सबसे संवेदनशील माना जाने वाला मध्य प्रदेश पद के लिए आपस में लड़ते कांग्रेसी नेताओं के चलते भाजपा के व्यंग-तीरों का निशाना बना रहा। पूर्वमुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ‘‘घोषणावीर’’ के तमगे को उतार कर ‘‘कटाक्षवीर’’ बन गए। वैसे जो भाजपा नेता चुनावों में विजयी रहे, वह उनका स्वयं का कद था जो उन्हें विजय दिला गया। कांग्रेस को इस वर्ष भी बड़ी जीत चाहिए तो उसे ऐड़ी-चोटी का जोर लगाना होगा। पक्ष और विपक्ष दोनों में कड़ी तुलना चुनावों के परिणामों पर सीधा असर डालेगी।
इन सब राजनीतिक दांवपेंच के बीच याद रखने होंगे वे मुद्दे जो आमजनता से ही नहीं बल्कि समूची मानवजाति से जुड़े हुए हैं। जैसे पेयजल का मुद्दा। क्या कभी किसी ने सोचा था कि एक दिन देश ऐसी भी स्थिति आएगी कि पानी के लिए धारा 144 लगाई जाएगी अथवा पेयजल के स्रोतों पर बंदूक ले कर चौबीसों घंटे का पहरा बिठाया जाएगा? किसी ने नहीं सोचा। लेकिन वर्ष 2016 की गर्मियों में ऐसा ही हुआ। पिछले दशकों में पानी की किल्लत पर गंभीरता से नहीं सोचे जाने का ही यह परिणाम है कि शहर, गांव, कस्बे सभी पानी की कमी से जूझते दिखाई पड़े। देश के कई हिस्सों में पानी की समस्या अत्यंत भयावह रही। विगत वर्ष महाराष्ट्र में कृषि के लिए पानी तो दूर, पीने के पानी के लाले पड़ गए थे। जलस्रोत सूख गए थे। जो थे भी उन पर जनसंख्या का अत्यधिक दबाव था। सबसे शोचनीय स्थिति लातूर की थी। पीने के पानी के लिए हिंसा और मार-पीट की इतनी अधिक घटनाएं सामने आईं। कलेक्टर ने लातूर में 20 पानी की टंकियों के पास प्रशासन को धारा 144 लगानी पड़ी। प्रत्येक गर्मियों में देश के लगीग हर राज्य के सामने पानी का भीषण संकट मुंह बाए खड़ा हो जाता है। तब जलप्रबंधन की बड़ी-बड़ी बातें झूठी साबित होने लगती हैं।
बेटियों की सुरक्षा का मुद्दा भी विगत चुनावी ऐजेंडे में जगह नहीं पा सका, जबकि यह अत्यंत आवश्यक मुद्दा है। नाबालिग के साथ दुराचार करने वाले बलात्कारी को फांसी दिए जाने के आदेया पर कानूनी मुहर लग गई है लेकिन सिर्फ़ कानून होने से ही अपराध खत्म नहीं हो जाते हैं। स्त्री एवं बच्चों के विरुद्ध अपराध और लैंगिक समानता का पाठ घर से शुरू हो कर राजनीति के मैदान तक पहुंचे तभी ऐसी घटनाओं पर प्रभावी अंकुश लग सकता है। इस वर्ष इस ओर भी ध्यान दिया जाना जरूरी है। भारतीय समाज को अपराधियों का अथवा अपराधों से डरे हुओं का समाज बनने नहीं दिया जा सकता है।
अच्छा यही होगा कि समूचा देश ही नहीं वरन् देश का हर शहर और हर नागरिक स्वयं तय करे कि वर्ष 2019 में उसकी प्राथमिकताएं क्या रहेंगी? विगत दो-तीन वर्षों में न सिर्फ़ राजनीतिक दल वरन आमजनता भी आग के दरिया से हो कर गुज़री है। विधानसभाओं के चुनाव हुए इससे पहले नोटबंदी हुई और डिजिटिलाईजेशन की बाढ़ आई। गोया देश का सम्पूर्ण आर्थिक जगत् एप्पस् में ढल गया। देश की अशिक्षित या कम पढ़ी-लिखी जनता के लिए यह क्रांति किसी पाहाड़ लांघने से कम नहीं रही। फिर भी वर्ष 2016, 2017 और 2018 को पार करते हुए 2019 में आ ही पहुंचा जहां आशाएं तो असीमित है लेकिन चुनौतियां भी कम नहीं हैं। मंगलवार से आरम्भ हुए इस वर्ष की सबसे बड़ी चुनौती इस वर्ष होने जा रहे चुनावी दंगल की है जिसमें आमजनता को अपने भविष्य को ध्यान में रखते हुए अपने विवेक की परीक्षा देनी होगी।
मंगलम्-दंगलम् वाले इस वर्ष में सभी को सिर्फ़ यही याद रखना चाहिए कि शुभ समय में शुरु किया गया कार्य अवश्य ही निर्विघ्न रूप से संपन्न होता है ओर शुभफल देता है। अतः आगामी चुनावों को पूरी गंभीरता से लें और अपने सुनहरे भविष्य की संकल्पना के अनुरूप उम्मींदवारों का चयन करें। नववर्ष शुभमस्तु !!!
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 02.01.2019)
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