Friday, January 18, 2019

जीवन और आस्था से जुड़ी नदियों पर गहराता संकट - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

Navbharat, 17.01.2019 -1 - जीवन और आस्था से जुड़ी नदियों पर गहराता संकट - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
प्रतिष्ठित समाचार पत्र "नवभारत" में नदियों के संकट पर मेरा लेख प्रकाशित हुआ है... इसे आपभी पढ़िए... 🙏हार्दिक आभार नवभारत 🙏
जीवन और आस्था से जुड़ी नदियों पर गहराता संकट
- डॉ. शरद सिंह
इलाहाबाद में महाकुंभ आरम्भ हो चुका है। गंगा का तट कोलाहल से भरा हुआ है। कुंभ-स्नान कर पुण्य कमा लेने का मोह हजारों मील से लोगों को इलाहाबाद की ओर निरंतर पहुंचा रहा है। किन्तु विचारणीय है कि यदि गंगा ही न हो तो क्या कुंभ आयोजित हो सकेगा? यदि गंगा का जल प्रदूषित हो कर नष्ट हो जाए तो क्या पाप धोने और पुण्य कमाने के लिए पवित्र जल मिल सकेगा?
जीवनदायिनी नदियों कें प्रति हमारी आस्था सदियों से चली आ रही है। यह आस्था ही है जो नदी को ‘माता’ की संज्ञा देती है। लेकिन इस स्थायी आस्था के साथ एक स्थाई संकट भी पैर पसारता जा रहा है जिस पर यदि समय रहते ध्यान नहीं दिया गया तो कुछ ही दशकों में कुंभ, अर्द्धकुंभ और सिंहस्थ के लिए नदियां मिलेंगी भी या नहीं कहना कठिन है। मध्यप्रदेश की की पवित्र नदियों में से एक क्षिप्रा ने सूखे की मार झेलना शुरू कर दिया है। उज्जैनी में हुए सिंहस्थ के दौरान क्षिप्रा में नर्मदा का पानी लाया गया था। अभी संक्रांति के लिए भी क्षिप्रा में बाहर से ला कर जल डाला गया। विचारणीय है कि यह क्षिप्रा में स्नान तो कहलाया किन्तु इसे क्षिप्रा के जल से स्नान नहीं कहा जा सकता है। अर्थात् हमें अपनी आस्थाओं को छलने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का कहना है कि देशभर के 900 से अधिक शहरों और कस्बों का 70 फीसद गंदा पानी पेयजल की प्रमुख स्रेत नदियों में बिना शोधन के छोड़ दिया जाता है। नदियों को प्रदूषित करने में दिनों दिन बढ़ते उद्योग प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं। प्रदूषण की मार झेलती देश की 70 फीसद नदियां मरने के कगार पर हैं। इनमें गुजरात की अमलाखेड़ी, साबरमती और खारी, हरियाणा की मारकंदा, मध्य प्रदेश की खान, उत्तर प्रदेश की काली और हिंडन, आंध्र की मुंसी, दिल्ली में यमुना और महाराष्ट्र की भीमा मिलाकर 10 नदियां सबसे ज्यादा प्रदूषित हैं। गर्मी का मौसम आते-आते ये नदियां दम तोड़ देती हैं। गहरी, चौड़ी नदियां गंदे नालों की तरह दिखाई देने लगती हैं। इनका पानी बचा-खुचा पानी भी उपयोग करने लायक नहीं रह जाता है। दरअसल, नदी जल हो या भूजल, जंगल हो या पहाड़, तमाम प्राकृतिक उपादानों का दोहन तो हमने भरपूर किया, उनसे लिया तो बेहिसाब लेकिन भूल गए कि हमारा कुछ वापस देने का दायित्व भी है। नदियों से लेते समय हम भूल गए कि जिस दिन वे देने लायक नहीं रहेंगी, उस दिन क्या होगा?
वैज्ञानिकों की मानें तो आज हमारी नदियां जिस दर से घट रही हैं उस दर से वे आगामी दो दशक में ही सूखने लगेंगी और मौसम की मोहताज़ हो जाएंगी। पिछले 10 से 12 सालों में तमिलनाडु में छोटी-छोटी लगभग एक दर्जन नदियां सूख चुकी हैं। आज दक्षिणी भारत की सबसे महत्वपूर्ण नदियों कावेरी, कृष्णा और गोदावरी का जल साल में सिर्फ कुछ महीने ही समुद्र की ओर बहता है। जैसे-जैसे ग्लोबल वार्मिंग के कारण तापमान बढ़ रहा है, दक्षिणी प्रायद्वीप, जिसके दोनों ओर समुद्र हैं, वहां कुदरती तौर पर अधिक वर्षा होगी। आंध्र प्रदेश के तटीय क्षेत्र मानसून के दौरान पानी में डूब जाया करता है। दिसंबर में चेन्नई में आई बाढ़ के बाद, लोग बारिश से डरने लगे हैं।
धरती के तापमान में हो रही निरंतर वृद्धि ऋतुओं को तेजी से बदल रही है। इसी का परिणाम है कि बारिश में अनियमितता आ चुकी है। यदि कोई एक भी ऋतु में बदलाव आता है तो उसके प्रभाव से समूचा मौसम चक्र बिगड़ने लगता है। मौसम चक्र बिगड़ने से नदियों तथा अन्य जलश्रोतों में जलस्तर गिरने लगता है। मौसम चक्र को बिगड़ने का सबसे बड़ा कारण है, जंगलों की अंधाधुंध कटाई। मौसम को नियंत्रित रखने वाले पेड़ ही जब नहीं रहेंगे तो जल, जीवन और ज़मीन तीनों की तबाही सुनिश्चित है।
अभी भी समय है कि हम इस संकट का एक व्यापक समाधान अमल में लाना शुरू कर दें। जिसकी शुरुआत लोगों में यह जागरूकता पैदा करने से होनी चाहिए। सभी को इस बात का अहसास हो कि नदियों के प्रति हमारा क्या दायित्व है। एक नदी का जल दूसरी नदी में डालना कोई हल नहीं है। हर नदी के जल को बचाना जरूरी है। क्योंकि सिर्फ़ आस्था नहीं, आस्था के साथ सघन प्रयास ही नदियों के अस्तित्व को बचाए रख सकती है। जिसका आरम्भ ईमानदारी पूर्वक किए गए वृक्षारोपण और प्रदूषण की रोकथाम से की जा सकती है।
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( नवभारत, 17.01.2019)

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