Monday, February 4, 2019

आभासी दुनिया में - डॉ. शरद सिंह ... 'जनसत्ता' में 'दुनिया मेरे आगे' कॉलम में प्रकाशित

Dr (Miss)Sharad Singh

आज 04.02.2019 को 
'जनसत्ता' में 'दुनिया मेरे आगे' कॉलम में प्रकाशित मेरा लेख ... इसे जरूर पढ़िए... लिंक और टेक्स्ट यहां दे रही हूं...

 
🙏हार्दिक धन्यवाद जनसत्ता 🙏 http://epaper.jansatta.com/c/36392646
दुनिया मेरे आगे
आभासी दुनिया में
- डॉ. शरद सिंह
मेरी एक परिचित मेरे घर से दुनिया के दूसरे छोर में रहती हैं यानी सिएटल में। उनकी उम्र 72 के आस-पास है। उम्र के अनुपात में वे आज भी चुस्त-दुरुस्त हैं। चेहरे पर उतर आई झांइयों और ढीली पड़ती चमड़ी को अनदेखा कर दिया जाए तो वे आज भी ठीक वैसी ही दिखाई देती हैं जैसे तीस साल पहले दिखती थीं। जब वे अपने पति और बेटे के साथ इन्दौर चली गई थीं। तब उन्हें पारिवारिक विदाई दी गई थी, रात्रिभोज के साथ। उस रात की उनकी छवि ही मेरी आंखों की थाती थी। 
Jansatta, Duniya Mere Aage - Aabhasi Duniya Me - Dr Sharad Singh, 04.02.2019
भागते-दौड़ते समय में कई बार उनकी याद आई, उसी रात्रिभोज वाली छवि के साथ। झुंझलाहट होती कि अब तो वे दैहिकरूप से बदल चुकी होंगी। शायद मोटी हो गई हों, थुलथुल या बेहद पतली, कौन जाने। पक्का था कि फिर देखूंगी तो पहचान नहीं सकूंगी उन्हें। अकसर यही तो होता है, बिछड़े हुए जब कई साल बाद मिलते हैं तो उनका आकार-प्रकार सब कुछ बदल चुका होता है। वे होते तो वही हैं, फिर भी वही नहीं होते। मैं उन्हें ‘मौसी’ कहती थी। उनके इन्दौर जाने तक तो आशा थी कि कभी न कभी उनसे मिलना हो ही जाएगा। लेकिन फिर पता चला कि उनके पति को यानी मौसा जी को सिएटल के किसी कॉलेज में अतिथि शिक्षक के रूप में बुला लिया गया है और सपरिवार अमेरिका चले गए हैं। सिएटल उन्हें रास आ गया। उनके कोई रिश्तेदार भी वहीं थे। कुछ समय बाद अचानक मौसाजी चल बसे। पर मौसी वहीं बस गईं। बेटे ने वहीं अपनी पढ़ाई पूरी की और वहीं नौकरी, शादी कर के हमेशा के लिए सिएटलवासी हो गया। यह सारी बातें मुझे मौसी से ही पता चलीं।
हुआ यूं कि एक दिन अचानक फेसबुक पर मौसी की ‘रिक्वेस्ट’ देख कर मैं चकित रह गई। दिल एकबारगी तेजी से धड़का और फिर अनुमान लगाने लगा कि प्रोफाईल में जो फोटो दिख रही है वह कितनी पुरानी है? क्योंकि उस तस्वीर में मौसी की उस रात्रिभोज वाली छवि कौंध रही थी। उनकी फेसबुक वाल पर जा कर उनकी कुछ ताज़ा तस्वीरें देखीं तो समझ में आ गया कि वे मात्र उतनी ही बदली हैं जितनी कि उम्र ने उन्हें बदला है, वह भी बड़ी कोमलता से। उनका सिकुड़ा हुआ चेहरा अभी भी वही भावभंगिमा दिखा रहा था। कलेण्डर ने मानो एक झटके में कई सारे पन्ने पलट दिए और मुझे उसी रात्रिभोज वाले समय में पहुंचा दिया। एक पल की देर नहीं लगाई मैंने उनकी ‘रिक्वेस्ट’ स्वीकार करने में। उनका मुझ तक पहुंचना कोई रहस्य नहीं था क्योंकि मैंने देखा हमारे कुछ मित्र ‘मीचुअल’ यानी साझा थे। उन्हीं में से किसी के जरिए उनहें मेरी कोई पोस्ट देखने को मिल गई होगी और उन्हें मेरा पता चल गया होगा।
जब मैं अपने बिस्तर पर गहरी में सो रही थी, उसी किसी समय मौसी ने मेरी एक पोस्ट को पहली बार ‘लाईक’ करते हुए लिखा-‘हलो, कैसी हो?’ फिर उनकी अगली टिप्पणी थी-‘मुझे पहचाना? मैं तुम्हारी शांता मौसी।’
बस, वहीं से हमारे बीच संवाद का सिलसिला चल पड़ा। लेकिन इसके बाद के सारे संवाद ‘वॉल’ से हट कर ‘इनबॉक्स’ में होने लगे। हमने एक-दूसरे से अपनी अब तक की जिंदगी की कई बातें साझा कीं। उन्होंने मेरा मोबाईल नंबर मांगा। मैंने दे दिया। इसके बाद एक सुबह अचानक उनका फोन आया मेरे मोबाईल पर।
‘मैं बोल रही हूं, तुम्हारी शांता मौसी।’ वही खनकती-सी आवाज़। उम्र की थकन यदि आवाज़ में न झलकती तो कुछ भी नहीं बदला था स्वरों के उतार-चढ़ाव में।
‘ओह, आप इंडिया कब आईं?’ मैंने पूछा।
‘नहीं मैं भारत में नहीं हूं, सिएटल में ही हूं।’ उनकी इस बात ने मुझे झेंपने पर विवश कर दिया। मैंने उनसे ‘इंडिया’ कहा था और उन्होंने उत्तर देते हुए ‘भारत’ कहा। उस पर यह मेरे लिए हर्ष मिश्रित आश्चर्य का विषय था कि वे सिएटल से मुझसे बात कर रही थीं। संभवतः भारत में रहने वाले उनके रिश्तेदारों को भी उनके द्वारा फोन किए जाने की इच्छा रहती होगी। यहां से वहां फोन करना मंहगा जो पड़ेगा। उस समय यही विचार आया मेरे मन में।
जल्दी-जल्दी परस्पर ढेर सारी बातें कर डाली थीं हम दोनों ने। उस दौरान उनके द्वारा कही गई एक बात मेरे मन को गहरे तक छीलती चली गई।
‘‘मैंने भारत के बहुत से पुराने परिचितों को अपने फेसबुक में जोड़ रखा है। उनसे मुझे अपनेपन का बोध होता है, वरना यहां तो पराएपन की गंध जाती ही नहीं है। सच, दम घुटता है।’’ उन्होंने कहा था। बाद में देर तक मैं अपने मन को खंगालती रही कि मैं भी क्या उन्हें वह अपनापन दे पा रही हूं जो वे सात समंदर पार से यहां ढूंढ रही हैं? न जाने क्यूं मुझे याद आ गइ्र्र टॉम हैंक्स और मेग रायन की प्रसिद्ध फिल्म ‘स्लीपलेस इप सिएटल’। हॉलीवुड की सन् 1993 की इस फिल्म में एक विधुर पिता को उसका आठ वर्षीय बेटा एक रेडियो टॉक शो में जाने के लिए प्रेरित करता है ताकि उसका पिता अपने लिए एक नया जीवनसाथी ढूंढ सके। यह कहानी याद आते ही मुझे लगा कि वह सिएटल कहीं भी हो सकता है, अमेरीका ही नहीं, भारत के छोटे से गांव-कस्बे में भी। जहां एकाकी लोग प्रेम भरे अपनेपन के लिए सोशल मीडिया का मुंह जोहते रहते हैं। सच कहूं तो यह सच मैंने उसी दिन जाना कि सिएटल ही नहीं बल्कि पूरी वह दुनिया अनिद्रा की शिकार है जो आंखें फाड़-फाड़ कर आभासीय दुनिया में अपने लिए मुट्ठी भर प्रेम तलाश कर रही है। उस आभासीय दुनिया में जहां सच और झूठ में अंतर करना बेहद कठिन है।
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(जनसत्ता, 04.02.2019)
जनसत्ता #शरदसिंह  आभासी_दुनिया_में  दुनिया मेरे आगे

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