Wednesday, June 26, 2019

चर्चा प्लस ... 26 जून : अंतर्राष्ट्रीय नशा व मादक पदार्थ निषेध दिवस पर विशेष ... नाश की ओर ले जाता है नशा - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ... 26 जून : अंतर्राष्ट्रीय नशा व मादक पदार्थ निषेध दिवस पर विशेष :
नाश की ओर ले जाता है नशा
    - डॉ. शरद सिंह                         
      मादक पदार्थों के नशे की लत आज के युवाओं में तेजी से फ़ैल रही है। कभी फैशन में पड़ कर तो कभी दोस्तों के उकसावे पर मादक पदार्थ के भंवर में फंस जाते हैं। महिलाओं में भी नशे की आदत आम होती जा रही है विशेषरूप से बड़े शहरों में, जहां महिलाओं के लिए नशा ‘स्टेटस सिंबल’ माना जाता है। भले ही फिर नशे के चलते गर्भपात हो अथवा विकलांग शिशुओं का जन्म हो। नशा करना ठीक वैसा ही जैसे कोई बैल के सामने खड़ा हो कर आह्वान करे कि आ बैल मार मुझे। समूची दुनिया के साथ ही भारत में नशे का प्रतिशत बढ़ना चिंताजनक है। 
चर्चा प्लस ... 26 जून : अंतर्राष्ट्रीय नशा व मादक पदार्थ निषेध दिवस पर विशेष  ...  नाश की ओर ले जाता है नशा - डॉ. शरद सिंह 
     अंतर्राष्ट्रीय नशा निषेध दिवस प्रत्येक वर्ष 26 जून को मनाया जाता है। नशीली वस्तुओं और पदार्थों के निवारण हेतु ’संयुक्त राष्ट्र महासभा’ ने 7 दिसम्बर, 1987 को प्रस्ताव पारित कर हर वर्ष 26 जून को ’अंतर्राष्ट्रीय नशा व मादक पदार्थ निषेध दिवस’ मानाने का निर्णय लिया था। विकसित एवं अविकसित दोनों प्रकार के देशों में नशा एक विकट समस्या है। नशा एक ऐसी लत है जिसे बलपूर्वक छुड़ाया नहीं जा सकता है। दुनिया भर में आज अनेक रीहैबिलिटेशन केन्द्र खुल चुके हैं जो नशो के आदी व्यक्तियों को नशे से छुटकारा दिलाने का काम करते हैं। भारत में भी इस प्रकार के कई केन्द्र हैं। किन्तु रीहैबिलिटेशन केन्द्र में भी नशा छुड़वाने के संबंध में जो सबसे कारगर तत्व रहता है, वह है नशा करने वाले का स्वयं की आत्मशक्ति। यह आत्मशक्ति हर नशेबाज में एक-सी नहीं होती है। यह पाया गया है कि जो व्यक्ति जितना अधिक नशे का आदी हो चुका होता है, उसकी आत्मशक्ति उतनी ही कमजोर पड़ चुकी होती है। ऐसा व्यक्ति चाह कर भी नशे की गिरफ़्त से खुद को आजाद नहीं करा पाता है। इसीलिए संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा यह तय किया गया कि क्यों न व्यक्तियों को नशे के विरुद्ध जागरूक किया जाए ताकि वे नशे की गिरफ़्त में ही न आएं। इसके तहत उद्देश्य रखा गया कि समाज में बढ़ती हुई मद्यपान, तम्बाकू, गुटखा, सिगरेट की लत एवं नशीले मादक द्रव्यों, पदार्थों के दुष्परिणामों से समाज को अवगत कराया जाए जिससे मादक द्रव्य एवं मादक पदार्थों के सेवन की रोकथाम के लिए उचित वातावरण एवं चेतना का निर्माण हो सके। प्रत्येक देश ने इस फैसले का स्वागत किया और संयुक्त राष्ट्रसंघ की जनरल असेम्बली ने 7 दिसम्बर, 1987 में एक प्रस्ताव पारित किया, जिसके अंतर्गत प्रतिवर्ष 26 जून को अंतर्राष्ट्रीय मादक पदार्थ एवं गैरकानूनी लेनेदेन निषेध दिवस के रूप में मनाए जाने का निश्चय किया गया। इस दिवस को यही प्रयास रहता है कि निजी, संस्थागत एवं सरकारी स्तर पर वर्ष भर के लिए योजना बना कर नशे के विरोध में मुहिम छेड़ी जाए।

अमेरिका जैसे विकसित देश तो नशे की चपेट में हैं ही किंतु दुर्भाग्यवश भारत जैसे आर्थिक रूप से संघर्षशील देश में भी महिला, पुरुष, बच्चे सभी में नशे के प्रति रुझान बढ़ता जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र की ताजा रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण एशिया में भारत भी हेरोइन का बड़ा उपभोक्ता देश बनता जा रहा है। गौरतलब है कि अफीम से ही हेरोइन बनती है। भारत के कुछ भागों में धड़ल्ले से अफीम की खेती की जाती है। वर्ष 2001 के एक राष्ट्रीय सर्वेक्षण में भारतीय पुरुषों में अफीम सेवन की उच्च दर 12 से 60 साल की उम्र तक के लोगों में 0.7 प्रतिशत प्रति माह देखी गई। इसी प्रकार 2001 के राष्ट्रीय सर्वेक्षण के अनुसार ही 12 से 60 वर्ष की पुरुष आबादी में भांग का सेवन करने वालों की दर महीने के हिसाब से तीन प्रतिशत मादक पदार्थ और अपराध मामलों से संबंधित संयुक्त राष्ट्र कार्यालय की रिपोर्ट के अनुसार भारत में जिस अफीम को हेरोइन में तब्दील नहीं किया जाता, उसका दो तिहाई हिस्सा पांच देशों में इस्तेमाल होता है। ईरान 42 प्रतिशत, अफ़ग़ानिस्तान 7 प्रतिशत, पाकिस्तान 7 प्रतिशत, भारत छह प्रतिशत और रूस में इसका पांच प्रतिशत इस्तेमाल होता है। रिपोर्ट के अनुसार भारत ने 2008 में 17 मीट्रिक टन हेरोइन की खपत की और वर्तमान में उसकी अफीम की खपत अनुमानतः 65 से 70 मीट्रिक टन प्रति वर्ष है। कुल वैश्विक उपभोग का छह प्रतिशत भारत में होने का मतलब कि भारत में 1500 से 2000 हेक्टेयर में अफीम की अवैध खेती होती है। यह तथ्य चिंताजनक है। भारत में शराब की वार्षिक खपत लगभग 5.38 बिलियन लीटर और जो 2020 मे बढकर लगभग 6.53 बिलियन लीटर हो चुकी है। अवैध ड्रग्स का कारोबार भी दिन प्रतिदिन बढ़ रहा है, मणिपुर, मिजोरम, पंजाब, उत्तर प्रदेश आदि मे बड़ी मात्र में जब-तब अवैध मादक पदार्थ पकड़े जाते हैं जिससे इनके प्रचुर प्रयोग का सच सामने आता है। एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत मे लगभग 8 करोड़ लोग ड्रग्स ले रहे है इनमें अफीम, मॉर्फिन, हेरोइन, गांजा, हैशिस, कोकेन, मेथाक्लाओन, एफाड्राइन, एलएसडी, एसिटिक एनहाइड्राइड और एम्फ़ैटेमिन आदि शामिल है।

जिन युवाओं के कंधों पर देश का, समाज का और परिवार का भविष्य टिका होता है, वहीं जब नशे में उूबने लगते हैं तो सामाजिक व्यवस्था का चरमराना और अपराधों का बढ़ना स्वाभाविक है। नशा एक ऐसी बीमारी है जो कि युवा पीढ़ी को लगातार अपनी चपेट में लेकर उसे कई तरह से बीमार कर रही है। शराब, सिगरेट, तम्बावकू एवं ड्रग्सा जैसे जहरीले पदार्थों का सेवन कर युवा वर्ग का एक बड़ा हिस्सा नशे का शिकार हो रहा है। आज फुटपाथ और रेल्वे प्लेटफार्म पर रहने वाले बच्चे भी नशे की चपेट में आ चुके हैं। कई बार कम उम्र के बच्चे आयोडेक्स, वोलिनी जैसी दवाओं को सूंघकर इसका आनंद उठाते हैं। कुछ मामलों में इन्हें ब्रेड पर लगाकर खाने के भी मामले देखे गए हैं। जान कर आश्चर्य होता है कि नशे के आदी युवा टोरेक्स, कोदेन, ऐल्प्राजोलम, अल्प्राक्स, कैनेबिस जैसे दवाओं को भी नशे के रूप में प्रयोग में लाने लगते हैं। इसके लिए गलत संगति सबसे बड़ी जिम्मेदार है जिसके प्रभाव में आ कर युवा गुटखा, सिगरेट, शराब, गांजा, भांग, अफीम और धूम्रपान सहित चरस, स्मैक, कोकिन, ब्राउन शुगर जैसे घातक मादक दवाओं के गुलाम बन जाते हैं। पहले उन्हें मादक पदार्थ मुफ़्त में उपलब्ध कराकर इसका लती बनाया जाता है और फिर लती बनने पर ये युवा इसके लिए चोरी से लेकर हत्या जैसे अपराध तक करने को तैयार हो जाते हैं। वे इस बात की ओर ध्यान ही नहीं देते हैं कि .नशे के लिए उपयोग में लाई जानी वाली सुइयां एच.आई.वी. का कारण भी बनती हैं, जो अंततः एड्स का रूप धारण कर लेती है।

आज यह एक कटु सच्चाई है कि शराब, सिगरेट जैसे नशे अब सिर्फ पुरुषों के ही शौक नहीं रह गए हैं बल्कि आधी आबादी भी इसकी चपेट में आ चुकी है। और इस का नुकसान पारिवारिक विघटन के तौर पर देखने को मिल रहा है। अमेरिका में किए गए अनुसंधानों से पता चला है कि गर्भपात का खतरा शराब का सेवन करने वाली महिलाओं में अधिक रहता है। गर्भवती महिलाओं में शुरू के दिनों में 12 प्रतिशत अधिक खतरा होता है। शिशु के मस्तिष्क में विकृति की सम्भावना औरों के मुकाबले मद्यपान करने वाली महिलाओं के शिशुओं में 35 प्रतिशत तक अधिक होती है। मद्यपान से स्मरण शक्ति कमज़ोर हो जाती है, निर्णय क्षमता घट जाती है। गुर्दे, यकृत और गर्भाशय संबंधी अनेक रोग हो जाते हैं। पुरुषों से बराबरी और हाई सोसायटी के भ्रम के चलते अमीर व शिक्षित महिलाओं में ही नहीं, कम आय वर्ग की महिलाओं में भी यह बुराई पैर पसार रही है। यही वजह है कि वाइन और लिकर शॉप्स में युवकों के साथ-साथ बड़ी संख्या में युवतियां भी शराब और बीयर खरीदती दिखाई देती हैं। आलम यह है कि  पश्चिमी देशों में महिलाओं ने शराब पीने के मामले में पुरुषों की बराबरी कर ली है। एक सर्वे के मुताबिक 18 से 27 वर्ष की उतनी ही महिलाएं शराब पी रही हैं जितने पुरुष। महिलाओं में मद्यपान की बढ़ती प्रवृत्ति के संबंध में किए गए सर्वेक्षण दर्शाते हैं कि क़रीब 40 प्रतिशत महिलाएँ इसकी गिरफ्त में आ चुकी हैं। इनमें से कुछ महिलाएं खुलेआम तथा कुछ छिप-छिप कर शराब का सेवन करती हैं। महानगरों और बड़े शहरों की कामकाजी महिलाओं के छात्रावासों में यह बहुत ही आम होता जा रहा है। महानगरों में स्थित शराब मुक्ति केंद्रों के आंकड़ों से ज्ञात होता है कि नशे की गिरफ्त से छुटकारा पाने हेतु आने वाले 10 व्यक्तियों में से 4 महिलाएं होती हैं।

आधुनिक रहन-सहन, पश्चिम का अंधानुकरण, मद्यपन को सामाजिक मान्यता, आसानी से शराब की उपलब्धता, तनाव, अवसाद व पुरुषों से बराबरी की होड़ को इसके लिए ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है। पुराने समय के मुकाबले आधुनिक युग में शराब को अधिक सामाजिक मान्यता मिली हुई है। बड़ी पार्टियों में तो यह आवश्यक अंग बन गई है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों, जन संचार माधयमों आदि से जुड़ी महिलाएँ पश्चिमी सभ्यता के रंग में रंग कर शराब को अपना लेती हैं। यही नहीं अब तो फैशन की आड़ ले कर कॉलेज की छात्राएं तक शराब का सेवन कर बैठती हैं।

धूल,धुंए और अल्ट्रावायलेट किरणों से चेहरे के बचाव के रूप में चेहरे पर कपड़ा बांध कर घर से निकलने के चलन ने जहां चुहरे को सुरक्षा दी है, वहीं आपराधिक स्तर तक की स्वतंत्रता भी दे दी है। आपराधिक प्रवृत्ति के युवा चेहरे पर कपड़ा बांध कर अपराधों को अंजाम देते हैं तो वहीं स्कूल-कॉलेज के स्टूडेंट्स अपने चेहरे को कपड़े से ढांक कर बेधड़ पब, हुक्काबार और इसी प्रकार के अन्य नशों के अड्डों की ओर चल पड़ते हैं। इस चलन का लाभ उठाते हुए युवतियां भी पीछे नहीं हैं। चेहरा छुपा कर पब जाना अथवा किसी भी आपराधिक स्थान पर जाना उनके लिए आसान हो गया है, भले ही इसके एवज में उन्हें वेश्यावृत्ति्, ब्लेकमेलिंग अथवा गंभीर बीमारी के दलदल में फंसना पड़ता है।

नशे से मुक्ति के लिए समय-समय पर सरकार और स्वयं सेवी संस्थाएं पहल करती रहती हैं। पर इसके लिए स्वयं व्यक्ति और परिवार जनों की भूमिका ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। नशे का निषेध सबसे पहले घर से ही शुरु होना चाहिए। यदि पिता अपने बच्चे के सामने सिगरेट के धुंए के छल्ले नहीं उड़ाएगा, यदि वह नशे वाले गुटखा नहीं खाएगा और शराब की चुस्कियां नहीं लेगा तो उसके बच्चे के मन में यही धारणा दृढ़ होगी कि नशा करना बुरी बात है। इसके साथ ही जरूरी है कि अभिभावक अपने बच्चों पर नजर रखें।  यानी स्वयं नशे से दूर रहें और बच्चों को भी नशे की ओर आकर्षित न होने दें। न सिर्फ़ पुरुषों, महिलाओं अथवा बच्चों को बल्कि समूचे समाज को एक साथ यह समझना होगा कि नशा इंसान को नाश की ओर ले जाता है।
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दैनिक ‘सागर दिनकर’, 26.06.2019)
#शरदसिंह

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