Wednesday, December 30, 2020

चर्चा प्लस | विदा ! आपदा और आंदोलन से वाले वर्ष 2020 | डाॅ शरद सिंह

Charcha Plus Column of Dr (Miss) Sharad Singh in Sagar Dinkar Daily

चर्चा प्लस

विदा ! आपदा और आंदोलन से वाले वर्ष 2020       

             - डाॅ शरद सिंह

                            

सभी एक स्वर से मानते हैं कि वर्ष 2020 सबसे ख़राब साल था और इसका सबसे बड़ा कारण रहा कोरोना आपदा। लाॅकडाउन, आइसोलेशन, क्वारेंटाईन जैसे शब्द मार्च से दिसंबर तक ट्रेंड करते रहे। इस आपदा ने जीवनचर्या ही बदल दी। लेकिन इसके अलावा भी बहुत कुछ घटित हुआ वर्ष 2020 में जो खट्टा था, मीठा था और कड़वा था। वर्ष 2020 को यदि एक रेलगाड़ी मानें तो इसके इंजन में आंदोलन था और गार्ड के डब्बे में भी आंदोलन रहा। बीच में कोरोना आपदा और चंद उल्लेखनीय उपलब्धियां भी रहीं।
Charcha Plus Column - Vida Aapda  Aur Andolan Wale Varsh 2020 - Dr (Miss) Sharad Singh - Sagar Dinkar, 30.12.2020 

अभी तक के इतिहास में 2020 जैसा वर्ष दुनिया में कभी नहीं आया। 2020 ने पूरी दुनिया को प्रभावित किया। लाखों लोगों की जान ले ली। करोड़ों के रोजगार चले गये, भूख से लोगों ने दम तोड़ा। पूरी दुनिया कोरोना वायरस की महामारी की चपेट में आ गयी। आज हर व्यक्ति की दिल से यहीं प्रार्थना ही कि साल 2020 जैसा वर्ष कभी न वापस आए। भला कौन भुला सकेगा अपने परिचितों और अपरिचितों का कोरोना से मारा जाना। कौन भुला सकेगा वह दृश्य जब हज़ारों मज़दूर लाॅकडाउन के दौरान बेरोज़गार हो कर अपने गांवों की ओर पैदल लौटने को मज़बूर हो गए। कुछ रेल की पटरी पर कट कर मर गए तो कुछ ने भूख, प्यास से रास्ते में ही दम तोड़ दिया। छोटे-छोटे बच्चे और बूढ़े मां-बाप तक प्रवासी श्रमिकों की उस भीड़ में शामिल थे। कहीं-कहीं उन पर सेनेटाईज़र की बौछार कर के अमानवीयता का परिचय दिया गया तो कहीं पूरी मानवता के साथ उनकी मदद की गई। एक अजीबोग़रीब दौर से गुज़र का निकला है यह वर्ष 2020।  

चलिए वर्ष के पूरे परिदृश्य पर संक्षेप में दृष्टिपात करते हैं। वर्ष 2020 की शुरुआत नागरिकता कानून में संशोधन के खिलाफ दिसंबर 2019 से जारी विरोध प्रदर्शनों के बीच हुई। सरकार अपना निर्णय बदलने को तैयार नहीं थी और सीएए का विरोध करने वाले पीछे हटने को तैयार नहीं थे। विरोध और प्रदर्शनों की संख्या बढ़ती चली गई। प्रदर्शनकारियों ने दिल्ली के शाहीन बाग़ में अपना आंदोलन ज़ारी रखा जिसमें महिलाएं और बच्चे भी साथ दे रहे थे। मगर कोरोना आपदा के कारण अंततः उन्हें अपना विरोध प्रदर्शन स्थगित करना पड़ा। लेकिन शाहीनबाग में प्रदर्शन का चेहरा बनी 82 साल की बिलकिस दादी। टाइम मैगजीन ने बिलकिस बानो को 100 सबसे ज्यादा प्रभावशाली लोगों की अपनी सूची में शामिल किया। जनवरी माह के अंत में भारत में कोरोना वायरस का पहला मरीज केरल में सामने आया जिसको देखते हुए सरकार चिंतित हो गयी और स्वास्थ्य मंत्रालय एक्शन मोड में आ गया था। हवाई अड्डों पर स्क्रीनिंग शुरू कर दी गई। मगर बड़ी आबादी और स्वास्थ्य सुविधाओं की लचर व्यवस्था ने सरकार को चिंता में डाल रखा था। जल्दी की कड़ाई बरतने की स्थिति आ गई और लाॅकडाउन के फेज़ शुरू कर दिए गए। कोरोना को रोकने के लिए हर संभव प्रयास शुरू कर दिए गए। कोरोना के कहर के बीच तबलीगी जमात की भी चर्चा उठी। 


फरवरी में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत की यात्रा पर आए और अहमदाबाद में ‘‘नमस्ते ट्रंप’’ कार्यक्रम में हिस्सा लिया। विश्व के सबसे बड़े स्टेडियम में हुए इस कार्यक्रम में लाखों लोगों ने ट्रंप का अभिवादन किया। फरवरी के अंत में भारत ने फ्रांस और ब्रिटेन को पीछे छोड़ते हुए विश्व की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था बनने का गौरव अपने नाम किया। लेकिन इस गौरव पर इतराने का समय कम ही मिला और मार्च 2020 की शुरुआत आर्थिक परेशानियों के साथ हुई। इसके साथ ही राजनीतिक उथल-पुथल तेज हो गई। मार्च में बड़ी राजनीतिक हलचल तब हुई जब ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस से इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल हो गये। मार्च महीने में मध्य प्रदेश में सप्ताह भर चले राजनीतिक घटनाक्रम में कमलनाथ की सरकार गिर गयी और शिवराज सिंह चौहान ने एक बार फिर मध्य प्रदेश की सत्ता संभाली।


मार्च महीने में जैसे-जैसे कोरोना वायरस की रफ्तार तेज होती रही वैसे-वैसे खेल टूर्नामेंटों और अन्य बड़े आयोजनों के रद्द होने के समाचार आने लगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को संबोधित करते हुए कोरोना वायरस महामारी की गंभीरता से देश को अवगत कराया और इसी के साथ ही उन्होंने 22 मार्च को जनता कर्फ्यू का आह्वान किया और इसके दो दिन बाद ही उन्होंने देश में 21 दिनों के संपूर्ण लॉकडाउन की घोषणा कर दी। जिसे बाद में आगे बढ़ाया गया। अप्रैल महीने की शुरुआत में दिल्ली के निजामुद्दीन स्थित मरकज में मार्च में हुए तबलीगी जमात के कार्यक्रम में हजारों की संख्या में देश और विदेश से लोग शामिल हुए। जब यह बात सामने आई कि बड़ी संख्या में जमाती कोरोना पॉजिटिव पाए गए हैं, तो यह एक बड़ा मुद्दा बन गया। कोरोनावायरस के फैलाव में तबलीगी ज़मात और निजामुद्दीन मरकज़ का नाम सामने आने के बाद राजनीतिक खेल शुरू हो गया।


अप्रैल माह में ही देश ने विभाजन के बाद का सबसे बड़ा पलायन देखा। लॉकडाउन के कारण रोजी-रोटी छिन जाने से हज़ारों प्रवासी मजदूर अपने-अपने गृह राज्यों की ओर निकल पड़े। सार्वजनिक परिवहन के साधन उपलब्ध नहीं थे इसलिए ये लोग पैदल, ट्रकों में भर कर, कंटेनर ट्रकों और कंक्रीट मिक्सिंग मशीन वाहन में छिपकर अपने घर लौटे और इस दौरान कई मजदूर दुर्घटनाओं के शिकार भी हुए। प्रवासी मजदूरों के पलायन के समय देश भर से जिस तरह की भावुक कर देने वाली तसवीरें सामने आईं उनको देश लंबे समय तक याद रखेगा।


मई का पहला दिन यानि मजदूर दिवस मजदूरों के लिए बड़ी राहत लेकर आया क्योंकि इस दिन से प्रवासी श्रमिकों के लिए विशेष ट्रेनों का संचालन शुरू हो गया जिससे विभिन्न राज्यों में फंसे मजदूरों ने राहत की सांस ली। दो मई को लॉकडाउन को बढ़ाने का भी ऐलान कर दिया गया लेकिन रेड, ऑरेंज और ग्रीन जोन के लिए अलग-अलग दिशानिर्देश जारी किये गये। मई में ही प्रधानमंत्री ने देश को संबोधित करते हुए भारत को आत्मनिर्भर बनाने का संकल्प दिलाया और एक लाख 20 हजार करोड़ रुपए के आर्थिक पैकेज का ऐलान किया। मई में आये तूफान अम्फान से पश्चिम बंगाल और ओडिशा में तबाही हुई जिसको देखते हुए प्रधानमंत्री ने इन दोनों राज्यों का दौरा कर हालात की समीक्षा की और उन्हें आर्थिक मदद मुहैया करायी। एक बार फिर 25 मई से देश में घरेलू उड़ानें शुरू हुईं।


जून में फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत ने अपने मुंबई स्थित घर पर आत्महत्या कर सभी को चैंका दिया। भले ही आत्महत्या का केस आज भी पूरी तरह नहीं सुलझ पाया है लेकिन इसने बाॅलीवुड के ड्रग्स-कनेक्शन की परतें खोल दीं। इसी तारतम्य में ‘‘नेपोटिज़्म’’ और ‘‘मूवी माफिया’’ जैसे शब्दों ने भी तहलका मचाया। वहीं, जून मध्य में भारत और चीन के बीच गलवान घाटी में हुई हिंसक झड़प में भारत के 20 जवानों के शहीद होने से दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ गया। महीने के अंत में भारत सरकार ने डेटा चुराने वाले चीन के 59 मोबाइल एप्स को भी प्रतिबंधित कर दिया। 


कोरोना काल ने कई बड़े बदलाव किये जैसे कि शादी-विवाह आदि बड़े सादे ढंग से आयोजित किये जाने लगे और नाममात्र के ही रिश्तेदारों की उपस्थिति इन आयोजनों में रहने लगी। इस दौरान घरेलू हिंसा बढ़ी। आश्चर्य कि बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों पर लगाम नहीं लगी। सिनेमाघर, रेस्टोरेंट, पार्क आदि लंबे समय तक बंद रहे। लॉकडाउन के दौरान जब सभी घर पर बिना काम के बैठ गये तब लोगों के पास एक ही मनोरंजन का सहारा था टीवी, मोबाइल और इंटरनेट। दूरदर्शन ने रामायण, महाभारत आदि पुराने धारावाहिक का पुनः प्रसारण किया। सिनेमाघर बंद थे ऐसे में ओटीटी प्लेटफॉर्म की लोकप्रियता अचानक बढ़ गयी। अमेजन प्राइम, नेटफ्लिक्स, जी5, वूट, जीयो सिनेमा, एयरटेल टीवी, सोनी लिव जैसे ओटीटी प्लेटफॉर्म का लॉकडाउन के दौरान काफी भारी मात्रा में सब्सक्रिप्शन लिया गया। ओटीटी सिनेमा जगत में एक तीसरे पर्दे के तौर पर उभरा और आज के समय में ये प्लेटफॉर्म मनोरंजन का सबसे लोकप्रिय बन बन गया है। घरों में लॉकडाउन के दौरान काम वाली बाई ना होने के कारण लोग घरों के काम खुद ही करते नजर आए। अधिकांश ऑफिस अब भी बंद होने के कारण वर्क फ्रॉम होम शुरू हुआ। 2020 में बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर रस्साकशी चलती रही। विपक्ष को सत्ता में आने का भरोसा था, लेकिन तस्वीर सामने आई तो बाजी पलट चुकी थी। सभी एग्जिट पोल्स धराशायी साबित हुए। एनडीए एक बार फिर सत्ता पाने में सफल रहा।


वर्ष 2020 में एक लम्बे विवाद का सुखद पटाक्षेप हुआ। लंबी कानूनी लड़ाई के बाद सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने अयोध्या में भव्य राम मंदिर का रास्ता तैयार किया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अगस्त 2020 में राम मंदिर निर्माण के लिए भूमि पूजन किया और मंदिर की आधारशिला रखी। अब राम मंदिर तैयार होने में लगभग 36-40 महीने का समय लगने का अनुमान है।


वर्ष के उत्तरार्द्ध में सुगबुगाने वाला विरोध दिसंबर में बड़े आंदोलन के रूप में सामने आया। केंद्र के तीन नए कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के आंदोलन छेड़ दिया। केंद्र सरकार सितंबर महीने में 3 नए कृषि विधेयक लाई, जो संसद की मंजूरी और राष्ट्रपति की मुहर के बाद कानून बना दिए गए। किसानों को ये कानून रास नहीं आया। किसानों ने ‘‘दिल्ली चलो अभियान’’ छेड़ते हुए दिल्ली की ओर कूच किया लेकिन सरकारी अपले ने उन्हें सीमाओं पर रुकने को विवश कर दिया। देश के किसान आंदोलनों के इतिहास में यह अब तक का सबसे जीवट और हाईटेक आंदोलन माना गया है। 


साहित्यजगत् में भी अचानक स्तब्धता छा गई। साहित्यकार घरों में क़ैद हो कर रह गए। साहित्यकारों ने भी डिज़िटल माध्यमों को अपनाकर पाठकों से लाईव संवाद ज़ारी रखा। फेसबुक, ब्लाॅग, किंडल आदि पर बड़ी मात्रा में साहित्य पढ़ा गया। साहित्यिक मुद्रण-प्रकाशन बाधित हुआ। कई दिनों तक मुद्रणकार्य बंद रहा। पुस्तक प्रकाशन से जुड़े मशीन ऑपरेटर से लेकर वाइंडरप्रूफ रीडर, कंपोजर आदि तक प्रभावित हुए। उनका रोजगार मारा गया। अनेक पुस्तकों का वितरणकार्य अटक गया। लेकिन इस कठिन समय में कई पत्र-पत्रिकाओं ने अपने घाटे की परवाह किए बिना पाठकों को अपने डिज़िटल संस्करण उपलब्ध कराए, वह भी बिलकुल मुफ़्त। यह मुद्रण के इतिहास में एक बड़ी ऐतिहासिक घटना के रूप में आंकी जाएगी। अब आशा यही की जानी चाहिए कि वर्ष 2021 आपदामुक्त एक सुखद साल रहेगा। मैं इन शब्दों के साथ दुआ करती हूं कि-

नए  साल  में   हर  नई बात हो।

खुशियों  की  हरदम ही बरसात हो।

सभी  स्वस्थ  रह  कर जिएं जिन्दगी

दुखों की न  कोई  भी अब घात हो।

‘शरद’ की दुआ  है अमन, चैन की

चमकता  हुआ दिन  भी हो, रात हो।


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(दैनिक सागर दिनकर में 30.12.2020 को प्रकाशित)
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Monday, December 28, 2020

चिंतन की सीमाओं को मिला विस्तार | डॉ शरद सिंह | दैनिक जागरण | पुनर्नवा | सप्तरंग

प्रिय मित्रो, आज दैनिक जागरण एवं नई दुनिया में सप्तरंग के अंतर्गत 'पुनर्नवा' में (सभी संस्करणों में) प्रकाशित विशेष फीचर में पढ़िए मेरे विचार ...
https://epaper.jagran.com/mepaper/28-Dec-2020-64-Kanpur-edition-Kanpur-page-12.html
हार्दिक आभार #दैनिकजागरण #नईदुनिया #नवदुनिया🙏
दिनांक 28.12.2020

#dainikjagran
#naidunia
#navdunia

Saturday, December 26, 2020

गोखले के सानिंध्य में गांधी के तीन माह | लेख | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

 

Dr (Miss) Sharad Singh

लेख

गोखले के सानिंध्य में गांधी के तीन माह

 - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह


भारतीय इतिहास में एक ऐसा वैश्विक व्यक्ति हुआ जिसने राजनीति को सात्विक बनाने के लिए अपने जीवन की कभी परवाह नहीं की। वे व्यक्ति थे महात्मा गांधी अर्थात् मोहन दास करमचंद गांधी अर्थात् राष्ट्रपिता महात्मा गांधी। गांधी जी गोपालकृष्ण गोखले को अपना गुरु मानते थे। यह मान्यता उन्होने गोखले के सानिंध्य में तीन माह व्यतीत करने के बाद दी। गांधी जी प्रथम दृष्टि में धारणा बना लेने वाले व्यक्तियों में से नहीं थें वे जांच-परख कर, परिस्थितियों एवं विचारों को अनुभूत करने के बाद ही कोई धारणा निर्धारित करते थे। 

सन् 1906 को दादाभाई नौरोजी की अध्यक्षता में सम्पन्न होने वाले कांग्रेस के बाइसवें अधिवेशन में शामिल होने के लिए गांधी जी कलकत्ता पहुंचे। कलकत्ता अधिवेशन के अनुभव उनके लिए प्रियकर तो नहीं रहे किन्तु उन्हें अनेक ऐसे अनुभव हुए जिन्होंने उनके सम्पूर्ण जीवन पर गहरा प्रभाव डाला। अधिवेशन के उपरांत अन्य कांग्रेसी नेता अपने-अपने क्षेत्रों में लौट गए किन्तु गांधी जी कलकत्ता में ही रुके रहे। वे वहां रुककर दक्षिण अफ्रीका में बसे भारतीयों के पक्ष में समर्थन जुटाना चाहते थे। गांधी जी कुछ दिन ‘इंडिया क्लब’ में ठहरे। गोपाल कृष्ण गोखले ने युवा गांधी की योग्यता को पहचान लिया। वे गांधी जी को हठपूर्वक अपने साथ अपने निवास पर ले गये। लगभग तीन माह तक गांधी जी गोखले के घर रुके। इस दौरान गांधी जी ने जो अनुभव प्राप्त किए, वे उनके लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण थे। उन अनुभवों ने गांधी जी के विचारों को एक नया मोड़ दिया। गोखले के निवास पर व्यतीत किए गए अपने तीन महीनों के अनुभवों के बारे में उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है-

पहला महीना 

Mahatma Gandhi and Gopal Krishna Gokhale

‘‘पहले ही दिन गोखले ने मुझे यह अनुभव न करने दिया कि मैं मेहमान हूं। उन्होंने मुझे अपने सगे भाई की तरह रखा। मेरी सब आवश्यकताएं जान लीं और उनके अनुकूल सारी व्यवस्था कर दी। सौभाग्य से मेरी आवश्यकताएं थोड़ी ही थीं। मैंने अपना सब काम स्वयं कर लेने की आदत डाली थी, इसलिए मुझे दूसरों से बहुत थोड़ी सेवा लेनी होती थी। स्वावलम्बन की मेरी इस आदत की, उस समय की मेरी पोशाक आदि की, सफाई की, मेरे उद्यम की और मेरी नियमितता की उन पर गहरी छाप पड़ी थी और इन सबकी वे इतनी तारीफ करते थे कि मैं घबरा उठता था।

‘मुझे यह अनुभव न हुआ कि उनके पास मुझसे छिपाकर रखने लायक कोई बात थी। जो भी बड़े आदमी उनसे मिलने आते, उनका मुझसे परिचय कराते थे। ऐसे परिचयांे में आज मेरी आंखांे के सामने सबसे अधिक डाॅ. प्रफुल्लचन्द्र राय आते हंै। वे गोखले के मकान के पास ही रहते थे और कह सकता हूं कि लगभग रोज ही उनसे मिलने आते थे।

‘ये प्रोफेसर राय हैं। इन्हें हर महीने आठ सौ रुपये मिलते हैं। ये अपने खर्च के लिए चालीस रुपये रखकर बाकी सब सार्वजनिक कामों में देते हैं। इन्होंने ब्याह नहीं किया है और न करना चाहते हैं।’ इन शब्दों में गोखले ने मुझसे उनका परिचय कराया।

‘आज के डाॅ. राय और उस समय के प्रो. राय में मैं थोड़ा ही फर्क पाता हूं। जो वेश-भूषा उनकी तब थी, लगभग वही आज भी है। हां, आज वे खादी पहनते हैं, उस समय खादी थी ही नहीं। स्वदेशी मिल के कपड़े रहे होंगे। गोखले और प्रो. राय की बातचीत सुनते हुए मुझे तृप्ति ही न होती थी, क्योंकि उनकी बातें देशहित की ही होती थीं अथवा कोई ज्ञानचर्चा होती थी। कई दुःखद भी होती थीं क्योंकि उनमें नेताओं की टीका रहती थी। इसलिए जिन्हें मैंने महान योद्धा समझना सीखा था, वे मुझे बौने लगने लगे।

‘गोखले की काम करने की रीति से मुझे जितना आनन्द हुआ, उतनी ही शिक्षा भी मिली। वे अपना एक क्षण भी व्यर्थ नहीं जाने देते थे। मैंने अनुभव किया कि उनके सारे काम देशकार्य के निमित्त से ही थे। सारी चर्चाएं भी देशकार्य की खातिर ही होती थीं। उनकी बातों में मुझे कहीं मलिनता, दम्भ अथवा झूठ के दर्शन नहीं हुए। हिन्दुस्तान की गरीबी और गुलामी उन्हें प्रतिक्षण चुभती थी। अनेक लोग अनेक विषयों में उनकी रुचि जगाने के लिए आते थे। उन सबको वे एक ही जवाब देते थे, आप यह काम कीजिए। मुझे अपना काम करने दीजिए। मुझे तो देश की स्वाधीनता प्राप्त करनी है। उसके मिलने पर ही मुझे दूसरा कुछ सूझेगा। इस समय तो इस काम से मेरे पास एक क्षण भी बाकी नहीं बचता।

‘रानाडे के प्रति उनका पूज्यभाव बात-बात में देखा जा सकता था। ‘रानाडे यह कहते थे’, ये शब्द तो उनकी बातचीत में लगभग ‘सूत्र वाक्य’ जैसे हो गए थे। मैं वहां था, उन्हीं दिनों रानाडे की जयन्ती (अथवा पुण्यतिथि, इस समय ठीक याद नहीं है) पड़ी थी। ऐसा लगा कि गोखले उसे हमेशा मनाते थे। उस समय वहां मेरे सिवा उनके मित्र प्रो. काथवटे और दूसरे एक सज्जन थे, जो सब-जज थे। इनको उन्होंने जयन्ती मनाने के लिए निमंत्रित किया और उस अवसर पर उन्होंने हमें रानाडे के अनेक संस्मरण सुनाए। रानाडे, तैलंग और मांडलिक की तुलना भी की। मुझे स्मरण है कि उन्होंने तैलंग की भाषा की प्रशंसा की थी। सुधारक के रूप में मांडलिक की स्तुति की थी। अपने मुवक्किल की वे कितनी चिन्ता रखते थे, इसके दृष्टान्त के रूप में यह किस्सा सुनाया कि एक बार रोज की ट्रेन छूट जाने पर वे किस तरह स्पेशल ट्रेन से अदालत पहुंचे थे और इस तरह रानाडे की चैमुखी शक्ति का वर्णन करके उस समय के नेताओं में उनकी सर्वश्रेष्ठता सिद्ध की थी। रानाडे केवल न्यायमूर्ति नहीं थे, अर्थशास्त्री थे, सुधारक थे। सरकारी जज होते हुए भी वे कांग्रेस में दर्शक की तरह निडर भाव से उपस्थित होते थे। इसी तरह उनकी बुद्धिमत्ता पर लोगों को इतना विश्वास था कि सब उनके निर्णय को स्वीकार करते थे। यह सब वर्णन करते हुए गोखले के हर्ष की सीमा न रहती थी।

गोखले घोड़ागाड़ी रखते थे। मैंने उनसे इसकी शिकायत की। मैं उनकी कठिनाइयां समझ नहीं सका था। पूछा, ‘‘आप सब जगह ट्राम में क्यांे नहीं जा सकते? क्या इससे नेतावर्ग की प्रतिष्ठा कम होती है?’’

कुछ दुःखी होकर उन्होंने उत्तर दिया, ‘‘क्या तुम भी मुझे पहचान न सके? मुझे बड़ी धारासभा से जो रुपया मिलता है, उसे मैं अपने काम में नहीं लाता। तुम्हें ट्राम में घूमते देखकर मुझे ईष्र्या होती है पर मैं वैसा नहीं कर सकता। जितने लोग मुझे पहचानते हैं, उतने ही जब तुम्हें पहचानने लगेंगे, तब तुम्हारे लिए भी ट्राम में घूमना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य हो जाएगा। नेता जो कुछ करते हैं, सो मौज-शौक के लिए ही करते हैं, यह मानने का कोई कारण नहीं है। तुम्हारी सादगी मुझे पसन्द हैं। मैं यथासम्भव सादगी से रहता हूं पर तुम निश्चित मानना कि मुझ जैसों के लिए कुछ खर्च अनिवार्य है।’’

‘‘इस तरह मेरी यह शिकायत तो ठीक ढंग से रद्द हो गयी पर दूसरी जो शिकायत मैंने की, उसका कोई सन्तोषजनक उत्तर वे नहीं दे सके। मैंने कहा पर आप टहलने भी तो ठीक से नहीं जाते। ऐसी दशा में आप बीमार रहे तो इसमें आश्चर्य क्या? क्या देश के काम में से व्यायाम के लिए भी फुरसत नहीं मिल सकती?’’

जवाब मिला, ‘‘तुम मुझे किस समय फुरसत में देखते हो कि मैं घूमने जा सकूं?’’

मेरे मन में गोखले के लिए इतना आदर था कि मैं उन्हें प्रत्युत्तर नहीं देता था। ऊपर के उत्तर से मुझे सन्तोष नहीं हुआ था, फिर भी चुप रहा। मैंने यह माना है और आज भी मानता हूं कि कितने ही काम होने पर भी जिस तरह हम खाने का समय निकाले बिना नहीं रहते, उसी तरह व्यायाम का समय भी हमें निकालना चाहिए। मेरी यह नम्र राय है कि इससे देश की सेवा अधिक ही होती है, कम नहीं।


दूसरा महीना

Mahatma Gandhi and Gopal Krishna Gokhale

‘गोखले की छायातले रहकर मैंने सारा समय घर में बैठकर नहीं बिताया। दक्षिण अफ्रीका के अपने ईसाई मित्रें से मैंने कहा था कि मैं हिन्दुस्तान के ईसाइयों से मिलूंगा और उनकी स्थिति की जानकारी प्राप्त करूंगा। मैंने कालीचरण बैनर्जी का नाम सुना था। वे कांग्रेस के कामों में अगुआ बनकर हाथ बंटाते थे, इसलिए मेरे मन में उनके प्रति आदर था। साधारण हिन्दुस्तानी ईसाई कांग्रेस से और हिन्दू-मुसलमानों से अलग रहा करते थे। इसलिए उनके प्रति मेरे मन में जो अविश्वास था, वह कालीचरण बैनर्जी के प्रति नहीं था। मैंने उनसे मिलने के बारे में गोखले से चर्चा की। उन्होंने कहा, ‘‘वहां जाकर क्या पाओगे? वे बहुत भले आदमी हैं पर मेरा विचार है कि वे तुम्हें सन्तोष नहीं दे सकेंगे। मैं उन्हें भलीभांति जानता हूं। फिर भी तुम्हें जाना हो तो शौक से जाओ।’’

‘‘मैंने समय मांगा। उन्होंने तुरन्त समय दिया और मैं गया। उनके घर उनकी धर्मपत्नी मृत्युशय्या पर पड़ी थीं। घर सादा था। कांग्रेस अधिवेशन में उनको कोट-पतलून में देखा था पर घर में उन्हें बंगाली धोती और कुर्ता पहने देखा। यह सादगी मुझे पसन्द आई। उन दिनों मैं स्वयं पारसी कोट-पतलून पहनता था, फिर भी मुझे उनकी यह पोशाक और सादगी बहुत पसन्द आई। मैंने उनका समय न गंवाते हुए अपनी उलझनें पेश कीं।

उन्होंने मुझसे पूछा, ‘‘आप मानते हैं कि हम अपने साथ पाप लेकर पैदा होते हैं?’’

मैंने कहा, ‘‘जी हां।’’

‘‘तो इस मूल पाप का निवारण हिन्दू धर्म में नहीं है, जबकि ईसाई धर्म में है।’’ यूं कहकर वे बोले, ‘‘पाप का बदला मौत है। बाइबल कहती है कि इस मौत से बचने का मार्ग ईसा की शरण है।’’

मैंने ‘भगवद्गीता’ के भक्तिमार्ग की चर्चा की पर मेरा बोलना निरर्थक था। मैंने इन भले आदमी का उनकी भलमनसाहत के लिए उपकार माना। मुझे संतोष न हुआ, फिर भी इस भेंट से मुझे लाभ ही हुआ।

मैं यह कह सकता हूं कि इसी महीने मैंने कलकत्ते की एक-एक गली छान डाली। अधिकांश काम मैं पैदल चलकर करता था। इन्हीं दिनों मैं न्यायमूर्ति मित्र से मिला। सर गुरुदास बैनर्जी से मिला। दक्षिण अफ्रीका के काम के लिए उनकी सहायता की आवश्यकता थी। उन्हीं दिनांे मैंने राजा सर प्यारेमोहन मुखर्जी के भी दर्शन किए।

कालीचरण बैनर्जी ने मुझसे काली-मन्दिर की चर्चा की थी। वह मन्दिर देखने की मेरी तीव्र इच्छा थी। पुस्तक में मैंने उसका वर्णन पढ़ा था। इससे एक दिन मैं वहां जा पहुंचा। न्यायमूर्ति का मकान उसी मुहल्ले में था। अतएव जिस दिन उनसे मिला, उसी दिन काली-मन्दिर भी गया। रास्ते में बलिदान के बकरों की लम्बी कतार चली जा रही थी। मन्दिर की गली में पहंुचते ही मैंने भिखारियांे की भीड़ लगी देखी। वहां साधु-संन्यासी तो थे ही। उन दिनांे भी मेरा नियम हृष्ट-पुष्ट भिखारियांे को कुछ न देने का था। भिखारियों ने मुझे बुरी तरह घेर लिया था।

एक बाबाजी चबूतरे पर बैठे थे। उन्होंने मुझे बुलाकर पूछा, ‘‘क्यों बेटा, कहां जाते हो?’’

मैंने समुचित उत्तर दिया। उन्होंने मुझे और मेरे साथियों को बैठने के लिए कहा। हम बैठ गए।

मैंने पूछा, ‘‘इन बकरों के बलिदान को आप धर्म मानते हैं?’’

‘‘जीव की हत्या को धर्म कौन मानता है?’’

‘‘तो आप यहां बैठकर लोगों को समझाते क्यांे नहीं?’’

‘‘यह काम हमारा नहीं है। हम तो यहां बैठकर भगवद् भक्ति करते हैं।’’

‘पर इसके लिए आपको कोई दूसरी जगह न मिली?’

बाबाजी बोले, ‘‘हम कहीं भी बैठंे, हमारे लिए सब जगह समान है। लोग तो भेंड़ांे के झुंड की तरह हैं। बड़े लोग जिस रास्ते ले जाते हैं, उसी रास्ते वे चलते हैं। हम साधुआंे को इससे क्या मतलब?’’

मैंने संवाद आगे नहीं बढ़ाया। हम मन्दिर में पहुंचे। सामने लहू की नदी बह रही थी। दर्शनांे के लिए खड़े रहने की मेरी इच्छा न रही। मैं बहुत अकुलाया, बेचैन हुआ। वह दृश्य मैं अब तक भूल नहीं सका हूं। उसी दिन मुझे एक बंगाली सभा का निमंत्रण मिला था। वहां मैंने एक सज्जन से इस क्रूर पूजा की चर्चा की। उन्होंने कहा, ‘‘हमारा खयाल यह है कि वहां जो नगाड़े वगैरह बजते हैं, उनके कोलाहल में बकरों को चाहे जैसे भी मारो उन्हें कोई पीड़ा नहीं होती।’’

‘उनका यह विचार मेरे गले न उतरा। मैंने उन सज्जन से कहा कि यदि बकरांे को जबान होती तो वे दूसरी ही बात कहते। मैंने अनुभव किया कि यह क्रूर रिवाज बंद होना चाहिए। बुद्धदेव वाली कथा मुझे याद आयी पर मैंने देखा कि यह काम मेरी शक्ति से बाहर है। उस समय मेरे जो विचार थे, वे आज भी हैं। मेरे ख्याल से बकरों के जीवन का मूल्य मनुष्य के जीवन से कम नहीं है। मनुष्य देह को निबाहने के लिए मैं बकरे की देह लेने को तैयार न होऊंगा। मैं यह मानता हूं कि जो जीव जितना अधिक अपंग है, उतना ही उसे मनुष्य की क्रूरता से बचने के लिए मनुष्य का आश्रय पाने का अधिक अधिकार है, पर वैसी योग्यता के अभाव में मनुष्य आश्रय देने में असमर्थ है। बकरांे को इस पापपूर्ण होम से बचाने के लिए जितनी आत्मशुद्धि और जितना त्याग मुझमें है, उससे कहीं अधिक की मुझे आवश्यकता है। जान पड़ता है कि अभी तो उस शुद्धि और त्याग का रटन करते हुए ही मुझे मरना होगा। मैं यह प्रार्थना निरन्तर करता रहता हूं कि ऐसा कोई तेजस्वी पुरुष और ऐसी कोई तेजस्विनी सती उत्पन्न हो, जो इस महापातक में से मनुष्य को बचाए, निर्दोष प्राणियों की रक्षा करे और मन्दिर को शुद्ध करे। ज्ञानी, बुद्धिशाली, त्यागवृत्तिवाला और भावना-प्रधान बंगाल यह सब कैसे सहन करता है?

तीसरा महीना 

Mahatma Gandhi, Gopal Krishna Gokhale and Sarojani Nayadu

‘कालीमाता के निमित्त से होनेवाला विकराल यज्ञ देखकर बंगाली जीवन को जानने की मेरी इच्छा बढ़ गयी। ब्रह्मसमाज के बारे में तो मैं काफी पढ़-सुन चुका था। मैं प्रतापचन्द्र मजूमदार का जीवनवृतान्त थोड़ा जानता था। उनके व्याख्यान मैं सुनने गया था। उनका लिखा केशवचन्द्र सेन का जीवनवृत्तान्त मैंने प्राप्त किया और उसे अत्यन्त रसपूर्वक पढ़ गया। मैंने साधारण ब्रह्मसमाज और आदि ब्रह्मसमाज का भेद जाना। पंडित विश्वनाथ शास्त्री के दर्शन किए। महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर के दर्शनों के लिए मैं प्रो. काथवटे के साथ गया पर वे उन दिनों किसी से मिलते न थे, इससे उनके दर्शन न हो सके। उनके यहां ब्रह्मसमाज का उत्सव था। उसमें सम्मिलित होने का निमंत्रण पाकर हम लोग वहां गए थे और वहां उच्च कोटि का बंगाली संगीत सुन पाए थे। तभी से बंगाली संगीत के प्रति मेरा अनुराग बढ़ गया।

‘ब्रह्मसमाज का यथासम्भव निरीक्षण करने के बाद यह तो हो ही कैसे सकता था कि मैं स्वामी विवेकानन्द के दर्शन न करूं? मैं अत्यन्त उत्साह के साथ बेलूर मठ तक लगभग पैदल पहुंचा। मुझे इस समय ठीक से याद नहीं है कि मैं पूरा चला था या आधा। मठ का एकान्त स्थान मुझे अच्छा लगा था। यह समाचार सुनकर मैं निराश हुआ कि स्वामीजी बीमार हैं, उनसे मिला नहीं जा सकता और वे अपने कलकत्तेवाले घर में हैं। मैंने भगिनी निवेदिता के निवास स्थान का पता लगाया। चैरंगी के एक महल मैं उनके दर्शन किए। उनकी तड़क-भड़क से मैं चकरा गया। बातचीत में भी हमारा मेल नहीं बैठा।

गोखले से इसकी चर्चा की। उन्होंने कहा, ‘‘वह बड़ी तेज महिला हैं। अतएव उससे तुम्हारा मेल न बैठा, इसे मैं समझ सकता हूं।’’

फिर एक बार उनसे मेरी भेंट पेस्तन जी के घर हुई थी। वे पेस्तन जी की वृद्धा माता को उपदेश दे रही थी, इतने में मैं उनके घर जा पहुंचा था। अतएव मैंने उनके बीच दुभाषिए का काम किया था। हमारे बीच मेल न बैठते हुए भी इतना तो मैं देख सकता था कि हिन्दू धर्म के प्रति भगिनी का प्रेम छलका पड़ता था। उनकी पुस्तकों का परिचय मैंने बाद में किया।

मैंने दिन के दो भाग कर दिए थे। एक भाग में दक्षिण अफ्रीका के काम के सिलेसिले मैं कलकत्ते में रहनेवाले नेताआंे से मिलने में बिताता था, और दूसरा भाग कलकत्ते की धार्मिक संस्थाओं और दूसरी सार्वजनिक संस्थाओं को देखने में बिताता था।

एक दिन बोअर-युद्ध में हिन्दुस्तानी शुश्रूषा-दल में जो काम किया था, उस पर डाॅ. मलिक के सभापतित्व में मैंने भाषण किया। ‘इंग्लिशमैन’ के साथ मेरी पहचान इस समय भी बहुत सहायक सिद्ध हुई। मि. सांडर्स उन दिनों बीमार थे पर उनकी मदद तो सन् 1896 में जितनी मिली थी, उतनी ही इस समय भी मिली। यह भाषण गोखले को पसन्द आया था और जब डाॅ. राय ने मेरे भाषण की प्रशंसा की तो वे बहुत खुश हुए थे।

यूं, गोखले की छाया में रहने से बंगाल में मेरा काम बहुत सरल हो गया था। बंगाल के अग्रगण्य कुटुम्बांे की जानकारी मुझे सहज ही मिल गयी और बंगाल के साथ मेरा निकट सम्बन्ध जुड़ गया। इस चिरस्मरणीय महीने के बहुत से संस्मरण मुझे छोड़ देने पड़ेंगे। उस महीने में मैं ब्रह्मदेश का भी एक चक्कर लगा आया था। मैंने स्वर्ण-पैगोडा के दर्शन किए। मंदिर में असंख्य छोटी-छोटी मोमबत्तियां जल रही थीं। वे मुझे अच्छी नहीं लगी। मन्दिर के गर्भगृह में चूहों को दौड़ते देखकर मुझे स्वामी दयानन्द के अनुभव का स्मरण हो आया। ब्रह्मदेश की महिलाआंे की स्वतंत्रता, उनका उत्साह और वहां के पुरुषों की सुस्ती देखकर मैंने महिलाओं के लिए अनुराग और पुरुषांे के लिए दुःख अनुभव किया। उसी समय मैंने यह भी अनुभव किया कि जिस तरह बम्बई हिन्दुस्तान नहीं हैं, उसी तरह रंगून ब्रह्मदेश नहीं है और जिस प्रकार हम हिन्दुस्तान में अंग्रेज व्यापारियों के कमीशन एजेंट या दलाल बने हुए हैं, उसी प्रकार ब्रह्मदेश में हमने अंग्रेजांे के साथ मिलकर ब्रह्मदेशवासियांे को कमीशन एजेंट बनाया है।

‘ब्रह्मदेश से लौटने के बाद मैंने गोखले से विदा ली। उनका वियोग मुझे अखरा पर बंगाल अथवा सच कहा जाए तो कलकत्ते का मेरा काम पूरा हो चुका था।

‘‘मैंने सोचा था कि धन्धे में लगने से पहले हिन्दुस्तान की एक छोटी-सी यात्रा रेलगाड़ी के तीसरे दर्जे में करूंगा और तीसरे दर्जें में यात्रियों का परिचय प्राप्त करके उनका कष्ट जान लूंगा। मैंने गोखले के सामने अपना यह विचार रखा। उन्होंने पहले तो उसे हँसकर उड़ा दिया पर जब मैंने इस यात्र के विषय मैं अपनी आशाओं का वर्णन किया, तो उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक मेरी योजना को स्वीकृति दे दी। मुझे पहले तो काशी जाना था और वहां पहुंचकर विदुषी ऐनी बेसेंट के दर्शन करने थे। वे उस समय बीमार थीं।’’

कलकत्ता में गोपाल कृष्ण गोखले के साथ कुछ दिन व्यतीत करना  गांधी जी के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण रहा। सन् 1912 में गांधी जी के आमंत्रण पर गोखले स्वयं दक्षिण अफ्रीका गए और वहां जारी रंगभेद का विरोध किया। गांधी जी ने गोखले को हमेशा अपना ‘राजनीतिक गुरु’ माना। 

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महात्मा गांधी के जीवन पर मेरी पुस्तक -

Rashtravadi Vyaktitva Mahatma Gandhi written by Dr (Miss) Sharad Singh 
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Thursday, December 24, 2020

क्रिसमस के शुभ दिन पर ...


देवदूत  बन  कर  कोई आएगा
अभिलाषा पूरी वो कर जाएगा
क्रिसमस के शुभ दिन पर आकर
खुशियों के तोहफ़े दे कर जाएगा
- डॉ शरद सिंह

Dear Friends,
I wish this Holy Xmas brings Good Health and Happiness in Your Life.🎈🌲⭐🌲🎈

#MerryXmas
#HappyXmas
#MerryXmas2020

Wednesday, December 23, 2020

चर्चा प्लस | 23 दिसम्बर | आज है राष्ट्रीय किसान दिवस | डाॅ शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस

23 दिसम्बर : आज है राष्ट्रीय किसान दिवस
 - डाॅ शरद सिंह

     कड़ाके की सर्दी और हज़ारों किसानों द्वारा किया जा रहा आंदोलन। इस वर्ष राष्ट्रीय किसान दिवस का स्वरूप कुछ अलग ही है। कृषि कानून 2020 के समर्थक इसे एक सामान्य किसान दिवस के रूप में मना रहे हैं, तो कृषि कानून 2020 का विरोध करने वाले किसान इसे विरोध ज्ञापन किसान दिवस के रूप में मना रहे हैं। जिनके लिए यह दिवस मनाया जाता है वही इस बार असंतुष्ट हैं। दो दिन पहले ही भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत ने लोगों से अपील की थी कि 23 दिसंबर को किसान दिवस के मौके पर एक समय का खाना त्याग कर किसान आंदोलन को समर्थन दें। आंदोलनकारी किसान भी क्रमिक उपवास आरम्भ कर चुके हैं। ऐसे समय में राष्ट्रीय किसान आंदोलन के बारे में चर्चा जरूरी है।
Charcha Plus, Sagar Dinkar, Rashtriya Kisan Diwas, Dr (Miss) Sharad Singh



आज राष्ट्रीय किसान दिवस है और देश में किसान आंदोलन गरमाया हुआ है। जिनका यह दिवस है, वे ही असंतुष्ट हैं। वे आज के किसान दिवस से नहीं अपितु नए कृषि कानून से व्यथित हैं। पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का विचार था कि देश की सुरक्षा, आत्मनिर्भरता और सुख-समृद्धि केवल सैनिकों और शस्त्रों पर ही आधारित नहीं बल्कि किसान और श्रमिकों पर भी आधारित है। इसीलिए उन्होंने ‘‘जय जवान, जय किसान’’ का नारा दिया था। 

प्रतिवर्ष 23 दिसम्बर को भारत में राष्ट्रीय किसान दिवस के रूप में मनाया जाता है, यह दिवस भारत के पांचवें प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह की स्मृति में मनाया जाता है। 23 दिसम्बर को चौधरी चरण सिंह का जन्म हुआ था। इस दिवस को चरण सिंह जयंती के रूप में भी मनाया जाता है। उनका जन्म 23 दिसम्बर 1902 को उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले के नूरपुर में हुआ था। वे 1967 तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़े रहे। तत्पश्चात 1967-77 के दौरान वे भारतीय लोक दल से जुड़े रहे। 1977 से 1980 के बीच में जनता पार्टी के साथ रहे। इसके पश्चात् 1980 से 1987 के दौरान वे लोकदल से जुड़े हुए थे। चौधरी चरण सिंह 3 अप्रैल, 1967 से 25 फरवरी, 1968 के बीच उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। इसके पश्चात् वे 24 मार्च, 1977 से 1 जुलाई, 1978 के बीच केन्द्रीय गृह मंत्री रहे। 24 जनवरी, 1979 से 28 जुलाई 1979 के दौरान वे देश के वित्त मंत्री रहे और 28 जुलाई 1979 से 14 जनवरी 1980 के बीच देश के प्रधानमंत्री रहे। उनका निधन 29 मई, 1987 को नई दिल्ली में हुआ।

चौधरी चरण सिंह की असली पहचान एक किसान नेता की रही। उन्होंने भूमि सुधारों पर बहुत काम किया था। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में और केन्द्र में वित्तमंत्री के रूप में उन्होंने गांवों और किसानों को प्राथमिकता में रखकर बजट बनाया था। उन्होंने हमेशा यही कहा कि किसानों को खुशहाल किए बिना देश व प्रदेश खुशहाल नहीं हो सकता है। चौधरी चरण सिंह ने किसानों की खुशहाली के लिए उन्नत खेती पर बल दिया था। उन्होंने किसानों को उपज का उचित दाम दिलाने की दिशा में महत्वपूर्ण प्रयास किए। वे ग्रामीण समस्याओं को गहराई से समझते थे और अपने मुख्यमंत्रित्व तथा केन्द्र सरकार के वित्तमंत्री के कार्यकाल में उन्होंने बजट का बड़ा भाग किसानों तथा गांवों के पक्ष में रखा था। 

चौधरी चरण सिंह के प्रयासों से ही ‘‘जमींदारी उन्मूलन विधेयक-1952’’ पारित हो सका था। यह स्वतंत्र भारत का पहला कृषि सुधार कानून था। इसने ज़मींदारों से किसानों की भूमि मुक्त कराने में बड़ी भूमिका निभाई। इसके बाद चौधरी चरण सिंह किसान नेता माने जाने लगे। उन्होंने समस्त उत्तर प्रदेश में भ्रमण करते हुए कृषकों की समस्याओं का समाधान करने का प्रयास किया। चौधरी चरण सिंह ने देश में किसानों के जीवन और स्थितियों को बेहतर बनाने के लिए कई नीतियों की शुरुआत की थी। साथ ही उन्होंने किसानों के सुधारों के बिल प्रस्तुत कर देश के कृषि क्षेत्र में भी अग्रणी भूमिका निभाई थी।

 आज आश्चर्य तो इस बात पर होता है कि एक ओर जहां किसान की खुशहाली की बात की जाती है तो वहीं दूसरी ओर अधिकांश लोग कथाकार प्रेमचंद की कहानियों के किसान के रूप में किसानों को देखना चाहते हैं। ‘पूस की रात’ में ठिठुरता किसान, कर्ज में दो बैलों की जोड़ी से भी वंचित होता किसान ही उनके लिए वास्तविक किसान है। ऐसे लोगों को किसानों द्वारा मोबाईल का प्रयोग करने, पिज्जा खाने और वर्जिश करने पर आश्चर्य होता है, वहीं भूख मरते किसान परिवार द्वारा घास की रोटी खाने पर आश्चर्य नहीं होता है। जबकि आज सरकार स्वयं यह मानती है कि किसानों को हाईटेक होने की जरूरत है। ‘‘किसान एप्प’’ इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। समय के साथ किसानों का बहुमुखी विकास जरूरी है।

सबसे जरूरी है किसानों के लिए ऋणप्रणाली को सुधारा जाना। स्वतंत्र भारत से पूर्व और स्वतंत्र भारत के पश्चात् एक लम्बी अवधि बीतने के बाद भी कर्ज के मामले में भारतीय किसानों की दशा में सिर्फ 19-20 का ही अंतर दिखाई देता है। भारत कृषि प्रधान देश है। देश की कुल संपत्ति का लगभग 60 प्रतिशत भाग कृषि कार्यों में संलग्न है। देश के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 22 प्रतिशत कृषि क्षेत्र से मिलता है। भारतीय कृषि की विशेषता है कि सिंचाई की पर्याप्त सुविधा न होने के कारण तथा ऋतु परिवर्तन के कारण यहां सघन खेती संभव नहीं है। फलतः कृष्ण तथा कृषि श्रमिकों को पूरे वर्ष रोजगार सुविधा उपलब्ध नहीं हो पाती। तेजी से बढ़ते शहरों के फैलाव और औद्योगीकरण ने कृषि ज़मीन को छोटा कर दिया है। कृषि ज़मीन पर आवासीय परिसर बनाने के लिए भू-खण्ड के रूप में जिस तरह काम में लाया जा राह है वह चिन्ता का विषय है। 
 
पंजाब और हरियाणा को छोड़ कर शेष उत्तर भारत में कृषि प्रबंधन बेहद कमज़ोर है। सूखे के प्रकोप, लचर जल प्रबंधन और जल की कमी से जूझ रहे बुंदेलखंड के सैकड़ों गांवों से प्रतिवर्ष अनेक ग्रामीण अपने-अपने गांव छोड़ कर दूसरे राज्यों तथा महानगरों की ओर पलायन करने को विवश हो जाते हैं। असंगठित, अप्रशिक्षित मज़दूरों के रूप में काम करने वाले इन मज़दूरों का जम कर आर्थिक शोषण होता हैं। यह स्थिति तब और अधिक भयावह हो जाती है जब उन्हें कर्जे के बदले अपना घरबार बेच कर अपने बीवी-बच्चों समेत गांवों से पलायन करना पड़ता है। गरमी का मौसम आते ही गांवों में पानी की कमी विकराल रूप धारण कर लेती हैै। कुंआ, तालाब, पोखर और हैंडपंप सब सूख जाते हैं। अंधाधुंध खनन से यहां की नदियां भी सूखती जा रही हैं। बिना पानी के कोई किसान खेती कैसे कर सकता है? बिना पानी के सब्जियों भी नहीं उगाई जा सकती हैं। खेत और बागीचों के काम बंद हो जाने पर पेट भरने के लिए एकमात्र रास्ता बचता है मजदूरी का। हल चलाने वाले हाथ गिट्टियां ढोने के लिए मजबूर हो जाते हैं। अभावग्रस्त बुंदेलखंड से हर साल रोजी रोटी की तलाश में हजारों परिवार परदेश जाते हैं। पिछले एक दशक के दौरान करीब 45 लाख लोग यहां से पलायन कर चुके हैं। कोराना लाॅकडाउन के दौरान यही कृषक प्रवासी मजदूरों के रूप में अपार कष्टों का सामना करते हुए अपने-अपने धर लौटे और लाॅकडाउन समाप्त होने पर एक बार फिर निकल पड़े महानगरों की ओर। ये मूलतः किसान पेट की खातिर दर-दर की ठोकरें खाने वाले ‘पलायनवादी’ बन कर रह गए है। कहने का आशय यही है कि किसानों की समस्याओं को ज़मीनी स्तर पर समझने और अनेक सुधार किए जाने की आवश्यकता है। लेकिन अफ़सरशाही तरीके से नहीं अपितु उनसे चर्चा करते हुए और उन्हें साथ ले कर सुधार किए जाने की जरूरत है।

राष्ट्रीय किसान दिवस देश अैर देशवासियों के प्रति किसानों के अवदान को नमन करने का दिन है। वहीं, आज के जो हालात हैं उस पर अपनी ग़ज़ल के एक शेर के साथ किसान दिवस का आह्वान करती हूं-
       जिंदगी में आ गया  मसला बड़ा है
       अन्नदाता आज सड़कों पर खड़ा है
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(दैनिक सागर दिनकर में 23.12.2020 को प्रकाशित)
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Saturday, December 19, 2020

साहित्य की चुनौतियां | Sharad Singh | Aaj Tak


बहुत महत्वपूर्ण चर्चा हुई थी टीवी चैनल "आजतक" के साहित्यिक महाकुंभ में ... 
आप भी सुनिए ... 

Wednesday, December 16, 2020

चर्चा प्लस | हर युवा को याद रखना चाहिए 16 दिसम्बर का ‘विजय दिवस’ | डाॅ शरद सिंह

 

Dr (Miss) Sharad Singh

चर्चा प्लस

  हर युवा को याद रखना चाहिए 16 दिसम्बर का ‘विजय दिवस’

        

  - डाॅ शरद सिंह

                                   

प्रति वर्ष 16 दिसम्बर को हम ‘विजय दिवस’ मनाते हैं। युवा पीढ़ी को इस विजय दिवस के इतिहास को जानना चाहिए ताकि वे अपने देश की सैन्य ताकत और राजनीतिक सूझबूझ से गौरव का अनुभव कर सकें। आज जब पाकिस्तान छिटपुट सैन्य गतिविधियां करके भारत को डराने के सपने देखता है तब हमारी युवा पीढ़ी को ‘विजय दिवस’ याद रखना चाहिए और यह भी कि हमारे देश ने ही बांग्लादेश की स्थापना को संभव बनाया था।   

चर्चा प्लस -  हर युवा को याद रखना चाहिए 16 दिसम्बर का विजय दिवस - डॉ शरद सिंह, Charcha Plus, Sagar Dinkar 16 .12. 2020


सन् 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय मैं छोटी थी। युद्ध को ले कर मुझे अधिक समझ नहीं थी। फिर भी दो कारणों से सन् 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध ने मेरे जीवन को भी प्रभावित किया। उन दिनों मेरी मंा डाॅ विद्यावती ‘मालविका’ मध्यप्रदेश के पन्ना जिला मुख्यालय में शासकीय मनहर गल्र्स हायर सेकेन्ड्री स्कूल में हिन्दी विषय की व्याख्याता थीं। मेरे घर में चावल की जगह रोटी अधिक खाई जाती थी। सिर्फ़ मैं और कमल सिंह मामा ‘‘चावल भक्त’’ की श्रेणी में थे। कमल सिंह मामा के नौकरी पर पन्ना से बाहर चले जाने के बाद मूलतः मेरे लिए ही घर में चावल पकाया जाता था। मुझे याद है कि एक दिन मुझे बड़े अज़ीब से स्वाद वाला चावल खाने को मिला। मैंने मां से कहा कि आज बऊ ने ये कैसा भात (चावल) बनाया है, बहुत अजीब स्वाद है इसका। बऊ हमारे यहां खाना पकाने का काम करती थी। बहुत ही अनुभवी और पाककला में होशियार महिला। उनका असली नाम मुझे आज भी पता नहीं है क्यों कि सभी उन्हें बऊ के नाम से ही पुकारते थे। बऊ ने कभी ख़राब खाना नहीं पकाया था अतः ऐसे विचित्र स्वाद वाला भात खा कर मुझे गुस्सा आ रहा था। तब मां ने मुझे बताया कि ‘‘हमारे देश का पाकिस्तान से युद्ध हो रहा है और पूर्वी बंगाल से बड़ी संख्या में रिफ्यूजी आ रहे हैं। उनमें से बहुतों को हमारे पन्ना जिले में भी बसाया जा रहा है। वे लोग मुख्य रूप से चावल खाते हैं, इसलिए चावल की खपत बढ़ गई है। इसीलिए कंट्रोल की सरकारी दूकानों में भी उबले चावल मिल रहे हैं। आज जो तुमने खाया वह भी उबला चावल है। अभी कुछ समय यही खाना पड़ेगा।’’ 


इससे पहले मैंने ‘‘उबले चावल’’ का नाम भी नहीं सुना था। आजकल तो ‘‘ब्राउन राईस’’ के नाम से मंहगी दरों में बिकता है और फिटनेस के लिए ‘‘लो कैलोरी राईस’’ के नाम से जाना जाता है। बहरहाल, उस समय मुझे यह समझ में आया कि पाकिस्तान हमारे देश से लड़ रहा है जिससे बंगालियों को अपना घर छोड़ कर हमारे देश में आना पड़ा है और जिससे मुझे विचित्र स्वाद वालें ‘‘उबले चावल’’ खाने पड़ रहे हैं।


इस घटना के कुछ समय बाद भारत-पाकिस्तान युद्ध से जुड़ी एक और बात हुई जिसने मेरे मानस पर गहरा प्रभाव डाला। उन दिनों पन्ना की इकलौती टाॅकीज़ - कुमकुम टाॅकीज़ में एक फिल्म लगी जिसका नाम था ‘‘जय बांग्लादेश’’। मां ने हम दोनों बहनों को वह फिल्म दिखाई क्यों कि वह भारत-पाकिस्तान युद्ध पर आधारित थी।


‘‘जय बांग्लादेश’’ फिल्म उस समय के मशहूर काॅमेडीयन अभिनेता आई. एस. जौहर ने बनाई थी। आई. एस. जौहर आजकल के फिल्म निर्माता करण जौहर के चाचा और प्रसिद्ध फिल्म निर्माता यश जौहर के बड़े भाई थे। इस फिल्म में पूर्वी बंगाल के लोगों पर पाकिस्तानी सेना द्वारा की गई ज्यादतियों को देख कर उस बालपन में भी मेरा खून खौल गया था। मुझे याद है कि मैंने घर लौटते ही घोषणा कर दी थी कि मैं भी सेना में भर्ती होऊंगी और पाकिस्तानी सेना की छुट्टी कर दूंगी। बालपन की मेरी यह घोषणा पूरी तो नहीं हुई लेकिन युद्ध की विभीषिका को ले कर मेरे मन में कड़वाहट हमेशा के लिए छप कर रह गई। आज भी सियासी स्वार्थों के लिए छिड़ने वाले युद्धों से मुझे घृणा होती है।


16 दिसम्बर सन् 1971 को भारत-पाकिस्तान युद्ध में भारत की शानदार विजय हुई और बांग्लादेश का जन्म हुआ। उस दिन हम सबने भी खुशी मनाई थी। चूंकि स्कूल में मिठाई बांटी गई थी इसलिए भी मुझे वह खुशी अच्छी तरह याद है। वह दिन ‘‘विजय दिवस’’ कहलाया। आज भी हम हर वर्ष 16 दिसम्बर को ‘‘विजय दिवस’’ मनाते हैं। यह 16 दिसम्बर 1971 का दिन युद्ध में पाकिस्तान पर भारत की जीत के उपलक्ष्य में ‘‘विजय दिवस’’ के रूप में मनाया जाता है। इस युद्ध के अंत के बाद 93,000 पाकिस्तानी सेना ने आत्मसमर्पण कर दिया था। साल 1971 के युद्ध में भारत ने पाकिस्तान को करारी पराजय दी, जिसके बाद पूर्वी पाकिस्तान आजाद हो गया, जो आज बांग्लादेश के नाम से जाना जाता है।


भारत-पाकिस्तान के इस युद्ध की नौबत क्यों आई? यह जानने के लिए मैंने इतिहास के पन्ने पलटे हैं जिन्हें संक्षेप में आपसे साझा कर रही हूं। इस युद्ध की पृष्ठभूमि वर्ष 1970 में ही बनने लगी थी। पाकिस्तान में 1970 के दौरान चुनाव हुए, जिसमें पूर्वी पाकिस्तान में आवामी लीग ने बड़ी संख्या में सीटें जीती और सरकार बनाने का दावा किया। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के नेता जुल्फिकार अली भुट्टो इस बात से सहमत नहीं थे, इसलिए उन्होंने विरोध करना शुरू कर दिया था। उस समय हालात इतने खराब हो गए थे कि सेना का प्रयोग करना पड़ा। अवामी लीग के नेता शेख मुजीबुर रहमान जो कि पूर्वी पाकिस्तान के थे, उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। यहीं से पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान के बीच विवाद शुरू हो गया। धीरे-धीरे विवाद इतना बढ़ गया कि पूर्वी पाकिस्तान के लोगों ने पश्चिमी पाकिस्तान से पलायन करना शुरू कर दिया था। ये लोग पाकिस्तानी सेना (जो उस समय उनके देश की ही सेना थी) के अत्याचार के शिकार हो रहे थे। भारत में उस समय इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं। पूर्वी पाकिस्तान से शरणार्थी भारत में आ गए थे और उन्हें भारत में सुविधाएं दी जा रही थीं क्योंकि वे भारत के पड़ोसी देश से आए थे। इन सबको देखते हुए पाकिस्तान ने भारत पर हमले करने की धमकियां देना शुरू कर दिया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कोशिशें की, ताकि युद्ध न हो और कोई हल निकल जाए तथा शरणार्थी सही सलामत घर को लौट जाएं परन्तु ऐसा हो न सका।


पाकिस्तान के सैनिक तानाशाह याहिया खां ने 25 मार्च 1971 को पूर्वी पाकिस्तान की जन भावनाओं को सैनिक ताकत से कुचलने का आदेश दे दिया। इसके बाद शेख मुजीब को गिरफ्तार कर लिया गया। इसके बाद जनता पर दमनचक्र में तेजी आ गई और पूर्वी पाकिस्तान से कई शरणार्थी लगातार भारत आने लगे थे। अब भारत पर यह दबाव पड़ने लगा कि वह सेना के जरिए हस्तक्षेप करे। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने थलसेनाध्यक्ष जनरल मानेकशॉ की राय ली। मानेकशॉ ने इंदिरा गांधी से स्पष्ट कह दिया कि वे पूरी तैयारी के साथ ही युद्ध के मैदान में उतरना चाहते हैं। उस वक्त भारत के पास सिर्फ एक पर्वतीय डिवीजन था और इस डिवीजन के पास पुल बनाने की क्षमता नहीं थी। तब मानसून की शुरुआत होनी थी और ऐसे समय में पूर्वी पाकिस्तान में प्रवेश करना मुसीबत बन सकता था। इसके बाद 3 दिसंबर, 1971 को इंदिरा गांधी द्वारा कलकत्ता में एक जनसभा को संबोधित करने के दौरान पाकिस्तानी वायुसेना के विमानों ने भारतीय वायुसीमा को पार कर पठानकोट, श्रीनगर, अमृतसर, जोधपुर, आगरा आदि सैनिक हवाई अड्डों पर बम गिराने शुरु कर दिए। इंदिरा गांधी ने उसी समय दिल्ली लौटकर मंत्रिमंडल की आपात बैठक की। युद्ध की घोषणा कर दी गई। पूर्व में तेजी से आगे बढ़ते हुए भारतीय सेना ने जेसोर और खुलना पर कब्जा किया। भारतीय सेना की रणनीति थी कि अहम ठिकानों को छोड़ते हुए पहले आगे बढ़ा जाए। 


14 दिसंबर को भारतीय सेना को एक गुप्त संदेश मिला कि ढाका के गवर्नमेंट हाउस में एक महत्वपूर्ण बैठक होने वाली है, जिसमें पाकिस्तानी प्रशासन के बड़े अधिकारी भाग लेने वाले हैं। भारतीय सेना ने तय किया और बैठक के दौरान ही मिग 21 विमानों ने भवन पर बम गिरा कर मुख्य हॉल की छत उड़ा दी। गवर्नर मलिक ने लगभग कांपते हाथों से अपना इस्तीफा लिखा। 16 दिसंबर की सुबह जनरल जैकब को मानेकशॉ का संदेश मिला कि आत्मसमर्पण की तैयारी के लिए तुरंत ढाका पहुंचें। पाकिस्तानी लेफ्टिनेंट जनरल अमीर अब्दुल्ला खां नियाजी के पास ढाका में 26400 सैनिक थे, जबकि भारत के पास सिर्फ 3000 सैनिक और वे भी ढाका से 30 किलोमीटर दूर। जैकब जब नियाजी के कमरे में घुसे तो वहां सन्नाटा छाया हुआ था। आत्म-समर्पण का दस्तावेज मेज पर रखा हुआ था। पूर्वी सैन्य कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा वहां पहुंचने वाले थे। शाम के साढ़े चार बजे जनरल अरोड़ा हेलिकॉप्टर से ढाका हवाई अड्डे पर उतरे। पूर्वी सैन्य कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा और नियाजी एक मेज के सामने बैठे और दोनों ने आत्म-समर्पण के दस्तवेज पर हस्ताक्षर किए। नियाजी ने अपने बिल्ले उतारे और अपना रिवॉल्वर जनरल अरोड़ा के हवाले कर दिया। इस युद्ध में 93,000 पाकिस्तानी सैनिकों को युद्धबंदी बनाया गया।


16 दिसंबर 1971 को जनरल मानेक शॉ ने इंदिरा गांधी को पाकिस्तानी सेना पर भारत की शानदार विजय का समाचार दिया। देश में हर्ष की लहर दौड़ गई। इसी के साथ बांग्लादेश का स्वतंत्र देश के रूप में जन्म हुआ।


इस युद्ध में देश को विजय दिलाने वाली भारतीय सेना के वीरों में थे मेजर होशियार सिंह। उन्हें परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। मेजर होशियार सिंह ने 3 ग्रेनेडियर्स की अगुवाई करते हुए अपना अद्भुत युद्ध कौशल और पराक्रम दिखाया था। उनके आगे दुश्मन की एक न चली और उसे पराजय का मुंह देखना पड़ा। उन्होंने जम्मू कश्मीर की दूसरी ओर शकरगढ़़ के पसारी क्षेत्र में जरवाल का मोर्चा फतह किया था। अलबर्ट एक्का को मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। उन्होंने वीरता से युद्ध लड़ा और वीरगति पाई। निर्मलजीत सिंह सेखों को भी मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। फ्लाइंग ऑफिसर निर्मलजीत सिंह सेखों श्रीनगर में पाकिस्तान के खिलाफ एयरफोर्स बैस में तैनात थे, जहां इन्होंने अपना साहस और पराक्रम दिखाया था। 21 वर्षीय लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल सबसे कम उम्र में मरणोपरांत परमवीर चक्र पाने वाले वीर थे। चेवांग रिनचैन को महावीर चक्र से सम्मानित किया गया था। 1971 के भारत-पाक युद्ध में लद्दाख में तैनात चेवांग रिनचैन ने अपनी वीरता और साहस का पराक्रम दिखाते हुए पाकिस्तान के चालुंका कॉम्पलैक्स को अपने कब्जे में लिया था। महेन्द्र नाथ मुल्ला भारतीय नेवी में तैनात थे। इन्होंने अपने साहस का परिचय देते हुए कई दुश्मन लडाकू जहाज और सबमरीन को नष्ट कर दिया था। महेन्द्र नाथ मुल्ला को मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया। 


16 दिसंबर भारतीय इतिहास के पन्नों में स्वर्णिम अक्षरों से लिखा वह दिन है, जो पाकिस्तान पर भारत की ऐतिहासिक विजय की याद दिलाता है। 16 दिसंबर 1971, यही वह तारीख थी, जब भारत ने युद्ध में पाकिस्तान को पराजय का स्वाद चखाया था।

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(दैनिक सागर दिनकर में 16.12.2020 को प्रकाशित)
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Sunday, December 13, 2020

डॉ. शरद सिंह 'जागरण सखी' दिसंबर 2020 में

प्रिय मित्रो,  ‘‘जागरण सखी’’ दिसम्बर 2020 की कव्हर स्टोरी में पढ़िए मेरे यानी आपकी इस मित्र डॉ. शरद सिंह के विचार।   मैं अत्यंत आभारी हूं ‘जागरण सखी’ और विनीता जी की। 
 इस कव्हर स्टोरी में मेरे साथ शामिल हैं देश के अन्य सेलिब्रिटीज़ - बॉबी देओल (अभिनेता), पुलकित सम्राट  (अभिनेता), सौरभ शुक्ला (अभिनेता), सतीश कौशिक (अभिनेता), अभिमन्यु दसानी (अभिनेता), अपरा मेहता (अभिनेत्री), डॉ. वारिजा (गायनेकोलॉजिस्ट), गीता चंद्रन (भरतनाट्यम नृत्यांगना)।

Dear Friends, Please read my views in "Jagran Sakhi" Dec.2020 .Hearty Gratitude to 'Jagran Sakhi' and Vinita ji.
In this Cover Story with me (Dr Sharad Singh) - Bobby Deol (Actor), Pulkit Samrat (Actor), Saurabh Shukla (Actor),  Satish Kaushik (Actor), Abhimanyu Dasani (Actor), Apara Mehta (Actress), Dr. Varija (Gynecologist) and Geeta Chandran ( Bharatnatyam Dancer).


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Friday, December 11, 2020

लेख | आंचलिक पत्रकारिता, महिलाएं और हैशटैग मी टू | डॉ शरद सिंह | अक्षरालोक के पत्रकारिता विशेषांक में प्रकाशित

मेरा लेख "आंचलिक पत्रकारिता, महिलाएं और हैशटैग मी टू" शामिल है फर्रुखाबाद (उप्र) की साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था अभिव्यंजना द्वारा प्रकाशित अक्षरालोक पत्रिका का "हिंदी पत्रकारिता विशेषांक" में ...  जिसके लिए पत्रिका के प्रधान संपादक भाई भूपेन्द्र प्रताप सिंह का हार्दिक आभार 🙏🌹🙏

बहुत महत्वपूर्ण कलेवर और सुंदर मुद्रण ने इस विशेषांक को पठनीय और संग्रहणीय बना दिया है। अभिव्यंजना परिवार को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं 🙏💐🙏

यह पूरा लेख आप पढ़ सकते हैं मेरे इसी ब्लॉग "शरदाक्षरा" पर - http://sharadakshara.blogspot.com/2020/12/blog-post_6.html?m=1


Wednesday, December 9, 2020

चर्चा प्लस | किसान आंदोलन से गर्माता जाड़े का मौसम | डाॅ शरद सिंह

चर्चा प्लस
किसान आंदोलन से गर्माता जाड़े का मौसम 
- डाॅ शरद सिंह
दिल्ली के इर्द-गिर्द जमा हजारों किसानों में औरतें, बच्चे और बुजुर्ग भी हैं। ये आंदोलनकारियों के साथ हैं। लेखक, खिलाड़ी, कलाकारों के साथ ही पूर्व सैनिक भी किसानों के समर्थन में आ खड़े हुए हैं और केन्द्र सरकार से मिले अपने-अपने सम्मान तथा सुविधाएं लौटाने की घोषणा कर चुके हैं। ‘भारत बंद’ की घोषणा को भी समर्थन मिला। ऐसे में सरकार का हरसंभव प्रयास यही है कि मामला जल्दी से जल्दी शांत हो जाए। मुद्दा है कृषि कानून 2020 जिसने कड़ाके की ठंड को भी गर्मा दिया है।
किसान आंदोलन का ऐसा तेवर स्वतंत्र भारत में शायद ही किसी ने देखा हो जैसा कि न दिनों देखने को मिला है। जब इस आंदोलन की शुरुआत हुई थी तो किसी ने नहीं सोचा होगा कि मामला ‘‘आर या पार’’ तक जा पहुंचेगा। देश में इससे पूर्व कई छोटे-बड़े किसान आंदोलन हुए जिनमें से कई में तो सरकार ने आंदोलनकारियों से मिलने से भी मना कर दिया था। तमिलनाडु के आंदोलनकारी किसानों को भी इसी तरह के नकारात्मक अनुभव का सामना करना पड़ा था। लेकिन इस बार एक राज्य के किसानों के साथ दूसरे राज्यों के किसान दल भी आ कर मिलते गए। राजनीतिक विपक्षी दलों ने भी किसानों के समर्थन में शंखनाद कर दिया। फिर भी सरकार बिल वापस लेने को तैयार नहीं हुई। आंदोलनकारी कृषक भी पीछे हटने को तैयार नहीं। सरकार और आंदोलनकारियों के बीच लगातार असफल चर्चाओं के बाद  12वें दिन 7 दिसम्बर 2020 को किसानों के समर्थन में पंजाब के 30 एथलीट्स अवॉर्ड लौटाने राष्ट्रपति भवन की ओर बढ़े, भले ही पुलिस ने उन्हें रास्ते में ही रोक दिया। किसानों के 8 दिसंबर 2020 को भारत बंद का ऐलान किया जिसके समर्थन में कांग्रेस समेत 20 सियासी दल और 10 ट्रेड यूनियंस आ खड़े हुए। इस आंदोलन की विशेष बात यह है कि इस आंदोलन का स्वरूप सुसंगठित और सुव्यवस्थित है। आंदोलनकारियों के लिए खाने, ओढ़ने-बिछाने, मेडिकल सुविधाओं से ले कर मोबाईल चार्जिंग की सोलर सिस्टम सुविधा भी उपलब्ध है। साथ आए उनके बच्चे मोबाईल के जरिए अपनी आॅनलाईन पढ़ाई भी जारी रखे हुए हैं। साझे चूल्हे आंदोलन को भी साझापन दे रहे हैं।    

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस नए कृषि कानून को ‘‘आजादी के बाद किसानों को किसानी में एक नई आजादी’’ देने वाला कानून कहते हैं। वे सरकार की स्थिति स्पष्ट करते हुए कह चुके हैं कि विपक्षी दल इन कानूनों को लेकर दुष्प्रचार कर रहे है क्योंकि किसानों को एमएसपी का फायदा नहीं मिलने की बात गलत है। बिहार चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था, ‘‘जो लोग दशकों तक देश में शासन करते रहें हैं, सत्ता में रहे हैं, देश पर राज किया है, वो लोग किसानों को भ्रमित कर रहे हैं, किसानों से झूठ बोल रह हैं।’’ मोदी ने कहा था कि विधेयक में वही चीजें हैं जो देश में दशकों तक राज करने वालों ने अपने घोषणापत्र में लिखी थीं। मोदी ने कहा कि यहां ‘‘विरोध करने के लिए विरोध’’ हो रहा है। लेकिन मोदी सरकार को उस समय झटका लगा था जब केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर बादल ने अपने पद से इस्तीफा देते हुए ट्वीट किया था कि ‘‘मैंने केंद्रीय मंत्री पद से किसान विरोधी अध्यादेशों और बिल के खिलाफ इस्तीफा दे दिया है। किसानों की बेटी और बहन के रूप में उनके साथ खड़े होने पर गर्व है।’’

आंदोलनकारी किसान संगठनों का आरोप है कि नए कानून की वजह से कृषि क्षेत्र भी पूंजीपतियों या कॉरपोरेट घरानों के हाथों में चला जाएगा और इसका नुकसान किसानों को होगा। मामला बहुत पेंचीदा है। जो सीधे कृषिकार्यों स जुड़े हैं उनके लिए इस नए कृषि कानून को समझना आसान है लेकिन आम आदमी के लिए ज़रा कठिन है। यदि सरल शब्दों में कहा जाए तो सरकार अपने इस कानून को ले कर भविष्य के प्रति अत्यंत आश्वस्त है जबकि आंदोलनकारी किसान इस कानून से पैदा होने वाली भावी परेशानियों को ले कर आंदोलन की राह पर हैं।

क्या है यह नया कृषि कानून और इससे कृषक उत्तेजित क्यो हो उठे इसे समझने के लिए दोनों पक्षों के कुछ बिन्दुओं को समझना होगा। कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक, 2020 कानून में एक ऐसा इकोसिस्टम बनाने का प्रावधान है जहां किसानों और व्यापारियों को राज्य की एपीएमसी (एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केट कमिटी) की रजिस्टर्ड मंडियों से बाहर फसल बेचने की आजादी होगी। इसमें किसानों की फसल को एक राज्य से दूसरे राज्य में बिना किसी रोक-टोक के बेचने को बढ़ावा दिया गया है। बिल में मार्केटिंग और ट्रांस्पोर्टेशन पर खर्च कम करने की बात कही गई है ताकि किसानों को अच्छा दाम मिल सके। इसमें इलेक्ट्रोनिक व्यापार के लिए एक सुविधाजनक ढांचा मुहैया कराने की भी बात कही गई है।

इस संबंध में आंदोलनकारियों सशंकित हैं कि कानून लागू होने के बाद धीरे-धीरे एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) के जरिए फसल खरीद बंद कर दी जाएगी। मंडियों में व्यापार बंद होने के बाद मंडी ढांचे के तरह बनी ई-नेम जैसी इलेक्ट्रोनिक व्यापार प्रणाली का औचित्य ही नहीं रह जाएगा।

कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार विधेयक, 2020 कानून  में कृषि करारों (कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग) को उल्लिखित किया गया है। इसमें कॉन्ट्रैक्ट फार्मिग के लिए एक राष्ट्रीय फ्रेमवर्क बनाने का प्रावधान किया गया है। इस कानून के तहत किसान कृषि व्यापार करने वाली फर्मों, प्रोसेसर्स, थोक व्यापारी, निर्यातकों या बड़े खुदरा विक्रेताओं के साथ कॉन्ट्रैक्ट करके पहले से तय एक दाम पर भविष्य में अपनी फसल बेच सकते हैं। पांच हेक्टेयर से कम जमीन वाले छोटे किसान कॉन्ट्रैक्ट से लाभ कमा पाएंगे। बाजार की अनिश्चितता के खतरे को किसान की जगह कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग करवाने वाले प्रायोजकों पर डाला गया है। अनुबंधित किसानों को गुणवत्ता वाले बीज की आपूर्ति सुनिश्चित करना, तकनीकी सहायता और फसल स्वास्थ्य की निगरानी, ऋण की सुविधा और फसल बीमा की सुविधा उपलब्ध कराई जाएगी। इसके तहत किसान मध्यस्थ को दरकिनार कर पूरे दाम के लिए सीधे बाजार में जा सकता है। किसी विवाद की सूरत में एक तय समय में एक तंत्र को स्थापित करने की भी बात कही गई है।

इस संबंध में आंदोलनकारियों का कहना है कि कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के दौरान किसान प्रायोजक से खरीद-फरोख्त पर चर्चा करने के मामले में कमजोर होगा। छोटे किसानों की भीड़ होने से शायद प्रायोजक उनसे सौदा करना पसंद न करे। किसी विवाद की स्थिति में एक बड़ी निजी कंपनी, निर्यातक, थोक व्यापारी या प्रोसेसर जो प्रायोजक होगा उसे बढ़त होगी।
आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक 2020 के अंतर्गत अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेल, प्याज और आलू को आवश्यक वस्तुओं की सूची से हटाने का प्रावधान है। इसका अर्थ यह हुआ कि सिर्फ युद्ध जैसी ‘‘असाधारण परिस्थितियों’’ को छोड़कर अब जितना चाहे इनका भंडारण किया जा सकता है। इस कानून से निजी सेक्टर का कृषि क्षेत्र पर हस्तक्षेप बढ़ेगा। कृषि इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश बढ़ेगा, कोल्ड स्टोरेज और फूड स्प्लाई चेन का आधुनिकीकरण होगा। यह किसी सामान के मूल्य की स्थिरता लाने में किसानों और उपभोक्ताओं दोनों को मदद करेगा। प्रतिस्पर्धी बाजार का वातावरण बनेगा और किसी फसल के नुकसान में कमी आएगी।

आंदोलनकारी मानते हैं कि ‘‘असाधारण परिस्थितियों’’ में कीमतों में तेजी से बढ़त होगी जिसे बाद में नियंत्रित करना मुश्किल होगा। बड़ी कंपनियों को किसी फसल को अधिक भंडार करने की क्षमता होगी। इसका अर्थ यह हुआ कि फिर वे कंपनियां किसानों को दाम तय करने पर मजबूर करेंगी।

हज़ारों को किसानों का औरतों, बच्चों और बुजुर्गों सहित आंदोलन के लिए जुटना इस बात का संकेत है कि वे इस नए कानून को ने कर समझौते के मूड में नहीं हैं और भावुकता की सीमा तक अपने आंदोलन से जुड़े हुए हैं। उस पर किसानों के समर्थन में लेखकों, खिलाड़ियों, कलाकारों और पूर्व सैनिकों का आगे आना स्थिति का गंभीरता को जता रहा है। यह अच्छा है कि सरकार चर्चा के लिए तत्पर है। देश में शांति, स्थिरता और विकास के लिए अन्नदाता किसानों का शंकामुक्त और भयमुक्त होना आवश्यक है। शांति के वातावरण में कठिन से कठिन मसले हल किए जा सकते हैं। बहरहाल, किसान आंदोलन से यह जाड़े का मौसम गर्मा रहा है।

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(दैनिक सागर दिनकर में 09.12.2020 को प्रकाशित)
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