Thursday, August 27, 2020

साहस नहीं ये तो है दुस्साहस | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | दैनिक जागरण में प्रकाशित

दैनिक जागरण में प्रकाशित मेरा विशेष लेख "साहस नहीं ये तो है दुस्साहस" 🚩
❗हार्दिक आभार "दैनिक #जागरण"🙏
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साहस नहीं ये तो है दुस्साहस 
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
        प्रकृति के सौंदर्य को निहारना भला सभी को अच्छा लगता है। हर कोई भरी हुई नदियों, तालाबों और झर-झर झरते प्रपातों को देखना चाहता है। सागर संभाग में ऐसे अनेक स्थल हैं जो बारिश के दिनों में अपनी छटाएं बिखेरने लगते हैं और पर्यटकों तथा प्रकृतिप्रेमियों को अपने पास बुलाने लगते हैं। सागर के राहतगढ़ वाटर फॉल, राजघाट बांध, पन्ना के बृहस्पति कुण्ड, पांडव फॉल आदि अनेक नाम गिनाए जा सकते हैं जहां प्रति वर्ष बारिश के मौसम में सैंकड़ों लोगों का हुजूम उमड़ पड़ता है। इस वर्ष भी ये प्राकृतिक स्थल सौंदर्य से लबालब भर गए क्योंकि प्रकृति को क्या पता कि इस वर्ष उसे देखने आने वालों के लिए जोखिम ही जोखिम है। लेकिन जिन्हें इस जोखिम का पता है वे कथित साहस का परिचय देते हुए ऐसे पर्यटन स्थलों पर जा धमके। अभी हाल ही की घटना है जब सागर के राजघाट बांध और राहतगढ़ वाटर फॉल पर दर्शनार्थियों का हुजूम उमड़ पड़ा। प्रकृति का आनंद लेने पहुंचे लोगों ने न तो सोशल डिस्टेंसिंग का ध्यान रखा और न ही कोविड-19 गाईड लाईन का। मेरे एक परिचित भी उसी भीड़ में सपरिवार शामिल थे। फोन पर उन्हें मैंने उनके इस कृत्य पर उलाहना दिया तो वे बड़े आत्मविश्वास से बोले-‘‘अरे, कुछ नहीं होता। फिर हम अपनी गाड़ी से गए थे। वहां सभी ठीक-ठाक दिखाई दे रहे थे। आप चिंता मत करिए। हम सब ठीक रहेंगे।’’ मैंने भी दुआ की उनके लिए  कि उनके साथ सब ठीक ही रहे। क्योंकि उनका बेटा जो अभी अट्ठारह साल का भी नहीं हुआ है, इन्दौर में कोचिंग ले रहा था। लेकिन कोरोना संक्रमण के इस दौर में उसे अपनी कोचिंग छोड़ कर बीच में ही घर वापस आना पड़ा। उनकी बेटी अभी कक्षा दस में पढ़ रही थी। बोर्ड परीक्षा के लिए उसने बहुत मेहनत की थी लेकिन कोरोना के चलते पढ़ाई का सिलसिला गड़बड़ा गया। उसने साहस कर के परीक्षा तो दी लेकिन रिजल्ट उसके मन मुताबिक नहीं रहा। फिर भी वे दोनों बच्चे अपने भविष्य को ले कर सचेत हैं और ऑनलाईन पढ़ाई ज़ारी रखे हुए हैं। लेकिन माता-पिता अपने और अपने बच्चों के स्वास्थ्य को ले कर कितने सजग हैं यह तो उनके राजघाट भ्रमण से ही पता चल गया। मैं इसे उनका साहस नहीं बल्कि दुस्साहस कहूंगी जो उन्होंने इतना बड़ा रिस्क लिया। यदि वे सोशल डिस्टेंसिंग और कोविड-19 गाईड लाईन का ध्यान नहीं रख सकते थे तो उन्हें ऐसे स्थान पर जाना ही नहीं था या फिर भीड़ देख कर गाड़ी से उतरे बिना उसी समय वापस लौट आना था। यह संक्रमण ऐसा नहीं है जिसके लक्षण तुरंत दिखने लगें। फिर जानते-बूझते स्वयं को, अपने परिवार को मुसीबत में क्यों डालना? इससे उन लोगों के लिए भी खतरा बढ़ जाता है जो संपर्क में आते हैं। सभी जानते हैं कि जब तक संक्रमण का पता चलता है तब तक यह संक्रमण दो-चार लोगों को अपनी चपेट में ले चुका होता है।
मध्यप्रदेश में अब तक कुल 9 लाख 51 लाख 822 लोगों के टेस्ट हो चुके हैं। जिसमें से करीब 42 हजार मरीज कोरोना पॉजिटिव हुए हैं। अकेले सागर शहर में ही कोरोना मरीजों की निरंतर बढ़ती संख्या एक वार्निंग की तरह है जिसे लोग अनदेखा कर के स्वयं को मुसीबत की ओर धकेल रहे हैं। सागर शहर में जहां 10 अप्रैल को एक मरीज था वहां अब आंकड़ा रिकार्ड तोड़ता जा रहा है। बायरोलॉजी लैबों से प्राप्त रिपोर्ट के अनुसार 25 अगस्त 2020 को सागर में कोरोना का विस्फोट हुआ। एक साथ 34 लोगों की रिपोर्ट कोरोना पॉजिटिव मिली। इस पर स्वास्थ्य विभाग का चिंतित होना स्वाभाविक है। बुंदेलखंड चिकित्सा महाविद्यालय में कोविड-19 महामारी के कारण हो रही मौतों की संख्या को कम करने तथा संक्रमण की रोकथाम के लिए संभाग कमिश्नर जेके जैन ने भी स्वास्थ्य एवं प्रशासनिक अमलों तथा समाजसेवी संस्थाओं के प्रतिनिधियों की एक बैठक ली। कमिशनर जैन ने बताया कि, कोविड-19 संक्रमण के संबंध में पॉजिटिव प्रकरणों का ’’अर्ली आइडेंटिफिकेशन’’ अर्थात प्रारंभिक अवस्था में ही संक्रमण का पता कर इलाज प्रारंभ करना बहुत महत्वपूर्ण है। उन्होंने बताया कि कोविड संक्रमण की रोकथाम एवं बचाव हेतु आइडेंटिफिकेशन, आइसोलेशन, टेस्टिंग तथा ट्रीटमेंट की प्रक्रिया अपनायी जा रही है। ऐसे प्रकरण जो संक्रमण की प्रारंभिक अवस्था में ही सामने आ जाते हैं उनका इलाज सही वक्त पर शुरू हो जाता है। जिससे व्यक्ति जल्द स्वस्थ होकर घर लौट पाता है। परंतु ऐसे प्रकरण जिनमें व्यक्ति गंभीर रूप से संक्रमित होने के बाद अस्पताल पहुंचता है, उसके बचने की संभावना कम होती है। शहर में दर्ज हो रही मृत्यु का सबसे बड़ा कारण ’’लेट प्रेजेंटेशन’’ है। लेट प्रेजेंटेशन से तात्पर्य व्यक्ति के गंभीर रूप से संक्रमित होने के बाद अस्पताल पहुंचना है। ऐसी स्थिति में संक्रमण बहुत अधिक बढ़ जाता है। उन्होंने जन सामान्य से अपील की कि, कोविड-19 के लक्षण दिखने पर तत्काल रूप से चिकित्सकीय परामर्श लिया जाए। कमिश्नर ने कोविड-19 की गाईड लाईन भी याद दिलाई कि कोविड संक्रमण से बचाव हेतु फेस कवरिंग अर्थात नाक एवं मुंह को ढकना अति-आवश्यक है। इसके लिए ना केवल मास्क बल्कि कोई अन्य कपड़ा जैसे गमछा, दुपट्टा आदि के द्वारा भी चेहरे का ढंका जा सकता है। वायरस से बचाव हेतु आवश्यक है कि, कपडे़ को थ्री-फोल्ड करके पहना जाए। संभागायुक्त ने सभी को संबोधित करते हुए इस आपदा के समय देशहित में सभी से सहयोग मांगा। उन्होंने बताया कि कोविड-19 संक्रमण को फैलने से रोकने हेतु जन भागीदारी भी अत्याधिक आवश्यक है। सभी के समन्वित प्रयासों से संक्रमण को फैलने से रोका जा सकेगा साथ ही इससे होने वाली मृत्युदर को भी कम किया जा सकेगा। उन्होंने शहर के बुद्धिजीवी, गणमान्य नागरिकों से अपील की कि, आज शहर को उनकी जरूरत है। वे अपने-अपने क्षेत्र में लोगों को कोरोना के संबंध में सजग एवं जागरूक बनाएं। जिससे ना केवल सही वक्त पर मरीज अस्पताल पहुंच सके बल्कि सावधानियां रखकर इस संक्रमण से बच भी सके। इस मुहिम में भागीदारी तथा जन जागरूकता हेतु शहर की मुहल्ला समितियों को शामिल करना भी तय किया गया।

एक कहावत है कि जगाया उसे जा सकता है जो सो रहा हो। जो जाग रहा हो और जानबूझ कर सोने का ढोंग कर रहा हो, उसे जगाया नहीं जा सकता है। यही हाल उन दुस्साहसियों का है जो अपने कथित प्रकृतिप्रेम और पर्यटन के नाम पर खुद की और अपने परिवारजन की जान से खिलवाड़ कर रहे हैं। ऐसे लोगों को सोचना चाहिए कि कोविड कोरोना संक्रमण की संख्या जितनी तेजी से घटेगी, उतनी तेजी से हमें इस भयावह स्थिति से छुटकारा मिलेगा। जब संक्रमण फैलेगा नहीं तो वायरस बढ़ेगा कैसे? और जब वायरस बढ़ेगा नहीं तो इससे छुटकारा भी मिल ही जाएगा। राजघाट बांध में नियमों को ताक में रख कर उमड़ी भीड़ जल्दी वहां से नहीं टलती यदि किसी ने उनका वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल नहीं किया होता। उस वीडियो को देख कर प्रशासन हरकत में आया और वहां पहुंच कर लोगों को समझाईश दी। 

बेशक पर्यटन और घूमने-फिरने में बुराई नहीं है लेकिन यदि कोरोना गाईड लाईन का ध्यान नहीं रखा जाए तो फिर इसमें जानलेवा बुराई है। प्रशासन सिर्फ़ समझा सकता है, दण्डित कर सकता है लेकिन जब बात जानलेवा संक्रमण की हो तो स्वविवेक से काम लेना भी जरूरी है। ऐसे मामले में किसी भी प्रकार का दुस्साहस सभी के लिए भारी पड़ सकता है। वो कहते हैं न कि सतर्क रहें, सुरक्षित रहें।  
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(दैनिक जागरण में 27.08.2020 को प्रकाशित)
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Wednesday, August 26, 2020

चर्चा प्लस | अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम ट्रोलिंग ट्रेंड | डॉ शरद सिंह

चर्चा प्लस ...  अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम ट्रोलिंग ट्रेंड              
- डॉ शरद सिंह
        अधिवक्ता प्रशांत भूषण के ट्वीट बनाम अदालत की अवमानना केस ने इन दिनों अभिव्यक्ति की आजादी को ले कर एक बहस छेड़ दी है। वहीं इंटरनेट पर ट्रोलिंग एक ऐसा ट्रेंड बन चुका है जिसका शिकार कई सेलिब्रेटी हो चुके है। हमारे लोकतंत्र ने हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी है जो हमारी सबसे बड़ी शक्ति है। हम अपनी बात रखने के लिए स्वतंत्र है। इंटरनेट और सोशल मीडिया ने वह प्लेटफॉर्म दिया जहां लोग अपने विचार रख सकते हैं लेकिन आजकल लोग इसे हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। इसी स्वतंत्रता के नाम पर महिलाओं के बारे में अभद्र टिप्पणी करना, लोगों को गालियां देना, उन पर फिकरे कसना, उन का माखौल उड़ाना, ये सब आम हो गया है।

इन दिनों अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर सबसे ताज़ा चर्चा अधिवक्ता प्रशांत भूषण के ट्वीट बनाम अदालत की अवमानना की है। प्रशांत भूषण के ट्वीट को अदालत की अवमानना मान कर उन्हें क्षमा मांगने को कहा गया। क्षमा नहीं मांगने पर सज़ा दिए जाने की बात से भी आगाह किया गया। वहीं प्रशांत भूषण ने अपनी स्टेटमेंट में माफी मांगने से इनकार कर दिया। प्रशांत भूषण ने कहा कि वह अदालत का बहुत सम्मान करते हैं लेकिन माफी मांगना उनकी अंतरात्मा की अवमानना होगी। 20 अगस्त को हुई सुनवाई के दौरान प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट में महात्मा गांधी के बयान का हवाला देते हुए कहा कि न मुझे दया चाहिए, न मैं इसकी मांग कर रहा हूं। मैं कोई उदारता भी नहीं चाह रहा हूं, कोर्ट जो भी सजा देगी मैं उसे सहर्ष लेने को तैयार हूं। प्रशांत भूषण के इस प्रकरण के साथ ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बहस छिड़ गई है।

किसी सूचना या विचार को बोलकर, लिखकर या किसी अन्य रूप में बिना किसी रोकटोक के अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहलाती है। अतः अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की हमेशा कुछ न कुछ सीमा अवश्य होती है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (1) के तहत सभी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी गयी है। वहीं, भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 संविधान के मौलिक अधिकार का एक हिस्सा है, जिसमे यह कहा गया है कि भारत में कानून द्वारा स्थापित किसी भी प्रक्रिया के आलावा कोई भी व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को उसके जीवित रहने के अधिकार और निजी स्वतंत्रता से वंचित नहीं कर सकता है। इसके तहत सीधे सुप्रीम कोर्ट में अपील करने का अधिकार होता है।

प्रश्न उठता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आज के समय में क्या कोई सीमा सुनिश्चित की जा सकती है जब सोशल मीडिया ने अभिव्यक्ति का एक विस्तृत प्लेटफॉर्म दे रखा है। इस प्लेटफॉर्म के अच्छे और बूरे पहलू दोनों हैं। अच्छा पहलू यह है लिए इसने अनेक बार लोगों का जीवन बचाने और न्याय दिलाने में महती भूमिका निभाई है। किसी बच्चे के गुम हो जाने अथवा किसी गुमें हुए बच्चे के परिवार का पता लगाने में व्हाट्सएप्प जैसे माध्यमों ने सकारात्मक परिणाम दिए हैं। इसी तरह यदि किसी घायल या बीमार को रक्त की ज़रूरत हो तो सोशल मीडिया पर संदेश वायरल होते ही जल्दी से जल्दी रक्त उपलब्ध हुआ है। लेकिन सोशल मीडिया का दूसरा पहलू जो कभी-कभी एक पागलपन में ढलता दिखाई देता है, वह चिंताजनक है। यह पहलू है किसी व्यक्ति या मुद्दे को ट्रोल किए जाने का। जब बात किसी व्यक्ति की हो तो स्थिति मानहानि से भी बदतर होने लगती है। छद्मनामी ट्रोलर बेलगाम तरीके से किसी भी नामी व्यक्ति को ट्रोल करने में इस तरह जुट जाते हैं गोया इसके अलावा उन्हें अपने जीवन में और कोई काम ही न हो। इंटरनेट पर ट्रोलिंग एक ट्रेंड बन चुका है। इसका शिकार कई सेलिब्रेटी हो चुके है। हमारे लोकतंत्र ने हमें एक आज़ादी दी है वो है अभिव्यक्ति की। हम अपनी बात रखने के लिए स्वतंत्र है। इंटरनेट और सोशल मीडिया एक जरिया है जहां लोग अपने विचार रख सकते है, पर आजकल लोग इसे हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। इसी स्वतंत्रता के नाम पर महिलाओं के बारे में अभद्र टिप्पणी करना, लोगो को गालियां देना, उन पर फिकरे कसना, उन का मखौल उड़ाना, ये सब आम हो गया है। जबकि अभिव्यक्ति की आज़ादी किसी का अपमान करने की आज़ादी नहीं देती है।

देखा जाए तो सोशल मीडिया उस आम नागरिक के लिए वरदान है जिसे अपनी अभिव्यक्ति को दूसरों तक पहुंचाने के लिए कोई मंच अथवा प्रकाशन नहीं मिल पाता था। इसने अनेक ऐसे अकेले बुजुर्गों के जीवन को समाज (भले ही आभासीय) से जोड़ दिया जो अपने अकेलेपन के कारण अवसादग्रस्त जीवन जीने को विवश रहते थे। लेकिन वहीं दूसरी ओर अनियंत्रित और अमर्यादित अभिव्यक्ति ने सोशल मीडिया को क्षति पहुंचाना शुरू कर दिया है। दूसरे से असहमति होने पर गाली-गलौज करना, धमकियां देना और अश्लील व्यवहार करना आम होता जा रहा है। कहा तो यह भी जाता है कि आजकल राजनीतिक दल वेतन के आधार पर ट्रोलर नौकरी पर रखते हैं जिनका काम दिन-रात ऐसे लोगों के खिलाफ आग उगलना होता है जो विरोधी दल के हों। ट्रोलर्स की भूमिका उस समय घातक हो जाती है जब वे जजमेंट करने पर उतारू हो जाते हैं। कौन दोषी है और कौन नहीं? इसका फैसला वे व्यक्ति कैसे कर सकते हैं जिन्हें न तो कानून का ज्ञान होता है और न मामले की गहराई से जानकारी होती है। ऐसे मामलों में अकसर पक्ष और विपक्ष की संख्या प्रभावी रहती है। जिसका पलड़ा भारी हो, बाकी कमेंट्स भी उसी हैसटैग पर नत्थी होते जाते हैं।
जैसे-जैसे सोशल मीडिया पर ट्रोलिंग का अमार्यादित चलन बढ़ता जा रहा है वैसे-वैसे सरकार ही नहीं बल्कि सोशल मीडिया से जुड़ा हर संवेदनशील नागरिक सोशल मीडिया के नियमन की आवश्यकता को महसूस करने लगा है। सरकारें तो अभिव्यक्ति पर नियंत्रण रखने के अवसर ढूंढती ही रहती हैं लेकिन अब सोशल मीडिया के नियमन की मांगें नागरिक समाज और न्यायपालिका की ओर से भी आने लगी हैं। सोशल मीडिया का जिस व्यापक पैमाने पर सुनियोजित रूप से दुरुपयोग किया जा रहा है और उस पर जिस प्रकार का अमर्यादित एवं उच्छृंखल व्यवहार देखने में आ रहा है, वह किसी को भी चिंतित करने के लिए पर्याप्त है। जहां एक ओर सोशल मीडिया के कारण ऐसे व्यक्ति को भी अपने विचार प्रकट करने का मंच मिल गया है जिसे पहले कोई मंच उपलब्ध नहीं था, वहीं दूसरी ओर वह निर्बाध, अनियंत्रित और अमर्यादित अभिव्यक्ति का मंच बन गया है। दूसरे से असहमति होने पर गाली-गलौज करना, धमकियां देना और अश्लील व्यवहार करना आम होता जा रहा है। महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू आदि के भी फर्जी चित्र सोशल मीडिया पर प्रसारित किए जा चुके हैं जिनमें फोटोशॉप के इस्तेमाल द्वारा परिवर्तन करके उनका चरित्र हनन किया जाता है। व्यक्ति और समुदायविशेष के खिलाफ नफरत फैलाने और दंगों की भूमिका बनाने में भी सोशल मीडिया की सक्रियता देखी गई है। इसलिए अब सुप्रीम कोर्ट ने भी सोशल मीडिया के नियमन के लिए कानून बनाए जाने की जरूरत बताई है और सरकार से इस बारे में कानून बनाने को कहा है।

सन् 2009 में तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार द्वारा बनाए गए सूचना तकनीकी कानून के अनुच्छेद 66ए में पुलिस को कंप्यूटर या किसी भी अन्य प्रकार के साधन द्वारा भेजी गई किसी भी ऐसी चीज के लिये भेजने वाले को गिरफ्तार करने का अधिकार दे दिया गया था जो उसकी निगाह में आपत्तिजनक हो। पुलिस ने इस अनुच्छेद का इस्तेमाल करके अनेक प्रकार के मामलों में गिरफ्तारियां कीं। इसलिए इसे सुप्रीम कोर्ट ने सन् 2015 में असंवैधानिक करार देते हुए रद्द कर दिया। इसके बाद केंद्र सरकार ने इस मामले की तह तक जाने के लिए एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया। इस समिति की रिपोर्ट ने भारतीय दंड संहिता, फौजदारी प्रक्रिया संहिता और सूचना तकनीकी कानून में संशोधन करके सख्त सजाओं का प्रावधान किए जाने की सिफारिश की। इनमें एक सिफारिश यह भी है कि किसी भी किस्म की सामग्री द्वारा नफरत फैलाने के अपराध के लिए दो साल की कैद या पांच हजार रुपये जुर्माना या फिर दोनों की सजा निर्धारित की जाए। भय या आशंका फैलाने या हिंसा के लिए उकसाने के लिए भी एक साल की कैद या पांच हजार रुपये या फिर दोनों की सजा की सिफारिश की गई। जांच प्रक्रिया के बारे में भी कई किस्म के संशोधन सुझाए गए।
आज स्थिति यहां तक जा पहुंची है कि फाली नरीमन और हरीश साल्वे जैसे देश के चोटी के विधिवेत्ता भी ट्रोलिंग जजमेंट के कारण सोशल मीडिया को घातक मानने लगे हैं। कहीं ऐसा न हो कि जिस प्रकार व्हाट्सएप्प के मॉबलिंचिंग में दुरुपयोग के कारण मैसेजिंग की सीमा एक साथ पांच मैसेज तक घटा दी गई। कहीं ऐसा न हो कि व्हाट्सएप्प मैसेजिंग की भांति हमें ट्रोलर्स के कारण सोशल मीडिया के कई लाभों से वंचित होना पड़े़ और हम अपनी अभिव्यक्ति की आजादी को अपने ही हाथों कम करवा डालें। 
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(दैनिक सागर दिनकर में 26.08.2020 को प्रकाशित)
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Friday, August 21, 2020

मेरे उपन्यास "शिखंडी : स्त्री देह से परे" की समीक्षा "दैनिक हिन्दुस्तान" में - डॉ शरद सिंह


प्रिय मित्रो,  "दैनिक हिन्दुस्तान" में  मेरे उपन्यास "शिखंडी : स्त्री देह से परे" की समीक्षा प्रकाशित हुई है इसे आप सब से साझा कर रही हूं...🌹

सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित मेरा यह उपन्यास आप Online भी मंगा सकते हैं -
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Shikhandi https://www.amazon.in/dp/B083V68P6H/ref=cm_sw_r_wa_apa_i_I62pFbKESB4H6
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https://hindibook.com/index.php?p=sr&format=fullpage&Field=bookcode&String=9788171384471

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सागर शहर में यह उपलब्ध है-

वैरायटी बुक्स, द्वारिकाजी कांपलेक्स, सिविल लाइंस पर।

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Thursday, August 20, 2020

चर्चा प्लस | नई शिक्षा नीति में भाषाई प्रावधान का प्रश्नचिन्ह | डॉ शरद सिंह | सागर दिनकर में प्रकाशित

चर्चा प्लस ...
नई शिक्षा नीति में भाषाई प्रावधान का प्रश्नचिन्ह         
     - डॉ शरद सिंह
      नई शिक्षा नीति-2020 को कैबिनेट की मंज़ूरी मिलने के बाद केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक और सूचना प्रसारण मंत्री प्रकाश जावडेकर ने इसे प्रेसवार्ता में जारी किया। इससे पहले 1986 में शिक्षा नीति लागू की गई थी। इस नई शिक्षा नीति में स्कूल शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक कई बड़े बदलाव किए गए हैं। इस नीति की सबसे बड़ी बात है कि नई शिक्षा नीति में पांचवी क्लास तक मातृभाषा, स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई का माध्यम रखने की बात कही गई है। इसे क्लास आठ या उससे आगे भी बढ़ाया जा सकता है। विदेशी भाषाओं की पढ़ाई सेकेंडरी लेवल से होगी। यद्यपि नई शिक्षा नीति में यह भी कहा गया है कि किसी भी भाषा को थोपा नहीं जाएगा। प्रश्न यह है कि क्या इस नीति के भाषाई प्रावधान में सरकारी स्कूलों के बच्चे उन बच्चों का मुकाबला कर सकेंगे जो प्राईवेट स्कूल में पहली कक्षा से अंग्रेजी भाषा सीखते हैं। देश में अंग्रेजी के प्रभाव के चलते कहीं सरकारी स्कूलों के बच्चे और पिछड़ तो नहीं जाएंगे? इस तरह की कई बातें अभी विचार करने योग्य हैं।

.      मुझे याद है भारत भवन में सन् 2004 में हुई एक साहित्यिक संगोष्ठी जिसमें देश-विदेश से हिन्दी के जानकार एकत्र हुए थे। कथासम्राट प्रेमचंद की पोती सारा राय भी उसमें आई थीं। विदेशों में हिन्दी साहित्य विषयक सत्र के बाद जब हम भोजनसत्र में गपशप कर रहे थे तभी किसी बात पर चर्चा चलते-चलते स्कूल शिक्षा पर पहुंची और सारा राय ने हंस कर कहा-‘‘हिन्दी स्कूलों में पढ़े हुए लोग कितनी भी अच्छी अंग्रेजी बोल लें लेकिन पकड़ में आ ही जाते हैं।’’ मैंने चकित हो कर पूछा-कैसे?’’ तो उन्होंने कहा-‘‘शायद आपने ध्यान नहीं दिया होगा कि अभी पिछले सत्र में जो सज्जन भाषण दे रहे थे वे बिना वज़ह अंग्रेजी झाड़ रहे थे। लेकिन जैसे ही उन्होंने ‘‘पोर्टुगल’’ को ‘‘पुर्तगाल’’ कहा, मैं ताड़ गई कि ये हिन्दी मीडियम के अंग्रेजी नवाब हैं।’’ उनका तंज इस बात पर था कि वे सज्जन हिन्दी के आयोजन में बेवज़ह अंग्रेजी झाड़ रहे थे। उस समय तो यह बात हंसी-हंसी में आई-गई हो गई लेकिन सारा राय की यह टिप्पणी फांस बन कर मेरे दिल-दिमाग़ में चुभी रही। यह बात किसी एक सज्जन की नहीं थी, बल्कि उन तमाम लोगों की थी जो हिन्दी माध्यम स्कूलों में पढ़ते हैं और स्वश्रम से अंग्रेजी में पारंगत होने का प्रयास करते हैं। अब तो अंग्रेजी सिखाने वाले कोचिंग सेंटर भी खुल गए है। यद्यपि कोरोनाकाल ने उन पर भी तालाबंदी करा दी। बहरहाल, ऑनलाईन अंग्रेजी शिक्षा की साईट्स हैं लेकिन वे इतनी सक्षम नहीं हैं कि अंग्रेजी न जानने वाले अथवा कम जानने वाले को अंग्रेजी की पर्याप्त शिक्षा दे सकें। ऐसे में नई शिक्षा नीति 2020 में भाषा शिक्षा को ले कर जो प्रावधान रखा गया है वह चिंता में डालने वाला है।

मैं भी हिन्दी माध्यम स्कूल-कॉलेज में पढ़ी हूं और मुझे अब तक अनेक ऐसे राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय आयोजनों में भाग लेने का अवसर मिला है जो हिन्दी भाषा पर केन्द्रित होते हुए भी अंग्रेजी के बोलबाले के साए में हुए। मुझे असुविधा नहीं हुई क्योंकि हिन्दी पर मेरी भाषाई पकड़ अच्छी है और कक्षा एक से ही घर पर मुझे अंग्रेजी पढ़ाई जाती रही। मेरी मां डॉ, विद्यावती ‘मालविका’ ने हिन्दी की व्याख्याता होते हुए भी मेरी अंग्रेजी भाषा की शिक्षा पर ध्यान दिया तथा उच्चारण को लेकर हमेशा सजग रखा। लेकिन जब मैं उन युवाओं के बारे में सोचती हूं जो समाज के ऐसे तबके से आते हैं जहां माता-पिता दोनों ही भाषाई ज्ञान में कच्चे होते हैं, वे युवा हिन्दी माध्यम स्कूलों में पढ़ते हुए अंग्रेजी के आतंक का कैसे मुकाबला करते होंगे? क्या उनमें हीन भावना पनपने लगती है? क्या वे स्वयं को रोजगार की दौड़ में सबसे निचली सीढ़ी पर खड़ा महसूस करते हैं?

कक्षा पांच तक मातृ भाषा में शिक्षा दिया जाना बड़ी सुखद बात लगती है। निश्चित रूप से इससे बच्चे को विषय को समझने और अपनी मातृभाषा से जुड़े रहने का अवसर मिलेगा। लेकिन क्या इस नीति को अंग्रेजी माध्यम के प्राईवेट स्कूल अपनाएंगे? यदि नहीं अपनाएंगे तो सरकारी और प्राईवेट स्कूलों के बीच की भाषाई खाई और गहरी हो जाएगी। हम दशकों से लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति को ‘बाबू बनाने की शिक्षा नीति’’ कह कर कोसते आए हैं। लेकिन इस शिक्षा नीति के भाषा-माध्यम पक्ष को लेकर बच्चों के क्या बनने की उम्मींद कर सकते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह शिक्षा नीति एक महत्वाकांक्षी नीति है। इसमें स्किल डेव्हलपमेंट के अनेक प्रावधान हैं लेकिन इस दौर में जब यह महसूस होने लगा है कि बच्चों को पहली कक्षा से ही द्विभााषी शिक्षा दी जाए तब कक्षा पांच तक केवल मातृ भाषा में शिक्षा का प्रावधान कई चुनौतियां खड़ा करता है। नई शिक्षा नीति में पांचवी क्लास तक मातृभाषा, स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई का माध्यम रखने की बात कही गई है। इसे क्लास आठ या उससे आगे भी बढ़ाया जा सकता है। विदेशी भाषाओं की पढ़ाई सेकेंडरी लेवल से होगी। इसे लागू करने के साथ ही यह जरूरी होता कि देश में भाषाई एकरूपता पर भी नई नीति बनाई जाती और अंग्रेजी के प्रभाव को समाप्त करने की दिशा में कड़े कदम उठाए जाते। चीन, जापान, रूस, जर्मनी आदि देश एक राष्ट्र भाषा के आधार पर प्रगति कर रहे हैं तो हमारे देश में यह संभव क्यों नहीं हो पाता है? जबकि देश की आज़ादी के बाद से इस दिशा में कई बार ज़ोरदार मांग उठाई गई। यह विचारणीय है कि भाषा का मुद्दा इस नई शिक्षा नीति के व्यावहारिक उद्देश्यों को ठेस पहुंचा सकता है। 

यह अच्छी बात है कि समय के साथ शिक्षानीति में भी परिवर्तन होना चाहिए और अब देश की शिक्षा नीति में 34 साल बाद नए बदलाव किए जा रहे हैं। नई प्रणाली में प्री स्कूलिंग के साथ 12 साल की स्कूली शिक्षा और तीन साल की आंगनवाड़ी होगी। प्रायमरी में तीसरी, चौथी और पांचवी क्लास को रखा गया है। इसके बाद मिडिल स्कूल अर्थात् 6-8 कक्षा में विषय का परिचय कराया जाएगा। सभी छात्र केवल तीसरी, पांचवी और आठवीं कक्षा में परीक्षा देंगे। 10वीं और 12वीं की बोर्ड परीक्षा पहले की तरह जारी रहेगी। लेकिन बच्चों के समग्र विकास करने के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए इन्हें नया स्वरूप दिया जाएगा। पढ़ने-लिखने और जोड़-घटाव (संख्यात्मक ज्ञान) की बुनियादी योग्यता पर ज़ोर दिया जाएगा। बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक ज्ञान अत्यंत ज़रूरी एवं पहली आवश्यकता मानते हुए ’एनईपी 2020’ में ’बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक ज्ञान पर एक राष्ट्रीय मिशन’ की स्थापना की जाएगी। एनसीईआरटी 8 वर्ष की आयु तक के बच्चों के लिए प्रारंभिक बचपन देखभाल और शिक्षा के लिए एक राष्ट्रीय पाठ्यक्रम और शैक्षणिक ढांचा विकसित करेगा। शिक्षकों के लिए राष्ट्रीय प्रोफ़ेशनल मानक राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद द्वारा वर्ष 2022 तक विकसित किया जाएगा, जिसके लिए एनसीईआरटी, एससीईआरटी, शिक्षकों और सभी स्तरों एवं क्षेत्रों के विशेषज्ञ संगठनों के साथ परामर्श किया जाएगा।

पहली बार मल्टीपल एंट्री और एग्ज़िट सिस्टम लागू किया गया है। यानी मल्टीपल एंट्री और एग्ज़िट सिस्टम की इस नई व्यवस्था में एक साल के बाद सर्टिफ़िकेट, दो साल के बाद डिप्लोमा और तीन-चार साल के बाद डिग्री मिल जाएगी। इससे उन छात्रों को लाभ होगा जिनकी पढ़ाई बीच में छूट जाती है। नई शिक्षा नीति में छात्रों को ये आज़ादी होगी कि अगर वो कोई कोर्स बीच में छोड़कर दूसरे कोर्स में दाखिला लेना चाहें तो वो पहले कोर्स से एक खास निश्चित समय तक ब्रेक ले सकते हैं और दूसरा कोर्स ज्वाइन कर सकते हैं। उच्च शिक्षा में कई बदलाव किए गए हैं। जो छात्र रिसर्च करना चाहते हैं उनके लिए चार साल का डिग्री प्रोग्राम होगा। जो लोग नौकरी में जाना चाहते हैं वो तीन साल का ही डिग्री प्रोग्राम करेंगे। लेकिन जो रिसर्च में जाना चाहते हैं वो एक साल के एमए के साथ चार साल के डिग्री प्रोग्राम के बाद सीधे पीएचडी कर सकते हैं। उन्हें एमफ़िल की ज़रूरत नहीं होगी। नई शिक्षा नीति में अनेक ऐसी बातें हैं जिन पर विस्तार से चर्चा अगले किसी ‘‘चर्चा प्लस’’ में करूंगी। फिलहाल भाषा तत्व जो किसी भी शिक्षा नीति की बुनियाद है, उस पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है। यानी पहले ‘‘पुर्तगाल और ‘‘पोर्टुगल’’ की दूरी को पाटना भी जरूरी है।
  
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(दैनिक सागर दिनकर में 20.08.2020 को प्रकाशित)
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स्वच्छता सिर्फ़ सरकार की जिम्मेदारी नहीं | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | दैनिक जागरण में प्रकाशित

दैनिक जागरण में प्रकाशित मेरा विशेष लेख "स्वच्छता सिर्फ़ सरकार की जिम्मेदारी नहीं" 🚩
❗हार्दिक आभार "दैनिक #जागरण"🙏
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विशेष लेख :
स्वच्छता सिर्फ़ सरकार की जिम्मेदारी नहीं
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह 
        जब मैं सुबह-सुबह अपने शहर की एनएच-26-ए रोड पर घूमने निकलती हूं तो पहले जो इलाका पड़ता है वह बजरिया कहलाता है। बजरिया की सड़क जहां मेन रोड से मिलती है वहां एक सुविधायुक्त सुलभ शौचालय है। शौचालय के बाद रोड साईड पर ही कुछ दूकाने हैं जिनमें शराब की दूकान भी है। इससे ओर आगे बढ़ने पर कुछ दूर चल कर एक ऐसा स्पॉट है जहां सड़क की दूसरी ओर के लोग कचरा डालते हैं। वहीं सुबह-सवेरे ‘‘लोटा-परेड’’ का अप्रिय, शर्मनाक दृश्य देखने को मिल जाता है। वैसे आजकल लोग लोटे के बदले प्लास्टिक की बोतल में पानी ले कर जाते हैं जो अकसर कोल्डड्रिंक की बोतल होती है। ऐसे लोगों को देख कर यही सोचती हूं कि अब इसमें दोष किसका है? प्रशासन का या लोगों का? माना कि नगरपालिका प्रशासन में अनेक गड़बड़ियां हो सकती हैं जिनके लिए हम उन्हें कोसते ही रहते हैं लेकिन जो काम जनहित में किया गया है उसका उपयोग करने में कोताही क्यों बरतते हैं? चार कदम और चल कर सुलभ शौचालय तक पहुंचा जा सकता है लेकिन ऐसा करने के बजाए सड़क पार कर के गंदगी फैलानागरिक कर्त्तव्य का उल्लंघन नहीं है? खैर, नागरिक कर्त्तव्य एक भारी-भरकम शब्द लगता है लेकिन इसे इंसान होने का फ़र्ज़ भी तो माना जा सकता है। एक गाय-भैंस कहीं भी गोबर करती है तो हम यह सोच कर अनदेखा कर देते हैं कि वह तो एक जानवर है। तो फिर उन इंसानों को क्या कहा जाए जो इस तरह की गंदगी फैलाते हैं? यदि यह कहें कि वे अनपढ़ हैं तो यह तर्क हज़म नहीं होता है क्योंकि अपने घर के बाहर गंदगी फैलाने वाले भी अपने रसोईघर और भगवान के आले को साफ़-सुथरा रखते हैं। तो यही सफ़ाई की भावना अपने घर से बाहर या सड़क के प्रति क्यों नहीं होनी चाहिए?
     मुझे लगभग रोज ही वह घटना याद आती है जब मैं सागर शहर के प्रबुद्ध नागरिकों के के संगठन ‘‘प्रजामंडल’’ की सदस्य के नाते शहर की एक बस्ती में स्वच्छता-जागरूकता अभियान पर गई थी। बस्ती की महिलाएं पहले झिझकीं फिर आहिस्ते से खुल कर बोलने लगीं। एक महिला ने जिस सरलता से मुझे अपनी सच्चाई बताई, उस पर मुझे समझ में नहीं आया कि मैं उसकी साफ़गोई के लिए उसे बधाई दूं या उसकी ‘लाईफ स्टाईल’ के लिए उसे फटकार लगाऊं। हुआ यूं कि जब मैंने उस महिला से पूछा कि क्या तुम्हारे घर में शौचालय है? उसने बड़े इतरा कर, मुस्कुरा कर उत्तर दिया -‘‘हऔ, है। हमाये इते शौचालय है।’’ लेकिन ग्रामीण इलाके के मेरे पूर्वअनुभवों ने मेरे भीतर घंटी बजा दी और मैंने दूसरे ही पल उससे पूछ लिया, ‘‘लेकिन तुम शौचालय में जाती हो या लोटा ले कर बाहर?’’ वह जरा झेंप कर, हंस कर बोली,‘‘हमें तो बाहर अच्छो लगत है। हम तो बाहरई जात आएं।’’ मेरी शंका सही निकली। दरअसल, यही बात बार-बार सामने आती है कि सुविधाएं उपलब्ध होने से भी कहीं बड़ी आवश्यकता है व्यवहार परिवर्तन की।

आजकल जगह-जगह सार्वजनिक शौचालय बने होते हैं, कोई भी व्यक्ति हो उसे उनका उपयोग करना चाहिए। घर का जो भी कचरा हो उसे कचरे के डिब्बे में रख कर कचरागाड़ी में ही डालना चाहिए। हमारे घर के छोटे बच्चों को भी सड़क स्वच्छता के बारे में जानकारी प्रदान करना चाहिए ताकि वह भी अपना टूटा-फूटा समान, कोल्डड्रिंक की बोतलें, प्लास्टिक की बोतल ,इधर उधर ना फेकें। साफ़ सफाई के लिए लोगो को सामने आना होगा और योगदान देना होगा।
      
“देश की सफाई एकमात्र सफाई कर्मियों की जिम्मेदारी नहीं है क्या इस में नागरिकों की कोई भूमिका नहीं है? हमें इस मानसिकता को बदलना होगा।“ यही तो कहा था प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘‘स्वच्छ भारत अभियान’’ आरम्भ करते हुए। राजनैतिक स्तर पर राजनीतिक दलों में वैचारिक मतभेद हो सकते हैं लेकिन स्वच्छता एक ऐसा विषय है जिस पर सभी एकमत दिखाई देते है। क्योंकि स्वच्छता है तो स्वास्थ्य है। दुख की बात है कि देश को स्वतंत्र हुए 73 वर्ष हो चुके हैं लेकिन आज भी हमें साफ-सुथरा रहने के सबक परस्पर एक-दूसरे को सिखाने पड़ रहे हैं। स्वच्छता हमारे घर, सड़क तक के लिए ही जरूरी नहीं होती है, यह सभी के स्वास्थ्य की पहली आवश्यकता है। इसी को मद्देनजर रखते हुए भारत सरकार द्वारा चलाया जा रहा ‘स्वच्छ भारत अभियान’ और ‘गंदगी भारत छोड़ो अभियान’।

आधिकारिक रूप से 1 अप्रैल 1999 से शुरू, भारत सरकार ने व्यापक ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम का पुनर्गठन किया और पूर्ण स्वच्छता अभियान शुरू किया जिसको बाद में 01 अप्रैल 2012 को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा निर्मल भारत अभियान नाम दिया गया। स्वच्छ भारत अभियान के रूप में 24 सितंबर 2014 को केंद्रीय मंत्रिमंडल की मंजूरी से निर्मल भारत अभियान का पुनर्गठन किया गया था। इसके बाद स्वच्छ भारत अभियान की विस्तृत रूपरेखा तैयार की गई। स्वच्छ भारत अभियान 2 अक्टूबर 2014 को शुरू किया गया और 2019 तक खुले में शौच को समाप्त करना इसका उद्देश्य तय किया गया। यह एक राष्ट्रीय अभियान है। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने महात्मा गांधी जी की जयंती 2 अक्टूबर 2014 को स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत की , स्वच्छ भारत अभियान को भारत मिशन और स्वच्छता अभियान भी कहा जाता है। महात्मा गांधी जी की जयंती के अवसर पर माननीय श्री नरेंद्र मोदी जी महात्मा गांधी जी की 145 वी जयंती के अवसर पर इस अभियान की शुरुआत की 2 अक्टूबर 2014 थी। साफ-सफाई को लेकर भारत की छवि को बदलने के लिए प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को एक मुहिम से जोड़ने के लिए जन आंदोलन बनाकर इसकी शुरुआत की। हाल ही में ‘गंदगी भारत छोड़ो’ अभियान भी आरम्भ किया गया है।

स्वच्छ भारत अभियान और गंदगी भारत छोड़ो अभियान के मूल उद्देश्य हैं- खुले में शौच बंद करवाना जिसके तहत हर साल हजारों बच्चों की मौत हो जाती है, सामूहिक शौचालयों का निर्माण करवाना, लोगों की मानसिकता को बदलना, शौचालय उपयोग को बढ़ावा देना और सार्वजनिक जागरूकता लाना। इसी अभियान के तहत सन् 2019 तक सभी घरों में पानी की पूर्ति सुनिश्चित कर के गांवों में पाइपलाइन लगवाना भी तय किया गया था जो अभी अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सका है। इनके अतिरिक्त ग्राम पंचायत के माध्यम से ठोस और तरल अपशिष्ट की अच्छी प्रबंधन व्यवस्था सुनिश्चित करना, सड़के फुटपाथ ओर बस्तियां साफ रखना, साफ सफाई के जरिए सभी में स्वच्छता के प्रति जागरूकता पैदा करना भी स्वच्छता अभियान का अभिन्न हिस्सा है। यह सब तभी संभव है जब सभी नागरिक स्वच्छता से रहने की आदत डाल लें। महात्मा गांधी ने सही कहा था -“जो परिवर्तन आप दुनिया में देखना चाहते हैं वह सबसे पहले अपने आप में लागू करें।“ 
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(दैनिक जागरण में 20.08.2020 को प्रकाशित)
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Saturday, August 15, 2020

स्वतंत्रता : मात्र एक शब्द नहीं - डाॅ शरद सिंह, सागर दिनकर में प्रकाशित विशेष लेख

 

 स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
🌷इस अवसर पर पढ़िए मेरा विशेष लेख...


        स्वतंत्रता: मात्र एक शब्द नहीं
            - डाॅ शरद सिंह


    स्वतंत्रता, आज़ादी, इंडेपेंडेंस - हर भाषा में अलग शब्द लेकिन भावना एक ही है जिसका अर्थ है बोलने, लिखने, पढ़ने और अपने ढंग से जीने की स्वतंत्रता। जी हां, स्वतंत्रता मात्र एक शब्द नहीं है, यह तो मानव जीवन की मूल भावना है। इसीलिए जब कोई इस मूल भावना का दुरुपयोग करने की कोशिश करता है तो वह अपने जीवन का दुरुपयोग कर रहा होता है। इसीलिए स्वतंत्रता शब्द के मूलभाव को आज समझने की बहुत ज़रूरत है। 

आज यदि किसी से पूछा जाए कि स्वतंत्रता का क्या अर्थ है तो वह बेहिचक धाराप्रवाह अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बातें करने लगेगा। यदि वह युवा है और उसके माता-पिता उस पर अंकुश रखते हैं तो वह अपने माता-पिता के अंकुश से स्वतंत्र होने की बात करेगा। यदि कोई व्यक्ति पारिवारिक पेरेशानियों में फंसा हुआ है तो उन परेशानियों से मुक्ति में ही उसे अपनी स्वतंत्रता दिखाई देगी। यदि कोई आॅफिस के कामों के बोझ से लदा हुआ है तो उसके लिए उस बोझ से मुक्ति ही स्वतंत्रता है। यानी आज हम स्वतंत्रता के निहायत व्यक्तिगत संस्करणों के साथ जीने लगे हैं। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि हमने अपनी आंखों से स्वतंत्रता आंदोलन नहीं देखा है। जिन्होंने देखा है, वे हमारे बुजुर्ग हैं और हमारे पास उनके संस्मरण सुनने, उनसे अंाखों देखा हाल जानने की फुर्सत नहीं है। ऐसी दशा में हम स्वतंत्रता को स्वतंत्रता दिवस से जोड़ कर एक दिन के लिए समारोही हो जाना पसंद करते हैं, उससे आगे हमें सोचने की फुर्सत नहीं होती है। जबकि स्वतंत्रता मात्र एक शब्द नहीं है, यह अपने आप में एक ऐसी व्यवस्था है जो मनुष्य को मनुष्य होने का बोध कराती है।

      यदि आज टिक-टाॅक या व्हाट्सएप्प पर नियंत्रण की बात आती है तो हमें लगता है कि हमारी स्वतंत्रता छिनी जा रही है। अभी साल-डेढ़ साल पहले यही हुआ। व्हाट्एप्प पर पांच से अधिक मैसेजे एक साथ करने पर पाबंदी लगा दी गई। जिस पर व्हाट्सएप्प यूज़र को लगा कि उनकी स्वतंत्रता को सीमित कर दिया गया है। एक बौखलाहट भरा स्वर उभरा लेकिन जल्दी ही यह स्वर शांत भी हो गया क्योंकि लोगों ने इस वास्तविकता को स्वीकार किया कि माॅबलिचिंग के कारण ऐसी पाबंदी लगाई गई थी। किसी भी घटना के होने और उसे समझने के बीच ही सारी कठिनाइयां छिपी रहती हैं जैसे ही बात समझ में आ जाती है मुश्क़िलें भी दूर होने लगती हैं। इसीलिए हमें समझना होगा कि स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ हमारी व्यक्तिगत स्वतंत्रता नहीं बल्कि देश की स्वतंत्रता  है। यदि देश स्वतंत्र है तो हम स्वतंत्र हैं। इसलिए देश की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए उस स्वतंत्रता के प्रति जो भी जरूरी है वह हमें करना होगा। जैसे-आत्मनिर्भरता, आत्मसंयम, समझदारी, अपने मतदान अधिकार का सही प्रयोग, गलत बातों का खुल कर विरोध, अच्छी बातों का मुखर हो कर समर्थन आदि।

मुखर होने का मतलब यह नहीं है कि जो जी में आए वह अनाप-शनाप बका जाए। इनदिनों टेलीविज़न के अधिकांश समाचार चैनलों में जिस तरह की डिबेट होती है उसे देख-सुन कर यही लगता है जैसे इंसान आपस में चर्चा नहीं कर रहे हैं बल्कि जानवर एक दूसरे पर चींख-चिल्ला रहे हैं। एक तो उनकी चींख-चिल्लाहट में आवाजें एक-दूसरे पर इतनी बोव्हरलेप होती हैं कि उन्हें समझना कठिन रहता है। यदि समझ में आ भी जाएं तो यह समझ में नहीं आता है कि वे डिबेटियर्स मूल मुद्दे से भटक कर कितनी दूर निकल गए हैं। यदि राजनीतिक डिबेट हुई तो एक-दूसरे के नेताओं की जन्मपत्रियां खुलने लगती हैं। भले ही उससे मूल विषय का कोई सरोकार न हो। यह आमजन को भटकाने का बड़ा सुंदर तरीका है जो बोलने की स्वतंत्रता का लाभ उठाते हुए अपना लिया गया है। एक डिबेटियर की हार्टअटैक से मौत के बाद स्थिति की गंभीरता को समझते हुए इलेक्ट्राॅनिक मीडिया को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग करने से स्वयं को रोकना होगा, इसके पहले कि किसी कठोर कानून के शिकंजे में उन्हें जकड़ा जाए।   

जब हम स्वतंत्रता की बात करते हैं तो आर्थिक स्वतंत्रता भी मायने रखती है। इसी से शुरू होता है आत्मनिर्भरता का सफर। देखा जाए तो आत्मनिर्भरता और आर्थिक स्वतंत्रता एक-दूसरे के पूरक हैं। यदि हम आत्मनिर्भर हैं तो हम स्वतंत्रतापूर्वक अपने आर्थिक संसाधनों का उपभोग कर सकते हैं। वहीं यदि हम अपने आर्थिक संसाधनों पूरा उपयोग करते हुए स्वदेशी को महत्व देंगे तो आत्मनिर्भरता बढ़ती जाएगी। यदि चीन दुनिया के बाज़ार पर पांव पसार सकता है तो हम क्यों नहीं। हमारे यहां तो चीन से अधिक स्वतंत्रता है। लेकिन एक कमी है जिसके कारण हम चीन से पिछड़ जाते हैं। वह कारण है भ्रष्टाचार। भ्रष्टाचार ने आज तक हज़ारों उद्यमियों को पनपने से पहले ही तोड़ कर मसल दिया है। जब फाइलें ही आगे नहीं सरकेंगी तो उद्योग के पहिए कैसे घूमेंगे? ऐसे भ्रष्टाचारी तत्व जिस तरह स्वतंत्रता का दुरुपयोग करते हैं उसे देख कर बड़े-बुजुर्ग यह कहने को मजबूर हो जाते हैं कि इससे तो अंग्रेजों का जमाना अच्छा थां यदि हमारे बड़े-बुजुर्गों की यह पीड़ा हमारी चेतना को झकझोर नहीं पाती है तो इसका अर्थ है कि हम स्वतंत्रता का आदर करना ही नहीं जानते हैं। 
  
यदि बात हम अपने समाज की करें तो हमने सामाजिक स्वतंत्रता तो पाई है लेकिन जात-पांत, ऊंच-नीच, साम्प्रदायिकता आदि से आज भी मुक्त नहीं हुए हैं। आज भी हमारी चर्चा का विषय आरक्षण के मुद्दे पर अटका रहता है। उससे आगे सोचने की आदत हमें नहीं पड़ी है। क्योंकि राजनेता अपने निहित स्वार्थों के चलते आगे नहीं सोचने देना चाहते हैं। जहां हमें सामाजिक समानता ज़मीन पर खड़े होना चाहिए था वहां आज हम और भी छोटी-छोटी इकाइयों में बंटते जा रहे हैं। आज समाज का हर वर्ग अपने तरह का अलग-अलग वोट बैंक बन गया है। यही हाल धर्म का है। ईश्वर एक है के तथ्य को मानते हुए भी हर धर्म एक है को हम नहीं मान पाते हैं। हमारे भीतर के धार्मिक उन्माद को मिटाने के बजाए उसे बढ़ा कर हमें वोटबैंक में बदला जाता है और हम खुद को बदलने देते हैं। 
देश को स्वतंत्रता मिले 73 साल हो गए लेकिन आज भी हमारे देश में आए दिन बलात्कार के नृशंस अपराध होते रहते हैं जो स्त्री-प्रगति के चित्र पर रक्त के धब्बे के समान दिखाई देते हैं। स्वतंत्रता मिले 73 साल हो गए लेकिन आज भी बेरोजगारी युवाओं को निगलती जा रही है। सच तो यह है कि स्वतंत्रता मिले 73 साल हो गए लेकिन हम स्वतंत्रता के वास्तविक अर्थ को मानो भुलाते जा रहे हैं और स्वतंत्रता के नाम पर अनाचार को बढ़ते देख रहे हैं। यह वह स्वतंत्रता नहीं है जिसके लिए महात्मा गांधी ने डंडे खाए अथवा शहीदों ने फांसी के फंदे को हंसते-हंसते अपने गले में डाला। इसीलिए स्वतंत्रता शब्द के मूलभाव को आज समझने की बहुत ज़रूरत है कि स्वतंत्रता अधिकारों को पाने और उसके सदुपयोग में निहित होती है। स्वतंत्रता स्त्री के सम्मान और आत्मनिर्भरता में मौजूद होती है। स्वतंत्रता स्वस्थ वैचारिक बहस में फलती-फूलती है। जी हां, स्वतंत्रता मात्र एक शब्द नहीं है, यह तो मनुष्य को मनुष्य बनाए रखने वाला आत्मनियंत्रित तंत्र है जिसका पालन करना और सम्मान करना हमारा कर्त्तव्य है।     
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(दैनिक सागर दिनकर में 15.08.2020 को प्रकाशित)
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Thursday, August 13, 2020

किसी चुनौती से कम नहीं ‘गंदगी भारत छोड़ो’ अभियान | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | दैनिक जागरण में प्रकाशित

दैनिक जागरण 13.08.2020 में प्रकाशित मेरा विशेष लेख "किसी चुनौती से कम नहीं ‘गंदगी भारत छोड़ो’ अभियान" 🚩
❗हार्दिक आभार "दैनिक #जागरण"🙏
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विशेष लेख :
किसी चुनौती से कम नहीं ‘गंदगी भारत छोड़ो’ अभियान
     - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
       प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 8 अगस्त को दिल्ली में ’स्वच्छ भारत अभियान’ के तहत बनाए गए ’राष्ट्रीय स्वच्छता केंद्र’ का उद्घाटन किया था। उसी दौरान देशवासियों से स्वतंत्रता दिवस तक एक सप्ताह लंबा ‘‘गंदगी भारत छोड़ो’’ अभियान चलाने का आह्वान किया और कहा कि ‘‘स्वच्छ भारत अभियान’’ ने हर देशवासी के आत्मविश्वास और आत्मबल को बढ़ाया है तथा इससे जो चेतना पैदा हुई है, उसका बहुत बड़ा लाभ कोरोना वायरस के विरुद्ध लड़ाई में मिल रहा है। जैसे महात्मा गांधी ने आजादी की लड़ाई का आंदोलन शुरू करते हुए अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा दिया था। उसी तर्ज पर प्रधानमंत्री मोदी ने भी ’गंदगी भारत छोड़ो’ का नया नारा दिया है। इस नारे के साथ जुड़े हुए अभियान की चर्चा करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा था कि प्रधानमंत्री ने कहा कि महात्मा गांधी जी का अभियान था- अंग्रेजों भारत छोड़ो। अब हम लोग अभियान चला रहे हैं- गंदगी भारत छोड़ो। देश को कमजोर बनाने वाली बुराइयां भारत छोड़ें, इससे अच्छा और क्या होगा। इसी सोच के साथ पिछले छह वर्षों से देश में एक व्यापक ’भारत छोड़ो अभियान’ चल रहा है। 
     प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गंदगीमुक्त भारत अभियान की शुरुआत की। 8 अगस्त से शुरू हुआ अभियान 15 अगस्त तक चलना तय किया गया। प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि ‘‘भारत छोड़ो के यह सभी संकल्प स्वराज से सुराज की भावना के अनुरूप हैं। आइए, आज से 15 अगस्त तक यानि स्वतंत्रता दिवस तक देश में एक हफ्ते का लंबा अभियान चलाएं। स्वराज के सम्मान का सप्ताह यानी ’गंदगी भारत छोड़ो सप्ताह’... उन्होंने कहा कि स्वच्छता अभियान की सफलता के बाद अब देश को गंदगीमुक्त बनाने पर जोर देना होगा। कचरे से कंचन बनाना है।’’ प्रधानमंत्री ने कहा कि हमें कचरे से खाद बनाने, सिंगल यूज प्लास्टिक से मुक्ति पाने की दिशा में बढ़ना होगा। इसी दौरान पिछले छह वर्षों के स्वच्छ भारत अभियान की सफलता की चर्चा करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि इससे कोरोना से युद्ध में भी लाभ मिला है। उन्होंने कहा, ’अगर 2014 के पहले कोरोना जैसी आपदा आती तो क्या हम इसे रोक पाते। लॉकडाउन कभी सफल होता? उस समय 60 करोड़ की बड़ी आबादी खुले में शौच करने को मजबूर थी। कोरोना के दौरान शौचालय न होता तो क्या हाल होता?’’ 

प्रधानमंत्री के आह्वान के बाद मध्यप्रदेश के नगरीय विकास एवं आवास मंत्री भूपेन्द्र सिंह ने घोषणा की कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा शुरू किए गए ‘गंदगी भारत छोड़ो’ अभियान को मध्यप्रदेश में जन-जन तक पहुंचाया जाएगा। उनके अनुसार यह अभियान प्रदेश में 16 अगस्त से 30 अगस्त तक चलाया जाएगा। अभियान में शहरों में व्यक्तिगत तथा सार्वजनिक शौचालयों की साफ-सफाई और कचरा प्रबंधन पर नागरिकों को संवेदित और जागरूक किया जाएगा। उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान के नेतृत्व में अपने शहरों को गंदगी मुक्त करने की दिशा में जुट जाएं। इस अभियान में 16 और 17 अगस्त को स्वच्छता शपथ एवं व्यक्तिगत शौचालयों का रखरखाव और सफाई पर अशासकीय संगठनों के माध्यम से झुग्गीबस्तियों एवं अन्य मोहल्लों में नागरिकों से चर्चा की जाएगी। निकाय में आवासीय परिसरों, प्रमुख स्थानों और कार्यालयों में स्वच्छता की शपथ दिलाई जाएगी। 18 से 20 अगस्त तक नो प्लास्टिक और रिसाइकिल, रियूज, रिड्यूज और रिफ्यूज के संबंध में निकायों, युवाओं और विद्यार्थियों से ऑनलाइन संवाद और परिचर्चाओं का आयोजन किया जाएगा। नागरिक संगठनों एवं जन-प्रतिनिधियों के माध्यम से बाजारों और सार्वजनिक स्थलों पर प्लास्टिक प्रतिबंध के संबंध में जागरूकता गतिविधियां आयोजित की जाएंगी। अभियान में 21 से 23 अगस्त तक कोविड-19 के संबंध में लोगों को नेपकिन और उपयोग किए गए मास्क आदि के सुरक्षित निपटान के संबंध में जागरूक किया जाएगा। नगरीय निकाय द्वारा क्वारेंटाइन केन्द्रों की स्वच्छता, मास्क पहनने की समझाइश और निकायों में सफाईकर्मियों को सम्मानित करने का कार्य किया जाएगा। अभियान में 24 से 26 अगस्त तक आवासीय परिसरों में स्रोत पर अपशिष्ट पृथक्कीकरण, घरेलू हानिकारक कचरे का सुरक्षित निपटान करने के संबंध में जन-जागरूकता के साथ ही स्व-सहायता समूह के सदस्यों एवं आवासीय संघों से चर्चा की जाएगी। अंतिम चरण में 26 से 30 अगस्त तक निकायों एवं सहयोगी संगठनों के सहयोग से स्वच्छता श्रमदान तथा निकायों द्वारा सभी सार्वजनिक शौचालयों के अंदर और बाहर विशेष सफाई अभियान चलाया जाएगा। कार्यक्रमों में मास्क पहनने और सोशल डिस्टेसिंग प्रोटोकॉल का अनिवार्य रूप से पालन करने तथा कंटेनमेंट जोन में यह गतिविधियां नहीं करने के निर्देश दिए गए हैं। गतिविधियों की नियमित रिपोर्टिंग की जाए। अभियान का व्यापक प्रचार-प्रसार कर नागरिकों को जागरूक एवं प्रोत्साहित किया जाए।

ध्यान रखने वाली बात यह होगी कि कहीं यह अभियान काग़ज़ी और समारोही हो कर न रह जाए। यहां याद दिलाना जरूरी है कि 2 अक्टूबर 2014 को ‘‘स्वच्छ भारत अभियान’’ प्रधानमंत्री द्वारा आरम्भ किया गया था। नामचीन लोग इस अभियान के ब्रांड एम्बेस्डर बनाए गए। अभियान आरम्भ हुए लगभग छः साल होने को आ रहे हैं लेकिन परिणाम का आकलन हम अपने शहरों की गलियों और निचली बस्तियों को देख कर स्वयं ही कर सकते हैं। शायद इसीलिए प्रधानमंत्री को एक इमोशनल नारे के रूप में अभियान को सामने रखने की आवश्यकता महसूस हुई। वे भी जानते हैं कि झाड़ू और तसले के साथ फोटो खिंचवा कर मीडिया में प्रचारित कर सफ़ाई नहीं की जा सकती है। यदि नारों और अभियानों की सूची मात्र बढ़ानी है तो बात और है अन्यथा प्रशासन को असली गंदगी तक पहुंचना होगा और उसके निपटारे पर ध्यान देना होगा। इसके लिए हर व्यक्ति के मन में भी स्वच्छता की भावना जगानी होगी, जो अपने आप में सबसे बड़ी चुनौती है। कम से मध्यप्रदेश में और उसमें भी बुंदेलखंड में यह चुनौती और अधिक व्यापक है। यदि ज़मीनी स्तर पर ’गंदगी भारत छोड़ो’ अभियान भी ‘‘शो बिजनेस’’ की तरह चलाया गया तो शायद अगले छः साल में एक और अभियान की ज़रूरत पड़ेगी और तब तक आम नागरिक गंदगी के ढेर पर बैठा प्रदूषित सांसें लेता बीमारियों से जूझता रहेगा। यानी कुल मिला कर अवधि कम है और चुनौतियां बहुत ज्यादा हैं। 
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(दैनिक जागरण में 13.08.2020 को प्रकाशित)
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Wednesday, August 12, 2020

चर्चा प्लस | जन्मोत्सव सदा प्रासंगिक श्रीकृष्ण का | डाॅ शरद सिंह

चर्चा प्लस
जन्मोत्सव सदा प्रासंगिक श्रीकृष्ण का
  -  डाॅ शरद सिंह
     द्वापर राजनीतिक अनाचार की चरम परिणति का समय था जिसकी किसी हद तक हम वर्तमान राजनीतिक दशाओं से तुलना कर सकते हैं। अनीतिकारियों, भ्रष्टाचारियों के दरबार में आए दिन नियम-कानून का चीर-हरण होता रहता है। जब-जब धर्म की हानि होती है, तब-तब भगवान अधर्म का नाश करने के लिए धरती पर जन्म लेते हैं। द्वापर युग में श्रीकृष्ण ने जन्म लिया। अधर्म के विनाश के मार्गदर्शक बने। ऐसे विशिष्ट व्यक्तित्व के स्वामी श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव मनाने के लिए सार्वजनिक स्थान पर मटकी फोड़ना ही जरूरी नहीं है, बल्कि जरूरी है उनके द्वारा दिए गए उपदेशों को अपने जीवन में उतारना जो हमें सही ढंग से जीना सिखाते हैं।  
 समय निरंतर गतिमान रहता है। समय के साथ स्थितियां एवं परिस्थितियां बदलती हैं। इसीलिए जो कल प्रासंगिक था वह आज नहीं है, जो आज प्रासंगिक है वह कल प्रासंगिक नहीं रहेगा। लेकिन कुछ तत्व, कुछ घटनाएं एवं कुछ व्यक्तित्व ऐसे होते हैं जो कालजयी होते हैं और उनकी प्रासंगिकता सदैव बनी रहती है। ऐसे ही एक व्यक्त्वि हैं श्रीकृष्ण जिनकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है। कृष्ण को विष्णु का अवतार माना गया है। एक ऐसा अवतार जो मानवीय गुणों से परिपूर्ण है। कृष्ण के सभी गुण मानवीय होते हुए भी अधर्म को पराजित करने के लिए थे। दरअसल, श्रीकृष्ण हमारे सांस्कृतिक मूल्यों की पहचान है। कृष्ण की शिक्षाएं कृष्ण का जीवन और कृष्ण की ‘गीता’ आज भी हमारे लिए प्रासंगिक है।
गीता का ज्ञान आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उस समय था। गीता को लेकर आज भी बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों में शोध हो रहे हैं। गीता हमें जीवन को भरपूर जीने की प्ररणा देती है, कर्मयोग की शिक्षा देती है। हमारे लिए जीवंत गुरु, मार्गदर्शक और पथप्रदर्शक का काम करता है। वह हमें अन्याय के विरुद्ध खड़े होने की प्रेरणा देती है। इससे भी बढ़ कर कृष्ण का उपदेश जिसमें वे बिना फल की इच्छा के कर्म करने की बात कहते हैं, हमें उन पलों में डिप्रेशन से बचाता है जब हम अपने किसी काम में असफल होने पर हताश हो जाते हैं और ग़तल दिशाओं में सोचने लगते हैं। गीता के माध्यम से कृष्ण ने अर्जुन को अनासक्त कर्म यानी फल की इच्छा किए बिना कर्म करने की प्रेरणा दी थी। इसके पीछे का मूलभाव यही है कि हम यदि आज हम फल की इच्छा किए बिना काम करते रहें तो विभिन्न तरह की टेंशन, फ्रस्टेशन और डिप्रेशन से बच सकते हैं। देखा जाए तो कृष्ण का सम्पूर्ण व्यक्तित्व संदेशों से भरा हुआ है। वे प्रकृति के सौंदर्य के प्रतीक मोरपंख को अपने सिर पर धारण करते हैं। वे संगीत और नृत्य से जीवन को आनन्दमय बनाने का संदेश देते हैं। वे प्रगति की दौड़ में पीछे छूट गए अपने मित्रों की सहायता करने का संदेश देते हैं। वस्तुतः कृष्ण का जन्म ही धर्म की स्थापना एवं अधर्म, अन्याय तथा अत्याचार का नाश करने के लिए हुआ था।
आज अकसर युवाओं में इस बात का असंतोष रहता है कि उनके माता-पिता उन्हें वे सभी भौतिक सुख्स नहीं दे पाते हैं जो वे पाना चाहते हैं। इसी असंतोष के कारण कुछ युवा अपराध के मार्ग में चल पड़ते हैं। जबकि युवाओं को याद रखना चाहिए कि श्रीकृष्ण चांदी का चम्मच मुंह में ले कर नहीं जन्में थे। उनका जन्म तो कारागार में हुआ था। नृशंस एवं अधर्मी कंस के कारागार में। बड़ी रोचक एवं लोमहर्षक कथा है कृष्ण के जन्म की। द्वापर युग में मथुरा में राजा उग्रसेन का राज था। कंस उनका पुत्र था। लेकिन राज्य के लालच में अपने पिता को सिंहासन से उतारकर वह स्वयं राजा बन गया और अपने पिता को कारागार में डाल दिया। देवकी कंस की चचेरी बहन थी जिसे वह बहुत प्रेम करता था।  इसीलिए कंस ने देवकी का विवाह वासुदेव के साथ पूरे धूमधाम से किया था और प्रसन्नतापूर्वक विवाह की सभी रस्मों को निभाया था। लेकिन जब व्यक्ति स्वार्थ में अंधा हो गया हो तो अपनी प्रिय बहन का भी शत्रु बन बैठता है। जिसका उदाहरण आजकल के कथित ‘आॅनर किलिंग’ में देखा जा सकता है। वरना जब बहन देवकी को विदा करने का समय आया तो कंस भावविभोर हो कर देवकी और वासुदेव को रथ में बैठाकर स्वयं ही रथ चलाने लगा। तभी अचानक ही आकाशवाणी हुई कि देवकी का आठवां पुत्र ही कंस काल होगा। आकाशवाणी सुनकर कंस स्वार्थपरता की सीमाएं लांघते हुए तुरंत ही अपनी बहन को मारने के लिए तत्पर हो गया। लेकिन वासुदेव ने पत्नी देवकी के प्राण बचाने के लिए उसे समझाते हुए कहा कि तुम्हें अपनी बहन देवकी से कोई भय नहीं है, देवकी की आठवीं संतान से भय है। इसलिए वे अपनी आठवीं संतान को कंस को सौंप देंगे। वासुदेव को लगा था कि जब कंस नवजात शिशु को देखेगा तो उसका हृदय पसीज उठेगा और वह शिशु को मारने का जघन्य अपराध नहीं करेगा।
कंस को वासुदेव की बात मान ली। लेकिन उसने देवकी और वासुदेव को कारागार में कैद डाल दिया। कंस को अपने प्राणों से बढ़ कर किसी का मोह नहीं था। नवजात शिशिुओं को देख कर भी उसके मन में दया भावना नहीं जागी। कंस की इस क्रूरता को हम आज इस संदर्भ में समझ सकते हैं कि पुत्र पाने के मोह में किसी प्रकार कन्याओं एवं कन्या भ्रण को मारा जाता रहा है। कंस में भी ऐसी क्रूर प्रवृत्ति थी। जब भी देवकी की कोई संतान होती तो कंस उसे मार देता इस तरह से कंस ने एक-एक करके देवकी की सभी संतानों को मार दिया। और फिर भाद्रपद कृष्ण पक्ष की अष्टमी को रोहिणी नक्षत्र में कृष्ण ने जन्म लिया। कृष्ण के जन्म लेते ही कारागार में एक तेज प्रकाश छा गया। कारागार के सभी दरवाजे स्वतः ही खुल गए, सभी सैनिको को गहरी नींद आ गई। वासुदेव और देवकी के सामने भगवान विष्णु प्रकट हुए और कहा कि उन्होंने ही कृष्ण रुप में जन्म लिया है। विष्णु जी ने वासुदेव जी से कहा कि वे उन्हें इसी समय गोकुल में नन्द बाबा के यहां पहुंचा दें, और उनकी कन्या को लाकर कंस को सौंप दें, वासुदेव जी गोकुल में कृष्ण जी को यशोदा जी के पास रख आए वहां से कन्या को ले आये, और कन्या कंस को दे दी। वह कन्या कृष्ण की योगमाया थी। जैसे ही कंस ने कन्या को मारने के लिए उसे पटकना चाहा कन्या उसके  हाथ से छूटकर आकाश में चली गई। और तभी भविष्यवाणी हुई कि कंस को मारने वाले ने जन्म ले लिया हैं और वह गोकुल में पहुंच चुका है। तब से कृष्ण जी को मारने के लिए कंस ने कई राक्षसों को भेजा लेकिन बालपन में भगवान ने कई लीलाएं रची, और सभी राक्षसों का वद कर दिया। जब कंस ने कृष्ण को मथुरा में आमंत्रित किया तो वहां पर पहुंचकर भगवान श्रीकृष्ण ने कंस का वध करके प्रजा को उसके अत्याचारों से मुक्ति दिलवाई। श्रीकृष्ण ने ‘गीता’ का उपदेश देते हुए कहा भी है कि जब-जब धर्म की हानि होती है, तब-तब भगवान अधर्म का नाश करने के लिए धरती पर जन्म लेते हैं। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि सब कुछ भगवान भरोसे छोड़ दिया जाए। वे अर्जुन को यही तो उपदेश देते हैं कि धर्मरक्षा के लिए रक्तसंबंधों को भी भुला कर अन्याय के विरूद्ध शस्त्र उठाना जरूरी है। यहां धर्म का संकुचित अर्थ नहीं है। यहां धर्म का अर्थ मानवहित एवं मानवजीवन है। जो मानवहित के विरुद्ध कार्य कर रहा हो उसको दण्डित करना ही धर्म है। श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव भले ही इस बार अपने-अपने घरों में ही मनाना है किन्तु उनके जन्मोत्सव से अधिक महत्वपूर्ण है कृष्ण का व्यक्तित्व और और कृष्ण के उपदेश जिसे अपना कर आज हम अपने जीवन को सहज, सरल और संतोषमय बना सकते हैं। तो श्रीकृष्ण जन्म पर मेरी ये काव्य-पंक्तियां देखें-
      कृष्ण जन्म  का  अर्थ यही है,  मानव धर्म सदा विजयी हो।
     फल का लालच छोड़ चुका वो, उत्तम कर्म सदा विजयी हो।।
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(दैनिक सागर दिनकर में 12.08.2020 को प्रकाशित)
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Saturday, August 8, 2020

स्त्री-अध्ययन : एक गंभीर कार्य | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह

व्याख्यान-आलेख

                   स्त्री-अध्ययन: एक गंभीर कार्य

   - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह

स्त्रीविमर्श लेखिका एवं उपन्यासकार

drsharadsingh@gmail.com

मोबाईल - 09425192542



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Thursday, August 6, 2020

अयोध्या सी दृढ़ता चाहिए सागर को स्मार्ट बनाने के लिए | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | दैनिक जागरण में प्रकाशित

दैनिक जागरण में प्रकाशित मेरा विशेष लेख:

अयोध्या-सी दृढ़ता चाहिए सागर को स्मार्ट बनाने के लिए
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह 
        ‘‘जीवन में कुछ सपने पूरा होने में समय लेते हैं, ऐसा ही एक सपना जो मेरे हृदय के समीप है, अब पूरा हो रहा है।’’ श्री लालकृष्ण आडवानी के ये उद्गार थे अयोध्या में राममंदिर के शिलान्यास किए जाने पर। इसी प्रकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने राम मंदिर निर्माण की आधारशिला रखे जाने के बाद कहा कि ‘‘यह आनंद का क्षण है क्योंकि जो संकल्प लिया गया था। वह आज पूरा हुआ है।’’ ठीक इसी प्रकार सागर नगर ने भी स्मार्ट सिटी बनने का सपना देखा है और इस सपने के पूरा होने के आनंद के क्षण को नगर का प्रत्येक नागरिक जीना चाहता है। लेकिन अभी यह सपना पूरा होने में अनेक कठिनाइयां हैं। इसके रास्तें में सबसे बड़ी बाधा है दृढ़ इच्छा शक्ति की कमी। यदि सागर को स्मार्ट सिटी में बदलते देखना है तो नेताओं, अधिकारियों और नागरिकों को दृढ़ इच्छा शक्ति का परिचय देना होगा। मात्र सोचने, कल्पना करने अथवा चर्चा की चुगाली करने से यह सपना सच नहीं होगा।
जब 500 साल पुराना सपना पूरा हो सकता है तो चंद पंच वर्षीय योजनाओं पुराना सपना क्यों नहीं? जब स्मार्ट सिटी की चर्चा आती है तो पहला प्रश्न मन में कौंधता है कि यह ’स्मार्ट सिटी’ है क्या? किसी भी शहर की स्मार्टनेस उसकी बुनियादी जरूरतों की पूर्ति पर निर्भर होती है। यदि शहर में सड़कें उखड़ी हुई हैं, ड्रेनेज की व्यवस्था चौपट है और हर साल बारिश में नागरिकों को सड़क पर बहती नालियों का समाना करना पड़ता है, यदि कचरा प्रबंधन का काम लचर है या फिर शासकीय स्तर पर चिकित्सकीय सुविधाएं गड़बड़ी से भरी पड़ी हैं तो मान कर चलना होगा कि आसान नहीं है डगर स्मार्टसिटी की। उदाहरण के लिए सागर को ही लीजिए। भौगोलिक दृष्टि से एक अत्यंत सुंदर शहर है। यहां का विश्वविद्यालय डाॅ. हरीसिंह गौर केन्द्रीय विश्वविद्यालय के छात्र दुनिया के कोने-कोने में जा कर नाम कमा रहे हैं। शहर की अपनी एक झील है। एक पुराना शहर है जो चारो ओर से नई काॅलोनियों के रूप में विस्तार पाता जा रहा है। इस शहर की अपनी एक बोली है, अपनी है संस्कृति है और अपनी एक पहचान है। इस तरह की खूबियां लगभग हर उस शहर की है जो स्मार्टसिटी की दौड़ में विजयी मुद्रा में खड़े हैं। इसलिए इन सभी चुनौतियां भी लगभग एक समान हैं। इसीलिए यहां मैं सागर शहर के संदर्भ में बात करूंगी। सबसे पहले तो सागर शहर के अभिन्न हिस्से मकरोनिया उपनगर को पुनः नगर निगम से जोड़ने की जरूरत है ताकि मकरोनिया उपनगर जो एक ऐजुकेशन हब और व्यावसायिक केन्द्र के यप में तेजी से उभरता जा रहा है उसे भी स्मार्ट सिटी योजनाओं के साथ विकास करने का अवसर मिल सके। 
 
निसंदेह सागर शहर के मध्य में एक पुराना शहर है। इस पुराने शहर के बसाने वालों ने शहर के लिए उत्तम कोटि की पेयजल व्यवस्था एवं जल निकासी व्यवस्था की थी। लेकिन धीरे-धीरे वे सारी व्यवस्थाएं सिकुड़ गईं। आज डेªनेज़ और सफाई की व्यवस्था चरमरा चुकी है। जब पुराना शहर बसाया गया था तब उसकी सड़कें चैड़ी हुआ करती थीं (जैसेकि साक्ष्य मिले हैं) लेकिन कई अब सड़कें आज भी अतिक्रमण की चपेट में हैं। नगरनिगम की सीमा में आने वाले शहर के अधिकांश हिस्से अतिक्रमण के शिकार हैं। बरसाती पानी की निकासी के लिए सभी सड़कों तक का बेहतरीन नेटवर्क तैयार करना होगा। शत-प्रतिशत रेन वाटर हार्वेस्टिंग पर जोर देना होगा। जरा-सी बारिश हुई और निचली बस्तियों तथा काॅलोनियों में पानी भरने लगता है। शहर के पुराने नालों का रख-रखाव जरूरी है। सभी घरों तक डोर-टू-डोर कचरा उठाने की व्यवस्था की जा चुकी है लेकिन इस मुद्दे पर नागरिकों में अभी जागरुकता की कमी है। नतीजन कई मोहल्ले ऐसे हैं जहां कचरों का ढेर लग जाया करता है। ठोस कचरे की शत-प्रतिशत रिसाइक्लिंग करने की समस्या का स्थाई समाधान जरूरी है। मसवासीग्रंट में जहां शहर का सारा कचरा डम्प किया जाता है, गांव वाले परेशान होते रहते हैं।  सभी घरों में शौचालय, स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग से शौचालय की व्यवस्था की जानी आवश्यक होने पर भी आज भी लोग ‘लोटा परेड’ करते दिखाई दे जाते हैं। सीवरेज और गंदे पानी के प्रबंधन के लिए नेटवर्क का संपूर्ण विस्तार जरूरी है। पुरानी सीवरेज सिस्टम पूरी तहर से ध्वस्त हो चुका है। सभी घरों में कनेक्शन देकर 24 घंटे जलापूर्ति करना भी स्मार्ट सिटी का कंसेप्ट है। जिसके चलते प्रत्येक व्यक्ति पर लगभग 135 लीटर की आपूर्ति करनी होगी। जिससे लोगों को सहूलियत हो। वाटर ट्रीटमेंट पर ध्यान देना होगा। 

आईटीके मामले में दूसरे शहरों की अपेक्षा हम पीछे हैं। नेट कनेक्टिविटी के चुस्त-दुरूस्त संजाल की जरूरत है। पूरे शहर में 100 एमबीपीएस की स्पीड के साथ वाई-फाई की सुविधा मिलनी चाहिए, ताकि लोग कभी भी नेट इस्तेमाल कर सकें। यूं भी दैनिक जीवन में हर काम के लिए इंटरनेट पर निर्भरता बढ़ती जा रही है। अतः इंटरनेट व्यवस्था सुचारू होना जरूरी है।

सागर शहर को स्मार्ट बनाने के लिए नागरिकों के भी कुछ दायित्व हैं जैसे, शहर की स्वच्छता बनाए रखना, नागरिकों की सुरक्षा और संरक्षा, विशेष रूप से महिलाओं, बच्चों एवं बुजुर्गों की सुरक्षा, स्वास्थ्य और शिक्षा पेयजल को व्यर्थ बहने से रोकना, रेन वाटर हार्वेसिं्टग को अपनाना, सौदर्याीकरण के लिए लगाए जाने वाले पेड़-पौधों की रक्षा करना क्यों कि ये न केवल सुन्दरता बढ़ाते हैं बल्कि पर्यावरण में संतुलन भी बनाए रखते हैं। सच तो यह है कि हर नागरिक चाहता तो बहुत कुछ है लेकिन उसे पाने के लिए शासन अथवा राजनीतिक दलों का मुंह ताकता रहता है। बुनियादी जरूरतों को पूरा कराने में भी उसे हिचक होती है। इसलिए यह तय है कि यदि अपने शहर को सचमुच ‘स्मार्ट सिटी’ बनाना है तो नागरिक सहयोग एवं जागरूकता की अहम भूमिका को स्वीकार करना होगा। राह कठिन है, इस अर्थ में भी कि किसी स्कैम पर चर्चा करना आसान होता है लेकिन समय रहते उस स्कैम को होने से ही रोकना साहस का काम होता है। लेकिन यदि आमजनता अधिक टैक्स चुकाते हुए अधिक सुविधाएं पाने की चाहत रखती है तो उसे ‘‘व्हिसिल ब्लोअर्स’’ बन कर अपने टैक्स के पैसों की निगरानी भी करनी होगी। दरअसल नेताओं, अधिकारियों एवं नागरिकों में अयोध्या-सी दृढ़ता चाहिए सागर को स्मार्ट बनाने के लिए। 
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(दैनिक जागरण में 06.08.2020 को प्रकाशित)
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Wednesday, August 5, 2020

चर्चा प्लस | स्वागत है अयोध्या के नए अध्याय का | डाॅ शरद सिंह

चर्चा प्लस ...

स्वागत है अयोध्या के नए अध्याय का          
           - डाॅ शरद सिंह
    

   आज 05 अगस्त 2020 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चांदी की ईंट आधारशिला के रूप में नींव में रख कर अयोध्या का भविष्य बदल रहे हैं और भारत ही नहीं वरन विश्व के अनेकानेक लोग इस ऐतिहासिक घटना के साक्षी बनने जा रहे हैं। अयोध्या की भूमि श्रीराम की जन्मभूमि थी और कहा जाता है कि अयोध्या में श्रीराम ने लगभग साढ़े ग्यारह हज़ार वर्ष तक शासन किया। लेकिन कलियुग आते-आते श्रीराम की जन्मभूमि विवादों के केन्द्र बन गई किन्तु उसी भूमि पर एक बार फिर आपसी सद्भाव ने एक नई मिसाल कायम की है जो इस नवयुग में प्रवेश के लिए बुनियादी क़दम था।

      कोरोनासंकट के बावजूद राममंदिर शिलान्यास के आयोजन को ले कर पूरे देश में उत्साह की कोई कमी नहीं है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अयोध्या पहुंच कर स्वयं अपने हाथों से चांदी से निर्मित तीन ईंटें रख कर शिलान्यास करेंगे। यह अयोध्या के लिए ही नहीं वरन् समूचे देश के लिए रोमांचक क्षण होगा। रामजन्म भूमि का विवाद सदियों की कटुता के बाद एक ठहराव पाने जा रहा है। यही आशा की जानी चाहिए कि यह सद्भाव सदा बना रहेगा। एक असंभव-सा लगने वाला कार्य संभव होना अपने आप में ऐतिहासिक घटना है। आपत्तियां शिथिल पड़ चुकी हैं और सहमति का स्वर गूंजने लगा है। अयोध्या कस्बे से करीब 25 किमी दूर रौनाही थाने के पीछे धन्नीपुर गांव में यूपी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद सुन्नी वक्फ़ बोर्ड को मस्जिद बनाने के लिए पांच एकड़ जमीन सौंप दी है। देर से ही सही लेकिन शांति और सौहाद्र्य का एक रास्ता बन कर तैयार हो गया है।

राममंदिर के शिलान्यास के ऐतिहासिक अवसर पर अयोध्या के उस अतीत को याद करना जरूरी है जिसमें राजसत्ता के दबाव और जनसंघर्ष की अनेक कहानियां मौजूद हैं। जब तक हमें यह स्मरण नहीं होगा कि हम कितने दुष्कर रास्ते से चल कर आए हैं तब तक शिलान्यास की उपलब्धि का समुचित आनन्द नहीं आ सकेगा। तो, अयोध्या के इतिहास को पलटते हुए बात उस पौराणिक काल से भी पहले से शुरू की जानी चाहिए जिसमें अयोध्या को बसाए जाने की कथा है। सरयू नदी के तट पर बसे इस नगर की रामायण अनुसार विवस्वान (सूर्य) के पुत्र वैवस्वत मनु महाराज द्वारा स्थापना की गई थी। पौराणिक कथाओं के अनुसार ब्रह्मा से जब मनु ने अपने लिए एक नगर के निर्माण की बात कही तो वे उन्हें भगवान विष्णु के पास ले गए। भगवान विष्णु ने उन्हें साकेतधाम में एक उपयुक्त स्थान बताया। भगवान विष्णु ने इस नगरी को बसाने के लिए ब्रह्मा तथा मनु के साथ देवशिल्पी विश्वकर्मा को भेज दिया। इसके अलावा अपने रामावतार के लिए उपयुक्त स्थान ढूंढने के लिए महर्षि वशिष्ठ को भी उनके साथ भेजा। मान्यता है कि वशिष्ठ द्वारा सरयू नदी के तट पर लीलाभूमि का चयन किया गया, जहां विश्वकर्मा ने नगर का निर्माण किया। ‘‘स्कंदपुराण’’ के अनुसार अयोध्या भगवान विष्णु के चक्र पर विराजमान है।

माना जाता है कि वैवस्वत मनु लगभग 6673 ईसा पूर्व हुए थे। ब्रह्माजी के पुत्र मरीचि से कश्यप का जन्म हुआ। कश्यप से विवस्वान और विवस्वान के पुत्र वैवस्वत मनु थे। वैवस्वत मनु के दस पुत्र थे - इल, इक्ष्वाकु, कुशनाम, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यन्त, करुष, महाबली, शर्याति और पृषध। इसमें इक्ष्वाकु कुल का ही ज्यादा विस्तार हुआ। इक्ष्वाकु कुल में ही आगे चलकर प्रभु श्रीराम हुए। अयोध्या पर महाभारत काल तक इसी वंश के लोगों का शासन रहा। अयोध्या मनु के पुत्र इक्ष्वाकु से प्रारम्भ हुआ। इस वंश में राजा रामचंद्रजी के पिता दशरथ 63वें शासक हैं। भगवान श्रीराम के बाद लव ने श्रावस्ती बसाई और इसका स्वतंत्र उल्लेख अगले 800 वर्षों तक मिलता है। कहते हैं कि भगवान श्रीराम के पुत्र कुश ने एक बार पुनः राजधानी अयोध्या का पुनर्निर्माण कराया था। इसके बाद सूर्यवंश की अगली 44 पीढ़ियों तक इसका प्रभाव रहा। रामचंद्र से लेकर द्वापरकालीन महाभारत और उसके बहुत बाद तक हमें अयोध्या के सूर्यवंशी इक्ष्वाकुओं के उल्लेख मिलते हैं। इस वंश का बृहद्रथ, अभिमन्यु के हाथों ‘महाभारत’ के युद्ध में मारा गया था। महाभारत के युद्ध के बाद अयोध्या उजड़-सी गई लेकिन उस समय भी श्रीराम जन्मभूमि का अस्तित्व सुरक्षित था जो लगभग 14वीं सदी तक बना रहा।
कालान्तर में अयोध्या मगध के मौर्यों से लेकर गुप्तों और कन्नौज के शासकों के अधीन रहा। अंत में यहां महमूद गजनी के भांजे सैयद सालार ने तुर्क शासन की स्थापना की। सन 1033 ई. में सैयद सालार के मारे जाने के बाद जब जौनपुर में शकों का राज्य स्थापित हुआ तो अयोध्या शकों के अधीन चला गया। 1526 ई. में बाबर ने मुगल राज्य की स्थापना की और उसके सेनापति ने 1528 में यहां आक्रमण करके मस्जिद का निर्माण करवाया जो 1992 में मंदिर-मस्जिद विवाद के चलते रामजन्मभूमि आन्दोलन के दौरान ढहा दी गई।

श्रीराम ने अयोध्या में जन्म लिया था। इसका प्रमाण पौराणिक ग्रंथों में मिलता है। श्री राम को भी भगवान विष्णु की ही अवतार माना जाता है। त्रेतायुग में भगवान श्री राम ने आयोध्या में अवतार लिया। शास्त्रों के अनुसार भगवान श्री राम के आयोध्या में जन्म लेने के पीछे एक खास कारण है। ब्रह्मा जी के पुत्र मनु और उनकी पत्नी सतरूपा जिन्होंने मनुष्य जाति की उत्पत्ति की यह दोनों पति और पत्नी अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर अपने पुत्र को राज सिंहासन पर बिठाकर भगवान विष्णु की भक्ति करने के लिए राजपाठ त्यागकर वनवास के लिए चले गए। वन में रहकर अन्न त्याग करके कई हजार सालों तक भगवान विष्णु की भक्ति की यदि शास्त्रों की मानें तो उन्होंने छह हजार सालों तक सिर्फ जल ग्रहण करके ही भगवान विष्णु की तपस्या की थी। मनु और सतरूपा की भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उन्हें मनचाहा वर मांगने के लिए कहा। तब मनु ने सतरूपा से भगवान विष्णु जैसे पुत्र को पाने की इच्छा जाहिर की उनकी इच्छा का मान रखते हुए भगवान विष्णु ने कहा कि संसार में उनके जैसा कोई भी नहीं है। मनु और सतरूपा ने पूरी भक्ति से भगवान विष्णु की तपस्या की है। इसलिए वह उनकी इस इच्छा का मान अवश्य रखेंगे और अगले जन्म में जब मनु दशरथ और सतरूपा कौश्लया के रूप में अवतार लेंगे तब भगवान विष्णु राम अवतार में इस धरती पर उनके पुत्र बनकर अवतरित होंगे। मनु और सतरूपा की इच्छा को पूर्ण करने के लिए भगवान विष्णु ने अयोध्या में जन्म लिया था और चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को ही भगवान श्री राम की जन्म हुआ था।

कोरोना वायरस की महामारी के चलते भूमिपूजन समारोह में कुल 175 लोगों को ही आमंत्रित किया गया है। श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ ट्रस्ट के अनुसार भूमि पूजन के कार्यक्रम के लिए को निमंत्रण पत्र भेजा गया। भूमिपूजन के लिए देश की संपूर्ण नदियों का जल मंगवाया गया है। मानसरोवर का जल लाया गया हैं। रामेश्वरम और श्रीलंका से भी समुद्र का जल आया है। लगभग 2000 स्थानों से जल और मिट्टी लाई गई है। इसमें अलग-अलग आध्यात्मिक परंपराओं से आने वाले 135 संत शामिल हैं। वहीं, मंच पर प्रधानमंत्री के अलावा बस पांच लोगों को स्थान दिया गया है। आज 05 अगस्त 2020 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चांदी की ईंट आधारशिला के रूप में नींव में रख कर अयोध्या का भविष्य बदल रहे हैं और भारत ही नहीं वरन विश्व के अनेकानेक लोग इस ऐतिहासिक घटना के साक्षी बनने जा रहे हैं। मंदिर निर्माण के लिए 40 किलो की चांदी की ईंट आधारशिला के रूप में रखे जाते ही बदल जाएगा अयोध्या का भविष्य। एक ऐसा भविष्य जिसमें आपसी भाईचारा, भक्ति, धार्मिक पर्यटन और रोजगार के अवसर होंगे। यूं तो श्रीराम अयोध्या में जन्में लेकिन श्रीराम सम्पूर्ण जगत में व्याप्त हैं। जैसा कि तुलसीदास जी ने लिखा है-
      सिया राममय सब जग जानी।
      करउं प्रणाम जोरि जुग पानी।।
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(दैनिक सागर दिनकर में 05.08.2020 को प्रकाशित)
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