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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, September 28, 2010

ग्रामीण औरतों का सच

  - डॉ.(सुश्री) शरद सिंह

ग्रामीण औरतों की ज़रूरतें क्या हैं? यह एक अहम् प्रश्न है। सुदूर ग्रामीण अंचलों में रहने वाली औरतों के जीवन की सच्चाई सिनेमा, विकास-पोस्टरों और सरकारी अंाकड़ों से बहुत भिन्न है। गंाव की असली औरतें न तो पनघटों में पानी भरती हैं और न खेतों में ठुमके लगाती हैं। गंावों में स्त्रियों का बचपन छोटा होता है और स्त्री-जीवन विस्तृत। आयु की सच्चाई को छिपा कर ब्याह दी जाती हैं अवयस्क लड़कियां। पहला शिशु एक वर्ष का हो नहीं पाता है कि दूसरे बच्चे के जन्म की तैयारी शुरू हो जाती है। सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी परिवार नियोजन जैसी कोई धारणा नहीं है। इसीलिए दस-बारह वर्ष की बड़ी बेटी को अपने दो-तीन छोटे भाई-बहनों का लालन-पालन करना ही पड़ता है क्योंकि उसकी मंा ‘सतत् जननी’ की भूमिका निभाने को विवश रहती है। बच्चों को भगवान का वरदान मानने की धारणा ऐसे क्षेत्रों में प्रभावी रहती है। बेटा पैदा हो तो कर्मों का पुण्य है और बेटी पैदा हो तो इसे कर्मों का पाप माना जाता है। इस संबंध में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का किसी को पता नहीं है, न तो स्त्रियों को और न पुरुषों को।
प्रत्येक पंचवर्षीय योजना में अनेक शासकीय योजनाएं ग्रामीण क्षेत्रों के लिए बनाई जाती हैं। इन योजनाओं को क्रियान्वित करने की व्यवस्था भी की जाती है। प्रत्येक आदेश केन्द्र सरकार से चल कर राज्य, संभाग, जिला, तहसील होते हुए गंावों तक पहुंचते तो हैं लेकिन वे उसी रूप में क्रियान्वित नहीं होते हैं। इसीलिए ग्रामीण साक्षरता योजना के होते हुए भी ग्रामीण औरतों में साक्षरता का प्रतिशत न्यून है। स्त्री-स्वास्थ्य सेवाओं का संचार माध्यमों द्वारा जम कर प्रचार-प्रसार होता रहता है लेकिन गंावों में नियोजित परिवारों की संख्या अल्प है। ग्रामीण औरतों के हित में कई कानून हैं लेकिन उन्हें ही पता नहीं है कि उनके अधिकार क्या हैं? वे सामाजिक-पंचायतों के कानून को जानती हैं, वे अत्याचारी पति को भी ‘परमेश्वर’ के रूप में जानती हैं, वे जानती हैं कि वे अपनी इच्छानुसार मातृत्व धारण नहीं कर सकती हैं। उन्हें अपने घर में शौच की सुविधा भी उपलब्ध नहीं रहती है। इसके लिए भी उन्हें खेत, मैदान आदि में जाना होता है। यदि ग्रामीण औरतों के इस सच के पीछे जो मूलभूत कारण हैं वे हैं कि इन औरतों में शिक्षा की कमी है और शिक्षा की कमी के कारण जागरूकता का अभाव है। अपना नाम लिख लेना ही शिक्षा अथवा साक्षरता का मायना नहीं होता है। ग्रामीण क्षेत्रों में पंचायतों में महिला सीट आरक्षित की गई, महिलाएं चुनाव जीत कर पंच, सरपंच भी बनीं लेकिन खालिस ‘रबरस्टैम्प’ की भांति। पंचायतों में ऐसी महिलाओं के अंाकड़े आज भी बहुत कम हैं जो स्वविवेक से अपने दायित्व को निभाती हैं। जब वे चुनाव में खड़ी होती हैं तो उस समय उनके नाम के साथ उनके पति का नाम चस्पा रहता है। चुनाव जीतने के बाद जब काम करने का समय आता है तो उन्हें नेपथ्य में धकेल कर उनके पति सामने आ खड़े होते हैं। यही सब ग्रामीण औरत का असली सच है। जब तक इनको ध्यान में रख कर विकास का कदम नहीं उठाया जाएगा तब तक ग्रामीण औरतों के विकसित होने की कल्पना निरी थोथी कल्पना साबित होगी। 

Friday, September 3, 2010

क्यों लगाई जाती हैं प्रतिमाएं?

- डॉ शरद सिंह

मगहर में संत कबीर की प्रतिमा के नीचे लगा पोस्टर
          किसी चौराहे या किसी महत्वपूर्ण परिसर में किसी महापुरुष, महास्त्री या किसी विशेष व्यक्ति की प्रतिमा क्यों लगाई जाती है? इस प्रश्न का उत्तर बहुत सीधा सरल है और जिसे रि व्यक्ति जानता है कि जब हम किसी व्यक्ति विशेष को विशेष सम्मान देना चाहते हैं अथवा उसके कार्यों के प्रति आभार प्रकट करना चाहते हैं तो उसकी प्रतिमा किसी चौराहे अथवा किसी परिसर पर लगा दी जाती है। किन्तु क्या यह शतप्रतिशत सच है? ऐसा लगता तो नहीं है क्योंकि लगभग हर चौराहे पर या लगभग हर महत्वपूर्ण परिसर में किसी न किसी महान व्यक्ति की प्रतिमा खड़ी की जाती है जिसे लगाने के लिए सरकार से मंाग की जाती है, प्रस्ताव रखा जाता है, बजट पारित होते हैं और किसी राजनीतिक महानुभाव के द्वारा पहले उस प्रतिमा को लगाए जाने वाली भूमि का पूजन कराया जाता है और फिर प्रतिमा लगा दिए जाने के बाद प्रतिमा का अनावरण कराया जाता है। इसके बाद क्या होता है?
           किसी व्यक्ति के प्रति हमारी सम्मान की वास्तविक भावना कितनी संक्षिप्त होती है इसे उन प्रतिमाओं की दशा देख कर सहज ही पता लगाया जा सकता है। धूल की पर्त से अटी या पक्षियों की बीट से सनी स्थिति को अनदेखा कर भी दिया जाए तो उनके बारे में क्या कहेंगे जो इन प्रतिमाओं के सिर, गरदन या हाथों से विज्ञापन, चुनाव अथवा समारोही पर्चियांे की रस्सियां बांधा करते हैं। गोया प्रतिमा सम्मानसूचक स्मारक न हो अपितु अलगहनी का बंास या खम्बा हो। भला उन लोगों के बारे में क्या टिप्पणी की जाए जो ऐसी प्रतिमाओं तथा उनके चबूतरों (पैडस्टल्स) को पोस्टर चिपकाने के लिए उपयोग में लाते हैं। उत्तर प्रदेश में स्थित मगहर में जहंा संत कबीर ने अंतिम विश्राम किया, वहां ऐसा ही एक दृश्य देखने को मिला। यह दृश्य पीड़ा पहुंचाने वाला अवश्य था किन्तु यह ठीक वैसा ही था जैसा लगभग हर प्रदेश के हर दूसरे चौराहे पर देखने को मिल जाता है। संत कबीर स्मारक के रूप में एक कलात्मक चबूतरे पर खड़ी संत कबीर की प्रतिमा भी अत्यंत कलात्मक है किन्तु उसके चबूतरे (पैडस्टल) को चुनावी पोस्टरों ने ढांक रखा था। स्वाभाविक है कि अन्य समय पर उपभेक्ता वस्तुओं के विज्ञापन या फिल्मों के पोस्टर चिपका दिए जाते होंगे।  मगहर में संत कबीर की दो समाधियां हैं एक हिन्दू पद्धति का स्मारक तथा दूसरी मुस्लिम पद्धति की मज़ार। दो पृथक कमेटियां दोनों स्मारकों की अलग-अलग देखभाल करती हैं किन्तु शायद दोनों में से किसी का भी ध्यान इस ओर नहीं जाता है कि उस परिसर के बाहरी भाग में उद्यान में लगी संत कबीर की प्रतिमा का चबूतरा अकसर पोस्टरों से ढंका रहता है। यही हाल अन्यत्रा लक्ष्मीबाई, महाराणा प्रताप, शिवाजी, प्रेमचंद या फिर किसी भी महान व्यक्ति की प्रतिमा का देखने को मिल जाता है।
             सम्मानसूचक प्रतिमाओं की यह दशा देख कर सोचने को विवश होना पड़ता है कि आखिर हम क्यों लगाते हैं प्रतिमाएं जबकि हम उन प्रतिमाओं के सम्मान की रक्षा भी नहीं कर पाते हैं अथवा उनके प्रति ध्यान भी नहीं दे पाते हैं। इससे तो अच्छा है कि इस प्रकार प्रतिमाएं लगाई ही न जाएं या फिर उसी स्थिति में लगाई जाएं जब कोई समिति, कोई विभाग या कोई व्यक्ति-समूह प्रतिमाओं के सम्मान की रक्षा करने की जिम्मेदारी ले और इस जिम्मेदारी को निभाए।