ग्रामीण औरतों की ज़रूरतें क्या हैं? यह एक अहम् प्रश्न है। सुदूर ग्रामीण अंचलों में रहने वाली औरतों के जीवन की सच्चाई सिनेमा, विकास-पोस्टरों और सरकारी अंाकड़ों से बहुत भिन्न है। गंाव की असली औरतें न तो पनघटों में पानी भरती हैं और न खेतों में ठुमके लगाती हैं। गंावों में स्त्रियों का बचपन छोटा होता है और स्त्री-जीवन विस्तृत। आयु की सच्चाई को छिपा कर ब्याह दी जाती हैं अवयस्क लड़कियां। पहला शिशु एक वर्ष का हो नहीं पाता है कि दूसरे बच्चे के जन्म की तैयारी शुरू हो जाती है। सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी परिवार नियोजन जैसी कोई धारणा नहीं है। इसीलिए दस-बारह वर्ष की बड़ी बेटी को अपने दो-तीन छोटे भाई-बहनों का लालन-पालन करना ही पड़ता है क्योंकि उसकी मंा ‘सतत् जननी’ की भूमिका निभाने को विवश रहती है। बच्चों को भगवान का वरदान मानने की धारणा ऐसे क्षेत्रों में प्रभावी रहती है। बेटा पैदा हो तो कर्मों का पुण्य है और बेटी पैदा हो तो इसे कर्मों का पाप माना जाता है। इस संबंध में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का किसी को पता नहीं है, न तो स्त्रियों को और न पुरुषों को।
प्रत्येक पंचवर्षीय योजना में अनेक शासकीय योजनाएं ग्रामीण क्षेत्रों के लिए बनाई जाती हैं। इन योजनाओं को क्रियान्वित करने की व्यवस्था भी की जाती है। प्रत्येक आदेश केन्द्र सरकार से चल कर राज्य, संभाग, जिला, तहसील होते हुए गंावों तक पहुंचते तो हैं लेकिन वे उसी रूप में क्रियान्वित नहीं होते हैं। इसीलिए ग्रामीण साक्षरता योजना के होते हुए भी ग्रामीण औरतों में साक्षरता का प्रतिशत न्यून है। स्त्री-स्वास्थ्य सेवाओं का संचार माध्यमों द्वारा जम कर प्रचार-प्रसार होता रहता है लेकिन गंावों में नियोजित परिवारों की संख्या अल्प है। ग्रामीण औरतों के हित में कई कानून हैं लेकिन उन्हें ही पता नहीं है कि उनके अधिकार क्या हैं? वे सामाजिक-पंचायतों के कानून को जानती हैं, वे अत्याचारी पति को भी ‘परमेश्वर’ के रूप में जानती हैं, वे जानती हैं कि वे अपनी इच्छानुसार मातृत्व धारण नहीं कर सकती हैं। उन्हें अपने घर में शौच की सुविधा भी उपलब्ध नहीं रहती है। इसके लिए भी उन्हें खेत, मैदान आदि में जाना होता है। यदि ग्रामीण औरतों के इस सच के पीछे जो मूलभूत कारण हैं वे हैं कि इन औरतों में शिक्षा की कमी है और शिक्षा की कमी के कारण जागरूकता का अभाव है। अपना नाम लिख लेना ही शिक्षा अथवा साक्षरता का मायना नहीं होता है। ग्रामीण क्षेत्रों में पंचायतों में महिला सीट आरक्षित की गई, महिलाएं चुनाव जीत कर पंच, सरपंच भी बनीं लेकिन खालिस ‘रबरस्टैम्प’ की भांति। पंचायतों में ऐसी महिलाओं के अंाकड़े आज भी बहुत कम हैं जो स्वविवेक से अपने दायित्व को निभाती हैं। जब वे चुनाव में खड़ी होती हैं तो उस समय उनके नाम के साथ उनके पति का नाम चस्पा रहता है। चुनाव जीतने के बाद जब काम करने का समय आता है तो उन्हें नेपथ्य में धकेल कर उनके पति सामने आ खड़े होते हैं। यही सब ग्रामीण औरत का असली सच है। जब तक इनको ध्यान में रख कर विकास का कदम नहीं उठाया जाएगा तब तक ग्रामीण औरतों के विकसित होने की कल्पना निरी थोथी कल्पना साबित होगी।
प्रत्येक पंचवर्षीय योजना में अनेक शासकीय योजनाएं ग्रामीण क्षेत्रों के लिए बनाई जाती हैं। इन योजनाओं को क्रियान्वित करने की व्यवस्था भी की जाती है। प्रत्येक आदेश केन्द्र सरकार से चल कर राज्य, संभाग, जिला, तहसील होते हुए गंावों तक पहुंचते तो हैं लेकिन वे उसी रूप में क्रियान्वित नहीं होते हैं। इसीलिए ग्रामीण साक्षरता योजना के होते हुए भी ग्रामीण औरतों में साक्षरता का प्रतिशत न्यून है। स्त्री-स्वास्थ्य सेवाओं का संचार माध्यमों द्वारा जम कर प्रचार-प्रसार होता रहता है लेकिन गंावों में नियोजित परिवारों की संख्या अल्प है। ग्रामीण औरतों के हित में कई कानून हैं लेकिन उन्हें ही पता नहीं है कि उनके अधिकार क्या हैं? वे सामाजिक-पंचायतों के कानून को जानती हैं, वे अत्याचारी पति को भी ‘परमेश्वर’ के रूप में जानती हैं, वे जानती हैं कि वे अपनी इच्छानुसार मातृत्व धारण नहीं कर सकती हैं। उन्हें अपने घर में शौच की सुविधा भी उपलब्ध नहीं रहती है। इसके लिए भी उन्हें खेत, मैदान आदि में जाना होता है। यदि ग्रामीण औरतों के इस सच के पीछे जो मूलभूत कारण हैं वे हैं कि इन औरतों में शिक्षा की कमी है और शिक्षा की कमी के कारण जागरूकता का अभाव है। अपना नाम लिख लेना ही शिक्षा अथवा साक्षरता का मायना नहीं होता है। ग्रामीण क्षेत्रों में पंचायतों में महिला सीट आरक्षित की गई, महिलाएं चुनाव जीत कर पंच, सरपंच भी बनीं लेकिन खालिस ‘रबरस्टैम्प’ की भांति। पंचायतों में ऐसी महिलाओं के अंाकड़े आज भी बहुत कम हैं जो स्वविवेक से अपने दायित्व को निभाती हैं। जब वे चुनाव में खड़ी होती हैं तो उस समय उनके नाम के साथ उनके पति का नाम चस्पा रहता है। चुनाव जीतने के बाद जब काम करने का समय आता है तो उन्हें नेपथ्य में धकेल कर उनके पति सामने आ खड़े होते हैं। यही सब ग्रामीण औरत का असली सच है। जब तक इनको ध्यान में रख कर विकास का कदम नहीं उठाया जाएगा तब तक ग्रामीण औरतों के विकसित होने की कल्पना निरी थोथी कल्पना साबित होगी।