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My Editorials - Dr Sharad Singh

Friday, June 10, 2011

राजनीतिक मैदान में महिलाओं का दबदबा

लेख
- डॉ.शरद सिंह

      हर बार का चुनाव कुछ नए प्रतिमान सामने रख जाता है। इस बार के विधान सभा चुनावों ने जता दिया भारतीय राजनीति देश में ही नहीं वरन वैश्विक पटल पर नए प्रतिमान गढ़ रही है। इस बार के विधान सभा चुनावों ने यह भी साबित कर दिया कि राजनीतिक मैदान में महिलाओं का दबदबा बढ़ता जा रहा है। राजनीतिक स्तर पर पहले उत्तर प्रदेश में महिला वर्चस्व था और अब पश्चिम बंगाल तथा तमिलनाडु में में भी महिला वर्चस्व है। राष्ट्रपति महिला हैं, देश की प्रमुख राजनीतिक दल की अध्यक्ष एक महिला हैं। विभिन्न राज्यों में महिलाएं राज्यपाल का पद सुशोभित कर रही हैं। इतना ही नहीं विदेशी मामलों के निपटारे भी एक महिला जिस कुशलता से कर रही है वह भी अपने आप में एक उल्लेखनीय उदाहरण है। हमारी संवैधानिक व्यवस्था में महिलाओं को पूर्ण अधिकार प्राप्त हैं। वे राजनीतिक दल में प्रवेश कर सकती हैं, अपना राजनीतिक दल गठित कर सकती हैं और अपने उसूलों के अनुरूप राजनीतिक मानक तैयार कर सकती हैं।  इसी संवैधानिक अधिकार के कारण भारत का राजनीतिक परिदृश्य महिला शक्ति से परिपूर्ण दिखाई देता है।
         इस परिदृश्य पर महिला आरक्षणविधेयक की जरूरत के बारे में सोचने को मन करता है। क्या सचमुच अब भी इसकी आवश्यकता है? इस प्रश्न के पक्ष और विपक्ष दोनों में मत गिर सकते हैं। ग्रामीण स्तर पर पंचायतों में महिला पंच और सरपंचों का प्रतिशत महिला आरक्षित सीटों के कारण तेजी से बढ़ा। यह सच है कि कतिपय पंचायतों में महिला सरपंच कुर्सी पर कब्जा करती हैं और इसके बाद उनका सारा काम-काज सम्हालते हैं एस.पी. साहबयानी सरपंच पति। लेकिन इसी सिक्के का दूसरा पहलू देखा जाए तो ग्रामीण या पिछड़े इलाके की महिलाओं को अपने अधिकार का पता तो चलने लगा है। उन्हें घर की चार दीवारों से बाहर आने का अवसर तो मिला है। यदि वे आज अपने अधिकारों को जान पा रही हैं तो कल उनका उपयोग करना भी सीख जाएंगी। स्थिति इतनी बुरी भी नहीं है जितनी कि प्रायः दिखाई देती है।  
        देश के सर्वोच्च पद पर महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटील हैं। 

देश की सत्ताधारी पार्टी की कमान श्रीमती सोनिया गांधी के हाथों हैं। 

केंद्रशासित दिल्ली की मुख्यमंत्री श्रीमती शीला दीक्षित और  उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री सुश्री मायावती  हैं।   
लोकसभा की अध्यक्ष मीराकुमार हैं। 
 ममता बनर्जी के राज्य में चुनाव जीतने से पहले लोकसभा में 45 और राज्यसभा में 10 महिला संसद सदस्य थीं। यह तो मानना ही होगा कि महिलाओं के राजनीतिक नेतृत्व में लोगों का विश्वास बढ़ा है।
         सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में महिलाओं के राजनीतिक दखल बढ़ने के साथ-साथ महिलाओं की पहचान के मानक भी बदले हैं। आज औरत की पहचान का जो मानक प्रचलन में है वह स्वतंत्रता के आरंभिक वर्षों में नहीं थे। यहां तक कि बीसवीं सदी के अंतिम दशक में भी उतने समृद्ध नहीं थे जितने की इस इक्कीसवीं सदी के आरम्भिक दशकों में दिखाई दे रहे हैं। फिर भी यह तो याद रखना ही होगा कि महिलाओं का राजनीतिक सफर कहां से और किन कठिनाइयों के साथ शुरू हुआ। 
       महिलाओं के राजनीति में आने के इतिहास को याद रख कर ही वर्तमान का सही आकलन किया जा सकता है।  ऐतिहासिक आधार के बिना महिलाओं की प्रगति का सही आकलन कर पाना कठिन है। महिलाएं राजनीति में सदा दिलचस्पी रखती रही हैं किन्तु पहले वे पर्दे के पीछे रह कर, अत्यंत सीमित दायरे में दखल दे पाती थीं। राजनीति तुम्हारे बस की नहीं है!जैसे जुमलों से उन्हें झिड़क दिया जाता था लेकिन अब महिलाओं की राजनीतिक समझ का पुरुषों को भी लोहा मानना पड़ रहा है। सत्तर के दशक में जब देश में महिलाओं की दशा से जुड़ी पहली विशद् रपट टुवर्डस इक्वा लिटी’ (1975) जारी की गई, तो घर की चारदीवारी के भीतर गहरी हिंसा की शिकार बन रही स्त्रियों के बारे में विशेष जानकारी सामने आई थी। 

अस्सी के दशक में फ्लेविया एग्निस नामक वकील तथा सामाजिक कार्यकर्ता  ने पति द्वारा पत्नी की प्रताड़ना के लोमहर्षक विवरणों को प्रकाश में लाया। उन दिनों फ्लेविया प्रताड़ना के अनुभवों से स्वयं भी गुजर रही थीं। ये वही विवरण थे जो उन आम भारतीय घरों में घटित होते हैं जहां पति अपनी पत्नी को प्रताड़ित मात्रा इसलिए प्रताड़ित करता है कि वह पति है और पत्नी के साथ कोई भी अमानवीयता बरतना उसका अधिकार है। यानी, पत्नी को अकारण मारना-पीटना, उसे अपशब्द कहना, उसकी कमियां गिना-गिना कर मानसिक रूप से तोड़ना आदि। 
        फ्लेविया की आत्मकथा परवाज़अंग्रेजी में थी। सन् 1984 में यह महिला संगठन, ‘वीमेंस सेंटरद्वारा छापी गई, और तब से इसके अनेक संस्करण बाज़ार में आ चुके हैं। तब से अब तक महिलाओं की दशा में आमूलचूल परिवर्तन आया है। महिलाओं के अधिकारों की रक्षा-सुरक्षा के लिए मई महत्वपूर्ण कानून लागू किए जा चुके हैं। महिलाओं की जागरूकता और राजनीति में उनके दबदबे की बढ़त इसी तरह जारी रही तो एक दिन महिला प्रताड़ना जैसे मामले अतीत का किस्सा बन कर रह जाएंगे।  

Thursday, June 2, 2011

गर्भवती स्त्री और कड़वा सच

- डॉ. शरद सिंह

जनगणना 2011 के जारी आंकड़ों ने जोर का झटका जोर से ही दिया। इसने पढ़े-लिखे वर्ग की मानसिकता को भी बेनकाब कर दिया। इन आंकड़ों ने बता दिया कि बालिकाओं का अनुपात तेजी से घटता जा रहा है और गर्भ में ही स्त्री-भ्रूण को कालकवलित करा देने में शिक्षित वर्ग पीछे नहीं है। 10 साल में महिलाओं की प्रति 1000 पुरूषों पर संख्या 933 से बढ़कर 940 जरूर हुई, किन्तु छह साल तक के बच्चों के आंकड़ों में यह अनुपात घटकर 927 से 914 हो गया। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 1961 की जनगणना में छह वर्ष तक की उम्र के बच्चों में प्रति एक हजार लड़के पर लड़कियों की संख्या 976 थी। वर्ष 1971 में 964, 1981 में 962, 1991 में 945, 2001 में 927 और अब 2011 में 914 है। इस सिक्के का एक और पहलू है। वह है प्राणहर प्रसव का दुर्भाग्य जिसे स्त्री सदियों से झेलती आ रही है।
तीसरी दुनिया के अन्य देशों की अपेक्षा भारत अधिक विकास कर चुका है किन्तु प्रसव के दौरान होने वाली मृत्यु के मामले में अन्य पिछड़े देशों से बहुत अलग नहीं है। भारत में असुरक्षित प्रसव के कारण होने वाली मृत्यु के आंकड़े भयावह हैं। इस प्रकार के प्रसव को प्राणहर प्रसवकहना उचित होगा।  प्रसव के दौरान होने वाली विश्व में होने वाली मातृ-मृत्यु की संख्या में भारत का आंकड़ा 20 प्रतिशत का है। देश में प्रतिवर्ष गर्भावस्था एवं प्रसव के दौरान 78 हजार महिलाओं की मृत्यु हो जाती है।  यहां प्रसव के दौरान 48 में से एक महिला की मौत का खतरा रहता है इसी आकड़े का एक और रूप देखें तो रांगटे खड़े हो जाएंगे कि देश में गर्भावस्था से संबन्घित कारणों से प्रत्येक आठ मिनट में एक गर्भवती की मौत हो जाती है। उल्लेखनीय है कि सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्यों में 1990 एवं 2015 के बीच गर्भवती-मृत्यु दर के अनुपात को तीन-चौथाई तक कम करना एक लक्ष्य के रूप में निर्धारित किया गया है। 
प्रसव के दौरान होने वाली मृत्यु के सबसे प्रमुख कारण हैं-अशिक्षा और गरीबी। सरकारी आंकड़ों के अनुसार आर्थिक रूप से कमजोर तबके की हर पांच मिनट में एक गर्भवती महिला प्रसवकाल के दौरान मौत के मुंह में चली जाती है। स्त्री के गर्भवती होने पर हर घर में बधाईयां गाई जाती हैं चाहे वह अमीर हो या गरीब। स्त्री का गर्भधारण उसे खाने-कमाने की समस्या से तो छुटकारा दिला नहीं सकता है। एक श्रमिक स्त्री को गर्भधारण के बाद भी वह आराम नहीं मिल पाता है जोकि उसे मिलना चाहिए। सरकार ने श्रमिक गर्भवतियों के लिए अनेक नियम-कानून बनाए हैं लेकिन उसका लाभ उन्हें कितना मिल पाता है इसमें कागजी और ज़मीनी आंकड़ों में बहुत अन्तर है। अच्छे और सुरक्षित प्रसव के लिए अच्छे पैसेका समीकरण इन गरीब गर्भवतियों को प्रसव की उचित सुविधाएं उपलब्ध नहीं करा पाता है। 52 प्रतिशत महिलाएं अपने स्वास्थ्य की चिन्ता किए बिना गर्भधारण करती हैं क्यों कि उन्हें गर्भधारण का निर्णय करने का अधिकार नहीं होता है। परिवार के अभिलाषाएं और पति की इच्छा उन्हें इस बात का अधिकार ही नहीं देती हैं कि उन्हें गर्भ धारण करना चाहिए या नहीं? अथवा उन्हें कब और कितने अंतराल में गर्भधारण करना चाहिए? ग्रामीण क्षेत्रों में और शहरी क्षेत्रों की झुग्गी-झोपड़ी बस्तियों में लगभग 70 प्रतिशत महिलाएं घरों में अप्रशिक्षित दाइयों से प्रसव कराती हैं। यह भी उनकी इच्छा और अनिच्छा की सीमा से परे होता है। उन्हंे यह तय करने का अधिकार नहीं होता है कि वे कहां और किससे प्रसव कराएं? अर्थात् एक गर्भवती का गर्भधारण से ले कर प्रसव तक की यात्रा उसकी इच्छा की सहभागिता से परे तय होती है। इसी दुर्भाग्य के चलते प्रतिवर्ष लगभग एक लाख महिलाएं प्रसवकाल में अथवा इससे पूर्व प्रसव संबंधी परेशानियों के कारण अपने प्राण गवां देती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार विश्व में प्रसव के दौरान गर्भवती की मृत्यु का 24.8 प्रतिशत कारण हैमरेज, 14.9 प्रतिशत कारण संक्रमण और  12. 9 प्रतिशत कारण एक्लैंपसिया है। भारत में सबसे अधिक मृत्यु प्रसव कराते समय बरती जाने वाली असावधानी तथा संक्रमण के कारण होती है।
        परिवार खुश होता है कि उनकी बहू उनके परिवार को संतान देने वाली है, पति प्रसन्न होता है कि उसकी पत्नी उसे पिता का दर्जा दिलाने वाली है किन्तु इन खुशियों के बीच गर्भवती की सही देखभाल, स्वास्थ्य-सुरक्षा तथा उसकी इच्छा-अनिच्छा की इस तरह अनदेखी कर दी जाती है कि दुष्परिणाम गर्भवती की मृत्यु के रूप में सामने आता है। जबकि एक गर्भवती सरकार या कानून से कहीं अधिक पारिवारिक दायित्व होती है। गर्भवतियों की मृत्यु के आंकड़े तब तक इसी तरह शोकगान की तरह गूंजते रहेंगे जब तक गर्भवती के प्रति परिवार अपना दायित्व नहीं समझेगा क्यों कि यह एक कटु सत्य है कि मात्र बधाई गाने से खुशियां नहीं पाई जा सकती हैं।