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My Editorials - Dr Sharad Singh
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Tuesday, February 28, 2012
Thursday, February 2, 2012
देवी से डर्टी पिक्चर के बीच
- डॉ. शरद सिंह
भारतीय स्त्री के सामाजिक विकास की कथा यदि लिखी जाए तो उसमें आए उतार-चढ़ावों से स्त्री के संघर्ष की कथा बखूबी उभरकर सामने आ जाएगी। दिलचस्प बात है कि मुस्लिम आक्रमणकर्ताओं का वास्ता देकर पर्दा प्रथा, सती प्रथा, बालविवाह जैसी कुप्रथाओं को हर बार परिस्थितिजन्य "बेचारगी" कह दिया जाता है। जबकि इन्हीं कारणों एवं परिस्थितियों के बारे में दूसरे पक्ष से विचार करें तो समाज की और विशेष रूप से पुरुषों की वह कमजोरी साफ-साफ दिखाई देती है जिसमें वे हाथ में तलवार धारण करके भी अपनी स्त्रियों को बचाने में सक्षम साबित नहीं होते हैं और अप्रत्यक्ष रूप से कहते हैं कि "हम तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकते हैं इसलिए या तो तुम पर्दे के पीछे छिपी रहो या फिर आग में, पानी में कहीं भी कूद कर अपने प्राण दे दो।" जो स्त्रियां भयभीत हो गईं या जिनमें परिस्थिति के अनुरूप स्वयं को ढालने का साहस नहीं था, उन्होंने अपने पुरुषों की बात मान ली। लेकिन जिनमें संकटों से जूझने का साहस था वे जीवित नहीं और उनके जीवत रहने से ही सामाजिक पीढ़ियों का सतत प्रवाह जारी रह सका।
समाज का ढांचा चंद्रमा की सतह के समान ऊबड़-खाबड़ है, कहीं समतल है तो कहीं गहरी खाइयां। यदि स्त्री पुरुषप्रधान समाज की आकांक्षाओं के अनुरूप चले तो सब कुछ ठीक-ठाक है, अन्यथा सब कुछ गड़बड़ है। इसका एक कारण यह भी है कि सदियों से दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी, सीता आदि देवियों की छवि परंपरागत रूप से भारतीय जनमानस में बैठी हुई है जो समाज ने स्वयं गढ़ी हैं और दुर्भाग्यवश स्त्रियों ने इन्हें आंख मूंद कर समर्थन भी दिया। इसीलिए आमतौर पर भारतीय स्त्री में इसी छवि को ढूंढ़ा जाता है तब मुसीबतों का पहाड़ स्त्रियों पर ही टूटता है। यह छवि टूटती दिखाई देती है तो बवाल मच जाता है। दक्षिण भारतीय अभिनेत्री सिल्क स्मिता के जीवन पर बनी फिल्म "डर्टी पिक्चर" में उन मानकों के टूटने की कथा है जो स्त्री के लिए गढ़े गए हैं। इसमें समाज के उस दोहरेपन की कथा है जो समाज में सर्वत्र व्याप्त है। यह उस औरत के जीवन की कथा है जिसने पुरुषों की दबी हुई लालसा के आधार पर अपनी क्षमता को साबित करना चाहा और किया भी। पुरुषों की दबी हुई लालसा और समाज का दोहरापन कुछ-कुछ ऐसी ही है जैसे पाठ्यपुस्तक में छिपाकर वयस्क सामग्री वाली पत्रिका पढ़ी जाए। स्त्री को जब यह लगता है कि यदि वह वयस्क सामग्री बन जाएगी तो पुरुष उसे हाथोहाथ लेंगे। ऐसा होता भी है। लेकिन यह स्थिति एक भ्रम के समान जब टूटती है तब स्त्री पाती है कि उसके तमाम प्रशंसक पुरुष तो अपनी-अपनी खोल में वापस दुबक चुके हैं और वह बीच बाजार में एक बिकाऊ वस्तु की भांति अकेली खड़ी अपनी बोली लगने की प्रतीक्षा कर रही है।
स्त्री के साथ छल दोनों स्थिति में किया जाता है-देवी के रूप में भी और डर्टी पिक्चर के रूप में भी। पहली स्थिति में वह देवी से कब देवदासी बना दी जाती है, उसे पता ही नहीं चलता...और दूसरी स्थिति में वह कब दिलों की रानी से डर्टी पिक्चर की डर्टी हीरोइन बना दी जाती है, वह समझ ही नहीं पाती है। वहीं एक तीसरी स्थिति भी है जो स्त्री को अपने समग्र के साथ जीने का और आगे बढ़ने का भरपूर अवसर देती है यदि वह उस अवसर को पहचान कर उसका लाभ उठा ले। विद्या बालन की क्षमता के रूप में सामने आता है। "परिणिता" की विद्या बालन एक देवी रूप का चरित्र निभाती है किंतु "डर्टी पिक्चर" की विद्या बालन सिल्क स्मिता के चरित्र को निभाती हुई "डर्टी हीरोइन" की छवि के साथ सामने आती हैं। एक विशुद्ध भारतीय चेहरे-मोहरे वाली विद्या बालन ने अपने अभिनय से सिद्ध कर दिया कि समाज में "सेक्स" आज भी भी उतना ही बिकता है जितनी की स्त्री की देवी वाली छवि, क्यों कि पुरुषप्रधान समाज अपनी प्रकट आकांक्षाओं के साथ बाकी आकांक्षाओं को भी छोड़ना नहीं चाहता है। इसीलिए दोनों छवियां समनांतर बनी हुई हैं। इनमें कभी एक का पलड़ा भारी हो जाता है तो कभी दूसरी का। वहीं एक बात और उभरकर सामने आई कि आज की स्त्री सम्हल कर चलना सीख गई है। सत्तर-अस्सी के दशक और इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के बाद की स्त्री में बहुत अंतर आ चुका है। उसने दोनों छवियों के बीच का रास्ता ढूंढ़ लिया है, ठीक मध्यवर्ग की तरह यह न तो शोषित है और न ही विद्रोही। मानो वह घोषणा कर रही हो कि "मेरी क्षमता देखो और तय करो कि तुम मुझे दोनों में से किस पाले में रखना चाहते हो? यदि दोनों में नहीं तो मुझे अपने लिए स्वयं रास्ता बनाने दो और और आगे बढ़ने दो, बस तुम मेरे साथ-साथ चलो, न आगे-आगे और न पीछे-पीछे।"
(एक लम्बी यायावरी और .... दो पुस्तकों का लेखन पूरा करने के बाद पुनः हाज़िर हूं......)