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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, March 28, 2012

अनुराधा कोइराला से कमला रोका तक



- डॉ. शरद सिंह

नेपाल में संयुक्त कम्युनिस्ट पार्टी माओवादी द्वारा कमला रोका को युवा एवं खेल मंत्री का पद सौंप कर नेपाली सत्ता में स्त्री शक्ति को एक बार फिर समुचित अवसर दिया गया। नेपाल की स्त्रियां एक साथ अनेक मोर्चे पर जूझती रहती हैं। जिसमें सबसे बड़ा मोर्चा वेश्यावृत्ति का है। नेपाल में विशेषरूप से उन स्त्रियों एवं लड़कियों का जीवन सदा संकट में घिरा रहता है जो विशेष रूप से आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों की हैं। ऐसी लड़कियों को वे लोग सुगमता से अपना शिकार बना लेते हैं जो स्त्री देह व्यापार संचालित करते हैं। इनमें से यदि कोई लड़की सौभाग्यवश छूट भी जाती है तो उसका अपना परिवार उसे अपनाने से मना कर देता है। अर्थात्‌ इधर कुआं, उधर खाई। अपने दुर्भाग्य से लोहा लेती ऐसी ही अनेक नेपाली औरतों के लिए अनुराधा कोइराला का अस्तित्व एक सबसे बड़े सहारे के रूप में सन्‌ 1993 मे�तॎ0��मने आया। जब अनुराधा कोइराला ने "माइती नेपाल" अर्थात्‌ मां का घर संस्था की स्थापना की। दो कमरे से आरंभ की गई यह संस्था देखते ही देखते बेसहारा स्त्रियों के बीच सबसे बड़ा सहारा बन कर उभरी और एक दशक में ही पच्चीस से अधिक जिले में इसकी शाखाएं खुल गईं।  
अनुराधा कोइराला
     अनुराधा कोइराला ने नेपाल में ही मौजूद वेश्यावृत्ति के अड्डों से अपने देश की युवतियों को मुक्त कराया तो उन्हें महसूस हुआ कि यह पर्याप्त नहीं है। आखिर उन युवतियों का क्या होगा जो नेपाल से बाहर मानव तस्करी के द्वारा भेज दी जाती हैं। इसके बाद अनुराधा ने विदेशों में भी माइती नेपाल स्वयंसेवक चुने। माइती नेपाल के अंतर्गत लगभग 12000 से भी अधिक लड़कियों को देह व्यापार से बचाया जा चुका है। जिसमें 12 लड़कियां सउदी और कुवैत के दलालों के हाथों मुक्त कराई गईं।

         
अनुराधा कोइराला के इस जुझारू काम के कारण उन्हें अमेरिकी न्यूज चैनल सीएनएन ने सन्‌ 2010 की इंटरनेशनल हीरो ऑफ दी ईयर का सम्मान प्रदान किया था। सीएनएन ने 50 मिनट की डॉक्यूमेंट्री भी बनाई थी जिसमें अनुराधा कोइराला के कार्यों पर विस्तृत चर्चा करते हुए उनसे माइती नेपाल के बारे में बातचीत भी की गई। लगभग 50 मिनट लंबी इस डॉक्यूमेंट्री की एंकरिंग हॉलीवुड की ऑस्कर अवार्ड विजेता अभिनेत्री डेमी मूर ने किया था। 
अभिनेत्री डेमी मूर
     इस डॉक्यूमेंट्री में देह व्यापार से बचाई कुछ लड़कियों के साक्षात्कार भी हैं। इन साक्षात्कारों को देख-सुन कर शरीर में सिहरन दौड़ जाती है। कोई मनुष्य स्त्री रूपी दूसरे मनुष्य के प्रति कितना अमानवीय हो सकता है यह उन युवतियों की व्यथा कथा से पता चलता है। नेपाल में लिंगभेद कुछ अधिक है। वहां लड़कियों को माध्यमिक शिक्षा देने में भी भेदभाव बरता जाता है। कम उम्र में विवाह और उसके बाद पारिवारिक विवाद की संख्या नेपाल में देखने को ज्यादा मिलती है। नेपाली समाज में महिलाओं की उपेक्षा भी एक बड़ा कारण है वहां व्याप्त वेश्यावृत्ति का जाल। अनुराधा कोइराला का मानना है कि नेपाली समाज की स्त्रियों में व्याप्त अशिक्षा और गरीबी के कारण ही लड़कियां देहव्यापारियों के हाथों फंस जाती हैं और मानव तस्करी की शिकार बनती हैं। इसलिए "माइती नेपाल" के द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों तथा शहरी क्षेत्रों की आर्थिक रूप से कमजोर बालिकाओं की शिक्षा का अभियान चलाया जा रहा है। अनुराधा कोइराला के अनुसार करीब दो लाख के करीब नेपाली लड़कियां भारत के विभिन्न वेश्यालयों में हैं। इन लड़कियों को भारत-नेपाल सीमा से भारत लाया जाता है। इसलिए माइती नेपाल की ओर से ऐसी स्त्रियों को सीमा पर नियुक्त किया गया है जो स्वयं मानव तस्करी की शिकार हुई थीं तथा जिन्हें बचा लिया गया था। अनुराधा के अनुसार ऐसी स्त्रियां देह-व्यापार के लिए ले जाई जा रही लड़कियों को तुरंत पहचान लेती हैं क्योंकि वे स्वयं भी उस दौर से गुजर चुकी होती हैं। ऐसी भुक्तभोगी स्त्रियों की छठीं इंद्रिय सीमा पर तैनात जवानों से भी तेज होती है। इसे दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि एक स्त्री दूसरी स्त्री के दुख और कष्ट को तत्काल भांप जाती है। इसी प्रकृतिप्रदत्त कौशल का सदुपयोग अनुराधा कोइराला वेश्यावृत्ति के लिए सीमा पार कराई जाने वाली युवतियों को बचाने में काम में लाती हैं। इसका परिणाम भी सार्थक रहा है और सीमा पर तैनात इन महिला कार्यकर्ताओं द्वारा प्रतिदिन औसतन दो से चार युवतियां मानव-तस्करों के चंगुल से बचाई जा रही हैं।           
      "माइती नेपाल" में वेश्यावृत्ति से मुक्त कराई गई युवतियों के साथ ही उनकी संतानों को भी आश्रय दिया जाता है जिन्हें समाज अवैध संतान कहकर अपनाने को तैयार नहीं होता है। माइती नेपाल सन्‌ 1993 में अपनी स्थापना के बाद से लगभग 500 अपराधियों को सजा दिला कर उनकी पकड़ से युवतियों को मुक्त करा चुकी है। वहीं, नेपाली राजनीति में अनेक बार वूमेन ट्रैफिकिंग की चर्चा गरमाई किंतु कोई ठोस परिणाम नहीं निकल सका। 
कमला रोका
     ऐसी दशा में कमला रोका के रूप में महिलाओं का सत्ता तक पहुंचना और युवा एवं खेल मंत्री बनना इस बात के लिए आश्वस्त कर सकता है कि नौकरी के नाम पर वेश्यावृत्ति के दलदल में युवतियों का धकेले जाने के विरुद्ध ठोस कदम उठाए जा सकेंगे और अनेक युवतियां इस अमानवीय त्रासदी से बच सकेंगी।





(साभार- दैनिकनईदुनियामें 18.09.2011 को प्रकाशित मेरा लेख)

Monday, March 19, 2012

पाकिस्तानी औरतों के पक्ष में फिल्मों का जनमत



- डॉ. शरद सिंह


         पाकिस्तान में जातीय कट्टरता के कारण औरतों के अधिकारों के बारे में सबसे अंत में की अनुमति नहीं देता है। वहां की सामाजिक व्यवस्था औरतों को हर समय पुरुषों की अनुमति नहीं देता है। वहां की सामाजिक व्यवस्था औरतों को हर समय पुरुषों के आदेश के नीचे देखने की आदी है। यदि पुरुष कहे कि बैठ तो बैठो, यदि पुरुष कहे कि खड़ी रह तो खड़ी रहो। यह वातावरण कबीलियाई क्षेत्रों में और अधिक भयावह रूप में दिखाई देता है। पाकिस्तान के आंचलिक कबीलियाई क्षेत्रों में औरत की जो स्थिति है उसका बखूबी विवरण वहीं के फिल्म निर्माता शोएब मंसूर ने सन्‌ २०११ में अपनी एक फिल्म "बोल" के माध्यम से सामने रखा था। इस फिल्म ने जो मूलतः उर्दू भाषा में थी, भारतीय सिनेमाघरों में भी पर्याप्त भीड़ जुटा ली थी क्योंकि हर भारतीय पाकिस्तानी समाज के सच को देखना और जानना चाहता था तथा उसमें सकारात्मक परिवर्तन चाहता है। इसीलिए भारतीय दर्शकों ने भी "बोल" का खुलेदिल से स्वागत किया था। 
                              
         इस फिल्म में जैनब नाम की एक युवती के संघर्ष की कहानी थी। इसमें यह भी दिखाया गया था कि एक बेटे के जन्म की प्रतीक्षा में बेटियों को जन्म देती हुई औरत किस प्रकार टूटती जाती है। पुत्र के जन्म की आशा जैनब के रूप में पुत्री के पैदा होने पर पिता को क्रोध से भर देती है और मां को भयभीत कर देती है। जैनब का अपना भाग्य भी पुरुषप्रधान कट्टरपंथी समाज से जूझते हुए जीवन बिताने पर निर्धारित होता है। उसे एक बार घुटन भरे वातावरण से पलायन करने का अवसर मिलता है वह भागने का प्रयास भी करती है किंतु अंतिम समय में अपना इरादा बदल कर समूचे सामाजिक वातावरण को बदलने का बीड़ा उठा लेती है। इस प्रकार "बोल" में एक सार्थक हल भी प्रस्तुत करने का सुंदर प्रयास किया गया था। इसी क्रम में एक और फिल्म "सेविंग फेस" पाकिस्तानी औरतों के पक्ष में बनाई गई है।

 
"सेविंग फेस" मूलतः डॉक्यूमेंटरी फिल्म है जिसमें पाकिस्तान में तेजाब हमलों की शिकार महिलाओं की शोचनीय दशा को दिखाने का सफल प्रयास किया गया है। इस फिल्म को लघुवृत्तचित्र की श्रेणी में ऑस्कर पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया। यह सच है कि इस प्रकार के वृत्तचित्र भारत में इसके पहले बनाए जा चुके हैं किंतु भारत और पाकिस्तान के बुनियादी ढांचे में जो अंतर है वह इस पाकिस्तानी वृत्तचित्र को महत्वपूर्ण बना देता है। यहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है किंतु वहां नहीं। अतः ऐसी कठोर दशा में जहां औरतों के जीवन के बारे में अधिक विचार विमर्श भी नहीं किया जाता हो, "सेविंग फेस" जैसी डॉक्यूमेंटरी फिल्म मायने रखती है। इस फिल्म का निर्देशन शरमीन ओबेद चिनॉय और डेनियन जज ने किया है। शरमीन के अनुसार इस फिल्म के लिए ऑक्सर पुरस्कार मिलना पाकिस्तानी महिलाओं के संघर्ष की जीत है। शरमीन अफगानिस्तान में रह रही महिलाओं की स्थिति पर भी फिल्म बना चुकी हैं। पुरस्कार मिलने के बाद शरमीन ने कहा कि हमारे देश के विपरीत माहौल का रोज व रोज सामना करने वाली महिलाओं का साहस मुझे हमेशा से ही प्रभावित करता रहा था। इन महिलाओं को पाकिस्तान की सच्ची नायिका कहना अनुचित नहीं होगा।
                                                                                                                          
           
यह फिल्म उन औरतों की दशा पर आधारित है जो आए दिन तेजाबी हमले की शिकार होती रहती हैं। इस फिल्म में मुख्य रूप से पाकिस्तान मूल के ब्रिटिश प्लास्टिक सर्जन मोहम्मद जवाद के कार्यों को भी रेखांकित किया गया है जो तेजाब हमलों की शिकार महिलाओं की प्लास्टिक सर्जरी करते हैं। इस फिल्म में ब्रिटिश प्लास्टिक सर्जन डॉ. मोहम्मद जावाद की कहानी बताई गई है, जो पाकिस्तान लौटकर तेजाब के हमलों के शिकार लोगों की मदद करते हैं। दुर्भाग्यवश पाकिस्तान में हर वर्ष लगभग १०० लोग तेजाबी हमले के शिकार होते हैं जिनमें से अधिकतर महिलाएं और लड़कियां होती हैं। इन हमलों का शिकार लोगों के बीच काम करने वालों का कहना है कि यह आंकड़ा कहीं अधिक बड़ा हो सकता है क्योंकि बहुत से मामले चर्चा में भी नहीं आते हैं। इन हमलों का शिकार बनने वाली अधिकतर महिलाओं को उनके पति ही ऐसे नारकीय जीवन में धकेल देते हैं। प्रेम प्रस्ताव को ठुकरा देना भी तेजाब हमलों के पीछे का दूसरा सबसे बड़ा कारण है।

      सेविंग फेस में एक ऐसी महिला की कहानी भी बताई गई है, जो तेजाब फेंकने वालों को सजा दिलवाने के लिए लड़ाई लड़ती है। शरमीन पहली पाकिस्तानी नागरिक हैं जिन्हें ऑक्सर के लिए नामांकित किया गया और जिन्होंने ऑक्सर का एक पुरस्कार अपने नाम किया। वस्तुतः पाकिस्तान की किसी डॉक्यूमेंटरी फिल्म को ऑक्सर पुरस्कार मिलना उतनी बड़ी बात नहीं है जितनी कि पाकिस्तानी औरतों के जीवन की सच्चाई को दुनिया के सामने लाने का साहस करना और उस साहस को दुनिया द्वारा सहसा जाना। इस डॉक्यूमेंटरी फिल्म में भी संघर्ष करने वाली औरत के जुझारूपन और उसकी जीत पर बल दिया गया है जो इस बात की ओर स्पष्ट संकेत करता है कि स्वयं पाकिस्तान का पढ़ा-लिखा, समझदार तबका समाज में सकारात्मक परिवर्तन देखना चाहता है और वह चाहता है कि इसके लिए स्वयं औरतें साहस जुटाएं और अपने अधिकारों की लड़ाई खुल कर लड़ें। "बोल" जैसी फीचर फिल्म और "सेविंग फेस" जैसी डॉक्यूमेंटरी फिल्म पाकिस्तानी औरतों के पक्ष में वैश्विक स्तर पर सफलतापूर्वक जनमत जुटाती दिखाई पड़ती हैं।

(साभार- दैनिकनईदुनियामें 18.03.2012 को प्रकाशित मेरा लेख)

Saturday, March 10, 2012

इरोम शर्मीला होने का अर्थ


- डॉ. शरद सिंह 

         जब कोई औरत कुछ करने की ठान लेती है तो उसके इरादे किसी चट्टान की भांति अडिग और मजबूत सिद्ध होते हैं। मणिपुर की इरोम चानू शर्मीला इसका एक जीता-जागता उदाहरण हैं। इसी साल चार नवंबर को उनकी भूख हड़ताल के ग्यारह साल पूरे हो गए। इतनी लंबी भूख हड़ताल का कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता। वे अपना जीवन दांव पर लगा कर निरंतर संघर्ष करती रही हैं। इरोम शर्मीला ने मात्र २८ वर्ष की आयु में अपनी भूख हड़ताल आरंभ की थी। उस समय कुछ लोगों को लगा था कि यह एक युवा स्त्री द्वारा भावुकता में उठाया गया कदम है और शीघ्र ही वह अपना हठ छोड़कर सामान्य जिंदगी में लौट जाएगी। वह भूल जाएगी कि मणिपुर में सेना के कुछ लोगों द्वारा स्त्रियों को किस तरह अपमानित किया गया। किंतु २८ वर्षीया इरोम शर्मीला ने न तो अपना संघर्ष छोड़ा और न आम जिंदगी का रास्ता चुना। वे न्याय की मांग को लेकर संघर्ष के रास्ते पर जो एक बार चलीं तो उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। यह स्त्री का वह जुझारूपन है जो उसकी कोमलता के भीतर मौजूद ऊर्जस्विता से परिचित कराता है।

  
                  शर्मीला ने यह रास्ता क्यों चुना इसे जानने के लिए सन्‌ २००० के पन्ने पलटने होंगे। सन्‌ २००० के ०२ नवंबर को मणिपुर की राजधानी इम्फाल के समीप मलोम में शांति रैली के आयोजन के सिलसिले में इरोम शर्मीला एक बैठक कर रही थीं। उसी समय मलोम बस स्टैंड पर सैनिक बलों द्वारा अंधाधुंध गोलियां बचाई गईं। जिसमें करीब दस लोग मारे गए। इन मारे गए लोगों में ६२ वर्षीया लेसंगबम इबेतोमी तथा बहादुरी के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित सिनम चन्द्रमणि भी शामिल थीं। एक ऐसी महिला जिसे बहादुरी के लिए सम्मानित किया गया और एक ऐसी स्त्री जो "सीनियर सिटिजन" की आयु सीमा में आ चुकी थी, इन दोनों महिलाओं पर गोलियां बरसाने वालों को तनिक भी हिचक नहीं हुई? इस नृशंसता ने निरपराध और निहत्थे नागरिकों पर गोलियां चलाई गई थीं। शर्मीला ने इस घटना की तह में पहुंच कर मनन किया और पाया कि यह सेना को मिले "अफस्पाक" रूपी विशेषाधिकार का दुष्परिणाम है। इस कानून के अंतर्गत सेना को वह विशेषाधिकार प्राप्त है जिसके तहत वह संदेह के आधार पर बिना वारंट कहीं भी घुसकर तलाशी ले सकती है, किसी को गिरफ्तार कर सकती है तथा लोगों के समूह पर गोली चला सकती है।

इस घटना के बाद इरोम ने निश्चय किया कि वे इस दमनचक्र का विरोध करके रहेंगी चाहे कोई उनका साथ दे अथवा न दे। इरोम शर्मीला ने भूख हड़ताल में बैठने की घोषणा की और मणिपुर में लागू कानून सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (अफस्पाक) को हटाए जाने की मांग रखी। इस एक सूत्री मांग की लेकर उन्होंने अपनी भूख हड़ताल आरंभ कर दी। शर्मीला ने तीन नवम्बर की रात में आखिर बार अन्न ग्रहण किया और चार नवंबर की सुबह से उन्होंने भूख हड़ताल शुरू कर दी। इस भूख हड़ताल के तीसरे दिन सरकार के आदेश पर इरोम शर्मीला को गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर आत्महत्या करने का आरोप लगाते हुए धारा ३०९ के तहत कार्रवाई की गई और न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। उल्लेखनीय है कि धारा ३०९ के तहत इरोम शर्मीला को एक साल से ज्यादा समय तक न्यायिक हिरासत में नहीं रखा जा सकता था इसलिए एक साल पूरा होते ही कथित तौर पर उन्हें रिहा कर दिया गया। फिर उन्हें गिरफ्तार कर न्यायिक हिरासत के नाम पर उसी सीलन भरे वार्ड में भेज दिया गया। तब से वह लगातार न्यायिक हिरासत में हैं। जवाहरलाल नेहरू अस्पताल का वह वार्ड जहां उन्हें रखा गया है, उसे जेल का रूप दे दिया गया है। वहीं उनकी नाक से जबरन तरल पदार्थ दिया जाता है।

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अफस्पाक" शासन के ५३ वर्षों में २००४ का वर्ष मणिपुर की महिलाओं द्वारा किए गए एक और संघर्ष के लिए चर्चित रहा। असम राइफल्स के जवानों द्वारा थंगजम मनोरमा के साथ किए बलात्कार और हत्या के विरोध में मणिपुर की महिलाओं ने कांगला फोर्ट के सामने नग्न होकर प्रदर्शन किया। उन्होंने जो बैनर ले रखा था, उसमें लिखा था "भारतीय सेना आओ, हमारा बलात्कार करो"। इस प्रदर्शन पर बहुत हंगामा हुआ। मीडिया ने इसे भरपूर समर्थन दिया तथा दुनिया के सभी देशों का ध्यान मणिपुर की स्थिति की ओर आकर्षित हुआ।

         
             इरोम शर्मीला और उन महिलाओं को संघर्ष इस बात का प्रतीक है कि स्त्रियों को जिस दैहिक लज्जा का वास्ता दिया जाता है, वे न्याय के पक्ष में उस लज्जा की भी सहर्ष तिलांजलि दे सकती हैं। यानी स्त्री न्याय और सत्य के लिए किसी भी सीमा तक जाकर संघर्ष करने की क्षमता रखती है। वस्तुतः यही है इरोम शर्मीला होने का अर्थ कि स्त्री की दृढ़ इच्छाशक्ति को तोड़ा नहीं जा सकता है।ह इरोम शर्मीला और उन महिलाओं को संघर्ष इस बात का प्रतीक है कि स्त्रियों को जिस दैहिक लज्जा का वास्ता दिया जाता है, वे न्याय के पक्ष में उस लज्जा की भी सहर्ष तिलांजलि दे सकती हैं। यानी स्त्री न्याय के लिए किसी भी सीमा तक संघर्ष करने की क्षमता रखती है। वस्तुतः इरोम शर्मीला होने का अर्थ यही है कि स्त्री की दृढ़ इच्छाशक्ति को तोड़ा नहीं जा सकता है।

(साभार- दैनिकनईदुनियामें 27.11.2012 को प्रकाशित मेरा लेख)