Pages

My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, October 23, 2012

रावणों पर विजय पाती आज की स्त्री



वामा
                     
 - डॉ. शरद सिंह

सतयुग में सीता रावण के छल का शिकार बनी। राम स्वर्णमृग को पकड़ने चल दिए। राम की पुकार समझ कर लक्ष्मण द्वार पर रेखा खींच कर राम की ओर चल पड़े। लक्ष्मण जाते-जाते सीता को समझा गए कि उनके द्वारा खींची गई रेखा को वे न लांघें। यह कथा सर्वविदित है कि लक्ष्मण के जाते ही रावण साधुवेश में आया और दान-धर्म का वास्ता दे कर सीता को विवश कर दिया कि वह लक्ष्मण-रेखा को लांघ जाएं। रेखा लांघते ही रावण ने सीता का हरण कर लिया। तब से यह कहावत चल पड़ी कि स्त्रियों को लक्ष्मण-रेखा नहीं लांघनी चाहिए। इसी कथा का दूसरा पहलू देखा जाए तो कहावत यह भी होनी चाहिए कि स्त्रियों को किसी भी अपरिचित पुरुष का विश्वास नहीं करना चाहिए। न जाने किस पुरुष रूप में रावण मौजूद हो? किन्तु स्त्री न तो सतयुग में डरी और न कलियुग में भयभीत है। भले ही जन्म से मृत्यु तक उसे भिन्न-भिन्न रूप में रावण का सामना करना पड़ता है।
स्त्री के जन्म से भी पहले अर्थात् कन्या भ्रूण को इस दुनिया में आने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। उसका जन्म मां की दृढ़ता और पिता की सकारात्मक सोच पर निर्भर रहता है। जन्म के बाद भाइयों की अपेक्षा उपेक्षा का सामना उसकी नियति बन जाती है यदि परिवार दकियानूसी परिपाटी पर जी रहा हो तो। बेटी के लिए पढ़ाई, पौष्टिक खाना, खेल-कूद नहीं अपितु घर-गृहस्थी की चक्की के पाट तैयार रहते हैं। इसी चक्की को चलाने और उसमें स्वयं पिसने की शिक्षा उसे दी जाती है। यदि लड़की स्कूल-काॅलेज में पढ़ने जाती है तो उस पर हाजार पाबंदियां ठोंक दी जाती हैं। वह क्या पहने, क्या नहीं? वह क्या पढ़े, क्या नहीं? वह मोबाईल फोन रखे या नहीं? आदि-आदि। उस पर छेड़खानी करने वाले मजनुओं का सामना, शारीरिक क्षति पहुंचाने की धमकी का सामना, दोस्त बन कर अश्लील एम.एम.एस. बना कर ब्लैकमेल करने वालों का सामना।
जब कभी इस प्रकार के समाचार पढ़ने को मिलते हैं कि -‘ उत्तर प्रदेश के बागपत जिले के अलावलपुर गांव में छह महिलाओं को खरीदने के वास्ते एक दर्जन से ज्यादा लोग जमा थे। महिलाओं को बेचने वाले उनकी ओर इशारा करके बोली लगा रहे थे। ये महिलाएं दिल्ली के एक दलाल के माध्यम से बिहार से बागपत तक पहुंची थीं। बिहार में गरीबी का दंश झेल रहीं इन महिलाओं को यह ख्वाब दिखाकर लाया गया था कि उत्तर प्रदेश में उनकी शादी कराई जाएगी और वहां आराम से अपना घर बसाकर रहेंगी।’....तो रावण अपने दसों सिरांे के साथ दिखाई देने लगता है।

बागपत की तरह सहारनपुर के घाटमपुर गांव में पंचायत ने बाजार में महिलाओं की खरीदारी पर रोक लगा दी है। महिलाएं खरीदारी के लिए बाजार में नहीं जाएंगी। महिलाएं घर के बाहर नल पर पानी नहीं भर सकेंगी। पंचायत ने पांच-पांच व्यक्तियों की छह टीमें बनाई हैं, जो गांव में घूमकर निगरानी करेंगी और दोषी से निर्धारित जुर्माना वसूलेंगी। विरोध करने पर दोगुना जुर्माना होगा। भला ऐसे गांवों-कस्बों की बेटियां सानिया मिर्जा, कण्णेश्वरी देवी, इंदिरा नूयी या सुनिता विलियम्स कैसे बन सकेंगी?  
इन सारी विपरीत परिस्थितियों में भी भारतीय स्त्री प्रतिदिन स्वयं को साबित करती जा रही है। जब कोई औरत कुछ करने की ठान लेती है तो उसके इरादे किसी चट्टान की भांति अडिग और मजबूत सिद्ध होते हैं। मणिपुर की इरोम चानू शर्मीला इसका एक जीता-जागता उदाहरण हैं। सन् 2011 की चार नवम्बर को उनकी भूख हड़ताल के ग्यारह साल पूरे हो गए। शुरू में कुछ लोगों को लगा था कि यह आम-सी युवती शीघ्र ही वह अपना हठ छोड़ कर सामान्य जि़न्दगी में लौट जाएगी। वह भूल जाएगी कि मणिपुर में सेना के कुछ लोगों द्वारा स्त्रियों को किस प्रकार अपमानित किया गया। किन्तु 28 वर्षीया इरोम शर्मीला ने ने संघर्ष का रास्ता नहीं छोड़ा। वे न्याय की मांग को लेकर संघर्ष के रास्ते पर जो एक बार चलीं तो उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। यह स्त्री का वह जुझारूपन है जो उसकी कोमलता के भीतर मौजूद ऊर्जस्विता से परिचित कराता है।
     धनगढ़ (गड़रिया) परिवार में जन्मीं सम्पत देवी पाल उत्तरप्रदेश के बांदा जिले में कई वर्ष से कार्यरत हैं। सम्पत देवी पाल के दल का नाम है ‘गुलाबी गैंग’। सम्पत पाल के गुलाबी दल की औरतें निपट ग्रामीण परिवेश की हैं। वे सीधे पल्ले की साड़ी पहनती हैं, सिर और माथा पल्ले से ढंका रहता है किन्तु उनके भीतर अदम्य साहस जाग चुका है। सम्पत पाल के अनुसार ‘‘जब पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी हमारी मदद करने के लिए आगे नहीं आते हैं तब विवश हो कर हमें कानून अपने हाथ में लेना पड़ता है। यह गैरकानूनी गैंग नहीं है, यह गैंग फाॅर जस्टिस है। ’’ 
                                                         
रावण कोई एक व्यक्ति नहीं अपितु पुरुष प्रधान समाज में मौजूद वह आसुरी प्रवृत्तियां हैं जो स्त्री को सदा दोयम दर्जे पर देखना चाहती हैं, उन्हें दलित बनाए रखना चाहती हैं। किन्तु सुखद पक्ष यह भी है कि इन आसुरी प्रवृत्तियों से जूझती हुई लड़कियां आईटी क्षेत्र और अनुसंधान क्षेत्र में भी तेजी से आगे आई हैं। वे अब पढ़ने की खातिर अकेली दूसरे शहरों में रहने का साहस रखती हैं। वे उन सभी क्षेत्रों में सफलतापूर्वक काम कर रही हैं जिन्हें पहले लड़कियों के लिए उपयुक्त नहीं माना जाता था। वस्तुतः समाज में विभिन्न रूपों में मौजूद बाधाओं रूपी रावणों पर स्त्रियां विजय पाती जा रही हैं, धीरे-धीरे ही सही।

(‘इंडिया इनसाइडके अक्टूबर 2012 अंक में मेरे स्तम्भ वामामें प्रकाशित मेरा लेख साभार)