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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, November 20, 2012

‘डॉ. अम्बेडकर का स्त्री विमर्श’ का विमोचन ... Dr Sharad Singh's Book Released at Press Club Lucknow


Shree Times,Hindi Daily, Lucknow,18.11.2012

मेरी पुस्तक डॉ. अम्बेडकर का स्त्री विमर्शका विमोचन विगत 17.11.2012 को लखनऊ (उप्र) के प्रेस क्लब में अरूणाचल प्रदेश के पूर्व राज्यपाल आदरणीय माता प्रसाद जी के करकमलों द्वारा सम्पन्न हुआ।
  

उक्त अवसर पर गुलाबचंद (अपर महानिदेशक प्रसार भारती लखनऊ) डॉ. परशुराम पाल (असोसिएट प्रोफेसर लखनऊ विश्वविद्यालय), सुरेश उजाला (संपादक ‘उत्तर प्रदेश’ पत्रिका), महेन्द्र भीष्म (कथाकार), वीरेन्द्र बाहरी (भारत बुक सेंटर), तरुण बाहरी (भारत बुक सेंटर) तथा  लखनऊ के जुझारू पत्रकारों एवं प्रेस छायाकारों सहित भी बड़ी संख्या में उपस्थित थे।  

उस महत्वपूर्ण पल को आप सब से साझा कर रही हूं .......

Lokmat Samachar, Hindi Daily, Lucknow,18.11.2012
Amar Ujala, Hindi Daily, Lucknow,18.11.2012

High Tech News,Hindi Daily  Lucknow,18.11.2012

Hindustan, Hindi Daily, Lucknow,18.11.2012

Hindustan,City Live, Hindi Daily, Lucknow,18.11.2012
Awadh nama, Hindi Daily, Lucknow,18.11.2012

Rashtriya Swaroop, Hindi Daily, Lucknow,18.11.2012

Swadesh Chetna, Hindi Daily, Lucknow,18.11.2012
Swatantra Bharat, Hindi Daily, Lucknow,18.11.2012


 

Sunday, November 4, 2012

‘लिव इन रिलेशन’ यानी प्रेम और अधिकार का द्वन्द्व

लेख
  
- डॉ. शरद सिंह

 ‘ये किसने कहा कि मैं तुमसे शादी करना चाहती हूं? कि तुमसे बच्चे पैदा करना चाहती हूं? तुम्हें पसंद करती हूं.....बस, इसीलिए तुम्हारा साथ चाहती हूं।’ मैंने कहा था।
‘फिर पसंद? प्रेम नहीं?’
ां-हां, वहीं...प्रेम....प्रेम करती हूं तुमसे।’
‘मेरे साथ रहोगी...बिना शादी किए? लिव इन रिलेशन?’ रितिक ने चुनौती-सी देते हुए पूछा था और मैं रितिक के जाल में फंस गई थी। कारण कि मैं अपने जीवन को अपने ढंग से जीना चाहती थी और ‘लिव इन रिलेशन’ वाला फंडा मुझे अपने ढंग जैसा लगा था। बिना विवाह किए किसी पुरुष के साथ पति-पत्नी के रूप में रहने की कल्पना ने मुझे रोमांचित कर दिया था। इसमें मुझे अपनी स्वतंत्रता दिखाई दी। मैं जब चाहे तब मुक्त हो सकती थी....वस्तुतः मुझे तो मुक्त ही रहना था....बंधन तो व
ां होता जहां किसी नियम का पालन किया जाता।
बंधन!...... बंधन के जो रूप मैंने अब तक देखे थे उनमें स्त्र को ही बंधे हुए पाया था। पुरुष तो बंध कर भी उन्मुक्त था...पूर्ण उन्मुक्त। वह पत्नी के होते हुए भी एक से अधिक प्रेमिकाएं रख सकता था, रखैलें रख सकता था, यहां-वहां फ्लर्ट कर सकता था...फिर भी समाज की दृष्टि में वह क्षमा योग्य ही बना रहता। सच तो यह है कि मैंने अपने बचपन में ही बंधन को तार-तार होते देखा था। वैवाहिक बंधन का विकृत रूप ही तो था वह जो किसी फसिल के समान मेरे मन की चट्टानों के बीच दबा हुआ था, एकदम सुरक्षित।
- यह एक छोटा-सा अंश है ‘कस्बाई सिमोन’ उपन्यास का। जो अनेक प्रश्न सामने रख जाता है। 


                         
‘लिव इन रिलेशन’ महानगरों में एक नई जीवनचर्या के रूप में अपनाया जा रहा है। यह माना जाता है कि स्त्र इसमें रहती हुई अपनी स्वतंत्राता को सुरक्षित अनुभव करती है। उसे जीवनसाथी द्वारा दी जाने वाली प्रताड़ना सहने को विवश नहीं होना पड़ता है। वह स्वयं को स्वतंत्रा पाती है। लेकिन महानगरों में अपरिचय का वह वातावरण होता है जिसमें पड़ोसी परस्पर एक-दूसरे को नहीं पहचानते हैं। कस्बों में सामाजिक स्थिति अभी धुर पारंपरागत है। ऐसे वातावरण में एक
स्त्र यदि ‘लिव इन रिलेशन’ को अपनाती है तो उसे क्या मिलता है?... और वह क्या खोती है?....क्या एक कस्बाई औरत ‘लिव इन रिलेशन’ में मानसिक सुकून पा सकती है? उस किन-किन स्तरों पर समझौते करने पड़ते हैं? बड़ा ही कठिन विमर्श है यह।
यह माना जाता है कि
स्त्र को आर्थिक अधिकार पुरुषों के बराबर न होने के कारण विवाहिताएं अपने पति द्वारा छोड़ दिए जाने से भयभीत रहती हैं। वे जानती हैं कि परितक्त्या स्त्र को समाज सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता है। लेकिन यदि वह आर्थिक रूप से समर्थ हो, स्वयं कमाती हो तो क्या उसे समाज में सम्मान मिल सकता है? यदि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद महिलाओं की एक पीढ़ी का बहुमुखी विकास हो चुका होता तो आज देश में महिलाओं की दशा का परिदृश्य कुछ और ही होता। उस स्थिति में न तो दहेज हत्याएं होतीं, न मादा-भ्रूण हत्या और न महिलाओं के विरुद्ध अपराध का ग्राफ इतना ऊपर जा पाता। उस स्थिति में झारखण्ड या बस्तर में स्त्रियों को न तो ‘डायन’ घोषित किया जाता और न तमाम राज्यों में बलात्कार की घटनाओं में बढ़ोत्तरी हो पाती। महिलाओं को कानूनी सहायता लेने का साहस तो रहता।
 
स्त्र की शिक्षा पर उसका परिवार उसका दस प्रतिशत भी व्यय नहीं करता है जितना वह उस स्त्र के विवाह में दिखावे और दहेज के रूप में व्यय कर देता है। परिवार के लिए पुत्र का महत्व पुत्र की अपेक्षा आज भी अधिक है। स्त्र का दैहिक शोषण आज भी आम बात है।  घर, कार्यस्थल, सड़क, परिवहन, चिकित्सालय, मनोरंजन स्थल आदि कहीं भी स्त्र स्वयं को पूर्ण सुरक्षित अनुभव नहीं कर पाती है। अभी स्त्रियों को अपना भविष्य संवारने के लिए बहुत संघर्ष करना है। उन्हें अभी पूरी तरह सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, राजनीतिक एवं मातृत्व का अधिकार प्राप्त करना है जिस दिन उसे अपने सारे अधिकार मिल जाएंगे जो कि देश की नागरिक एवं मनुष्य होने के नाते उसे मिलने चाहिए, उस दिन एक स्वस्थ समाज की कल्पना भी साकार हो सकेगी। जिसमें स्त्र और पुरुष सच्चे अर्थों में बराबरी का दर्जा रखेंगे।
                          

हर औरत अपने अस्तित्व को जीना चाहती है, पुरुष के साथ किन्तु अपने अधिकारों के साथ। पुरुष से अधिक नहीं तो पुरुष से कम भी नहीं। क्योंकि कम होने की पीड़ा सदियों से झेलती आ रही है और अब बराबर होने का सुख पाना चाहती है। यही ललक उसे ‘लिव इन रिलेशन’ के प्रति आकर्षित करती है। किन्तु यह तो जांचना आवश्यक है कि इसमें भी स्त्र क्या-क्या खोती है और क्या-क्या पाती है?  ‘लिव इन रिलेशन’ वस्तुतः प्रेम और अधिकार का द्वन्द्व है जिसकी तह तक पहुंचना हर स्त्र के लिए आवश्यक है।    
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(साभार- दैनिक नेशनल दुनियामें 04.11.2012 को प्रकाशित मेरा लेख)