मित्रो, ‘इंडिया इन साइड’ के January 2015 अंक के शानदार विशेषांक में ‘वामा’ स्तम्भ में प्रकाशित मेरा लेख आप सभी के लिए ....
पढ़ें और विचार दें ...
आपका स्नेह मेरा उत्साहवर्द्धन करता है.......
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(प्रकाशित लेख...Article Text....)...औरत के लिए अभी बाकी हैं और इम्तिहां
- डॅा शरद सिंह
वर्ष 2014 इस मेरी इस नज़्म में दर्ज बयान की तरह संदेषा छोड़ कर गुज़र
गया। अपने पीछे छोड़ गया है वे बुनियादी सवाल जिनके उत्तर अभी पाने शेष
हैं। देश को स्वतंत्र हुए दषकों व्यतीत हो गए, संविधान को लागू हुए भी
दशकों गुजर गए, किन्तु स्त्री की सामाजिक दशा में कितना सुधार आया? इतना ही
न कि चंद स्त्रियां कर्पोरेट जगत में स्थापित हो गईं, चंद स्त्रियां बड़े
राजनीतिक पदों पर दिखाई देने लगीं और चंद स्त्रियां प्रगति की पर्याय नज़र
आने लगीं। उन स्त्रियों का क्या, जो गांवों, कस्बों अथवा महानगरों की
निम्नमाध्यम अथवा निम्न तबके की बस्तियों में रहती हैं? किसी भी प्रगति को
अंाकड़ों के माध्यम से गिनाना जितना आसान होता है, सच्चाई के पोट्रेट के
रूप में सामने रखना उतना ही कठिन होता है। मोटे तौर पर देखा जाए तो वर्ष
2014 स्त्रियों के पक्ष में अच्छा ही रहा। भारतीय उपमहाद्वीप की एक युवा
स्त्री मलाला को नोबल पुरस्कार मिला, भारत में मेरी कोम पर बायोपिक बनी और
सराही गई, कंगना रानाउत की फिल्म ‘क्वीन’ को इस बात के लिए प्रगतिशील फिल्म
माना गया कि वह विवाह टूटने पर अकेली ही योरोप घूमने निकल पड़ती है।
किन्तु बात वही कि एक सामान्य भारतीय स्त्री का क्या हाल रहा 2014 में ?
दो नाबालिग लड़कियों को बलात्कार के बाद पेड़ पर फांसी के फंदे से लटका
दिया गया जो कि नृशंसता की सभी सीमाएं लांघने वाली घटना थी। झांसी से बीना
जंक्शन के बीच एक युवती को मात्र इस बात पर कुछ मनचलों ने चलती ट्रेन से
नीचे फंेक दिया कि उसने जबर्दस्ती उसकी सीट पर बैठने का विरोध करते हुए उन
मनचलों को डंाटा था। देश की राजधानी में एक युवती कैब-ड्राईवर की हवस का
शिकार बनी। छोटी बच्चियां तो मानो आपराधिक मनोवृत्तियों का आसान शिकार
रहीं। शौच के लिए जाने वाली कई स्त्रियां बलात्कार की शिकार बनीं। अनेक ऐसी
घटनाएं हैं जो न मीडिया में जगह पा सकीं और न किसी पुलिस-थाने में दजऱ्
हो पाईं।
कुछ खट्टा, कुछ मीठा, कुछ कड़वा अनुभव दे कर वर्ष 2014 चला
गया लेकिन गोया कुछ नसीहतें दे गया, कुछ सबक छोड़ गया है जिसे अब वर्ष 2015
के ऐजेंडे में उन्हें रखना ही होगा, यदि स्त्री को सुरक्षित, विकासशील और
एक स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में देखना चाहते हैं तो।
नए साल के
ऐजेंडे पर स्त्री को रखते हुए कुछ मुद्दे सुनिश्चित करने होंगे। जैसे पहला
और सबसे ज्वलंत मुद्दा है कि स्त्री के प्रति उन पुरुषों की सोच को बदलना
होगा जो स्त्री को मात्र देह अथवा उपभोग की वस्तु के रूप में देखते हैं।
ऐसे पुरुषों की सोच को बदलने के लिए कानूनी ही नहीं अपितु सामाजिक स्तर पर
भी कठोरता बरतनी होगी। बलात्कार आखिर बलात्कार होता है, वह चाहे वयस्क
पुरुष करे अथवा अवयस्क पुरुष। बलात्कार एक बायोलाॅजिकल अपराध है जो शारीरिक
वयस्कता पर आधारित होता है। अतः कानूनी स्तर पर ऐसे मामलों में जुवेनाईल
की परिभाषा बदलनी होगी। तभी अवयस्क बलात्कारियों पर अंकुश लग सकेगा। साथ
ही, किसी भी आयुवर्ग के बलात्कारी का सामाजिक बहिष्कार भी जरूरी है जिससे
ऐसे अपराधियों पर भय व्याप्त हो सके।
देश में प्रतिदिन 92 बलात्कार के
मामले दर्ज होते हैं। बलात्कार जैसे अपराध के विरुद्ध स्त्री-पुरुषों को
एकजुट होना होगा। हमारे परिवार की लड़की या स्त्री सदा सुरक्षित रहेगी यह
सोचते हुए मात्र तमाशबीन बने हुए हाथ पर हाथ रख कर बैठे रहने से समस्या का
हल नहीं निकलेगा। स्त्री की सुरक्षा को ले कर एकजुट होना जरूरी है। उन
कारणों की तह तक जाना होगा जो इस प्रकार के अपराध को बढ़ावा देते हैं।
बयानबाजी में अकसर स्त्रियों के वेशभूषा को जिम्मेदार ठहराया जाता है, इस
तथ्य को भुला कर कि बलात्कार की शिकार होने वाली तीन साल की या छः साल की
बच्चियां कौन-सी अश्लील डेªस पहनती हैं।
स्कूल, काॅलेज की लड़कियों को
जींस, पैंट के बदले सलवारसूट पहना कर उन्हें बलात्कारियों की कुदृष्टि से
बचाया जा सकता है, यह सोच हास्यास्पद है। पहले परखना होगा अपने परिवार,
समाज के लड़कों के संस्कारों को। उन्हें सिखाना होगा वे लड़कियों को अपने
समकक्ष मानें, दोयम दर्जे की या उपभोग की वस्तु नहीं। इस वर्ष के ऐजेंडे
का यही पहला मुद्दा रहे कि स्त्रियों के प्रति होने वाली यौनहिंसा को किस
प्रकार निर्मूल किया जाए।
दूसरा मुद्दा है शौचालय का। तमाम सर्वेक्षणों
से यही बात बार-बार सामने आती है कि शौचालय के अभाव का गरीबी से विशेष
ताल्लुक नहीं है। सरकार के द्वारा सार्वजनिक सुलभ शौचालय बनवाए जाते हैं
तथा घरों में शौचालय बनवाने के लिए सहायता राशि उपलब्ध कराई जाती है।
ग्रामीण अंचलों एवं झुग्गी-बस्तियों में टी.वी. और मोटरसायकिलें तो मिल
जाती है किन्तु शौचालय नहीं मिलता है। इस बुनियादी आवश्यकता के प्रति किसी
का ध्यान ही नहीं जाता है। जबकि शौचालय के अभाव में स्त्रियों को समय-असमय
घर से बाहर अकेले निकलने को विवश होना पड़ता है। फिर भी न तो वे स्त्रियां
घर में शौचालय की मांग करती हैं और न घर के पुरुष इस ओर ध्यान देते हैं। इस
प्रकार जागरूकता की कमी समस्या को जस का तस बनाए हुए है। कम से कम वर्ष
2015 में तो यह मुद्दा समाप्त हो ही जाना चाहिए।
तीसरा मुद्दा है,
स्त्री शिक्षा का। राजा राममोहन राय के चला आ रहा स्त्रीशिक्षा का संघर्ष
आज भी पूरी तरह अपने परिणाम पर नहीं पहुंचा है। गंावों और झुग्गी बस्तियों
में रहने वाली असंख्य स्त्रियां आज भी अपढ़ हैं। असंख्य ऐसी हैं जिन्होंने
स्कूल में प्रवेश तो लिया किन्तु अक्षर ज्ञान तक सीमित रह गईं। बेशक
गांव-गंाव में लड़कियों के लिए सरकारी स्कूल हैं लेकिन उन स्कूलों में
पढ़ाई कैसी होती है, यह किसी से छिपा नहीं है। ऐसे प्रायमरी स्कूलों में
दो-चार कक्षा तक पढ़ी बच्चियों को लिखना तो दूर शुद्ध-साफ बोलना भी नहीं
आता है। इस सच्चाई का उदाहरण यदि देखना है तो दूर जाने की बजाए अपने-अपने
घरों की कामवालियों और उनकी बच्चियों को देखा जा सकता है। राज्य सरकारों
द्वारा चलाए जाने वाली ‘मिड डे मील’ योजना उन्हें स्कूल के प्रति आकर्षित
तो कर सकती हैं किन्तु ईमानदार शिक्षकों की कमी के चलते उन्हें शिक्षित
कैसे कर सकती है? यदि आंकड़ों पर ही शिक्षा को मापें तब भी स्त्री-शिक्षा
का आंकड़ा शत-प्रतिशत पर नहीं पहुंच सका है। इस मुद्दे को भी ईमानदारी से
निपटाना होगा, अन्यथा साल क्या, सदियों बाद भी देश की अधिकांश औरतें
अल्पशिक्षित ही रहेंगी।
चैथा मुद्दा है राजनीति में स्त्रियों के
वास्तविक स्थान का। निःसंदेह पंच, सरपंच, मेयर, विधायक, सांसद जैसे
राजनीतिक पदों पर स्त्रियों के लिए सीट सुरक्षित कर के स्थान सुनिश्चित
किया जाने लगा है किन्तु इस तथ्य का सर्वेक्षण किया जाना भी जरूरी है कि
कितनी राजनीतिक पदधारी स्त्रियां अपने बलबूते पर निर्णय ले पाती हैं?
गांव-गांव में ‘सरपंच पति’, ‘पार्षद पति’ को बोलबाला रहता है। सारे निर्णय
पति अथवा परिवार के पुरुष लेते हैं और वे सरपंच अथवा पार्षद स्त्रियां ‘रबर
स्टैम्प’ की भांति उनके निर्णय पर खामोशी से मुहर लगाती रहती हैं। राजनीति
में स्त्रियों के बढ़ते वर्चस्व की तस्वीर वाले कोलाज़ का यह टुकड़ा
निहायत भद्दा और झुठ का पुलन्दा है। इस टुकड़े की कड़ाई से जांच किए जाने
की जरूरत है वरना हमारे स्त्री-प्रगति के किस्से थोथे चने की तरह बजते
रहेंगे और स्त्रियां उसी तरह दोयम दर्जे पर ही खड़ी रहेंगी।
पांचवा
और अंतिम मुद्दा है स्त्री द्वारा आत्मावलोकन का। इस नए वर्ष में स्त्रियों
को अपने भीतर झांकना चाहिए। चाहे वह मां हो, सास हो, बेटी हो, बहू हो या
किसी भी रूप में हो, उसे खुद को परखना होगा कि वह अन्य स्त्रियों के प्रति
कितनी सहज और उत्तरदायित्वपूर्ण है? निर्जीव सामानों की खातिर जीवित बहू को
प्रताडि़त करना अथवा उन्हें मौत के मुंह में झोंक देना स्त्री प्रकृति को
कलंकित करने वाला व्यवहार है। स्त्रियों की बहुत सारी समस्याएं तो मात्र
इसी बात समाप्त हो सकती है कि यदि एक स्त्री पर संकट आए तो दूसरी स्त्रियां
उसके पक्ष में जा खड़ीं हों और उसकी मदद करें। यदि स्त्रियां अपने
अस्तित्व, अपनी आशाओं, अपनी आकांक्षाओं को पहचान लें तो वर्ष 2015
स्त्रियों पक्ष में सार्थक हो जाएगा।
धर्मान्तरण, धर्म-वापसी, लव जेहाद
जैसे निरर्थक मुद्दों से कहीं अधिक जरूरी हैं ये पांच मुद्दे जिन्हें मेरे
विचार से वर्ष 2015 के स्त्री-ऐजेंडे में होना चाहिए।
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