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My Editorials - Dr Sharad Singh
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Sunday, July 31, 2016
Thursday, July 28, 2016
23वीं पावस व्याख्यानमाला , 23-24 जुलाई 2016 को हिन्दी भवन, भोपाल (मध्यप्रदेश)
Dr ( Miss) Sharad Singh at Pavas Vyakhyanmala 2016, 23-24 July, Bhopal (MP) India |
‘‘समकालीन उपन्यासों में थर्ड जेंडर की सामाजिक उपस्थिति’’ विषय पर अपना व्याख्यान देते हुए मैंने थर्ड जेंडर पर आधारित हिन्दी के पांच प्रतिनिधि उपन्यासों की चर्चा की। मैंने कहा कि थर्ड जेंडर को सामाजिक समानता के अधिकार दिलाने में साहित्य महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। आवश्यकता है ऐसे साहित्य पर एक स्वतंत्र विमर्श की।
इस पावस व्याख्यानमाला में देश भर से आए साहित्यकारों में प्रो. पुष्पेश पंत, सूर्यबाला, डाॅ. सदानंद गुप्त, डाॅ. डी एन प्रसाद, डाॅ शंकर शरण, नीरजा माधव, प्रो. रमेश दवे, प्रो. रमेशचंद्र शाह, कैलाशचन्द्र पंत, नरेन्द्र दीपक, डाॅ. संतोष चौबे, आचार्य भगवत दुबे, राजकुमार सुमित्र आदि की उपस्थिति महत्वपूर्ण रही।
Dr ( Miss) Sharad Singh at Pavas Vyakhyanmala 2016, 23-24 July, Bhopal (MP) India |
Dr ( Miss) Sharad Singh at Pavas Vyakhyanmala 2016, 23-24 July, Bhopal (MP) India |
Dr ( Miss) Sharad Singh at Pavas Vyakhyanmala 2016, 23-24 July, Bhopal (MP) India |
Dr ( Miss) Sharad Singh at Pavas Vyakhyanmala 2016, 23-24 July, Bhopal (MP) India |
Dr ( Miss) Sharad Singh at Pavas Vyakhyanmala 2016, 23-24 July, Bhopal (MP) India |
सागर के अखबारों में मेरा व्याख्यान ....
Dr (Miss) Sharad Singh in Pavas Vyakhyanmala, Bhopal - 2016, 23-24 July |
‘‘समकालीन उपन्यासों में थर्ड जेंडर की सामाजिक उपस्थिति’’ विषय पर अपना व्याख्यान देते हुए मैंने थर्ड जेंडर पर आधारित हिन्दी के पांच प्रतिनिधि उपन्यासों की चर्चा की। मैंने कहा कि थर्ड जेंडर को सामाजिक समानता के अधिकार दिलाने में साहित्य महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। आवश्यकता है ऐसे साहित्य पर एक स्वतंत्र विमर्श की।
इस पावस व्याख्यानमाला में देश भर से आए साहित्यकारों में प्रो. पुष्पेश पंत, सूर्यबाला, डाॅ. सदानंद गुप्त, डाॅ. डी एन प्रसाद, डाॅ शंकर शरण, नीरजा माधव, प्रो. रमेश दवे, प्रो. रमेशचंद्र शाह, कैलाशचन्द्र पंत, नरेन्द्र दीपक, डाॅ. संतोष चैबे, आचार्य भगवत दुबे, राजकुमार सुमित्र आदि की उपस्थिति महत्वपूर्ण रही।
Patrika, Sagar Edition, 28.07.2016 |
Sagar Dinkar, Sagar Edition, 27.07.2016 |
Deshbandhu, Sagar Edition, 26.07.2016 |
Nav Dunia, Sagar Edition, 26.07.2016 |
Dainik Bhaskar, Sagar Edition, 28.07.2016 |
भोपाल के अखबारों में मेरा व्याख्यान ....
Dr (Miss) Sharad Singh in Pavas Vyakhyanmala, Bhopal - 2016, 23-24 July |
मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति भोपाल द्वारा 23-24 जुलाई 2016 को हिन्दी भवन, भोपाल (मध्यप्रदेश) में आयोजित दो दिवसीय 23वीं पावस व्याख्यानमाला में ‘‘समकालीन हिन्दी उपन्यासों में सामाजिक दृष्टि’’ विषय पर मैंने (डाॅ. शरद सिंह) अपने वक्तव्य में कहा कि ‘‘मैं इस मंच से थर्ड जेंडर विमर्श को आरम्भ किए जाने की घोषणा करती हूं।’’ वहां उपस्थित सभी बुद्धिजीवियों ने मेरी इस घोषणा का स्वागत एवं समर्थन किया।
‘‘समकालीन उपन्यासों में थर्ड जेंडर की सामाजिक उपस्थिति’’ विषय पर अपना व्याख्यान देते हुए मैंने थर्ड जेंडर पर आधारित हिन्दी के पांच प्रतिनिधि उपन्यासों की चर्चा की। मैंने कहा कि थर्ड जेंडर को सामाजिक समानता के अधिकार दिलाने में साहित्य महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। आवश्यकता है ऐसे साहित्य पर एक स्वतंत्र विमर्श की।
इस पावस व्याख्यानमाला में देश भर से आए साहित्यकारों में प्रो. पुष्पेश पंत, सूर्यबाला, डाॅ. सदानंद गुप्त, डाॅ. डी एन प्रसाद, डाॅ शंकर शरण, नीरजा माधव, प्रो. रमेश दवे, प्रो. रमेशचंद्र शाह, कैलाशचन्द्र पंत, नरेन्द्र दीपक, डाॅ. संतोष चैबे, आचार्य भगवत दुबे, राजकुमार सुमित्र आदि की उपस्थिति महत्वपूर्ण रही।
‘‘समकालीन उपन्यासों में थर्ड जेंडर की सामाजिक उपस्थिति’’ विषय पर अपना व्याख्यान देते हुए मैंने थर्ड जेंडर पर आधारित हिन्दी के पांच प्रतिनिधि उपन्यासों की चर्चा की। मैंने कहा कि थर्ड जेंडर को सामाजिक समानता के अधिकार दिलाने में साहित्य महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। आवश्यकता है ऐसे साहित्य पर एक स्वतंत्र विमर्श की।
इस पावस व्याख्यानमाला में देश भर से आए साहित्यकारों में प्रो. पुष्पेश पंत, सूर्यबाला, डाॅ. सदानंद गुप्त, डाॅ. डी एन प्रसाद, डाॅ शंकर शरण, नीरजा माधव, प्रो. रमेश दवे, प्रो. रमेशचंद्र शाह, कैलाशचन्द्र पंत, नरेन्द्र दीपक, डाॅ. संतोष चैबे, आचार्य भगवत दुबे, राजकुमार सुमित्र आदि की उपस्थिति महत्वपूर्ण रही।
Navbharat, Bhopal Edition, 25.07.2016 |
Raj Express, Bhopal Edition, 25.07.2016 |
Dainik Jagaran, Bhopal Edition, 25.07.2016 |
Nai Dunia News, Bhopal Edition, 25.07. 2016 |
Wednesday, July 27, 2016
चर्चा प्लस ... थर्ड जेंडर के पक्ष में साहित्यिक विमर्श की घोषणा ... - डाॅ. शरद सिंह
मेरा कॉलम "चर्चा प्लस" "दैनिक सागर दिनकर" में (27. 07. 2016) .....
My Column Charcha Plus in "Dainik Sagar Dinkar" .....
चर्चा प्लस
थर्ड जेंडर के पक्ष में साहित्यिक विमर्श की घोषणा
- डाॅ. शरद सिंह
Dr (Miss) Sharad Singh in Pavas Vyakhyanmala, Bhopal - 2016, 23-24 July |
23-24 जुलाई 2016 को हिन्दी भवन, भोपाल में आयोजित दो दिवसीय 23वीं पावस
व्याख्यानमाला में ‘‘समकालीन उपन्यासों में थर्ड जेंडर की सामाजिक
उपस्थिति’’ विषय पर अपना व्याख्यान देते हुए मैंने स्पष्ट शब्दों में कहा
कि ‘‘इस मंच से थर्ड जेंडर विमर्श को आरम्भ किए जाने की मैं घोषणा करती
हूं।’’ वहां उपस्थित बुद्धिजीवियों ने मेरी इस घोषणा का स्वागत किया। मैंने
कहा कि थर्ड जेंडर को सामाजिक समानता के अधिकार दिलाने में साहित्य
महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है और आवश्यकता है ऐसे साहित्य पर एक स्वतंत्र
विमर्श की। सभी ने मेरी बात का समर्थन किया। मैंने अनुभव किया कि सभी
उत्सुक हैं इस नए विमर्श के आगाज़ के लिए।
बीसवीं शती के उत्तर्राद्ध और इक्कीसवीं सदी के आरम्भ में हिन्दी साहित्य जगत में स्त्री विमर्श और दलित विमर्श जैसे महत्वपूर्ण विमर्श उभर कर सामने आए। इन विमर्शों के अंतर्गत् भारतीय समाज के उन पक्षों पर विस्तार से चर्चा हुई जो मुख्य विषय बन ही नहीं पाते थे। सदियों से उपेक्षित जीवन जी रहे दलितों के जीवन को उपन्यासों का हिस्सा बनाया गया, समाज में दोयम दर्जे पर देखी जाने वाली स्त्रियों की दशा और अधिकारों की सशक्त वक़ालत की गई। अब एक नए विमर्श की आवश्यकता है, वह है- ‘थर्ड जे़ंडर’ पर विमर्श।
ऐसा नहीं है कि साहित्य में ‘थर्ड जे़ंडर’ पर पहली बार कुछ लिखा गया हो, महाकाव्यकाल में ‘महाभारत’ महाकाव्य में ‘शिखण्डी’ एक ऐसा ही पात्र था जो ‘थर्ड जे़ंडर’ था। अर्जुन ने अपने अज्ञातवास का एक साल का समय भी किन्नर का रूप धारण कर ‘बृहन्नला’ के नाम से बिताया था। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में किन्नरों का उल्लेख किया है। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार, हिंदू और मुसलिम शासकों द्वारा किन्नरों का इस्तेमाल खासतौर पर अंतःपुर और हरम में रानियों की पहरेदारी के लिए किया जाता था। इसके पीछे उनकी सोच यह थी कि रानियां पहरेदारों से अवैध संबंध स्थापित नहीं कर पाएं। दिल्ली की सल्तनत के दौरान किन्नर महत्वपूर्ण पदों पर रहे हैं। अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में किन्नर वरिष्ठ सैनिक अधिकारी रहे हैं। खिलजी का एक प्रमुख पदाधिकारी मलिक गफूर था, जो किन्नर था। उसी के प्रयासों से खिलजी ने दक्षिण भारत में अपने साम्राज्य का विस्तार किया। गुजरात में सुलतान मुजफ्फर के शासनकाल में एक किन्नर मुमित-उल-मुल्क कोतवाल था। जहांगीर के शासनकाल में कई किन्नर महत्वपूर्ण पदों पर थे। एक किन्नर ख्वाजासरा हिलाल प्रमुख प्रशासनिक पद पर था। इफ्तिखार खान भी एक किन्नर था जिसे जहांगीर ने उसे एक जागीर का फौजदार बना दिया।
जिस समाज में स्त्री और पुरुष रहते हैं उसी समाज में एक वर्ग और है, जो पारिवारिक अनुष्ठानों में आशीष देने का कार्य करता है। माना जाता है कि इस वर्ग का आशीर्वाद आनुवंशिक समृद्धि लाती है। पर समाज का कोई भी व्यक्ति उनके जैसे जीवन की स्वप्न में भी आकांक्षा नहीं करता। यह वर्ग है ‘थर्ड जेंडर’, जिसे ‘हिजड़ा’, ‘किन्नर’, ‘ख्वाजासरा’ आदि नामों से पुकारा जाता है। मुख्यधारा के समाज में बहिष्कृत, व्यंग्य, घृणा, तिरस्कार आदि सहने को अभिशप्त इस श्रेणी के इंसानों की यौन स्थिति के आधार पर कई और नामों से पुकारा जाता है जैसे ‘किन्नर’, ‘उभयलिंगी’, ‘शिखंडी’ वगैरह।
समय-समय पर कहानियों, नाटकों एवं उपन्यासों में ‘थर्ड जे़ंडर’ पात्र आते रहे हैं लेकिन उनका उल्लेख मुख्य पात्र के रूप में नहीं हुआ। किन्तु समकालीन कथाकारों ने ‘थर्ड जे़ंडर’ के जीवन की ओर गंभीरता से ध्यान दिया। यूं भी विगत दो दशकों में ‘थर्ड जे़ंडर’ ने भी अपने सामाजिक अधिकारों की लड़ाई लड़ने की पहल की। जिसके परिणाम स्वरूप राजनीति, शिक्षा और फैशन जगत् में ‘थर्ड जे़ंडर’ को महत्वपूर्ण दायित्व सौंपे गए। शबनम मौसी, कमला जान, आशा देवी, कमला किन्नर, मधु किन्नर और ट्रांसजेंडर एक्टिविस्ट लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी वे नाम हैं जिन्होंने चुनाव में बहुमत से विजय प्राप्त कर के विधायक और महापौर तक के पद सम्हाले।
थर्ड जेंडर विमर्श की घोषणा
23-24 जुलाई 2016 को हिन्दी भवन, भोपाल में आयोजित दो दिवसीय 23वीं पावस व्याख्यानमाला में ‘‘समकालीन उपन्यासों में थर्ड जेंडर की सामाजिक उपस्थिति’’ विषय पर अपना व्याख्यान देते हुए मैंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि ‘‘इस मंच से थर्ड जेंडर विमर्श को आरम्भ किए जाने की मैं घोषणा करती हूं।’’ वहां उपस्थित बुद्धिजीवियों ने मेरी इस घोषणा का स्वागत किया। मैंने कहा कि थर्ड जेंडर को सामाजिक समानता के अधिकार दिलाने में साहित्य महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है और आवश्यकता है ऐसे साहित्य पर एक स्वतंत्र विमर्श की। सभी ने मेरी बात का समर्थन किया। मैंने अनुभव किया कि सभी उत्सुक हैं इस नए विमर्श के आगाज़ के लिए। मैंने अपनी बात के तर्क में थर्ड जेंडर से जुड़ी जमीनी सच्चाइयों के साथ ही हिन्दी के उन पांच महत्वपूर्ण उपन्यासों पर विस्तार से चर्चा की जो थर्ड जेंडर पर आधारित हैं। ये पांच उपन्यास हैं - नीरजा माधव का ‘यमदीप’ (2002), प्रदीप सौरभ का ‘तीसरी ताली’ (2011), महेन्द्र भीष्म का ‘किन्नर कथा’ (2011), निर्मला भुराड़िया का ‘गुलाम मंडी’ (2014) और चित्रा मुद्गल का ‘पोस्ट बाॅक्स नं. 203 नाला सोपारा’ (2016)। इस विषय पर मेरी एक पुस्तक भी आने वाली है।
हर दृष्टि से सक्षम है थर्ड जेंडर
देश की पहली ट्रांसजेंडर प्राचार्य बन कर मानबी बंदोपाध्याय ने सिद्ध कर दिया कि किन्नर अथवा ‘थर्ड जे़ंडर’ किसी भी विद्वत स्त्री-पुरुष की भांति शिक्षा जगत के उच्च पद तक पहुंच सकते हैं। इसके साथ ही यह भी स्वतः सिद्ध हो गया कि ‘थर्ड जे़ंडर’ के प्रति समाज का दृष्किोण सकारात्मक होने लगा है। समाज अब उन्हें सिर्फ़ बधाई गाने वाले समूह के सदस्य के रूप में, फूहड़ मेकअप कर के अश्लील नृत्य करने वाला न मानते हुए यह स्वीकार करने लगा है कि ‘थर्ड जे़ंडर’ भी समाज के विभिन्न क्षेत्रों में काम कर सकते हैं और अपनी योग्यता साबित कर सकते हैं। प्राचार्य बनने के पूर्व मानबी विवेकानंद महाविद्यालय में बांग्ला की एसोसिएट प्रोफेसर रह चुकी थी। जितना सच यह है कि उसने साहस से काम लेते हुए अपना संघर्ष जारी रखा, उतना ही सच यह भी है कि उसे क़दम-क़दम पर बाधाओं और उपेक्षा का सामना करना पड़ा।
किन्नर लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी ने अपनी आत्मकथा ‘मी हिजड़ा मी लक्ष्मी’ में अपने जीवन के संघर्षों का विस्तृत विवरण दिया है। किन्नर लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी के संघर्ष के परिणामस्वरूप ही अप्रैल 2015 में उच्चतम न्यायालय ने किन्नरों को तीसरे लिंग अर्थात् ‘थर्ड जेंडर’ की मान्यता प्रदान की। उज्जैनी सिंहस्थ 2016 में किन्नर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी को महामंडलेश्वर की पदवी प्रदान की गई थी।
बीसवीं शती के उत्तर्राद्ध और इक्कीसवीं सदी के आरम्भ में हिन्दी साहित्य जगत में स्त्री विमर्श और दलित विमर्श जैसे महत्वपूर्ण विमर्श उभर कर सामने आए। इन विमर्शों के अंतर्गत् भारतीय समाज के उन पक्षों पर विस्तार से चर्चा हुई जो मुख्य विषय बन ही नहीं पाते थे। सदियों से उपेक्षित जीवन जी रहे दलितों के जीवन को उपन्यासों का हिस्सा बनाया गया, समाज में दोयम दर्जे पर देखी जाने वाली स्त्रियों की दशा और अधिकारों की सशक्त वक़ालत की गई। अब एक नए विमर्श की आवश्यकता है, वह है- ‘थर्ड जे़ंडर’ पर विमर्श।
ऐसा नहीं है कि साहित्य में ‘थर्ड जे़ंडर’ पर पहली बार कुछ लिखा गया हो, महाकाव्यकाल में ‘महाभारत’ महाकाव्य में ‘शिखण्डी’ एक ऐसा ही पात्र था जो ‘थर्ड जे़ंडर’ था। अर्जुन ने अपने अज्ञातवास का एक साल का समय भी किन्नर का रूप धारण कर ‘बृहन्नला’ के नाम से बिताया था। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में किन्नरों का उल्लेख किया है। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार, हिंदू और मुसलिम शासकों द्वारा किन्नरों का इस्तेमाल खासतौर पर अंतःपुर और हरम में रानियों की पहरेदारी के लिए किया जाता था। इसके पीछे उनकी सोच यह थी कि रानियां पहरेदारों से अवैध संबंध स्थापित नहीं कर पाएं। दिल्ली की सल्तनत के दौरान किन्नर महत्वपूर्ण पदों पर रहे हैं। अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में किन्नर वरिष्ठ सैनिक अधिकारी रहे हैं। खिलजी का एक प्रमुख पदाधिकारी मलिक गफूर था, जो किन्नर था। उसी के प्रयासों से खिलजी ने दक्षिण भारत में अपने साम्राज्य का विस्तार किया। गुजरात में सुलतान मुजफ्फर के शासनकाल में एक किन्नर मुमित-उल-मुल्क कोतवाल था। जहांगीर के शासनकाल में कई किन्नर महत्वपूर्ण पदों पर थे। एक किन्नर ख्वाजासरा हिलाल प्रमुख प्रशासनिक पद पर था। इफ्तिखार खान भी एक किन्नर था जिसे जहांगीर ने उसे एक जागीर का फौजदार बना दिया।
जिस समाज में स्त्री और पुरुष रहते हैं उसी समाज में एक वर्ग और है, जो पारिवारिक अनुष्ठानों में आशीष देने का कार्य करता है। माना जाता है कि इस वर्ग का आशीर्वाद आनुवंशिक समृद्धि लाती है। पर समाज का कोई भी व्यक्ति उनके जैसे जीवन की स्वप्न में भी आकांक्षा नहीं करता। यह वर्ग है ‘थर्ड जेंडर’, जिसे ‘हिजड़ा’, ‘किन्नर’, ‘ख्वाजासरा’ आदि नामों से पुकारा जाता है। मुख्यधारा के समाज में बहिष्कृत, व्यंग्य, घृणा, तिरस्कार आदि सहने को अभिशप्त इस श्रेणी के इंसानों की यौन स्थिति के आधार पर कई और नामों से पुकारा जाता है जैसे ‘किन्नर’, ‘उभयलिंगी’, ‘शिखंडी’ वगैरह।
समय-समय पर कहानियों, नाटकों एवं उपन्यासों में ‘थर्ड जे़ंडर’ पात्र आते रहे हैं लेकिन उनका उल्लेख मुख्य पात्र के रूप में नहीं हुआ। किन्तु समकालीन कथाकारों ने ‘थर्ड जे़ंडर’ के जीवन की ओर गंभीरता से ध्यान दिया। यूं भी विगत दो दशकों में ‘थर्ड जे़ंडर’ ने भी अपने सामाजिक अधिकारों की लड़ाई लड़ने की पहल की। जिसके परिणाम स्वरूप राजनीति, शिक्षा और फैशन जगत् में ‘थर्ड जे़ंडर’ को महत्वपूर्ण दायित्व सौंपे गए। शबनम मौसी, कमला जान, आशा देवी, कमला किन्नर, मधु किन्नर और ट्रांसजेंडर एक्टिविस्ट लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी वे नाम हैं जिन्होंने चुनाव में बहुमत से विजय प्राप्त कर के विधायक और महापौर तक के पद सम्हाले।
थर्ड जेंडर विमर्श की घोषणा
23-24 जुलाई 2016 को हिन्दी भवन, भोपाल में आयोजित दो दिवसीय 23वीं पावस व्याख्यानमाला में ‘‘समकालीन उपन्यासों में थर्ड जेंडर की सामाजिक उपस्थिति’’ विषय पर अपना व्याख्यान देते हुए मैंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि ‘‘इस मंच से थर्ड जेंडर विमर्श को आरम्भ किए जाने की मैं घोषणा करती हूं।’’ वहां उपस्थित बुद्धिजीवियों ने मेरी इस घोषणा का स्वागत किया। मैंने कहा कि थर्ड जेंडर को सामाजिक समानता के अधिकार दिलाने में साहित्य महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है और आवश्यकता है ऐसे साहित्य पर एक स्वतंत्र विमर्श की। सभी ने मेरी बात का समर्थन किया। मैंने अनुभव किया कि सभी उत्सुक हैं इस नए विमर्श के आगाज़ के लिए। मैंने अपनी बात के तर्क में थर्ड जेंडर से जुड़ी जमीनी सच्चाइयों के साथ ही हिन्दी के उन पांच महत्वपूर्ण उपन्यासों पर विस्तार से चर्चा की जो थर्ड जेंडर पर आधारित हैं। ये पांच उपन्यास हैं - नीरजा माधव का ‘यमदीप’ (2002), प्रदीप सौरभ का ‘तीसरी ताली’ (2011), महेन्द्र भीष्म का ‘किन्नर कथा’ (2011), निर्मला भुराड़िया का ‘गुलाम मंडी’ (2014) और चित्रा मुद्गल का ‘पोस्ट बाॅक्स नं. 203 नाला सोपारा’ (2016)। इस विषय पर मेरी एक पुस्तक भी आने वाली है।
हर दृष्टि से सक्षम है थर्ड जेंडर
देश की पहली ट्रांसजेंडर प्राचार्य बन कर मानबी बंदोपाध्याय ने सिद्ध कर दिया कि किन्नर अथवा ‘थर्ड जे़ंडर’ किसी भी विद्वत स्त्री-पुरुष की भांति शिक्षा जगत के उच्च पद तक पहुंच सकते हैं। इसके साथ ही यह भी स्वतः सिद्ध हो गया कि ‘थर्ड जे़ंडर’ के प्रति समाज का दृष्किोण सकारात्मक होने लगा है। समाज अब उन्हें सिर्फ़ बधाई गाने वाले समूह के सदस्य के रूप में, फूहड़ मेकअप कर के अश्लील नृत्य करने वाला न मानते हुए यह स्वीकार करने लगा है कि ‘थर्ड जे़ंडर’ भी समाज के विभिन्न क्षेत्रों में काम कर सकते हैं और अपनी योग्यता साबित कर सकते हैं। प्राचार्य बनने के पूर्व मानबी विवेकानंद महाविद्यालय में बांग्ला की एसोसिएट प्रोफेसर रह चुकी थी। जितना सच यह है कि उसने साहस से काम लेते हुए अपना संघर्ष जारी रखा, उतना ही सच यह भी है कि उसे क़दम-क़दम पर बाधाओं और उपेक्षा का सामना करना पड़ा।
किन्नर लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी ने अपनी आत्मकथा ‘मी हिजड़ा मी लक्ष्मी’ में अपने जीवन के संघर्षों का विस्तृत विवरण दिया है। किन्नर लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी के संघर्ष के परिणामस्वरूप ही अप्रैल 2015 में उच्चतम न्यायालय ने किन्नरों को तीसरे लिंग अर्थात् ‘थर्ड जेंडर’ की मान्यता प्रदान की। उज्जैनी सिंहस्थ 2016 में किन्नर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी को महामंडलेश्वर की पदवी प्रदान की गई थी।
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper |
बुनियादी जरूरतों की बात
आज भी मुख्यधारा के समाज में किसी व्यक्ति के साहस या उसकी वीरता पौरुष अथवा मर्दानगी पर सवाल लगाना होता है तो उसे ‘हिजड़ा’ कहकर दुत्कारा जाता है। यानि मुख्य यौनधारा के बहुसंख्यक पुल्लिंगी और स्त्रीलिंगी लोगों के लिए ‘हिजड़ा’ शब्द एक भद्दी गाली की तरह है। गर्भावस्था की गड़बड़ी के कारण पैदा होनेवाले एक खास तरह की लैंगिक स्थिति वाले लाखों हिजड़ों के बारे में मुख्यधारा की लैंगिक स्थिति वाले स्त्रियों और पुरुषों की यह नकारात्मक धारणा लैंगिक वर्चस्व का एक नमूना है। ‘थर्ड जेंडर’ की इस मानसिक पीड़ा को साहित्य के द्वारा ही सामने रखा जा सकता था और रखा भी गया है। विशेष रूप से औपन्यासिक विस्तार के माघ्यम से इस तथ्य को समझाया जा सकता था कि अपने जीवन से, अपनी योनि से, अपने लिंग से नफ़रत करते हुए जीवन बिताना आसान नहीं होता है और अपने इस उद्देश्य में समकालीन उपन्यास सफल हैं।
आर्थिक असमर्थता बेरोजगारी, शिक्षा का अभाव, तकनीकी अकुशलता और सबसे बड़ी समस्या परंपरागत पेशे का अज्ञान इन्हें वैश्यावृति को पेशा बनाने पर मजबूर करता है। लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी अपने साक्षात्कार में इस समुदाय की आर्थिक सामाजिक स्थिति के संदर्भ में कहती हैं कि ‘‘हिजड़ों के पास बुद्धि नहीं होती? उनके पास प्रतिभा नहीं होती ? बल नहीं होता? वह राजनीति में नहीं जा सकते? फौज में नहीं जा सकते? इन बातों को किन तर्कों के आधार पर तय किया? आप ने कलाकारों, प्रतिभावानों को मजबूर कर दिया पचास-पचास रुपए में देह बेचने को, ताली बजाने को।’’
हाल ही में ब्रिटेन में आवासीय स्कूलों के लिए आदेश जारी किए गए कि उन्हें ‘ही’ अथवा ‘शी’ के बजाए ‘जी’ सम्बोधन दिया जाए। यह स्वयं थर्ड जेंडर बच्चों की मांग थी। कई ऐसी बुनियादी बातें हैं जो थर्ड जेंडर को परेशान करती हैं जैसे- स्कूल, कालेजों एवं सार्वजनिक स्थानों में पृथक सुलभ शौचालय का न होना, शिक्षा का समान अवसर न मिलना, उनके विरुद्ध अपमानजनक स्थितियों तथा अपराधों को रोकने के लिए अलग पुलिस थाना न होना, नौकरी का समान अवसर न मिलना आदि। इनसे भी बड़ी बुनियादी समस्या है समाज का इनके प्रति दृष्टिकोण। यदि समाज स्वीकार कर ले कि थर्ड जेंडर भी सभी स्त्री-पुरुषों की भांति हैं, वे कोई अजूबा नहीं हैं तो उनकी प्राकृतिक कमी भी उन्हें विकास की मुख्यधारा से जोड़ने से नहीं रोक सकेगी। इसे एक आशाजनक कदम कहा जा सकता है कि हिन्दी साहित्य में अभी थर्ड जेंडर विमर्श अपनी आंखे खोल रहा फिर भी यह मानना पड़ेगा कि ‘यमदीप’, ‘तीसरी ताली’, ‘किन्नर कथा’, ‘गुलाम मंडी’; और ‘पोस्ट बाॅक्स नं. 203 नाला सोपारा’ उपन्यास किन्नर जीवन के परिदृश्यों को बखूबी सामने रखते हैं। ये प्रतिनिधि उपन्यास बताते हैं कि ‘थर्ड जेंडर’ किस तरह समाज का अभिन्न अंग है और उन्हें समाज में वही स्थान मिलना चाहिए जो किसी स्त्री अथवा पुरुष को मिलता है। समकालीन उपन्यासों में ‘थर्ड जे़ंडर’ के कथानकों को मिलना उनकी सामाजिक दृष्टि की सम्पन्नता एवं जागरूकता को रेखांकित करता है।
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आज भी मुख्यधारा के समाज में किसी व्यक्ति के साहस या उसकी वीरता पौरुष अथवा मर्दानगी पर सवाल लगाना होता है तो उसे ‘हिजड़ा’ कहकर दुत्कारा जाता है। यानि मुख्य यौनधारा के बहुसंख्यक पुल्लिंगी और स्त्रीलिंगी लोगों के लिए ‘हिजड़ा’ शब्द एक भद्दी गाली की तरह है। गर्भावस्था की गड़बड़ी के कारण पैदा होनेवाले एक खास तरह की लैंगिक स्थिति वाले लाखों हिजड़ों के बारे में मुख्यधारा की लैंगिक स्थिति वाले स्त्रियों और पुरुषों की यह नकारात्मक धारणा लैंगिक वर्चस्व का एक नमूना है। ‘थर्ड जेंडर’ की इस मानसिक पीड़ा को साहित्य के द्वारा ही सामने रखा जा सकता था और रखा भी गया है। विशेष रूप से औपन्यासिक विस्तार के माघ्यम से इस तथ्य को समझाया जा सकता था कि अपने जीवन से, अपनी योनि से, अपने लिंग से नफ़रत करते हुए जीवन बिताना आसान नहीं होता है और अपने इस उद्देश्य में समकालीन उपन्यास सफल हैं।
आर्थिक असमर्थता बेरोजगारी, शिक्षा का अभाव, तकनीकी अकुशलता और सबसे बड़ी समस्या परंपरागत पेशे का अज्ञान इन्हें वैश्यावृति को पेशा बनाने पर मजबूर करता है। लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी अपने साक्षात्कार में इस समुदाय की आर्थिक सामाजिक स्थिति के संदर्भ में कहती हैं कि ‘‘हिजड़ों के पास बुद्धि नहीं होती? उनके पास प्रतिभा नहीं होती ? बल नहीं होता? वह राजनीति में नहीं जा सकते? फौज में नहीं जा सकते? इन बातों को किन तर्कों के आधार पर तय किया? आप ने कलाकारों, प्रतिभावानों को मजबूर कर दिया पचास-पचास रुपए में देह बेचने को, ताली बजाने को।’’
हाल ही में ब्रिटेन में आवासीय स्कूलों के लिए आदेश जारी किए गए कि उन्हें ‘ही’ अथवा ‘शी’ के बजाए ‘जी’ सम्बोधन दिया जाए। यह स्वयं थर्ड जेंडर बच्चों की मांग थी। कई ऐसी बुनियादी बातें हैं जो थर्ड जेंडर को परेशान करती हैं जैसे- स्कूल, कालेजों एवं सार्वजनिक स्थानों में पृथक सुलभ शौचालय का न होना, शिक्षा का समान अवसर न मिलना, उनके विरुद्ध अपमानजनक स्थितियों तथा अपराधों को रोकने के लिए अलग पुलिस थाना न होना, नौकरी का समान अवसर न मिलना आदि। इनसे भी बड़ी बुनियादी समस्या है समाज का इनके प्रति दृष्टिकोण। यदि समाज स्वीकार कर ले कि थर्ड जेंडर भी सभी स्त्री-पुरुषों की भांति हैं, वे कोई अजूबा नहीं हैं तो उनकी प्राकृतिक कमी भी उन्हें विकास की मुख्यधारा से जोड़ने से नहीं रोक सकेगी। इसे एक आशाजनक कदम कहा जा सकता है कि हिन्दी साहित्य में अभी थर्ड जेंडर विमर्श अपनी आंखे खोल रहा फिर भी यह मानना पड़ेगा कि ‘यमदीप’, ‘तीसरी ताली’, ‘किन्नर कथा’, ‘गुलाम मंडी’; और ‘पोस्ट बाॅक्स नं. 203 नाला सोपारा’ उपन्यास किन्नर जीवन के परिदृश्यों को बखूबी सामने रखते हैं। ये प्रतिनिधि उपन्यास बताते हैं कि ‘थर्ड जेंडर’ किस तरह समाज का अभिन्न अंग है और उन्हें समाज में वही स्थान मिलना चाहिए जो किसी स्त्री अथवा पुरुष को मिलता है। समकालीन उपन्यासों में ‘थर्ड जे़ंडर’ के कथानकों को मिलना उनकी सामाजिक दृष्टि की सम्पन्नता एवं जागरूकता को रेखांकित करता है।
Wednesday, July 20, 2016
चर्चा प्लस .... कमाल अतातुर्क के देश में जनशक्ति का कमाल ... - डॉ. शरद सिंह
मेरा कॉलम "चर्चा प्लस" "दैनिक सागर दिनकर" में (20. 07. 2016) .....
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चर्चा प्लस कमाल अतातुर्क के देश में जनशक्ति का कमाल
- डाॅ. शरद सिंह
जनशक्ति से बड़ी कोई शक्ति नहीं होती, इस बात को एक बार फिर साबित कर दिया कमाल अतातुर्क के देश टर्की की जनता ने। जनता चाहे तो राष्ट्राध्यक्ष को सत्ता से उतार फंेक सकती है और यदि चाहे तो अपने राष्ट्राध्यक्ष की सत्ता को बचाने के लिए सेना की तोपों के सामने भी जा खड़ी हो सकती है। दुनिया भर के शासनाध्यक्षों को चाहिए कि वे जनता की इस शक्ति से सबक लेते हुए स्वहित के बजाए जनहित पर ही अपना ध्यान केन्द्रित रखने की आदत डाल लें। चुनावों में जनशक्ति का प्रदर्शन तो होता ही रहता है लेकिन टर्की की जनता ने अपने आप में यह अनूठा उदाहरण सामने रखा है।
जनता की शक्ति क्या है? क्या उसका दायित्व चुनावों में अपने प्रिय प्रत्याशी को विजयी बनाने के बाद समाप्त हो जाता है? लोकतंत्र की संकल्पना में जनता की शक्ति अपने विजयी प्रत्याशी के रूप में स्थापित रहती है। जब जनता को लगता है कि उसकी शक्ति कमजोर पड़ रही है अर्थात् उसके द्वारा विजयी बनाया गया प्रत्याशी उसकी आकांक्षाओं पर खरा नहीं उतर रहा है तो वह नए प्रत्याशी की ओर देखने को स्वतंत्र रहती है। यही लोकतंत्र का मूल तत्व है। लोकतंत्र में सत्ता आम आदमी के हाथ में होती है। जहां तक लोकतंत्र की परिभाषा का प्रश्न है अब्राहम लिंकन की यह परिभाषा सर्वमान्य है - ‘‘लोकतंत्र जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा शासन होता है।’’ लोकतंत्र में जनता ही सत्ताधारी होती है, उसकी अनुमति से शासन होता है, उसकी प्रगति ही शासन का एकमात्र लक्ष्य माना जाता है। परंतु लोकतंत्र केवल एक विशिष्ट प्रकार की शासन प्रणाली ही नहीं है वरन् एक विशेष प्रकार के राजनीतिक संगठन, सामाजिक संगठन, आर्थिक व्यवस्था तथा एक नैतिक एवं मानसिक भावना का नाम भी है। लोकतंत्र जीवन का समग्र दर्शन है जिसकी व्यापक परिधि में मानव के सभी पहलू आ जाते हैं।
टर्की में सेना द्वारा तख्तापलट के प्रयास को जनता द्वारा जिस ढंग से विफल बनाया गया उसने लोकतंत्र के उस अध्याय को भी रेखांकित कर दिया जिसमें अंकित है कि लोकतंत्र की रक्षा करना स्वयं जनता का दायित्व होता है। टर्की की जनता ने पूरी दुनिया को दिखा दिया कि यदि जनता अपनी शक्ति से काम ले तो निशस्त्र होते हुए भी तोपों और हवाई हमलों को नाकाम कर सकती है।
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper |
जनशक्ति का मुंहतोड़ जवाब
तुर्की की सेना के एक अंसतुष्ट धड़े की ओर से तख्तापलट की कोशिश को सरकार के वफादार सैनिकों के नाकाम करने के बाद तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगन ने तुर्क नागरिकों ने अपने लोकतंत्र और चुनी हुई सरकार को बचाने के लिए राष्ट्रपति की अपील पर वे सड़कों पर जमा हो गए और नतीजतन विद्रोहियों को हथियार डालने पड़ा। कई घंटों की अफरातफरी और हिंसा के बाद राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगन ने इसके बारे में सूचना जारी की कि वे सकुशल हैं। इसके बाद राष्ट्रपति एर्दोगन सुबह के समय विमान से इस्तांबुल हवाईअड्डे पहुंचे, जहां सैकड़ों समर्थकों ने उनका स्वागत किया । प्रधानमंत्री बिनाली यिलदीरिम ने ने भी स्थिति के पूरी तरह नियंत्रण में होने की आधिकारिक घोषणा की। एर्दोगन ने ट्वीट कर लोगों से आग्रह किया कि लोग सड़कों पर उतरें और तख़्तापलट की कोशिश को विफल कर दें। लोग सड़कों में हाथों में झंडा लिए हुए तख्तापलट की कोशिश को पूरी तरह नाकाम करने के लिए सड़कों पर उतर गए। एर्दोगन ने तख्तापलट के प्रयास की निन्दा की और इसे ‘‘विश्वासघात’’ बताया । उन्होंने कहा कि वह काम कर रहे हैं और ‘‘अंत तक’’ काम करना जारी रखेंगे । उन्होंने हवाईअड्डे पर कहा, ‘‘जो भी साजिश रची जा रही है, वह देशद्रोह और विद्रोह है । उन लोगों को देशद्रोह के इस कृत्य की भारी कीमत चुकानी होगी ।’’ उन्होंने कहा, ‘‘हम अपने देश को उस पर कब्जे की कोशिश कर रहे लोगों के हाथों में नहीं जाने देंगे।’
आरोप प्रत्यारोप
टर्की के राष्ट्रपति एर्दोगन के आलोचकों ने उन पर आरोप लगाया था कि उन्होंने तुर्की की धर्मनिरपेक्ष जड़ों को कमजोर किया है और देश को अधिनायकवाद की ओर ले जा रहे हैं, लेकिन राष्ट्रपति सेना के बीच अपने विरोधियों को मनाने और सेना पर काफी हद तक नियंत्रण रखने में सफल रहे थे। एर्दोगन ने तत्काल इसके लिए ‘समानांतर सरकार’ और ‘पेंसिलवानिया’ को जिम्मेदार ठहराया। उनका इशारा पेंसिलवानिया आधारित फतहुल्ला गुलेन की ओर था। गुलने उनके धुर विरोधी हैं तथा एर्दोगन ने उन पर हमेशा सत्ता से बेदखल का प्रयास करने का आरोप लगाया। परंतु राष्ट्रपति के पूर्व सहयोगी गुलेन ने इससे इंकार करते हुए कहा कि उनका तख्तापलट की इस कोशिश से कोई लेना देना नहीं है और उन पर आरोप लगाना अपमानजनक है। यिलदीरिम ने भी तख्तापलट के प्रयास के लिए अमेरिका में रह रहे तुर्क धर्मगुरू गुलेन को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा, ‘‘फतहुल्ला गुलेन एक आतंकवादी संगठन का नेता है। उसके पीछे जो भी देश है वह तुर्की का मित्र नहीं है और उसने तुर्की के खिलाफ गंभीर युद्ध छेड़ रखा है।’’
टर्की में तख्ता पलट की कोशिश नाकाम रहने के बाद कई सीनियर ऑफिसर्स समेत 2,839 सैनिकों को गिरफ्तार किया गया। टर्की के प्रधानमंत्री बिनाली यिल्दिरिम ने कहा कि तख्तापलट की कोशिश को टर्की के लोकतांत्रिक इतिहास में काला धब्बा है। टर्की के मीडिया के अनुसार सेना दो वरिष्ठतम जनरलों को भी गिरफ्तार किया गया तथा लगभग 2,745 जजों को हटाया गया है, इनमें टर्की के सुप्रीम कोर्ट के जज भी शामिल हैं।
पहले भी किए गए थे प्रयास
तुर्की में सेना के किसी अधिकारी ने तख्तापलट की कोशिश की जिम्मेदारी नहीं ली है, हालांकि प्रधानमंत्री बिन अली यिलदिरीम ने दावा किया कि तख्तापलट समर्थक एक प्रमुख जनरल मारा गया है। तुर्की की सेना को उस धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का रक्षक माना जाता है जिसकी स्थापना वर्ष 1923 में मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने की थी। सेना ने वर्ष 1960 के बाद से तुर्की में तीन बार तख्तापलट की कोशिश की और वर्ष 1997 में इस्लामी सरकार को बेदखल कर दिया था। फतेउल्लाह गुलेन एक प्रशिक्षित इमाम है। जो इस समय पेन्सीलवेनिया में निर्वासित जीवन जी रहा है। जून माह में पिछले महीने तुर्की सरकार का प्रतिनिधित्वत करने वाले वकीलों ने कहा कि वह गुलेन के गैरकानूनी कामों को उजाकर करना जारी रखेंगे।
जिस रात टर्की में सेना द्वारा तख्तापलट की कोशिश की गई उस रात तुर्की जलने लगा, सड़कों पर टैंक उतर गए और चारों तरफ खूनखराबा शुरु हो गया। लेकिन कुछ घंटों के कत्लेआम के बाद जनता ने तानाशाही शक्तियों को उखाड़ फेंका। लोकतंत्र को कुचलकर तख्तापलट की कोशिश करने वाले सभी विद्रोही जवानों को सलाखों के पीछे डाल दिया गया है। ये सब ऐसे देश में हुआ जिसकी पहचान वहां का लोकतंत्र है अब सवाल था कि तख्तापलट की साजिश किसने रची। खबरों के मुताबिक इस बगावत के पीछे उस धर्मगुरु का हाथ था, जो अमेरिका में निर्वासित जिंदगी बिता रहा है। यद्यपि वहीं गुलेन ने इस तख्ताापलट में किसी भी भूमिका से इनकार किया है। गुलेन ने कहा कि वो तख्तापलट के षडयंत्र की कड़े शब्दों में निंदा करते हैं।कमाल अतातुर्क का कमाल
कमाल अतातुर्क उर्फ मुस्तफा कमाल पाशा (1881-1938) को आधुनिक तुर्की का निर्माता कहा जाता है। कमाल अतातुर्क ने साम्राज्यवादी शासक सुल्तान अब्दुल हमीद द्वितीय का पासा पलट कर टर्की में आधुनिक सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक व्यवस्था कायम करने का जो क्रान्तिकारी कार्य किया था उसने देश की सूरत ही बदल दी थी। कमाल ने 1924 के मार्च में खिलाफत प्रथा का अन्त किया और तुर्की को धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र घोषित करते हुए एक विधेयक संसद में रखा और पारित कराया। बहु-विवाह गैरकानूनी घोषित कर दिया गया। इसके साथ ही पतियों से यह कहा गया कि वे अपनी पत्नियों के साथ ढोरों की तरह-व्यवहार न करके बराबरी का बर्ताव रखें। प्रत्येक व्यक्ति को वोट का अधिकार दिया गया। सेवाओं में घूस लेना निषिद्ध कर दिया गया और घूसखोरों को बहुत कड़ी सजाएं दी र्गइं। स्त्रियों के पहनावे से पर्दे का चलन समाप्त कर दिया गया। अरबी लिपि को हटाकर पूरे देश में रोमन लिपि की स्थापना की गयी। इसका परिणाम यह हुआ कि सारा तुर्की संगठित होकर एक हो गया और अलगाव की भावना समाप्त हो गयी। कमाल ने तुर्की सेना को अत्यन्त आधुनिक ढंग से संगठित किया। इस प्रकार तुर्क जाति कमाल पाशा के कारण आधुनिक जाति बनी। उल्लेखनीय है कि वर्तमान राष्ट्रपति एर्दोवान अपने को अतातुर्क का उत्तराधिकारी मानते हैं। उन्होंने देश को आधुनिक बनाने का फैसला किया है और पूरे तुर्की में मूल संसाधनों को बेहतर करने के प्रोजेक्ट चला रहे हैं।
जिस जनता ने मुस्तफा कमाल पाशा को टर्की का ‘‘अतातुर्क’’ अर्थात् ‘‘राष्ट्रपिता’’ माना उसी जनता ने दशकों बाद एक बार फिर दिखा दिया कि जनता की इच्छा हथियारों पर भी भारी पड़ती है। जनशक्ति से बड़ी कोई शक्ति नहीं होती, इस बात को एक बार फिर साबित कर दिया कमाल अतातुर्क के देश टर्की की जनता ने। जनता चाहे तो राष्ट्राध्यक्ष को सत्ता से उतार फंेक सकती है और यदि चाहे तो अपने राष्ट्राध्यक्ष की सत्ता को बचाने के लिए सेना की तोपों के सामने भी जा खड़ी हो सकती है। दुनिया भर के शासनाध्यक्षों को चाहिए कि वे जनता की इस शक्ति से सबक लेते हुए स्वहित के बजाए जनहित पर ही अपना ध्यान केन्द्रित रखने की आदत डाल लें। चुनावों में जनशक्ति का प्रदर्शन तो होता ही रहता है लेकिन टर्की की जनता ने अपने आप में यह अनूठा उदाहरण सामने रखा है।
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Tuesday, July 19, 2016
Wednesday, July 13, 2016
चर्चा प्लस ... दालों पर विदेश नीति से उपजते प्रश्न ... - डॉ. शरद सिंह
Dr (Miss) Sharad Singh |
मेरा कॉलम "चर्चा प्लस" "दैनिक सागर दिनकर" में (13. 06. 2016) .....
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चर्चा प्लस
दालों पर विदेश नीति से उपजते प्रश्न
- डॉ. शरद सिंह
दाल
उत्पादन की जो कृषि नीति मोजाम्बीक के लिए तय की गई है वह हमारे अपने देश में लागू
क्यों नहीं की जा सकती है? भारत
में किसानों के नेटवर्क तैयार क्यों नहीं किया जा सकता है? भारतीय
किसानों को वह बीज व उपकरणों सहित उचित टेक्नोलॉजी मुहैया क्यों नहीं कराई जा सकती
है जो मोजाम्बीक के किसानों को भारत उपलब्ध कराने वाला है। जब मोजाम्बीक के किसानों
को खेती शुरू करने के पहले आश्वस्त किया जाएगा कि उनकी उपज को भारत सरकार खरीदेगी जो
भारत सरकार द्वारा दिए जा रहे न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम नहीं होगा, तो भारतीय
किसानों की खरीदी मूल्य में बढ़त क्यों नहीं की जा सकती है?
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper |
भारत
हमेशा से कृषि प्रधान देश रहा है। फिर भी अनेक कृषि उत्पाद ऐसे हैं जिनके लिए हमें
आयात पर निर्भर रहना पड़ता है। गेंहू की प्रचुर उत्पादक क्षमता वाली कृषि भूमि के होते
हुए भी हमें कई बार मैक्सिको से तीसरे दर्जे का गेंहू आयात करना पड़ा है। प्राकृतिक
विविधता भरे इस देश में कृषि को ले कर तरह-तरह के संकट अकसर हमारे सामने आते रहे हैं।
कभी सूखा तो कभी अतिवृष्टि। इन संकटों का दुष्परिणाम झेलने वाले किसानों में आत्महत्या
की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं। इस तरह की घटनाएं किसी मानसिक रोग के कारण नहीं बल्कि कृषि
की परिस्थितियों में असंतुलन एवं कृषिनीति की कमजोरियों के कारण घटित हुई हैं। ऐसी
स्थिति में देश के कृषकों की समस्याओं पर समुचित ध्यान देने और उनका स्थायी हल निकालने
के बजाए किसी दूसरे देश को खेती करने में मदद करने और उससे उसका उत्पाद खरीदने की नीति
एक ऐसी कंट्रास्ट तस्वीर दिखाती है जिसमें विदेश नीति की सफलता के चटख रंगों के साथ
आंतरिक नीति की कमजोरी के धूसर रंग भी प्रभावी हैं।
प्रधानमंत्री
नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत की विदेश नीति ने अंतर्राष्ट्रीय पटल पर जितने ग्लैमर
के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज़ की है वह प्रशंसनीय है। देश का सर्वशक्तिमान कहा जाने वाला
देश अमरीका भी भारत की नीतियों का समर्थन करता दिखाई देता है। अपनी विदेशनीति के आर्थिक
समझौतों के संदर्भ में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दालों की नीति पर सभी को चैंका
दिया है। देश में दालों की कमी के संकट का स्थायी समाधान ढूंढ़ने के प्रयास में सरकार
ने अफ्रीकी देश मोजाम्बीक के साथ अरहर एवं उड़द दालों के उत्पादन और खरीद के एक करार
को हाल ही में मंजूरी दे दी। इस करार को वर्ष 2016 की अब तक की विदेश नीति का सबसे
बड़ा जोखिम कहा जा रहा है। इस नीति के अंतर्गत सरकार ने 2020 तक दाल का आयात एक लाख
टन से बढ़ा कर दो लाख टन करने का लक्ष्य तय किया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की
अफ्रीका के चार देशों की यात्रा आरम्भ होने से पूर्व संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी
मंत्री रविशंकर प्रसाद ने दिल्ली में मोदी की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट की बैठक में
लिये गये फैसलों की जानकारी देते हुए बताया था कि देश में दालों की कमी को देखते हुए
बाहर से खासकर म्यांमार से दाल का आयात किया जाता है मगर उसका स्वाद भारत की दाल जैसा
नहीं होता है। इसे देखते हुए मोजाम्बीक को दालों की खेती में मदद करने और उससे सरकार
के स्तर पर दाल की खरीद के लिये करार करने का फैसला किया गया है जिसके मसौदे को मंत्रीमंडल
ने स्वीकृति दे दी है। प्रसाद ने बताया था कि अभी दाल का आयात एक लाख टन है जिसे
2020 तक दो लाख टन किया जायेगा। उन्होंने कहा कि मोजाम्बीक में जो दाल पैदा होगी, वह
भारत की दाल के स्वाद वाली होगी। इससे पूर्व वर्ष 2015 में नई दिल्ली में आयोजित किये
गये भारत-अफ्रीका मंच शिखर सम्मेलन में भाग लेने आये मोजाम्बीक के राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री
मोदी के साथ द्विपक्षीय बैठक में कृषि के क्षेत्र में समझौते का प्रस्ताव रखा था।
दाल
उत्पादन की मोजाम्बीक योजना
केंद्रीय
खाद्य एवं उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय द्वारा यहां जारी एक बयान के मुताबिक, प्रतिनिधिमंडल
में वाणिज्य मंत्रालय, कृषि तथा मेटल्स एंड
मिनरल्स ट्रेडिंग कॉरपोरेश ऑफ इंडिया (एमएमटीसी) के वरिष्ठ अधिकारी शामिल हैं, जो सरकार
से सरकार के आधार पर मोजाम्बीक से दालों के
आयात के अल्पकालिक एवं दीर्घकालिक उपायों पर चर्चा करेंगे। भारत स्थानीय एजेंटों के
माध्यम से मोजाम्बीक में किसानों के नेटवर्क
का पता लगाएगा और उन्हें बीज व उपकरणों सहित उचित टेक्नोलॉजी मुहैया कराएगा। खेती शुरू
करने के पहले इन किसानों को आश्वस्त किया जाएगा कि उनकी उपज को भारत सरकार खरीदेगी
और खरीदी मूल्य भारत सरकार द्वारा दिए जा रहे न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम नहीं होगा।
दालों को ले कर कुछ महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए हैं, जैसे
-दालों का बफर स्टॉक 1.5 लाख से बढ़ाकर आठ लाख टन कर दिया जाएगा, बफर
स्टॉक बढ़ाने के लिए दाल आयात की जाएगी तथा अफ्रीकी देशों से अरहर जैसी दालों को आयात
किया जाएगा। इस दिशा में देश के उच्चस्तरीय अधिकारियों का एक दल दालों के आयात और ठेके
पर जमीन लेकर दालों की खेती की व्यवहार्यता जांचने के लिए दक्षिणी अफ्रीका के देश मोजाम्बीक
जाने वाला है।
दालों
की आयात स्थिति
भारत
की दालों की घरेलू मांग लगभग दो से ढाई करोड़ टन सालाना है। वर्ष 2015-16 में देश में
1.8 करोड़ टन दलहन उत्पादन का अनुमान है, कमी
को पूरा करने को अब तक पांच लाख 70 हजार टन दलहन आयात हो चुका है फिर भी दामों पर लगाम
नहीं लग रही है। मोजाम्बिक कोई पहला देश नहीं जिससे भारत दालें आयात करेगा, लंबे
समय से देश 40 से भी ज्यादा अलग-अलग देशों से दालें आयात करता रहा है। भारत सबसे ज्यादा
दालें कैनेडा से आयात करता है। देश में दालों के संकट से निपटने के लिए सरकार का लगातार
आयात की ओर बढ़ता रुझान भी जानकारों की राय में नया संकट लाएगा। बाज़ार विशेषज्ञों की
राय में दालों का आयात करने वाले देशों की संख्या बहुत कम है, ऐसे
में अगर भारत आयात पर निर्भरता बढ़ाता रहेगा तो दालों के ग्लोबल ट्रेडर भारत के लिए
दालों के भाव बढ़ा सकते है।
एक ओर
देश नीति निर्धारक अफ्रीका में दालों और तिलहन की खेती को बढ़ावा देकर वहां से सस्ते
में आयात करने की सलाह दे रहे हैं, जबकि
देश के कृषि वैज्ञानिक मानते हैं कि अगर देश में ही इन फसलों को बढ़ावा दिया जाए तो
अगले पांच वर्षों में संकट ही खत्म हो जाएगा। जरूरत को पूरा करने के लिए दाल और खाने
का तेल आयात करते हैं, जो अरबों रुपए इनके आयात
पर खर्च किए जाते हैं, अगर वो देश में इनकी
खेती को बढ़ावा देने में उपयोग हो तो अगले पांच वर्षों में आयात की जरूरत ही नहीं होगी।
दालनीति
में कालापन
यह सच
है कि दलहल व तिलहन की कुछ समस्याओं को वैज्ञानिक नहीं सुलझा पाए-उदाहरण के तौर पर
चने के पॉड बोरर (दाने में छेद करने वाला कीड़ा) का अभी तक समाधान नहीं कर पाए हैं लेकिन
दलहन उत्पादन की एक बड़ी समस्या यह भी है कि ज्यादातर खेती उन इलाकों में होती है जो
सिंचाई के लिए पूरी तरह वर्षा पर निर्भर हैं। इससे किसानों की कठिनाइयां बढ़ जाती हैं।
फिर भी जो किस्में और तकनीक हमारे पास है, उनके
आधार पर परिदृश्य इतना निराशाजनक भी नहीं है कि समस्याओं से उबरा न जा सके। विचारणीय
है कि जो कृषि नीति मोजाम्बीक के लिए तय की गई है वह हमारे अपने देश में लागू क्यों
नहीं की जा सकती है ? भारत
में किसानों के नेटवर्क तैयार क्यों नहीं किया जा सकता है ? भारतीय
किसानों को वह बीज व उपकरणों सहित उचित टेक्नोलॉजी मुहैया क्यों नहीं कराई जा सकती
है जो मोजाम्बीक के किसानों को भारत उपलब्ध कराने वाला है। जब मोजाम्बीक के किसानों
को खेती शुरू करने के पहले आश्वस्त किया जाएगा कि उनकी उपज को भारत सरकार खरीदेगी जो
भारत सरकार द्वारा दिए जा रहे न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम नहीं होगा, तो भारतीय
किसानों की खरीदी मूल्य में बढ़त क्यों नहीं की जा सकती है? इन्हीं
प्रश्नों से जूझ रहे हैं इस समय भारत के बाज़ार और कृषि विशेषज्ञ। इस पर भी विचार किया
जा रहा है कि दालों की मोजाम्बीक नीति कहीं मात्र अफ़सरशाही की देन तो नहीं है ? यह भी विचारणीय है कि मोजाम्बीक नीति के चलते
दालनीति में कुछ कालापन है या पूरी दाल ही काली होने जा रही है ?
इस ओर
भी ध्यान देना होगा
दलहन
प्रोटीन का एक सस्ता स्रोत है जिसको आम जनता भी खाने में प्रयोग कर सकती है, लेकिन
भारत में इसका उत्पादन आवश्यकता के अनुरूप नहीं है। यदि प्रोटीन की उपलब्धता बढ़ानी
है तो दलहनों का उत्पादन बढ़ाना होगा। इसके लिए उन्नतशील प्रजातियां और उनकी उन्नतशील
कृषि विधियों का विकास करना होगा। पिछलै 15-20 सालों में न तो दलहन के शोध पर ज्यादा
पैसा खर्च किया गया न ही उसके बाजारों को विकसित करने पर। विशेषज्ञों के अनुसार अभी
सरकार बफर स्टाक बना रही है पर वह पर्याप्त नहीं उसका और विस्तार जरूरी है। दलहन खरीद
को देश भर में गेहूं और चावल की खरीद जितना ही विस्तार देना होगा। दलहन की उन्नत किस्में
तैयार करनी होंगी, जो मौजूद है उनकी जानकारी
किसानों तक पहुंचानी होगी। साथ ही वैज्ञानिकों, गैर
सरकारी संस्थाओं और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की भागीदारी तय करनी होगी। अन्यथा दाल उत्पादक
तो हतोत्साहित होंगे ही, आमजनता को आयातित दाल
खानी पड़ेगी और जिसके सस्ते होने की संभावना कम ही है।
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