Dr (Miss) Sharad Singh |
चर्चा प्लस
कब तक खून से लाल होते रहेंगे आदिवासी क्षेत्र
- डॉ. शरद सिंह
#छत्तीसगढ़ के #नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही है। #सुकमा और उसके जैसे अन्य क्षेत्र आए दिन खून से लाल हो रहे हैं। निर्दोष मासूम #आदिवासी जनता और अपनी ड्यूटी पर डटे रहने वाले बहादुर जवान दोनों के ही खून की नदियां बह रही हैं। आजकल के अत्याधुनिक इलेक्ट्रॉनिक संसाधनों जैसे ड्रोन तथा ट्रेक मशीनों के होते हुए भी नक्सली हिंसा पर लगाम नहीं लग पा रही है। स्थानीय पुलिस बल से कंधे से कंधा मिला कर सीआरपीएफ के जवान अपने प्राणों को दांव पर लगा रहे हैं लेकिन दशकों से चली आ रही समस्या ख़त्म होने के बजाए विकराल रूप धारण करती जा रही है। इस तथ्य की पड़ताल जरूरी है कि आखिर चूक कहां हो रही है? अब यह लक्ष्य निर्धारित करना ही होगा कि अब यह खूनी खेल बंद हो।
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper |
24 अप्रैल को #छत्तीसगढ़ के #सुकमा में #सीआरपीएफ के जवानों पर #नक्सलियों द्वारा किए गए हमले से पूरा देश बौखला उठा है। इस हमले में कुल 25 जवान शहीद हुए हैं, तो वहीं 7 जवान घायल हुए। #नक्सली भी और सीआरपीएफ के जवान भी दोनों ही भारतीय नागरिक हैं। एक ही ज़मीन के बाशिंदे और एक ही जैसी समस्याओं से जूझने वाले। यदि भुखमरी और ग़रीबी नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में है तो उन क्षेत्रों में भी हैं जहां से ये जवान भर्ती हो कर आते हैं। बहादुर दोनों हैं नक्सल ब्रिगेड में शामिल जवान भी और सीआरपीएफ के जवान भी। दोनों अपने प्राण देना जानते हैं। लेकिन सबसे बड़ा अन्ता यही है कि नक्सली ब्रिगेड के जवान अपनी ऊर्जा गलत दिशा में लगा रहे हैं। हिंसा से कभी कोई समस्या हल नहीं होती है। यदि हिंसा ही एकमात्र रास्ता होता तो महात्मा गांधी अहिंसा का मार्ग चुन कर देश की आज़ादी की बात अंग्रेजों को नहीं समझा पाते। हाल ही हुए इस हमले में जो 25 सीआरपीएफ के जवान शहीद हुए उनके बारे में क्या नक्सलियों ने कभी सोचा कि उन जवानों के भी घर-परिवार हैं। किसी के घर में बूढ़े माता-पिता तो किसी के घर में नन्हें बच्चे। स्वयं नक्सल ब्रिगेड के जवानों की हालत इससे अलग नहीं है। वे भी अनाथालय में बड़े नहीं हुए हैं, उनके भी परिवार हैं किन्तु उन्हें अपने परिवार को हिंसा की आग में झोंकते हुए हिचक नहीं होती है अथवा वे यह नहीं समझ पा रहे हैं कि उनके लिए सही रास्ता कौन-सा है। कई बार राजनीतिक स्वार्थ जाने-अनजाने हिंसा को बढ़ावा देते चले जाते हैं। नक्सली हिंसा के पीछे भी ऐसा कोई सच मौजूद हो तो कोई आश्चर्य नहीं।
आज नक्सलियों के इतिहास पर एक नज़र डालना जरूरी है। ‘‘नक्सल’’ शब्द की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के छोटे से गांव #नक्सलबाड़ी से हुई है जहां भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता #चारू_मजूमदार और #कानू_सान्याल ने 1967 में सत्ता के खिलाफ़ एक सशस्त्र आंदोलन की शुरुआत की भी। जी हां, आज देश जिस नक्सलवाद से जूझ रहा है उसकी शुरुआत प. बंगाल के छोटे से गांव नक्सलबाड़ी से हुई। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के चारू मुजुमदार और कानू सान्याल ने 1967 में एक सशस्त्र आंदोलन को नक्सलबाड़ी से शुरू किया इसलिए इसका नाम नक्सलवाद हो गया। उनका मानना था कि भारतीय मज़दूरों और किसानों की दुर्दशा के लिए सरकारी नीतियां और पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था जिम्मेदार है। सिलिगुड़ी में पैदा हुए चारू मजूमदार आंध्र प्रदेश के तेलंगाना आंदोलन से व्यवस्था से बागी हुए। इसी के चलते 1962 में उन्हें जेल में रहना पड़ा, जहां उनकी मुलाकात कानू सान्याल से हुई। वैसे नक्सलवाद के असली जनक कानू ही माने जाते हैं। कानू का जन्म दार्जिंलिग में हुआ था। वे पश्चिम बंगाल के सीएम विधानचंद्र राय को काला झंडा दिखाने के आरोप में जेल में गए थे। कानू और चारू मुजुमदार जब बाहर आए तो उन्होंने सरकार और व्यवस्था के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह का रास्ता चुना। कानू ने 1967 में नक्सलबाड़ी में सशस्त्र आंदोलन की अगुवाई की। आगे चलकर कानू और चारू के बीच वैचारिक मतभेद बढ़ गए और दोनों ने अपनी अलग राहें, अलग पार्टियों के साथ बना लीं।
उल्लेखनीय है कि मजूमदार चीन के कम्यूनिस्ट नेता माओत्से तुंग के बहुत बड़े प्रशंसकों में से थे और उनका मानना था कि भारतीय मज़दूरों और किसानों की दुर्दशा के लिये सरकारी नीतियां जिम्मेदार हैं जिसके कारण न केवल उच्च वर्गों का शासन तंत्र स्थापित हो गया है बल्कि कृषितंत्र पर भी उन्हीं की पकड़ बन गई है। दोनों नक्सली नेताओं का मानना था कि ऐसे न्यायहीन दमनकारी वर्चस्व को केवल सशस्त्र क्रांति से ही समाप्त किया जा सकता है। सन् 1967 में नक्सलवादियों ने कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की एक अखिल भारतीय समन्वय समिति बनाई। इन विद्रोहियों ने औपचारिक तौर पर स्वयं को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से अलग कर लिया और सरकार के खिलाफ़ भूमिगत होकर सशस्त्र लड़ाई छेड़ दी। सन् 1971 में सत्यनारायण सिंह के नेतृत्व में आंतरिक विद्रोह हुआ और मजूमदार की मृत्यु के बाद यह आंदोलन एकाधिक शाखाओं में विभक्त हो गया। चारू मुजुमदार की मृत्यु 1972 में हुई, जबकि कानू सान्याल ने 23 मार्च 2010 को फांसी लगा ली। यद्यपि, दोनों की मृत्यु के बाद नक्सलवादी आंदोलन भटक गया। लेकिन यह भारत के कई राज्यों आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ, उड़ीसा, झारखंड और बिहार तक फैलता गया, पर जिन वंचितों, दमितों, शोषितों के अधिकारों की लड़ाई के लिए शुरू हुआ, ना तो उनके कुछ हाथ आया, न नक्सलवादियों के। हिंसा की बुनियाद पर रखी। यह माना जाता है कि चारू मुजुमदार और कानू सान्याल की मृत्यु के बाद नक्सली मुहिम अपने मूल उद्देश्यों से भटक गई।
भारत जैसे शांतिप्रिय देश में ऐसे हिंसात्मक रास्ते को ज़मीन कैसे मिली यह एक शोध का विषय है। बहरहाल, स्थितियों एवं परिस्थितियों पर ध्यान दिया जाए तो कई प्रश्नों के उत्तर मिलने लगते हैं। यदि स्वतंत्रता प्राप्ति के कई वर्ष बाद भी देश के वनांचलों एवं दूरस्थ इलाकों में रोटी, कपड़ा, मकान, सड़क, स्वास्थ्य और रोजगार जैसी बुनियादी सुविधाओं के अभाव बना रहेगा तो जनता में असंतोष होना स्वाभावित है। शिक्षा की कमी और पेट की आग जब आपस में मिल जाती है तो बुद्धि अच्छे या बुरे में भेद करना छोड़ देती है। संसाधनों के अभाव और लालफीता शाही में फंसी व्यवस्था में बड़े पैमाने पर लोगों का शोषण, अधिकारों का हनन हुआ, जिसका नतीजा व्यवस्था से नाराजगी के रूप में सामने आया और आगे चलकर इसने विद्रोह का रूप ले लिया, जिसकी परिणित हिंसा के रूप में हुई। नक्सलवादी हिंसा में सैंकड़ो निर्दोषों की मौत हो चुकी है जबकि देश का आदिवासी समुदाय भी अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष रूप से इस हिंसा का शिकार है।
यदि नक्सली प्रभावित क्षेत्रों के संदर्भ में राजनीति की बात की जाए तो आज कई नक्सली संगठन वैधानिक रूप से स्वीकृत राजनीतिक पार्टी बन गये हैं और संसदीय चुनावों में भाग भी लेते है। लेकिन बहुत से संगठन अब भी छद्म लड़ाई में लगे हुए हैं। नक्सलवाद के हिंसात्मक कार्यवाहियों की आंच से आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ, उड़ीसा, झारखंड और बिहार झुलस रहे हैं।
प्रत्येक नक्सली हमले के बाद कई सवाल उठ खड़े होते हैं। ये सवाल राजनीति, सुरक्षा और क़ानून व्यवस्था से जुड़े हुए है। इनमें आरोप हैं, प्रत्यारोप है और नाराज़गी भी शामिल रहती है। नक्सली ख़ुद स्वीकार कर चुके हैं कि नक्सलियों के विरुद्ध कथित स्वतःस्फ़ूर्त जनआंदोलन ’सलवा जुड़ूम’ से सबसे ज़्यादा लाभ ंनक्सलियों को ही हुआ। फिर आखिर ऐसे कौन-से कारण हैं कि यह समस्या दशक दर दशक हल होने की बजाय और विकट होती जाती है?
#नक्सल_समस्या का हल नहीं निकलने के दो कारण स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। एक तो ये कि राजनीतिक दलों में इस बता पर सहमति ही नहीं है कि ये समस्या सामाजिक आर्थिक समस्या है या क़ानून व्यवस्था की। इस सवाल पर विभिन्न दलों के बीच विवाद चलता रहता है जबकि यह समस्या विवाद को परे रख कर सुलझाए जाने योग्य है। जरूरी है कि इस पर सभी दलों में एक सहमति बने। ऐसा होने से कम से कम उन आदिवासी नागरिकों को राहत मिलेगी जो हिंसा के पाट में पिसे जा रहे हैं। दूसरा मुद्दा है अर्थशास्त्र का। नक्सल प्रभावित हर ज़िले को केंद्र और राज्य सरकार इतना पैसा देती है कि अगर उसे पूरी तरह खर्च किया जाए तो ज़िलों की तस्वीर बदल जाए। लेकिन यह कटु सत्य है कि अपार पैसों के बावजूद बस्तर की बहुसंख्यक आबादी बिजली, पानी और शौचालय के अभाव में जीने को विवश है। दरअसल, ऐसी मॉनीटरिंग की जरूरत है जो सरकारी पैसे पर पूरी नज़र रखे कि वह जिस मद के लिए दिया जा रहा है, उस मद में पूरा का पूरा पहुंच रहा है या नहीं तथा जिस तरह उसका उपयोग किया जाना चाहिए, उस तरह उसका समुचित उपयोग हो रहा है या नहीं।
यदि छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही है। सुकमा और उसके जैसे अन्य क्षेत्र आए दिन खून से लाल हो रहे हैं। निर्दोष मासूम आदिवासी जनता और अपनी ड्यूटी पर डटे रहने वाले बहादुर जवान दोनों के ही खून की नदियां बह रही हैं। आजकल के अत्याधुनिक इलेक्ट्रॉनिक संसाधनों जैसे ड्रोन तथा ट्रेक मशीनों के होते हुए भी नक्सली हिंसा पर लगाम नहीं लग पा रही है। स्थानीय पुलिस बल से कंधे से कंधा मिला कर सीआरपीएफ के जवान अपने प्राणों को दांव पर लगा रहे हैं लेकिन दशकों से चली आ रही समस्या ख़त्म होने के बजाए विकराल रूप धारण करती जा रही है। इस तथ्य की पड़ताल जरूरी है कि आखिर चूक कहां हो रही है? अब यह लक्ष्य निर्धारित करना ही होगा कि अब यह खूनी खेल बंद हो।
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