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Dr (Miss) Sharad Singh |
चर्चा प्लस,
दैनिक सागर दिनकर,
20.12.2017
पहल करनी होगी भारत को रोहिंग्या मुसलमानों के
लिए
- डॉ. शरद सिंह
इस धरती पर लगभग 11 लाख मनुष्य भटक रहे हैं भूमि का वह
टुकड़ा ढूंढते हुए जहां वे रह सकें और
अपने परिवार सहित जी सकें। क्या इन 11 लाख मनुष्यों को धरती पर जीने का अधिकार मात्र इस लिए नहीं है कि वे किसी देश के नागरिक
नहीं हैं? मगर वे
परग्रहवासी भी तो नहीं हैं। ‘रोहिंग्या’ के नाम से संचार माध्यमों को सुर्खियों में बने हुए ये लोग पशुओं से बदतर जीवन जीने
को विवश हैं। म्यांमार से बलात् निकाले इन
शरणार्थियों को कौन स्वीकारेगा? यह प्रश्न
रोहिंग्याओं के जीने-मरने से जुड़ा हुआ है, फिर भी म्यांमार जिम्मेदारी
स्वीकार को तैयार नहीं है। ऐसे में भारत का दायित्व बनता है कि वह दुनिया के राजनीतिक पटल पर अपनी बढ़ती हुई साख को काम में लाते हुए म्यांमार पर दबाव बनाए।
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Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in Sagar Dinkar Daily newspaper |
म्यांमार
के लगभग 11 लाख रोहिंग्या मुसलमान
पहले ग़रीबी झेल रहे थे और फिर राष्ट्रपति यू हतिन क्याव के सत्ता सम्हालने के बाद उन्हें जिस प्रकार की हिंसा का शिकार होना पड़ा उसे
देख कर सारी दुनिया स्तब्ध रह गई। यद्यपि
रोहिंग्या मुसलमानों का म्यांमार से पलायन पिछले कई
वर्षों से चल रहा था। सेना और बौद्ध हिंसा का शिकार होकर उन्हें
जब भी भागना पड़ा तो वे बंगाल की खाड़ी में नाव के ज़रिये भाग कर भारत, पाकिस्तान,
नेपाल
और बांग्लादेश पहुंचे। यह पलायन कभी आसान नहीं रहा। भूखे-प्यासे
जंगलों में भागते हुए सीमा पर म्यांमार की सेना की गोलियों से बचते-बचाते किसी तरह वे दूसरे देशों में पहुंच पाते। इस दौरान उनके
कई साथी और परिजन सेना की गोलियों का शिकार हो
चुके होते। सेना द्वारा म्यांमार से बड़ी तादाद में
खदेड़े जाने पर ये रोहिंग्या मुसलमान छोटी-छोटी नावों में भरकर
समुद्र के निकटवर्ती दूसरे देशों में पहुंचने लगे। नाव नाव न मिलने पर गले तक पानी में चलकर दूसरे तट तक पहुंचना मानों इनकी नियति बन गया।
छिले वर्ष तक लगभग तीन लाख रोहिंग्या
मुसलमान बांग्लादेश में शरण लेने पहुंच चुके
हैं। खाने के सामान और राहत सामग्री की कमी के कारण बच्चों, बूढ़ों और गर्भवती स्त्रियों को सबसे अधिक परेशानी उठानी पड़ रही है। बांग्लादेश
के शामलापुर और कॉक्स बाज़ार में शरण लेने
वाली गर्भवतियां शरणार्थी शिविरों में ही बच्चों
को जन्म दे रही हैं।
दरअसल,
म्यांमार
में बौद्ध बहुसंख्यक हैं और ये रोहिंग्या को
अप्रवासी मानते हैं। साल 2012 में म्यांमार
के रखाइन प्रांत में रोहिंग्या-बौद्धों के बीच भारी हिंसा हुई थी। साल 2015 में भी रोहिंग्या मुसलमानों का बड़े पैमाने पर
पलायन शुरू हुआ। ज़ैद रायद अल हुसैन संयुक्त राष्ट्र के
दुनियाभर में मनावाधिकारों के पक्षधर हैं और वे मानते
हैं कि रोहिंग्याओं के साथ जो हुआ और जो हो रहा है, वह नहीं होना चाहिए। यह भी चर्चा है कि म्यांमार की सर्वोच्च नेता आंग
सान सू ची की और सैन्य बलों के प्रमुख जेन आंग
मिन हाइंग भी निकट भविष्य में नरसंहार के
आरोपों में कटघरे में आ सकते हैं। लेकिन क्या इससे रोहिग्यांओं की किस्मत बदल सकेगी?
आज
एशिया का कोई भी देश इस आर्थिक दशा में नहीं है
कि बड़ी संख्या में शरणार्थियों को जिम्मा उठा सके। भारत में अवैधानिक रूप से आ चुके राहिंग्याओं के बारे में कुछ महीने पहले केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि ‘‘मैं
यह बात साफ कर दूं कि रोहिंग्या अवैध प्रवासी हैं
और भारतीय नागरिक नहीं हैं। इसलिए वे किसी चीज के
हकदार नहीं हैं, जिसका कि कोई आम भारतीय नागरिक हकदार है।’’
उन्होंने
रोहिंग्या मुस्लिमों के निर्वासन पर संसद में दिए गए अपने बयान पर कहा था कि रोहिंग्या लोगों को निकालना पूरी तरह से कानूनी स्थिति पर आधारित है। उन्होंने कहा, “रोहिंग्या अवैध प्रवासी हैं और कानून
के मुताबिक उन्हें निर्वासित होना है, इसलिए
हमने सभी राज्य सरकारों को निर्देश दिया है
कि वे रोहिंग्या मुस्लिमों की पहचान के लिए कार्यबल गठित करें और उनके निर्वासन की प्रक्रिया शुरू करें।“ रिजिजू ने कहा,
यह
पूरी तरह से वैध प्रक्रिया है।“ साथ ही उन्होंने
यह भी कहा कि भारत एक ऐसा राष्ट्र है, जहां लोकतांत्रिक
परंपरा है। लिहाज़ा, हम उन्हें समुद्र में फेंकने या गोली मारने नहीं जा रहे हैं।“
प्रश्न
उठता है कि कौन हैं ये रोहिंग्या? वस्तुतः रोहिंग्या समुदाय 12वीं
सदी के शुरुआती दशक में म्यांमार के रखाइन इलाके
में आकर बस तो गया, लेकिन स्थानीय बौद्ध बहुसंख्यक समुदाय ने
उन्हें आज तक नहीं अपनाया गया। सन् 2012
में
रखाइन में कुछ सुरक्षाकर्मियों की हत्या के बाद
रोहिंग्या और सुरक्षाकर्मियों के बीच व्यापक हिंसा भड़क गई। तब से म्यांमार में रोहिंग्या समुदाय के खिलाफ हिंसा जारी है। रोहिंग्या
और म्यांमार के सुरक्षा बल एक-दूसरे पर
अत्याचार करने का आरोप लगा रहे हैं। म्यांमार में
जारी हिंसा और रोहिंग्या मुसलमानों के मारे जाने की ख़बरों के बीच नोबल पुरस्कार विजेता मलाला युसुफ़जई ने देश की स्टेट काउंसलर आंग
सान सू ची से इस मुद्दे पर दख़ल की अपील
की। उन्होंने ट्विटर पर अपना एक बयान जारी करके हिंसा
की निंदा की और कहा, “म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों के साथ जो हो रहा है उससे मैं दुखी हूं। बीते कई सालों में मैंने इस
दुखद और शर्मनाक व्यवहार की निंदा की है। मैं
इंतज़ार कर रही हूं कि नोबल पुरस्कार विजेता आंग सान
सू ची भी इसका विरोध करें। पूरी दुनिया और रोहिंग्या मुसलमान
इंतज़ार कर रहे हैं।“
मलाला
ने रोहिंग्या मुसलमानों के साथ हो रही हिंसा रोकने
की अपील करते हुए कुछ सवाल भी किए हैं। उन्होंने कहा, “हिंसा बंद करो।
मैंने तस्वीरें देखीं जिनमें म्यांमार के सुरक्षाबल बच्चों की
हत्या कर रहे हैं।ं इन बच्चों ने किसी पर हमला नहीं किया लेकिन फिर उनके घर जला दिए गए।“ मलाला ने सवाल किया, “अगर
उनका घर म्यांमार में नहीं है तो उनकी
पीढ़ियां कहां रह रही थीं? उनका मूल कहां है?“ उन्होंने
कहा, “रोहिंग्या मुसलमानों को म्यांमार की नागरिकता दी जाए। वह देश जहां वे
पैदा हुए हैं।“
नोबल
पुरस्कार विजेता मलाला का कहना सही है। जो मनुष्य 12वीं सदी से किसी भू भाग में रह रहे हों उन्हें क्या वहां से बेदख कर देश
से बाहर भगाया जाना मानवता है? पाकिस्तान
का उल्लेख करते हुए मालाला ने अपील की थी कि,
“दूसरे
देशों, जिनमें मेरा अपना देश पाकिस्तान शामिल है, उन्हें बांग्लादेश का उदाहरण अपनाना चाहिए और हिंसा व आतंक से भाग रहे
रोहिंग्या परिवारों को खाना, शरण
और शिक्षा दें।“
दूसरी
ओर, म्यांमार सरकार का कहना है कि
रोहिंगया मुसलमान सुरक्षाबलों पर हमला करते हैं। सरकार के अनुसार अनेक पुलिस थानों को रोहिंग्या विद्रोहियों ने निशाना बनाया।
जबकि म्यांमार की नस्लीय हिंसा के कारण
रोहिंग्या मुसलमानों के अतिरिक्त हिंदू रोहिंग्याओं
और कुछ जगहों से बौद्धों को भी पलायन करन पड़ा है। ह्यूमन राइट्स
वॉच के डिप्टी एशिया डायरेक्टर फ़िल रॉबर्टसन के अनुसार, “25 अगस्त को हिंसा शुरू होने के बाद ही तोड़फोड़ शुरू हुई। उस गांव में लगभग 99
फ़ीसदी घरों को नष्ट कर दिया गया।“ अंतर्राष्ट्रीय समाचार एजेंसियों के
अनुसार माह अगस्त 2017 में लगभग 20000
रोहिंग्या
नाफ़ नदी के किनारे फंसे फंसे हुए थे, जहां से बांग्लादेश की सीमा शुरू होती
है।
म्यांमार
की सबसे प्रभावशाली नेता आंग सान सू ची जो
दुनिया भर में मानवाधिकारों की प्रबल समर्थक मानी
जाती हैं, का रोहिंग्या मुसलमानों की इस दुर्दशा के प्रति
प्रभावशाली कदम न उठाना सबसे बड़े दुर्भाग्य का विषय है। म्यांमार में
25 वर्ष बाद वर्ष 2016 में चुनाव हुआ था। इस चुनाव में नोबेल
विजेता आंग सान सू ची की पार्टी नेशनल लीग फोर
डेमोक्रेसी को भारी जीत मिली थी। हालांकि संवैधानिक
नियमों के कारण वह चुनाव जीतने के बाद भी राष्ट्रपति नहीं बन
पाईं। फिर भी वे स्टेट काउंसलर की भूमिका में हैं और कहा जाता है कि म्यांमार के शासन की वास्तविक कमान सू ची के हाथों में ही है। बर्मा
के राष्ट्रपिता आंग सान की पुत्री हैं
जिनकी 1947 में हत्या कर दी गयी थी। सू की ने बर्मा में लोकतन्त्र की स्थापना के लिए लम्बा संघर्ष किया।
लोकतंत्र की स्थापना के लिए आंग सान ने बर्मा
में लगभग 20 वर्ष में कैद में बिताए। आंग
सान को 1990 में राफ्तो पुरस्कार व विचारों की स्वतंत्रता
के लिए सखारोव पुरस्कार से और 1991 में
नोबेल शांति पुरस्कार प्रदान किया गया है। सन्
1992 में सू ची को अंतर्राष्ट्रीय सामंजस्य के लिए भारत सरकार द्वारा जवाहर लाल नेहरू पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
रोहिंग्या
मुसलमानों के भविष्य पर आंग सान सू ची द्वारा
अनदेखा किए जाने के स्थिति में भारत का दायित्व
बनता है कि वह दुनिया के राजनीतिक पटल पर अपनी बढ़ती हुई साख को काम में लाते हुए म्यांमार पर दबाव बनाए कि वह रोहिंग्याओं को अपनी
मातृभूमि लौटने दे, उन्हें सुरक्षा
प्रदान करे, उन्हें नागरिकता दे तथा उन सभी रोहिंग्याओं को जीवन की मूलभूत सुविधाएं दे जो उनकी आज की तथा भावी
पीढ़ी के जीवन के लिए नितान्त आवश्यक है। यदि
भारत सरकार पहल करे तो रोहिंग्याओं को नया जीवन मिल
सकता है और भारत को भी शरणार्थी समस्या से मुक्ति मिल सकती है।
इसके साथ ही मानवता की दिशा में यह एक ऐतिहासिक कदम होगा क्योंकि कोई भी मनुष्य अपने परिजनों को भूख से तड़प-तड़प कर मरते हुए, अवैधानिक
रूप से सीमाएं मार करने की विवशता के दौरान
गोलियों से भून दिए जाने का हकदार नहीं है।
या सिर्फ़ इसलिए नृशंसता का शिकार नहीं बनाया जा सकता है कि वह किसी विशेष धर्म को मानता है या किसी विशेष जाति समुदाय से है। मनुष्यता
के प्रति रोहिंग्याओं का विश्वास तभी
लौटेगा जब उन्हें अपनी मातृभूमि पर सिर उठा
कर जीने का अवसर मिले।
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