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My Editorials - Dr Sharad Singh

Saturday, August 31, 2024

टॉपिक एक्सपर्ट | पत्रिका | ई बुजुर्ग को ख्याल रखियो, मालक हरों | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

पत्रिका | टॉपिक एक्सपर्ट | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली में
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टाॅपिक एक्सपर्ट
ई बुजुर्ग को ख्याल राखियो, मालक हरों !
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
        भौत पैले एक फिलम आई रई जोन को नांव रओ "पा"। ऊमें एक बच्चा रऔ जोन बायलाजिकल कारन से जल्दी बुढ़ान लगत आए। मने लड़कौरे में बा मोड़ा बब्बा मने पा (पापा) की उमर को हो जात आए। अपने इते तो जा फिलम की कीसां से बी बड़ी गजब की कीसां भई। का भओ के जबे मकरोनिया नगरपालिका बनीं सो ऊको नांव धर दऔ गऔ "मकरोनिया बुजुर्ग"। मने मकरोनिया नगरपालिका पैदा होतई साथ बुजुर्ग बन गई, मने "पा" बन गई। अब जब बुजुर्ग बनाई दऔ, तो जेबी तो जरूरी आए के बुजुर्ग को पूरो खयाल रखो  जाए।
     सो जबे से जे खबर पता परी के मकरोनिया खों राजघाट से खाली दो साल पीबे खों पानी और  दऔ जैहे, फेर बुजुर्ग जाने औ ऊकी पब्लिक जाने।  जब से जा खबर पढ़ी तभईं से हमाओ जी दुख रओ। बो का कहाऊत आए के काम निकर गऔ, सो तुम को आ औ हम को आ? अब ऊ तरफी शहर फैल गओ सो मकरोनिया नांंव के ई बुजुर्ग खों दूध की मक्खी घांईं मैंको जा रओ। इते पांच बरस में सो पांच बेर रोडें खुद गईं। पीबे के पानी की सप्लाई के लाने टाटा वारन ने रोडें मिटा के लाईनें डार दईं। मीटर सोई लगा दए। पैले कओ गऔ रऔ के चौबीसों घंटा पानी दऔ जैहे। मनो इते तो चार घंटा नईं आ रऔ। ऊपे से सैंकड़ा खांड़ जांगा से पाईपे फूटी धरीं, सो प्रेशर नईं बनत। कऊं-कऊं गऊ मुतनी सो नल चलत आए। ऊपे से दो साल में पल्ला झाड़बे की पिलानिंग। का ऐसो ख्याल रखो जात आए बुजुर्गन को? सो, राजघाट छीनबे की बेरा मकरोनिया नांव के ई बुजुर्ग को ख्याल राखियो,  मालक हरों! ईको प्यासे ने मार डारियो।
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Friday, August 30, 2024

डॉ (सुश्री) शरद सिंह अवध-ज्योति सृजन सम्मान से सम्मानित | सागर प्रिंट मीडिया का स्नेह

मुझे प्रदान किए गए "अवध-ज्योति सृजन सम्मान" के समाचार को प्रमुखता से प्रकाशित करने के लिए अत्यंत आभारी हूं सागर प्रिंट मीडिया की 🌷🙏🌷
हृदय से धन्यवाद -
दैनिक भास्कर 🙏 पत्रिका 🙏 
स्वदेश 🙏 सागर दिनकर 🙏 नवभारत 🙏 नवदुनिया 🙏 राष्ट्रीय हिंदी मेल 🙏 नयादौर 🙏 आचरण 🙏 देशबंधु 🙏
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डॉ (सुश्री) शरद सिंह अवध-ज्योति सृजन सम्मान से सम्मानित

"जब दो बोलियां आपस में हाथ थाम कर चलती हैं तो दोनों के उन्नयन होने में कोई संदेह नहीं रह जाता है। अवधी और बुंदेली आज परस्पर हाथ थाम कर चल रही हैं, यह दोनों लोक भाषाओं के लिए शुभ संकेत है।" मैंने अपने यह विचार व्यक्त किए झांसी की राजकीय संग्रहालय सभागार में। अवसर था 2024 का "अवध ज्योति सृजन सम्मान" ग्रहण करने का।
         विगत 28 अगस्त 2024 को अवधी- बुन्देली जन जागरण यात्रा- 2024 के अवसर पर राजकीय संग्रहालय झांसी में आयोजित समारोह में मुझे (डॉ सुश्री शरद सिंह) को "अवध-ज्योति सृजन सम्मान" से सम्मानित किया गया। यह सम्मान हिन्दी के साथ बुंदेली सृजन में महत्वपूर्ण योगदान के लिए हरगोविंद कुशवाहा राज्यमंत्री (उप्र) एवं डॉ. सत्या सिंह संस्था संरक्षक द्वारा प्रदान किया गया।
       मैं हृदय से आभारी हूं "अवध-ज्योति" पत्रिका के संपादक डॉ रामबहादुर मिश्र तथा   बुंदेलखंड साहित्य उन्नयन समिति, झांसी डॉ. पुनीत बिसारिया जी की 🌷🙏🌷
    इस अवसर पर "अवध ज्योति" पत्रिका के बुंदेली विशेषांक का भी लोकार्पण किया गया। कार्यक्रम में हिंदी, अवधि तथा बुंदेली के साहित्यकारों की उल्लेखनीय उपस्थित  रही।
     अवध और बुंदेलखंड के मध्य यह लोक भाषा का सहयोग-संवाद सदा इसी तरह बना रहे यही मेरी कामना है 🙏

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शून्यकाल | बचपन में सुनी कहानियां तय कर सकती हैं जीवन की दिशा | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक नयादौर में मेरा कॉलम - "शून्यकाल"                                                                       बचपन में सुनी कहानियां तय कर सकती हैं जीवन की दिशा
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह

      मेरी पीढ़ी का शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जिसने बचपन में अपनी नानी, दादी, नाना, दादा, माता, पिता, भाई, बहन या अन्य किसी से कहानियां नहीं सुनी होंगी। उस दौर में अपने बचपन में सभी कहानियां सुनते थे। राजा-रानी की, जंगल की, भूतों की और तरह-तरह की छोटी-बड़ी कहानियां। तब टीवी या मोबाईल नहीं थे। सोने से पहले बच्चों को कहानियां सुनाने का रिवाज़-सा था। कहानियां सुनने वाले तो नहीं लेकिन सुनाने वाले ज़रूर जानते थे कि उनकी कहानियां जीवन की दिशा तय करने का माद्दा रखती हैं। जैसे बचपन की कहानियों ने मेरे जीवन की भी दिशा तय की।
        मुझे एक कथा लेखिका बनना ही था। अच्छी, बुरी, छोटी, बड़ी कैसी भी, लेकिन कहानियां तो मुझे लिखनी ही थीं। मेरे बचपन से ही कहानियां मेरे जीवन में रच-बस गई थीं। मुझे सबसे अधिक कहानियां सुनने को मिलीं अपने नाना संत श्यामचरण सिंह जी से। उनके पास कहानियों का अगाध भंडार था। लगभग रोज रात को मैं और मेरी वर्षा दीदी नाना जी के बिस्तर पर जा बैठते और उनसे कहानी सुनाने का आग्रह करते। उन्होंने जो कहानियां सुनाईं उनमें से अधिकांश वे प्रसिद्ध कथाएं थीं जो स्कूली जीवन में मैंने कथा-पुस्तक के रूप में पढ़ीं। जैसे- अरेबियन नाईट्स की कहानियां, सिंहासन बत्तीसी, सिंदबाद के साहसिक कारनामे, हातिमताई के किस्से आदि। इसके अलावा महात्मा गांधी, बालगंगाधर तिलक, राजाराम मोहन राय आदि की जीवनियां भी नाना जी हमें सुनाया करते थे। उन्हें अनेक लोककथाएं भी मालूम थीं। लेकिन वे अधिकतर छत्तीसगढ़ी लोककथाएं अधिक सुनाया करते थे। शायद इसलिए कि छत्तीसगढ़ उनकी कर्मभूमि रही और वहां के लोक जीवन से उन्हें अगाध लगाव था।

मेरे कमल मामा भी कहानियां सुनाने में माहिर थे। उनकी कहानियों के पात्र प्रायः शेर, भालू, सियार आदि वन्यपशु होते थे। ‘‘रंगा सियार’’ की प्रसिद्ध कथा सबसे पहले कमल मामा ने ही मुझे सुनाई थी। इनमें से कई ‘‘पंचतंत्र’’ की कहानियां होती थीं। नानाजी और मामाजी से हम दोनों बहनों ने खूब कहानियां सुनीं। मेरी तो यह दशा थी कि मुझे कहानी सुने बिना नींद नहीं आती थी और कई बार कहानी सुनते-सुनते सो जाने कि कारण कहानी का अंत का पता नहीं चल पाता था जिससे दूसरे दिन मैं फिर उसी कहानी को सुनाने की जिद करती। इन कहानियों ने मुझे कल्पनालोक में विचरण करने का भरपूर अवसर दिया। न जाने कितनी बार मैं सिंदबाद के साथ साहसिक यात्राओं पर गई। मुझे आज भी याद है कि सिंदबाद की एक कहानी में कुछ इस प्रकार की घटना थी कि सिंदबाद अपने जहाजियों सहित समुद्र की यात्रा कर रहा था। महीनों बीत गए थे लेकिन उन्हें कोई टापू दिखाई नहीं दिया था। अंततः उन्हें एक छोटा-सा टापू दिखाई दिया और जहाजी खुशी से उछल पड़े। सिंदबाद को उस टापू पर शंका हुई कि यह समुद्र के बीचोबीच कहां से आ गया? लेकिन उसके साथियों ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया और वे टापू पर उतर गए। वह टापू चटियल और चिकना था। फिर भी जहाजियों ने उस पर टहलना और खाना पकाना शुरू कर दिया। कुछ देर बाद अचानक वह टापू हिल उठा। सभी जहाजी इधर-उधर गिरने लगे। कुछ तो समुद्र में ही जा गिरे। वे सम्हल पाते इससे पहले ही वह टापू जोर से गोल घूमा और बड़ा-सा भंवर बनाता हुआ समुद्र में समा गया। उस भंवर से सिंदबाद का जहाज डगमगा गया और पलट गया। सिंदबाद का एक और एडवेंचर। सिंदबाद समझ गया कि वह टापू नहीं एक बड़ी व्हेल मछली थी जो पानी की सतह पर आराम कर रही थी और उसकी पीठ पर जहाजियों के द्वारा खाना पकाने से उसे आंच लगी जिससे वह विचलित हो गई और गहरे पानी में चली गई। उन दिनों व्हेल मछली को हमने मात्र चित्रों में देखा था। उन दिनों डिस्कवरी, नेशनल जियोग्राफी या बीबीसी अर्थ जैसे टीवी चैनल तो हुआ नहीं करते थे कि हम व्हेल को देख पाते। उस समय तक बस छोटी-छोटी मछलियां देखी थीं वह भी मेरे पन्ना शहर के छत्रसाल ग्राउंड में लगने वाले वार्षिक मेले में। उन्हीं नन्हीं मछलियों के आधार पर बड़ी-सी व्हेल की कल्पना करना मुझे बहुत अच्छा लगता था। एक इतनी बड़ी मछली कि जिसकी पीठ पर जहाजी टहल सकें और खाना पका सकें। मेरे लिए भी सिंदबाद की तरह रोमांचकारी रहता था। आज भी जब टीवी चैनल्स में व्हेल को पानी की सतह पर छपाके मारते और गहरे भंवर बनाते देखती हूं तो यह कहानी मेरे मानस में ताज़ा हो जाती है। 

मामाजी के नौकरी पर बाहर चले जाने के बाद उनके बदले कहानी सुनाने का जिम्मा वर्षा दीदी ने उठा लिया। वे ग़ज़ब की स्टोरी-टेलर थीं। उनकी विशेषता यह थी कि वे कहानियां मन से बना-बना कर सुनाती थीं। न जाने कितनी कहानियां उन्होंने मुझे सुनाईं। इस लिहाज़ से उन्हें कथालेखिका बनना चाहिए था। लेकिन शायद भीतर से वे मेरी अपेक्षा अधिक भावुक थीं, इसीलिए उन्होंने आगे चल कर ग़ज़ल की ओर अपनी प्रतिभा मोड़ दी। जबकि मैं कथा संसार में रमी रही। 
मुझे कहानियां सुनाने का श्रेय सिर्फ नानाजी, मामाजी और वर्षा दीदी को ही नहीं है, मेरे घर खाना पकाने वाली महाराजिन जिन्हें हम ‘‘बऊ’’ कह कर पुकारते थे, उन्हें भी हैं। जब हम रात्रि का भोजन करने रसोईघर में चूल्हे के पास जा बैठते, तब उनसे कहानी सुनाने का आग्रह करते और वे थोड़ी व्यस्तता का बहाना करने के बाद कहानी सुनाना शुरू कर देतीं। यह नखरे दिखाना उनकी स्टाईल में शामिल था ताकि उनकी महत्ता बनी रहे। जबकि उनकी कहानियां हमारे लिए हमेशा महत्वपूर्ण रहती थीं। उनकी कहानियों में भूत-प्रेत, भगवान के चमत्कार आदि भी शामिल रहते थे। लेकिन वे डरावनी नहीं होती थीं। उनकी एक कहानी का पात्र मैं कभी भूल नहीं सकती हूं, वह पात्र था ‘‘मजरसेठ’’। इस पात्र की कई कहानियां उन्होंने हमें सुनाई और यह भी बताया कि वे मजरसेठ के घर पर भी खाना पकाने का काम कर चुकी हैं। उनकी इस बात ने हमें बहुत प्रभावित किया। एक दिन किसी चर्चा के दौरान मैंने मां से पूछ लिया कि ये मजरसेठ कहां रहते हैं? उनकी दूकान कहां पर है जहां बैठ कर वे न्याय करते हैं। मां को पहले तो कुछ पल मेरा प्रश्न समझ में नहीं आया लेकिन जब समझ में आया तो वे खूब हंसी। उन्होंने बताया कि वह मजरसेठ नहीं ‘‘मजिस्ट्रेट’’ है। उसकी कोई दूकान नहीं है, वे तो अपनी अदालत में बैठ का फैसला सुनाते हैं। यह जानने के बाद भला मैं कैसे भूल सकती थी इस पात्र को? आज भी मजिस्ट्रेट शब्द सुनते ही ‘‘मजरसेठ’’ याद आ जाता है।

       लिखना-पढ़ना सीख जाने पर मैंने अखबारों में पहले मां की रचनाएं पढ़नी शुरू कीं। फिर दीदी की रचनाएं पढ़ने को मिलने लगीं। जाहिर है कि मेरे मन में भी लिखने और छपने का कीड़ा कुलबुलाने लगा। मैंने पहली कहानी जो कि बच्चों के काॅलम के लिए लिखी थी, मां और दीदी से छिपा कर चुपचाप पोस्ट कर दी। कहानी को लिखने से कहीं अधिक मुझे यह पता लगाने की मेहनत करना पड़ी कि मां और दीदी अपनी रचनाएं कैसे भेजती हैं। उन दिनों डाक से ही रचनाएं भेजी जाती थीं। एक लिफाफे में अपनी रचना, संपादक के नाम एक पत्र और अपना पता लिखा, टिकट लगा लिफाफा रख कर। लिफाफे पर वजन के अनुसार टिकट लगा कर पोस्ट करना पड़ता था। मैंने एक-दो बार ध्यान से देखा कि वे लोग किस तरह पत्र लिखती हैं, कैसे लिफाफा बंद करती हैं और फिर कहानी लिखने के बाद मैंने भी वहीं सब किया। धन्य हैं उस जमाने के साहित्य संपादक जो छोटे बच्चों को प्रोत्साहित करने में विश्वास रखते थे। वरना मेरी गंदी लिखावट के आधार पर मेरी कहानी रिजेक्ट हो सकती थी। लेकिन निश्चित रूप से उन्होंने कहानी को पढ़ा होगा और उन्हें लिखावट के बजाए कहानी अच्छी लगी होगी। असली मजा तो तब आया जब कहानी छप गई और अखबार हमारे घर आया। हमेशा की तरह सबसे पहले मां ने अखबार पढ़ने को उठाया। बच्चों के काॅलम में मेरी कहानी देख कर वे चकित रह गईं। उन्होंने मुझसे पहला प्रश्न यही किया कि -‘‘यह कब भेजी?’’ फिर दूसरा प्रश्न था कि ‘‘भेजने से पहले मुझे बताया क्यों नहीं?’’ मैंने भी बड़ी ईमानदारी से उन्हें उत्तर दिया कि यदि मैं आप लोगों को बता कर भेजती और यदि कहानी नहीं छपती तो आप लोग मेरी हंसी उडातीं। मेरा उत्तर सुन कर मां को कैसा लगा मुझे ठीक-ठीक अंदाज़ नहीं है लेकिन यह जरूर याद है कि उन्हें लाड़ से मेरे सिर पर हाथ फेरा था।    
               
          जैसे मेरे मानस पर बचपन की कहानियों ने गहरी छाप छोड़ी और मुझे कथा संसार से जोड़ दिया, ठीक उसी तरह न जाने कितने लोगों ने अपने जीवन की दिशा और प्रोफेशन इसी तरह की कहानियों से तय किए होंगे। आज के बच्चों को कहानियां सुनने को कम मिलती हैं और जो मिलती हैं उन ‘‘बेड टाईम स्टोरीज़’’ में वह प्रभाव नहीं होता जोकि होना चाहिए। क्योंकि ये कहानियां या तो इलेक्ट्राॅनिक यंत्र सुनाते हैं या फिर अपने काम से थके-मांदे माता-पिता। इसीलिए बच्चों की काल्पनिक दुनिया भी यांत्रिक हो चली है।  
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Thursday, August 29, 2024

"राजस्थान पत्रिका" के साप्ताहिक सप्लीमेंट "परिवार" में "परिवार पकौड़ा @ हॉट टॉपिक" में डॉ (सुश्री) शरद सिंह के विचार

 "राजस्थान पत्रिका" के साप्ताहिक सप्लीमेंट "परिवार" में "परिवार पकौड़ा @ हॉट टॉपिक" में मेरे विचार ...
Thank you #patrika 🙏🌷😊
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डॉ (सुश्री ) शरद सिंह राजस्थान पत्रिका के सागर संस्करण "पत्रिका" की तस्वीर वर्षगांठ समारोह में

Happy Birthday Patrika !!! 🎂🎉
जी हां, 27.08.2024 की शाम ...राजस्थान पत्रिका के सागर संस्करण "पत्रिका" के 10 वर्ष पूरे होने पर पत्रिका परिवार के साथ हम सभी ने केक काटकर सेलिब्रेट किया। हम यानी मैं डॉ (सुश्री) शरद सिंह, नगर विधायक भाई  शैलेंद्र जैन जी, डॉ ज्योति चौहान वरिष्ठ जेडी स्वास्थ्य विभाग, डॉ प्रदीप चौहान वरिष्ठ चिकित्सक, डॉ शक्ति जैन रजिस्ट्रार महिला विश्वविद्यालय, श्री राजकुमार खत्री आयुक्त नगर निगम, पी एस ठाकुर डीन बुंदेलखंड मेडिकल कॉलेज, सुनील कुमार जैन डीआईजी सागर रेंज, दिनेश कौशल एसपी पीटीएस तथा पत्रिका परिवार। 
     इस अवसर पर मैंने पत्रिका के कलेवर पर एक बुंदेली गजल भी प्रस्तुत की।
    पत्रिका के संपादकीय प्रभारी भाई प्रवेंद्र सिंह तोमर, प्रिय रेशू जैन तथा पत्रिका परिवार का हार्दिक आभार मुझे अपनी खुशियों में शामिल करने के लिए 🌷🙏🌷

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