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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, December 4, 2024

चर्चा प्लस | आधुनिकता की भीड़ में कहीं खो न जाए बुंदेली ‘महाभारत’ | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस
आधुनिकता की भीड़ में कहीं खो न जाए बुंदेली ‘महाभारत’
     - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
      बुन्देली लोक साहित्य गद्य और पद्य दोनों विधाओं में धनी है। बुन्देली में सामान्य जन जीवन से जुड़े संदर्भों के काव्य के साथ ही लोक गाथाएं भी सदियों से कहीं-सुनी जा रही हैं। इनमें भारतीय इतिहास के महाकाव्य कहे जाने वाले रामायण एवं महाभारत काल की कथाओं को भी गाथाओं के रूप में गाया जाता है। बुन्देलखण्ड में जगनिक के बाद विष्णुदास ने लगभग 14 वीं सदी में महाभारत कथा और रामायण कथा लिखी। विष्णंुदास की महाभारत कथा 1435 ई. माना गया है। यह गाथा शैली में दोहा, सोरठा, चौपाई तथा छंदों सं युक्त है। लेकिन खोती जा रही है यह आधुनिकता के धुंधलके में।
 
बुन्देली की प्रसि़द्ध महाभारतकाल संदर्भित लोकगाथाएं हैं- बैरायठा, कृष्ण-सुदामा, द्रौपदी चीरहरण तथा मेघासुर दानव आदि। इनके अतिरिक्त राजा जगदेव की लोकगाथा में भी पाण्डवों की चर्चा का समावेश है। महाभारत कालीन चरित्रों से जुड़ी गाथाओं का इस प्रकार बुन्देलखण्ड में रूचिपूर्वक गाया जाना इस बात का द्योतक है कि बुन्देली जन प्रकृति से जितने वीर होते हें तथा मानवीय संबंधों के आकलन को लेकर उतने ही संवेदनशील होते हैं। उन्हें व्यक्ति के अच्छे अथवा बुरे होने की परख होती है तथा साहसी, वीर, उदार, दानी और सच्चा व्यक्ति अपना आदर्श प्रतीत होता है। इसीलिए जन-जन में गाए जाने वाली बैरायठा लोकगाथा में ‘महाभारत’ महाकाव्य की लगभग सम्पूर्ण कथा को जन-परिवेश में पस्तुत किया गया है। जैसे, धृतराष्ट्र और गांधारी के विवाह के प्रसंग को इन शब्दों में प्रस्तुत किया गया है-
जब आ गई है चिठिया महाराज रे कै, 
जब गंधार में हो रये हैं ब्याव रे कै
जब गांधारी को हुइये नौने ब्याव रे कै, 
जब खबरें तो मिल गईं महराज रे कै   
जब सज गए गंगंव महराज रे कै।

इसी गाथा में द्यूतक्रीड़ा तथा चीर-हरण का अत्यंत दृश्यात्मक वर्णन मिलता है-
जब सकुनी ने डारे दाव रे कै,
जब पर गये अठारा दाव रे कै
फिर हारे धरम और राज रे कै
जब बोले जरजोधन महराज रे कै
..........
जब जूटो तो पकरो ओने आज रे कै
जब रानी खों लै गव अपने साथ रे कै
जब आ गई सभा के नोने बीच रे कै
जब सबरो से करी है गुहार रे कै
जब कोऊ खों ने आई लाज रे कै
जब भरी कचेरो महराज रे कै
       इस विवरण में  जिन तथ्यों को विशेष रूप से रेखांकित किया गया है वे ध्यान देने योग्य हैं कि जब व्यक्ति अनुचित कर्म करने लगता है तो ‘धरम’ और ‘राज’ दोनों गंवा बैठता है। इसी प्रकार जब ‘पांच पती’ अर्थात् सगे-संबंधी भी रक्षा नहीं कर पाते हैं उस समय ‘हरि’ अर्थात् ईश्वर सहायता करता है। यह मानव मन की वह अवस्था है जो राजनीतिक अस्थिरता एवं असुरक्षा के दौर में प्रभावी हो उठती है। यही भाव ‘चीरहरण’ लोग गाथा में मिलते हैं।
दुश्शासन द्वारा चीरहरण किए जाने पर द्रौपदी पतियों द्वारा निर्धारित नियति को चुपचाप स्वीकार करने के बदले सहायता के लिए कृष्ण को पुकारती है-
हे श्याम मेरी सुध लइयो, रे प्रभु मोरी लाज बचइयो रे
शकुनी दुर्योधन ने मिल के, कपट के पांसे डारे
जुआ खेल के पति हमारे, राजपाट सब हारे
मोरी बिगड़ी आज बनइयो, रे प्रभु मोरी लाज बचइयो रे
इसी गाथा में द्रौपदी की पुकार सुन कर श्री कृष्ण के आने का वर्णन भी कम महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि इसमें इस बात का ध्यान रखा गया है कि श्री कृष्ण द्रौपदी की लाज बचाने पहुंचे तो किन्तु किस साधन अथवा किस वाहन से? 
बेगी चलो गरुड़ मोरे भाई, कारज बिगड़ो जाई
नौ सौ कोस हस्तिनापुर बसो है, जल्दी देव पहुंचाई, बेगी चलो .....
नौ गज चलत हवा से आगंे, दस गज की ऊंचाई
तीन लोक को भार जो लावे, और चाल प्रभु कहां से आई, बेगी चलो .....
गरुड़ पर सवार हो कर श्री कृष्ण सभा में पहुंचे जहंा द्रौपदी के पांचों पति मूक दर्शक बने बैठे थे -
पांचई पति मौन हो बैठे, अर्जुन भीम सही
हरि से द्रौपति टेर करी
जब नन्दलाल आये सभा में, बढ़ गओ चीर सही
खेंचत चीर दुसासन हारे, चीर पे भीर भरी
बुन्देली लोकगाथाओं में महाभारत के विविध प्रसंगों के साथ ही विविध पात्रों एवं चरित्रों को भी स्थान दिया गया है। ‘कृष्ण सुदामा’ लोकगाथा में कृष्ण और सुदामा की मित्राता का सुन्दर वर्णन है।
दोई पढ़ें इक गुरुकुल में, नन्द नन्दन और सुदामा।
ईंधन की हुई महा तबाही, घर में से मिसरानी आई
जल्दी लकड़ी दो मंगवाई, अधकचरी है दाल
भोजन खों हो गई शामा, नन्द नन्दन और सुदामा।
जब गुरुकुल के लिए ईंधन हेतु लकड़ियां लाने कृष्ण और सुदामा जंगल में गए उसी समय दोनों की मित्राता का अनुकरणीय भविष्य तय हो गया।
चने चबा तेने सब लीने, हमको तनक भी न दीने
पिटबे के लांछन कर लीने
यह सोच किया है कान्हा, नन्द नन्दन और सुदामा।
वर्षों बाद अपनी पत्नी के कहने पर अपने मित्रा से मदद मांगने पहुंचे सकुचाए हुए सुदामा की आवभगत मित्रा कृष्ण ने की। अपने हाथों से सुदामा के चरण धोए तथा सिंहासन बैठने को दिया। मित्रा कृष्ण की सम्पन्नता देखकर सुदामा भेंट में लाए चावल देने का साहस नहीं कर पा रहे थे जिसे कृष्ण ने ताड़ लिया।
कासी दास श्रीकृष्ण कांख से, तुदुल खेंच चबावे
सुदामा जी के तंदुल मोहन खावें
तंदुल खाय मुट्ठी भर कें, मन में बहुत सराहवें
कंचन महल बनाय मित्रा के, संपति अमित भरवें
सुदामा जी के तंदुल मोहन खावें
‘मेघासुर’ लोकगाथा में पांडवों के साहस एवं कौशल का वर्णन मिलता है। मेघासुर संग्राम से पूर्व  देवी भवानी पांडवों को एक मढ़िया बनाने का निर्देश देती हैं-
बोले भुवानी सुनो पांडवा, ले के गजा तुम जाय
गजा लाये जब अर्जुन डगरे, धरनी झोंका खाय
 भरे समुंद समतल करे माया, मढ़ के करे विस्तार
कै गज की माई नींव डराऊं, कै गज के विस्तार
नौ गज की माई नींव डराओ, दस गज के विस्तार
‘राजा जगदेव’ लोकगाथा में भी पाण्डवों का उल्लेख आया है। यह उललेख प्रश्नों के रूप में है। किसने पृथ्वी को रचा? किसने संसार को रचा? किसने पाण्डवों को बनाया? पाण्डवों को किस उद्देश्य से बनाया गया? इन प्रश्नों का उत्तर भी इन्हीं के साथ दिया गया है कि देवी ने पाण्डवों को बनाया। पृथ्वी से अन्याय और अधर्म का विनाश करने के लिए पाण्डवों की रचना की गई।
कौना रची पिरथवी रे दुनियां संसार, कौना रचे पंडवां उनई के दरबार
बिरमा रची पिरथवी रे दुनियां संसार, माई रचें पंडवां रे अपने दरबार
रैबे खों रची पिरथवी रे दुनियां संसार, रन खों रचे पंडवा रे अपने दरबार ।।

लोक गाथाएं लोक परम्पराओं के साथ चलती हैं। इनमें जन की आस्था, विश्वास और धारणाएं निहित होती हैं। लोग गाथाएं जन के चरित्र को समझने में मदद करती हैं। कुल मिला कर ये सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक एवं चारित्रिक परम्पराओं का प्रतिबिम्ब होती हैं।  
भारतीय जनमानस को चरित्रों की विविधता से परिपूर्ण ‘महाभारत’ महाकाव्य ‘रामायण’ के बाद सबसे अधिक प्रभावित करता है। बुन्देली जनमानस इससे अलग नहीं है। अन्याय, दासता के विरुद्ध युद्धघोष करने वाले बुन्देलों के लिए महाभारतकालीन प्रसंगों का विशेष महत्व होना स्वाभाविक है। यदि मुग़लों अथवा अंग्रेजों के विरु़द्ध बुन्देलों के संघर्ष का इतिहास पढ़ा जाए तो यही तथ्य सामने आता है कि बहुसंख्यक शत्रुओं से अल्पसंख्यक बुन्देलों ने सदैव डट कर संघर्ष किया। ठीक उसी तरह जिस प्रकार पाण्डवों ने कौरवों का सामना किया था। अतः इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि ऐसे संघर्षपूर्ण अवसरों पर ये लोग गाथाएं आमजन में साहस का संचार करती रही होंगी। आज भी सुदूर ग्रामीण अंचलों में ये लोक गाथाएं गाई जाती हैं। यद्यपि आधुनिकता के आज के दौर में इन लोक गाथाओं के मूल स्वरूप के लुप्त होने का भय बढ़ चला है।
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Tuesday, December 3, 2024

पुस्तक समीक्षा | बुंदेलखंड की आधुनिक चर्चित हिन्दी कहानियों का संकलन | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

आज 03.12.2024 को 'आचरण' में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई अभिषेक ऋषि जी द्वारा संपादित कहानी संग्रह की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा  
बुंदेलखंड की आधुनिक चर्चित हिन्दी कहानियों का संकलन
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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कथा संग्रह   - रामसजीवन की मां
संपादक      - अभिषेक ऋषि
प्रकाशक     - समीक्षा प्रकाशन,एक्स/3284ए, गली नं. 4, रघुबरपुरा नं. 2, गांधीनगर, दिल्ली-110031
मूल्य        - 600/- 
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       यूं तो कहानी चाहे किसी भी क्षेत्र की हो, कहानी ही रहती है किन्तु उसमें अपने क्षेत्र विशेष का आस्वाद उसे अन्य क्षेत्रों की कहानी से अलग बनाता है। हर भौगोलिक क्षेत्र की अपनी अलग विशेषताएं होती हैं, अलग संस्कृति होती है और अलग समस्याएं होती हैं। इन्हीं सब पर कहानियों का ताना-बाना बुना होता है। बुंदेलखंड पौराणिक काल से कथा साहित्य का धनी रहा है। वह चाहे शिव और काली के विवाह की कालंजर की कथा हो या दर्शाणराज नरेश की पुत्री हिरण्यमयी और शिखंडी की कथा अथवा चंद्रदेव और हेमवती के परस्पर प्रेम से जन्मे चंद्रवर्मन की कथा जिसने खजुराहो में मंदिरों की रचना कराई आदि कथाओं के रूप में बुंदेलखंड को पुराणों में स्थान मिला है। बुंदेलखंड के लोकसाहित्य में लोक कथाओ के साथ काव्य-कथाओं का भी वर्चस्व रहा। हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल आने पर कथासम्राट प्रेमचंद ने भी बुंदेलखंड के राजा हरदौल का बलिदान की कथा को अपने अपनी कहानी के रूप में ‘‘राजा हरदौल’’ के नाम से ढाला। बुंदेलखंड आर्थिक रूप से भले ही पिछड़ा हुआ क्षेत्र हो किन्तु साहित्य की दृष्टि से उर्वर रहा है। डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर (मध्य प्रदेश) में हिन्दी अनुवादक के रूप में कार्यरत अभिषेक ऋषि ने बुंदेलखंड की आधुनिक काल की चर्चित कहानियों का संकलन एवं संपादन किया है जिसका नाम है- ‘‘रामसजीवन की मां’’।

बुंदेलखंड के निम्न-मध्यवर्गीय परिवार में जन्मे अभिषेक ऋषि ने इंटरमीडिएट तक की पढ़ाई राठ जिला हमीरपुर (उत्तर प्रदेश) से की। फिर इलाहाबाद, वर्धा और सागर में रहते हुए एम.ए. (अंग्रेजी, हिंदी), अनुवाद में स्नातकोत्तर डिप्लोमा व एम.फिल. (अंग्रेजी) आदि की पढ़ाई की। समाज, साहित्य और संस्कृति से जुड़े विमर्शों और हलचलों में गहरी रुचि रखने वाले अभिषेक ऋषि ने कथाकार उर्मिला शिरीष की चुनिंदा कहानियों के संग्रह ‘‘चीख’’ का सम्पादन कर चुके हैं। कविताएं लिखने एवं काव्यपाठ में भी रुचि है। डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर की राजभाषा उन्नयन की पत्रिका ‘‘भाषा भारती’’ के सहायक सम्पादक हैं तथा अपना कार्य-दायित्व निभाते हुए अनुवाद कार्य करते रहते हैं। ‘‘राम सजीवन की मां’’ उनकी वह प्रथम कृति है जिसमें उन्होंने समग्र बुंदेलखंड के कथा स्वर को सहेजने का प्रयास किया है। बुंदेलखंड का क्षेत्र अपने-आप में बहुत विस्तृत है। यह मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश दो भागों में फैला हुआ है। जब कथा अथवा काव्य के इस प्रकार के संकलन तैयार किए जाते हैं तो वे प्रायः या तो मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड तक सीमित होते हैं या फिर उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड तक। यह सुखद है कि अभिषेक ऋषि ने दोनों प्रदेशों में विस्तृत बुंदेलखंड के कथाकारों की चर्चित कहानियों को एक ज़िल्द में संग्रहीत किया है। संग्रह के आरंभ में ‘‘बुंदेली भूमि की बहुरंगी कथायात्रा’’ के शीर्षक से लगभग सोलह पृष्ठों की विस्तृत भूमिका लिखी है जिसकी शुरुआत बुंदेलखंड के सांस्कृतिक-साहित्यिक संक्षिप्त परिचय तथा उसके बाद संग्रह के कथाकारों सहित उनकी कहाानियों का परिचय दिया है।

संग्रह की प्रथम कहानी है कथा सम्राट प्रेमचंद की ‘‘राजा हरदौल’’। यह इतिहास की कथा है जिसे उन्होंने प्रेमचंद के कहानी संग्रह ‘‘नवनिधि’’ से लिया है। संपादक अभिषेक ऋषि ने कथानक का परिचय देते हुए लिखा है कि ‘‘राजा हरदौल बुंदेलखंड के सर्वाधिक लोकप्रिय नायकों में से एक लाला हरदौल पर केन्द्रित है। मुगलकाल में बुंदेलखंड का ओरछा राज्य बुंदेलों का गौरव रहा है। कहानी के पात्र उसी कालखंड के इतिहास का हिस्सा हैं। बुंदेलखंड में शायद ही कोई हो जो जुझार सिंह और हरदौल जैसे वीर-बुंदेलों की वीरता से परिचित न हो। आत्मदानी लाला हरदौल तो लोक में रचे-बसे एक ऐसे नायक हैं जिनको याद किए बिना कोई वैवाहिक कार्यक्रम सम्पन्न होना सम्भव नहीं है। बहुगुणी हरदौल लोक में इस तरह बसे हैं कि हर गाँव-शहर में उनके चबूतरे मिलेंगे। हरदौल की इस लोक-स्वीकृति का कारण क्या है? कहानी में वही प्रसंग है। प्रेमचंद की लेखनी और राजा हरदौल का आत्मदानी व्यक्तित्व इस कहानी के प्राण हैं।’’

कुल सत्रह कहानियों में दूसरी कहानी है ‘‘शरणागत’’। यह बुंदेलखंड के मऊरानीपुर (झांसी) में जन्मे मूर्धन्य उपन्यासकार और लेखक वृंदावनलाल वर्मा की कहानी है। एक ऐसे बागी बुंदेले की कहानी है जो अपनी शरण में आए राहगीर की रक्षा के लिए अपनों के विरुद्ध जाने में भी संकोच नहीं करता। कहानी का नायक ठाकुर साहब ऐसे व्यक्ति का चरित्र है जिसमें शरणागत धर्म की रक्षा का बहुत महान् गुण है। शरणागत की रक्षा उनका एक ऐसा गुण है जो उनके सभी अवगुणों पर भारी पड़ता है। इसमें मानवीय प्रेम के सिद्धान्त के महत्त्व को प्रतिपादित किया गया है। तीसरी कहानी ‘‘मानुषी’’ राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी के छोटे भाई चिरगाँव (झाँसी) में जन्मे  सियाराम शरण गुप्त की है। सामाजिक और पारिवारिक समस्याओं के इर्द-गिर्द बुनी गई यह कहानी का आरंभ और अंत पौराणिक आख्यान की तरह शिव-पार्वती संवाद से हुआ है। कहानी की नायिका श्यामा आदर्श पत्नी है जो अपने पति मनोहरलाल की स्वभावगत कमियों को नजरंदाज करते हुए अन्तिम समय तक सेवा करती है। इतना ही नहीं अपने पति के स्वर्गवासी होने के बाद भी त्याग के उच्चादर्श प्रस्तुत करती है। स्वयं पार्वती भी श्यामा को जीवित तीर्थ के समान पवित्र मानती हैं। यह एक पारंपरिक स्वर की आदर्शवादी कहानी है। चौथी कहानी वल्लभ सिद्धार्थ की ‘‘खजुराहो’’ है। यह कहानी पति-पत्नी के रिश्तों पर केन्द्रित है। पति प्रकाश और पत्नी सुनंदा। उनकी शादी को अभी बहुत समय नहीं बीता है पर जितना भी बीता है, अधिक लगता है। संपादक के शब्दों में -‘‘विश्व प्रसिद्ध पर्यटन स्थल खजुराहो भी एक रूपक के रूप में पाठकों के समक्ष उपस्थित है, जो प्रेम के सच्चे स्वरूप को अभिव्यक्त करता है। प्रेम नैसर्गिक और सर्वव्यापी है, जरूरत है तो बस अपने अंतर्मन में झाँकने की। नायक और उसकी सुलक्षणा पत्नी के प्रेम के बीच एक छद्म दीवार है, नायिका के अतीत की। दोनों ओर बराबर की गाँठ है। गिरह खुले तो जीवन चले। पर्दे हटें तो पिया मिलें। खजुराहो तो बस इतना कहना चाहता है कि अगर मूर्ति की कला और सौन्दर्य को पारखी न मिले तो उपेक्षा-अपमान शिल्पकार को सहना होता है।’’

‘‘छछिया भर छाछ’’ कहानी ग्वालियर जिले के बिल्हैटी में जन्मे कथाकार महेश कटारे की है। यह मानवीय संवेगों की विशिष्ट कथा है जिसमें कथा नायक को बलिष्ठ शरीर का होते हुए भी थर्डजेंडर समझा जाता है। इस समझ के व्यूह को तोड़ने के लिए वह विवाह करता है। पत्नी गर्भवती होती है किन्तु समस्याएं यहां ख़त्म नहीं होती हैं। यह पाठक को बांधे रखने वाली कहानी है। ‘‘रामसजीवन की मां’’ बांदा में जन्मे गोविंद मिश्र की कहानी है। कहानी में बुंदेलखंड के एक छोटे-से कस्बे मऊ के मुहल्ले का परिवेश है। मन में परस्पर दुश्मनी पाले दो पड़ोसी उस समय आत्मीय हो उठते हैं जब उनमें से एक की बेटी के विवाह के बाद विदाई का क्षण आता है। 

स्त्रीविमर्श की चर्चित कथाकार मैत्रेयी पुष्पा की ‘‘राय प्रवीण’’ संग्रह की सातवीं कहानी है। मैत्रेयी पुष्पा का आरम्भिक जीवन झांसी जिले के खिल्ली गांव में व्यतीत हुआ। यह कहानी बुंदेलखंड की चर्चित नर्तकी नायिका राय प्रवीण की कथा पर आधारित है। आठवीं कहानी ‘‘खिड़की’’ झांसी के कथाकार बृजमोहन की है।  झाँसी शहर के एक मध्यमवर्गीय परिवार की कहानी है। कहानी के मुख्य पात्र एकनाथ का सपना शहर में अपना एक ऐसा घर बनाने का है जिसमें एक बड़ी-सी खिड़की हो। बैंक से रिटायर एकनाथ के इस सपने के पूरा होने की राह में वे सारी बाधाएँ हैं जिनसे एक मध्यमवर्गी को अक्सर दो-चार होना होता है। ‘‘प्यास’’ कहानी ललितपुर जिले के पिपराई में जन्मे महेश कटारे ‘‘सुगम’’ की कहानी है। कहानी में भारतीय ग्रामीण समाज में व्याप्त जातिभेद जैसी विसंगतियों को लक्ष्य किया गया है। ‘‘पोटली’’ कहानी की लेखिका चिरगाँव, झाँसी में जन्मी रजनी गुप्त हैं। यह कहानी बुंदेलखंड की कृषक समस्या पर आधारित है। एक किसान अपनी जमीन होते हुए भी किस तरह जीवन के लिए संघर्ष करता है, इसमें मार्मिक विवरण है। ‘‘हानियां’’ झांसी में जन्मे कथाकार विवेक मिश्र की कहानी है। इसमें चंअल के बीहड़ से ले कर प्रशासनिक जंगलराज तक की परतें उजागर की गई हैं। ‘‘सो जा वारे वीर’’ महोबा जिले के कुलपहाड़ में जन्मे तथा थर्डजेंडर लिखे अपने कथा साहित्य के लिए चर्चित महेन्द्र भीष्म की कहानी है। ‘‘सो जा वारे वीर’’ बालमनोविज्ञान को सामने रखती कहानी है। इसका बालनायक चंचल है, थोड़ा उद्दंड भी। जिससे उसकी मां परेशान हो कर उसे अपने से दूर कर देती है ताकि वह सुधर जाए। उस बालनायक को तब मां का महत्व पता चलता है। 

‘‘मरद’’ कहानी मध्यप्रदेश के पन्ना में जन्मीं और सागर शहर की निवासी डॉ. शरद सिंह की कहानी है।  अछूते-अनूठे विषयों पर अपनी कलम चलाने के लिए चर्चित शरद सिंह के उपन्यास ‘‘पिछले पन्ने की औरतें’’ को आलोचक परमानंद श्रीवास्तव ने रिपोतार्ज शैली का प्रथम मौलिक हिन्दी उपन्यास कहा है। ‘‘मरद’’ कहानी ग्रामीण अंचल में स्त्रियों के शौच के लिए घर से बाहर एकांत में जाने की विविशता तथा उस दौरान बलात्कार जैसी घटनाओं की त्रासदी पर आधारित है। ऐसी ही एक घटना के बाद विचलित हो कर कथानायिका अपने पति को धिक्कारती हुई स्वयं ‘मरद’ का दायित्व निभा कर इस समस्या से छुटकारे की घोषणा करती है। यह स्त्रीविमर्श की सश्सक्त कहानी है। ‘‘चम्पा महाराज, चेलम्मा और प्रेमकथा’’ के लेखक अशोकनगर कथाकार राजनारायण बोहरे की कहानी है जो सामंती सोच से उपजी विसंगतियों को पूरी विश्वसनीयता से रेखांकित करती है। ‘‘सगाई’’ हमीरपुर जिले के गाँव इटैलिया (बाजा) के लेखक लखनलाल पाल की कहानी है। इस कहानी में ग्रामीण परिवेश के लोकाचार को आधार बनाया गया है। ‘‘चपेटे’’ मध्य प्रदेश के दतिया जिले में जन्मी चर्चित लेखिका उर्मिला शिरीष की कहानी है। कहानी का शीर्षक ‘‘चपेटे’’ बुंदेलखंड के एक प्रसिद्ध खेल से लिया गया है जिसे वर्षा ऋतु में लड़कियाँ अपनी सहेलियों के साथ खेलती हैं। संपादक के अनुसार ‘‘कहानी की सूत्रधार ने अपनी प्रिय सहेली (नायिका रामबती) के संघर्षों की गाथा कहते-कहते नायिका के जीवन में झाँकने की कोशिश तो की ही है साथ ही समाज की उन चुनौतियों पर भी प्रकाश डाला है जिनसे किसी भी नारी को रूबरू होना पड़ता है।’’ संग्रह की अंतिम कहानी है ‘‘गुड़ की डली’’ जिसकी लेखिका हैं दतिया में जन्मी इंदिरा दांगी। कहानी में लड़कियों के जीवन से जुड़ी चुनौतियों को मुद्दा बनाया गया है जो वर्तमान समाज की मानसिकता पर करारा प्रहार करती है।

संपादक अभिषेक ऋषि ने बुंदेलखंड की चर्चित कथाओं का एक बेहतरीन संग्रह संपादित किेया है। बस, संग्रह के नाम को ले कर अड़चन पैदा होती है क्योंकि यह संग्रह की एक कहानी का शीर्षक है जो कि समवेत संग्रह के लिए अनुपयुक्त ठहरता है। संग्रह का नाम ‘‘बुंदेलखंड की चर्चित हिन्दी कहानियां’’ ही रखा जाना चाहिए था जिसे आवरण में टैगलाईन के रूप में दिया गया है। शेष, यह कथा संग्रह बुंदेलखंड के कथा के विकास एवं विषय की विविधता को बाखूबी प्रस्तुत करता है। पाठकों एवं शोधार्थियों दोनों के लिए यह संग्रह उपयोगी है। इसे अवश्य पढ़ा जाना चाहिए।     
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Monday, December 2, 2024

वे सागर को साहित्य-संस्कृति का राष्ट्रीय केंद्र बनाना चाहते थे- डॉ. शरद सिंह, वरिष्ठ साहित्यकार

स्मृति शेष जाने-माने कला मर्मज्ञ मुन्ना शुक्ला नहीं रहे, श्रुति मुद्रा संस्था की स्थापना की
वे सागर को साहित्य-संस्कृति का राष्ट्रीय केंद्र बनाना चाहते थे
- डॉ. शरद सिंह, वरिष्ठ साहित्यकार

अभी तो नींद बाक़ी थी, अभी तो ख़्वाब बाक्री थे, 
तुम्हीं जो चल दिए तो सुबह के आने से क्या होगा ?

जब एक हंसमुख, मिलनसार एवं इरादे का पक्का व्यक्ति हमारे बीच से हमेशा के लिए चला जाता है तो उसके न होने पर विश्वास करना सबसे कठिन होता है। सागर का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाज 1 दिसम्बर 2024 का दिन कभी नहीं भूलेगा क्योंकि यह दिन एक ऐसे मनीषी से चिरविदा का दिन साबित हुआ जिसने ताउम्र सागर के सांस्कृतिक विकास का स्वप्न देखा और अपने इस सपने को साकार करने का हरसंभव प्रयास किया। यूं तो उनका नाम था शिवचंद्र शुक्ला, किन्तु सभी के लिए वे थे 'मुन्ना भैया' और 'मुत्रा शुक्ला'। साहित्य पर मेरी उनसे लम्बी-लम्बी चर्चाएं हुआ करती थीं। अधिकतर मोबाइल पर। आधुनिक कविता पर चर्चा करना उन्हें बहुत प्रिय था। वैसे साहित्य की लगभग सभी विधाओं की उन्हें गहरी जानकारी थी। उन्होंने एक बार मुझसे कहा था कि 'मैं चाहता हूं कि सागर साहित्य और संस्कृति के केंद्र के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर पहचाना जाए। 
शिवचंद्र शुक्ला उर्फ मुत्रा भैया का जन्म 6 सितंबर 1957 को लखनऊ (उ.प्र.) में हुआ था। किन्तु सागर रक्त बन कर उनकी धमनियों में बहता था। सागर के सांस्कृतिक विकास के पक्ष में हमेशा उनका स्वर बुलंद रहा। उनके पिता पं. शिवकुमार शुक्ल धर्मशास्त्र, ज्योतिष, दर्शनशास्त्र, नाट्य संगीत एवं संगीत के प्रकाण्ड विद्वान थे। वस्तुतः सांस्कृतिक संस्कार उन्हें अपने पिता से मिले।
सागर में 1976-77 के दौरान डॉ अनिल वाजपेयी, डॉ दिनेश अत्री और डॉ. ओपी श्रीवास्तव द्वारा गठित साहित्यिक संस्था बुनियाद के वे सचिव रहे। उन्होंने 1994 में श्रुतिमुद्रा नामक संस्था का गठन किया जिसके वे सचिव रहे। श्रुति मुद्रा के अंतर्गत नृत्य आदि प्रदर्शनकारी कलाओं के लिए सतत मंच उपलब्ध कराया तथा बुनियाद के अंतर्गत साहित्यिक विषय पर प्रतिवर्ष एक विशेष व्याख्यान आयोजित करते थे। वे वर्ष 2002 से आदर्श संगीत महाविद्यालय सागर की अध्यक्ष रहे। मुन्ना शुक्ला की पहचान एक कला समीक्षक के रूप में भी थी। संगीत, दर्शन एवं समाजशास्त्र जैसे विषयों पर तार्किक चर्चा एवं लेखन उनकी विशेषता थी। मुन्ना भैया ने अपने विचारों को अपने निजी जीवन में भी उतारा । उनके परिवार में साहित्य और संस्कृति की जो इन्द्रधनुषी छटा दिखती है मुन्ना वह भैया के विचारों का प्रतिफलन है। बहुमुखी प्रतिभा के धनी मुन्ना शुक्ला का जाना सागर के कला, संगीत, संस्कृति एवं साहित्य के क्षेत्र में एक ऐसी रिक्तता का बोध करा रहा है, जिसकी पूर्ति संभव नहीं है। मेरी विनम्र श्रद्धांजलि !
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16 दिसम्बर 2023 की तस्वीर में बाएं से- डॉ कविता शुक्ला, डॉ (सुश्री) शरद सिंह एवं मुन्ना शुक्ला जी।

हार्दिक आभार #दैनिकभास्कर 🙏
हार्दिक आभार अग्रज उमाकांत मिश्र जी🙏
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Sunday, December 1, 2024

टॉपिक एक्सपर्ट | पत्रिका | बच के रहियो जड़कारो आ गओ | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

पत्रिका | टॉपिक एक्सपर्ट | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली में
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टाॅपिक एक्सपर्ट
बच के रहियो जड़कारो आ गओ
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
        लेओ आ गओ जड़कारो! तनक देर से सई मगर आ गओ। अबे तनक समै पैले जां आईसक्रीम की ठिलियां दिखात्तीं उते अब गरम भुनत भईं मोंमफली की ठिलियां दिखान लगीं। कोल्डड्रिंक की जांगा चाय-कॉफी पोसान लगी। ऊमें सोंठ औ अदरक वारी चाय की तो कैनई का। कोऊं-कोऊं ने तो काढ़ा पीबो शुरू कर दओ। जेई तो होत आए मौसम बदले में। घरे गरम हुन्ना-कपड़ा निकर आए। जोन अबे लौं चदरा ओढ़त्ते, बे अब चदरा के संगे कंबरा साटन लगे। पल्लियां सोई निकर आईं। जे सब जरूरी बी आए। काए से के जड़कारे से बच के रैबो बी जरूरी आए। जा जो जड़कारो आए, बा कैबे खों तो सेहत बनाबे वारो मोसम कहाऊत आए, मनो जो ठंडी लग जाए तो बनी बनाई सेहत बिगर सकत आए।
     अब सोचबे की बात जे आए के इते ठंड बढ़ी जा रई औ ऊंसई ब्याओ को सीजन चल रओ। ब्याओ में जाबे वारे सबई सज-धज के जाउत आएं। मनो, जे ठंडी के चलत सब कचरा हो जात आए। आपई सोंचो एक अच्छी नई डिरेेस बनवाई औ ऊपे कोट-सूटर पैन्हने पर जाए सो कचरा होबो कहाओ। भैया हरें सो फेर बी कोट-सूट पैन्ह लेत आएं। बच्चन खों डांट-डूंट के गरम कपड़ा पैन्हा दए जित आएं। बब्बा, बऊ हरें तो ऊंसई ठंडी से डरात आएं। मनो हमाई बैनें, भौजियां, यां तक लौं आंटी जू हरे खुलो सो बिलाउज औ मच्छरदानी सी पतरी धुतिया पैन्ह के फिरत रैत आएं। ऊ टेम पे तो कछू पतो नईं परत, बाकी अगली दिनां कऊं हात-गोड़े पिरात आएं, तो कऊं बुखार चढ़ आऊत आए। सो, भौजी हरों, बैन हरों खो अपनो खयाल राखियो। ऐसो आए के फैशन सोई मोसम के टाईप को करो जाए सो अच्छो बी लगत औ सेफ बी रैत। सो खूब ब्याओ में जाइओ, धूम मचाइओ मनो जड़कारे से बच के रहियो।
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