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My Editorials - Dr Sharad Singh

Friday, February 21, 2025

शून्यकाल | पवित्र आदिग्रन्थ ‘‘गुरुग्रन्थ साहिब’’ में है संत रविदास की वाणी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम- शून्यकाल

      पवित्र आदिग्रन्थ ‘‘गुरुग्रन्थ साहिब’’ में है संत रविदास की वाणी
       - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

       संत रविदास उन महान संतों में एक थे जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने में महत्वपूर्ण योगदान किया। रविदास जी के भक्ति गीतों एवं दोहो ने भारतीय समाज मे समरसता एवं प्रेम भाव उत्पन्न करने का प्रयास किया है। रविदास की वाणी का इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि समाज के सभी वर्गों के लोग उनके प्रति श्रद्धालु बन गए। रविदास के पदों को सिखों के पवित्र आदिग्रंथ गुरुग्रंथ साहब में संकलित किया गया है। गुरुग्रंथ साहब में संकलित पदों में रविदास ने ईश्वर को सबसे बड़ा सहायक और तारनहार कहा है तथा वेद, कुरान, पुराण आदि ग्रन्थों में एक ही ईश्वर का गुणगान किया गया है। 
       भारत की मध्ययुगीन संत परंपरा में रविदास का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। संत कवि रविदास का जन्म वाराणसी के पास एक गांव में सन् 1398 में माघ पूर्णिमा के दिन हुआ था। रविदास को रामानन्द का शिष्य माना जाता है। कुछ विद्वान रविदास का समय 1482-1527 ई. के बीच मानते हैं तो कुछ के अनुसार रविदास का जन्म काशी में 1398 में माघ पूर्णिमा के दिन हुआ माना जाता है। वे मीरा और कबीर के समकालीन थे।
गुरुग्रंथ साहब में जिन 15 संतों की वाणी संग्रहीत की गई हे उनमें सिख गुरुओ के अतिरिक्त संत रविदास, शेख फरीद, सेन, जयदेव, नामदेव, वेणी, रामानन्द, कबीर, पीपा, सैठा, धन्ना, भीखन, परमानन्द और सूरदास हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने हरिबंस, बल्हा, गयन्द, नल्ह, भल्ल, सल्ह भिक्खा, कीरत, भाई मरदाना, सुन्दरदास, राइ बलवंत सत्ता डूम, कलसहार, जालप जैसे 14 रचनाकारों की रचनाओं को आदिग्रन्थ में स्थान देकर उन्हें उच्च स्थान प्रदान किया। यह अद्भुत कार्य करते समय गुरु अर्जुन देव के सामने धर्म जाति. और भाषा के बदले मानवतावादी दृष्टिकोण था। उन्होंने मानव के सकल उद्धार को ध्यान में रखकर यह कार्य किया। गुरु अर्जुन देव भली-भांति जानते थे कि इन सभी गुरुओं, संतों एवं कवियों का सांस्कृतिक, वैचारिक एवं चिन्तनपरक आधार एक ही है। गुरु अर्जुनदेव ने जब आदिग्रन्थ का सम्पादन कार्य 1604 ई. में पूर्ण किया था तब उसमें पहले पांच गुरुओं की वाणियां थीं। आगे चल कर गुरु गोविन्द सिंह ने अपने पिता गुरु तेग बहादुर की वाणी शामिल करके आदिग्रन्थ को अन्तिम रूप दिया। इस प्रकार आदि-ग्रन्थ में 15 संतों के कुल 778 पद हैं। इनमें 541 कबीर के, 122 शेख फरीद के, 60 नामदेव के और 40 संत रविदास के है। अन्य संतों के एक से चार पदों को आदि ग्रन्थ में स्थान दिया गया है। गौरव का विषय है कि आदि ग्रंथ में संग्रहीत ये रचनाएं गत 400 वर्षों से भी अधिक समय से बिना किसी परिवर्तन के पूरी तरह सुरक्षित हैं तथा गुरुओं की वाणी के साथ ही ग्रहण की जाती रही है। गुरु गोविन्द सिंह ने अपने जीवनकाल में ही देहधारी गुरु परम्परा समाप्त कर दी थी और सभी सिखों के आध्यात्मिक मार्गदर्शन के लिए गुरु ग्रन्थ साहिब और उनके सांसारिक दिशा-निर्देशन के लिए समूचे खालसा पंथ को गुरु पद पर आसीन कर दिया था। उसी समय से आदिग्रन्थ को गुरु साहब के रूप में स्वीकार किया गया। इस प्रकार संत रविदास की वाणी भी गुरुवाणी के रूप में न केवल संग्रहीत है वरन् विश्व में व्याप्त है।

संत रविदास के पदों में ईश्वर के प्रति समर्पण की भावना पूर्ण समग्रता लिए हुए है। वे ईश्वर के बिना स्वयं के अस्तित्व को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। वे मानते हैं कि मनुष्य का अस्तित्व ईश्वर के अस्तित्व से ही निर्धारित होता है। यदि ईश्वर चंदन है तो मनुष्य पानी है, यदि ईश्वर दीपक है तो मनुष्य बाती है, यदि ईश्वर मोती है तो मनुष्य धागा है अर्थात् ईश्वर का स्थान स्वामी का है और मनुष्य का स्थान उसके दास का है-
प्रभुजी तुम चंदन हम पानी। जाकी अंग अंग वास समानी।।
प्रभुजी तुम धनबन हम मोरा। जैसे चितवत चन्द्र चकोरा।।
प्रभुजी तुम दीपक हम बाती। जाकी जोति बरै दिन राती।।
प्रभुजी तुम मोती हम धागा। जैसे सोनहि मिलत सुहागा।। 
प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा। ऐसी भक्ति करै रविदासा।।

संत रविदास ने अपनी कल्पनाशीलता, आध्यात्मिक शक्ति तथा अपने चिन्तन को सहज एवं सरल भाषा में व्यक्त की है। सहज-सरल भाषा में कहे गये इन उच्च भावों को समझाना कठिन नहीं है, इसी लिए संत रविदास के पद जन-जन में लोकप्रिय हुए। संत रविदास उन महान संतों में एक थे जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने में महत्वपूर्ण योगदान किया। रविदास जी के भक्ति गीतों एवं दोहो ने भारतीय समाज मे समरसता एवं प्रेम भाव उत्पन्न करने का प्रयास किया है। रविदास की वाणी का इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि समाज के सभी वर्गों के लोग उनके प्रति श्रद्धालु बन गए। हिन्दू और मुस्लिम में सौहार्द एवं सहिष्णुता उत्पन्न करने हेतु रविदास जी ने अथक प्रयास किए थे और इस तथ्य का प्रमाण उनके गीतों में देखा जा सकता है। वे कहते हैं कि तीर्थ यात्राएं न भी करो तो भी ईश्वर को अपने हृदय में पा सकते हो -
का मथुरा द्वारिका का काशी हरिद्वार। 
रविदास खोजा दिल आपना तह मिलिया दिलदार।।

संत रविदास ने अपने आचरण तथा व्यवहार से यह प्रमाणित कर दिया है कि मनुष्य अपने जन्म तथा व्यवसाय के आधार पर महान नहीं होता है। विचारों की श्रेष्ठता, समाज के हित की भावना से प्रेरित कार्य तथा सदव्यवहार जैसे गुण ही मनुष्य को महान बनाने में सहायक होते हैं। यदि मनुष्य आत्ममुग्धता में डूबा रहे, अहंकार को गले से लगाए रहे तो उसे ईश्वर भी दिखाई नहीं देता है, वह हर पल स्वयं को ही देखता रहता है। यह भी सांसारिक मोह का बंधन है। इस बंधन से किसी भी तरह से मुक्त हो कर ही ईश्वर की आराधना की जा सकती है-
जब हम होते तब तू नाही, अब तू ही मैं नाहि। 
अनल अगम जैसे लहरि मई ओदधि जल केवल जल माहि।। 
माधवे किआ कहीऐ भ्रमु ऐसा। जैसा मानीऐ होइ न तैसा।। 
नरपति एक सिंघासनि सोइआ सुपने भइया भिखारी। 
अछत राज बिछुरत दुखु पाइआ सो गति भई हमारी।।  

संत रविदास ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि वेद, पुराण, कुरान आदि धार्मिक ग्रंथों वह शक्ति नहीं है जो ईश्वर के नाम में है। ईश्वर का नाम ले कर ही जन्म और मरण के बंधन से मुक्त हुआ जा सकता है-
नाना खिआन पुरान बेद बिधि चउतीस अखर मांही।
बिआस बिचारि कहिओ परमारथु राम नाम सरि नाही।।
सहज समाधि उपाधि रहत फुनि बडै भागि लिव लागी।
कहि रविदास प्रगासु रिदै धरि जनम मरन भै भागी।।

ईश्वर की महिमा का वर्णन करते हुए रविदास ने सहज भाव से ईश्वर और मनुष्य को परस्पर एक दूसरे का पूरक कहा है। वे स्वयं को ईश्वर के समक्ष प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि यदि ईश्वर गिरिवर है तो वे मोर हैं, यदि ईश्वर चन्द्रमा है तो वे चकोर हैं। इसी प्रकार ईश्वर को दीपक और स्वयं को दीपक की बाती निरूपित करते हैं। वे ईश्वर को स्मरण भी कराते हैं कि यदि ईश्वर चाहे तो उन्हें विस्मृत कर सकता है किन्तु वे ईश्वर को कभी विस्मृत नहीं करेंगे, क्यों कि उन्होंने जो नाता ईश्वर से जोड़ा है, वह नाता और किसी से जोड़ा नहीं जा सकता है- 
जउ तुम दीवार तउ हम बाती। 
जउ तुम तीरथ तउ हम जाती।
साची प्रीति हम तुम सिउ जोरी। 
तुम संग जोरी अवर संगि तोरी।
जह जह जाउ तहा तेरी सेवा। 
तुम सो ठाकुर अउरू न देवा।
तुमरे भजन कटहि जब फांसा। 
भगति हेत गावै रविदासा।।

रविदास ने ऊंच-नीच की भावना तथा ईश्वर-भक्ति के नाम पर किये जाने वाले विवाद को सारहीन तथा निरर्थक बताया और सबको परस्पर मिलजुल कर प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश दिया। वे स्वयं मधुर तथा भक्तिपूर्ण भजनों की रचना करते थे लोगों को समझाते थे कि वेद, कुरान, पुराण आदि ग्रन्थों में एक ही ईश्वर का गुणगान किया गया है। रविदास की वाणी भक्ति की उत्कृष्ट भावना, समाज के व्यापक हित की सोच और उद्गार में सत्यता पूर्ण है जिसे आत्मसात कर के समाज में समरसता एवं आपसी प्रेम स्थापित रखा जा सकता है। 
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Wednesday, February 19, 2025

चर्चा प्लस | अत्यंत विस्तृत है पं. दीनदयाल उपाध्याय के राष्ट्रवादी विचारों का मर्म | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस (सागर दिनकर में प्रकाशित)

अत्यंत विस्तृत है पं. दीनदयाल उपाध्याय के राष्ट्रवादी विचारों का मर्म  

         - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

पं. दीनदयाल उपाध्याय राष्ट्र को सर्वोपरि मानते थे। उनका कहना था कि राष्ट्र विभिन्न समाजों, समूहों एवं कुशलताओं से बनी एक ऐसी इकाई है जो मानव सभ्यता को सच्चे अर्थ में परिभाषित करती है। वे नागरिकों के लिए राष्ट्रीयता को सबसे बड़ी पूंजी मानते थे। दीनदयाल जी के राष्ट्रवादी विचारों का मर्म अत्यंत विस्तृत है, उसे समझने के लिए दृष्टिकोण का विस्तृत होना आवश्यक है।

        राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधावराव सदाशिवराव गोलवलकर ने राष्ट्र, राष्ट्रीयता, हिन्दू राष्ट्र इन अवधारणाओं के सम्बन्ध में जो विचार समय-समय पर व्यक्त किये वही विचार दीनदयाल जी की राष्ट्र की अवधारणा में भी दिखाई पड़ती है।  गोलवलकर गुरुजी ने कहा कि ‘‘एक बड़ी भारी भ्रान्ति विद्यमान है जिसके कारण, राज्य को ही राष्ट्र माना जाता है। ‘नेशन-स्टेट’ की अवधारणा प्रचलित होने के कारण यह भ्रान्ति निर्मित हुई और आज भी प्रचलित है।’’ दीनदयाल जी सुप्रसिद्ध फ्रांसीसी विचारक अर्नेस्ट रेनो के राष्ट्र संबंधी विचार को भी महत्व देते थे। अर्नेस्ट रेनो ने ‘राष्ट्र क्या होता है’ नामक अपनी पुस्तक में लिखा है कि दो बातें जो वस्तुतः एक ही हैं, इस आध्यात्मिक तत्त्व को जन्म देती है। उनमें से एक वर्तमान कालीन होती है और दूसरी अतीत की। एक वर्तमान में एकत्र रहने की इच्छा होती है तो दूसरा अतीत के अनुभवों और संस्मरणों का संग्रह होता है। ‘हमने अतीत में यह किया और भविष्य में हम यह करेंगे’- यह मान्यता जिनकी रहती है उनका राष्ट्र होता है। जिस प्रकार कृत्रिम रीति से मनुष्य तैयार नहीं किया जाता, वैसा राष्ट्र भी कृत्रिम रीति से बनाया नहीं जाता। परिश्रम, त्याग, बलिदान से राष्ट्र बनता है। गोलवलकर गुरुजी की भांति दीनदयाल जी भी मानते थे कि ‘‘यह भूमि मनुष्य के परिश्रम और पराक्रम का आधार होती है। किन्तु मनुष्य ही उसको एक आत्मतत्व कहिये, चैतन्य कहिये, प्रदान करता है। जिस पवित्र भूमि को हम ‘राष्ट्र’ कहकर पुकारते हैं, उसके लिए मनुष्य ही सब कुछ होता है। किसी भी प्रकार की भौतिक स्थिति, परिस्थिति ‘राष्ट्र’ की रचना में पर्याप्त नहीं होती। क्योंकि ‘राष्ट्र’ एक आध्यात्मिक तत्व होता है- किसी भूभाग से परिच्छिन्न लोकसमूह राष्ट्र नहीं बनता।’’
गुरुजी की  भांति दीनदयाल जी ने भी अपने अनेक भाषणों में इन्हीं तीन शर्तो का, भिन्न-भिन्न सन्दर्भ में विवेचन किया कि यह भारत की भूमि इस भारत राष्ट्र का शरीर है। राष्ट्र कहते हैं, एक जन समूह को, जिनकी एक पहचान होती है, जो कि उन्हें उस राष्ट्र से जोड़ती है। इस परिभाषा से तात्पर्य है कि वह जन समूह साधारणतः समान भाषा, धर्म, इतिहास, नैतिक आचार, या मूल उद्गम से होता है। दीनदयाल जी के राष्ट्रवादी विचारों को निम्नलिखित कुछ प्रमुख बिन्दुओं के रूप में समझा जा सकता है -
प्रकृति का उचित दोहन
दीनदयाल जी प्रकृति की महत्ता को सम्मान देते थे। वे प्राकृतिक सम्पदा के दुरुपयोग के विरोधी थे। उनके अनुसार प्रकृति का दोहन उसी सीमा तक किया जाना चाहिए जिस सीमा तक प्रकृति को क्षति न पहुंचे। दीनदयाल जी अपने एक लेख में लिखा था कि -‘‘ उद्देश्यपूर्ण सुखी एवं विकासशील जीवन के लिए जिन भौतिक साधनों की आवश्यकता होती है, वे साधन हमें अवश्य प्राप्त होने चाहिए। ईश्वर द्वारा निर्मित सृष्टि का सूक्ष्म अध्ययन करने पर हमें दिखाई देगा कि कम से कम इतना प्रावधान ईश्वर ने निश्चित ही कर रखा है। किन्तु यह मान कर कि ईश्वर ने मनुष्य का जन्म केवल उपभोग के लिए किया है हम यदि सारी शक्ति एवं उपलब्ध साधन संपदा को निरंकुशता से खर्च करने लगें तो वह कदापि उचित नहीं होगा। इंजन चलाने के लिए कोयले की आवश्यकता होती है किन्तु कोयले की खपत के लिए इंजन नहीं बनाया जाता। कम से कम ईंधन का उपयोग कर अधिक से अधिक शक्ति का कैसे निर्माण किया जाए इसके लिए हम प्रयत्नशील होते हैं। यही दृष्टिकोण उचित है। उसी प्रकार मानवीय जीवन के उद्देश्य को अंाखों से ओझल न होने देते हुए कम से कम ईंधन (उपभोग सामग्री) से अधिक से अधिक गति उत्पन्न कर हम अपने ध्येय को प्राप्त कर सकें ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए। यह व्यवस्था करते समय मानव जीवन के एकाध पक्ष का ही विचार न करते हुए उसके सम्पूर्ण जीवन का एवे अंतिम लक्ष्य का विचार भी आवश्यक है। यह व्यवस्था प्रकृति का शोषण करने वाली न हो कर उसके पोषण के लिए सहायक बनने वाली होनी चाहिए।
सांस्कृतिक स्वतंत्रता की आवश्यकता पर बल
पं. दीनदयाल जी ने मनुष्य एवं राष्ट्र के समुचित विकास के लिए सांस्कृतिक स्वतंत्रता को अति आवश्यक माना। इस संबंध में उन्होंने अपने एक लेख में लिखा था कि ‘‘अब अंग्रेजों के जाने के बाद उनके स्थान पर हमारे अपने रक्त-मांस के लोगों का राज्य आ गया है, इसका हमें हर्ष है। किन्तु अब हमारी अपेक्षा है कि जिस समाज ने उन लोगों को बनाया है उसकी भावनाओं की धड़कनें उनके हृदय में उठनी चाहिए। उस समाज के लिए अनुकूल तथा उसकी प्रकृति एवं स्वभाव के अनुरूप प्रणालियों के निर्माण का प्रयास उन्हें करना चाहिए। ऐसा नहीं होता है तो यह कहना होगा कि अब भी स्वतंत्रता की यह लड़ाई पूरी होनी है।’’ 
सांस्कृतिक स्वतंत्रता के महत्व को रेखांकित करते हुए दीनदयाल जी ने इसी तारतम्य में आगे लिखा था कि ‘‘हमें आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा अध्यात्मिक स्वतंत्रता चाहिए। स्वतंत्रता में आत्मानुभूति का होना महत्वपूर्ण है। कारण यह है कि संस्कृति शरीर में प्राण की भांति राष्ट्रजीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अनुभव की जा सकती है।’’ 
धर्म संबंधी विचार
दीनदयाल जी के धर्म का व्यापक अर्थ था। वे धर्म को व्यवहारिक दृष्टि से देखते थे तथा उसी आधार पर धर्म की व्याख्या करते थे। धर्म के नाम पर विभाजन अथवा शत्रुता उन्हें उचित नहीं लगती थी क्यों उनका मानना था कि धर्म जिस समाज में रखता है और समाज की भलाई के लिए जिन बातों को धारण करता है, वही धर्म है। ‘पांचजन्य’ में प्रकाशित अपने एक लेख में दीनदयाल जी ने धर्म की व्याख्या करते हुए लिखा था- ‘‘धर्म वही है जो सब के लिए लाभकारी होता है और जो मोक्ष के मार्ग को प्रशस्त करता है। ‘धारणात् धर्ममित्याहुः धर्मो धारयते प्रजाः’ - यह हमारे यहां धर्म की व्याख्या है। अर्थात् जिन बातों, शक्तियों, भावनाओं, व्वस्थाओं तथा नियमों के कारण समाज की धारणा होती है, वही धर्म है। मनुष्य की धारणा जिन बातों से होती है वह मनुष्य धर्म, शरीर जिसकी धारणा करे वह शरीर धर्म, इसी प्रकार सारी प्रजा की एवं उसके भी परे जा कर समस्त जड़-चेतन संसार की धारणा जिसके कारण होती है उसके भी अपने निश्चित नियम होते हैं। धर्म ही सबकी धारणा करता रहता है। धर्म के बिना कोई बात टिक नहीं सकेगी। प्रत्येक वस्तु नष्ट हो जएगी। शरीर, मन, बुद्धि तथा आत्मा से युक्त मानव की धारणा जो कर सकेगा, उसे ही धर्म कहा जाएगा। धर्म धारणा के साथ-साथ सामंजस्य स्थापित करने का कार्य करता है। इसीलिए आचरण के नियम बनते हैं। ये नियम देश, काल, स्थिति एवं वस्तु के अनुसार भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। कुछ नियम ऐसे होते हैं जो सभी पर लागू किए जा सकते हैं।’’
दीनदयाल जी मानते थे कि जो सच्चा धार्मिक व्यक्ति है वह परपीड़ा की बात सोच ही नहीं सकता है। कोई भी धर्म दूसरे को पीड़ा देकर प्रसन्न रहने की शिक्षा नहीं देता है। 
भूमि के उचित वितरण की चिन्ता
दीनदयाल जी देश के विकास के लिए भूमि के उचित वितरण एवं समुचित देखभाल को मुख्य आधार मानते थे। वे कृषि की सुव्यवस्था के लिए कृषियोग्य भूमि का उचित बन्दोबस्त किया जाना आवश्यक समझते थे। उन्होंने भूमि के वितरण के संबंध में लिखा था कि -‘‘सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए एक किसान के पास अधिक से अधिक कितनी भूमि रहे, इसे निश्चित करने की नितांत आवश्यकता है। एक बार यह अधिकतम सीमा निश्चित हो गई तो उस सीमा से अधिक भूमि उस किसान से ली जा सकती। किन्तु आज भूमिहीन किसानों में से अधिसंख्य किसान हरिजन होने के कारण भूमि के वितरण के प्रश्न को आर्थिक के साथ-साथ सामाजिक एवं राजनीतिक आयाम भी प्राप्त हुए हैं। अतः भूमिहीनों को भूमि देने का प्रश्न अत्यंत विवादग्रस्त बन बैठा है। भूमि के वितरण के बारे में सभी परिकल्पनाएं इस मूलभूत अवधारणा पर आधारित हैं कि हमें अपनी अर्थव्यवस्था केा स्थिर रखना है। यदि हम अपनी अर्थव्यवस्था को गतिशील करें और समाज के सभी वर्गों को उनकी जीविका के लिए विभिन्न साधन उपलब्ध करा दें तो समाज में भूमि के स्वामित्व के बारे में आज जितनी भूख निश्चय ही नहीं रहेगी।’’  
स्वदेशी की भावना
जब तक देश परतंत्र था तब तक स्वदेशी की भावना जन-जन के मन में उत्साह का संचार करती रहती थी। देश अंग्रेजों की गुलामी से बाहर आया। विदेशी चले गए और स्वदेशी का अभियान मानो मंद पड़ गया। स्वतंत्रता पाने का एक लक्ष्य था जो पूरा हो चुका था। किन्तु स्वदेशी की भावना एक ऐसी भावना थी जो आजादी की लड़ाई से भी आगे देश को स्वावलम्बी बनाने के लिए अत्यंत आवश्यक थी। आर्थिक विकास का आधार स्वदेशी उत्पादन एवं निर्माण ही बन सकता था। अतः देश के स्वतंत्र होने के बाद भी स्वदेशी की भावना को पूर्ववत् भाव से अपनाए रखा जाना आवश्यक था। ‘अर्थनीति का भारतीयकरण’ के अंतर्गत भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए स्वदेशी पर चिन्तन करते हुए पं. दीनदयाल उपाध्याय के विचार थे कि -‘‘1947 में हम स्वतंत्र हुए। अंग्रेज भारत छोड़ कर चले गए। राष्ट्रनिर्माण के प्रयासों में सबसे बड़ी बाधा हम उन्हीें को मानते थे। वह बाधा दूर हो गई। तब सबके सामने अकस्मात् प्रश्न उपस्थित हुए कि महत्प्रयासों से प्राप्त इस स्वतंत्रता का आशय क्या है? हम यहां किस प्रकार का जीवन खड़ा करना चाहते हैं? राष्ट्र के नाते भारत के जीवनादर्श और जीवन निष्कर्ष क्या हैं?’’ 
दीनदयाल जी जब स्वदेशी की बात करते थे तो उनका मूल उद्देश्य भारतीय अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाने का होता था। उन्हें लगता था कि जब इतने कठोर  और लम्बे संघर्ष के बाद स्वतंत्रता मिली है तो उसका एकमात्र ध्येय राष्ट्रीयता का विकास होना चाहिए और यह विकास देशी उत्पादन की अर्थव्यवस्था पर आधारित होना चाहिए ताकि देश को विदेशों के सम्मुख कर्ज के लिए हाथ न फैलाना पड़े। 
चाहे प्रकृति के उचित दोहन का विषय हो या सांस्कृतिक स्वतंत्रता की आवश्यकता पर का, धर्म संबंधी विचार हों या फिर भूमि के उचित वितरण चिन्ता, दीनदयाल जी के राष्ट्रवादी विचारों का मर्म अत्यंत विस्तृत है, उसे समझने के लिए दृष्टिकोण का विस्तृत होना आवश्यक है।
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