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My Editorials - Dr Sharad Singh

Monday, August 9, 2010

काश! ऐसा हो जाए!

-डॉ.(सुश्री) शरद सिंह
बात कुछ दिन... या यूं कह लीजिए कि कुछ सप्ताह पहले की है। हुआ यूं कि मैंने अपने घर की बाल्कनी में एक गमला रखा और उसमें खाद-मिट्टी भर कर फूल का एक पौघा लगा दिया। लेकिन ठहरिए! पहले मैं आप लोगों को अपने घर के नक़्शे से तो परिचित करा दूं। मेरा घर एक मध्यमवर्गीय फ्लैट है। इसमें एक बैठक है, एक रसोई है, एक शयन कक्ष और एक स्टोर रूम है। यह बिल्डिंग के दूसरे माले पर है। पहले एक छोटी सीढ़ी चढ़नी होती है फिर एक बड़ी सीढ़ी। इसके बाद आता है मेरे फ्लैट का दरवाज़ा। दरवाज़ा भी ऐसा कि उसमें से हो कर हवा भी पर न मार सके। लेकिन सुरक्षा की दृष्टि से यही ठीक है। इस दरवाज़े के आजू-बाजू न तो कोई खिड़की है और न कोई रोशनदान। हवा, पानी, रोशनी सबके लिए प्रतिबंधित है इस दरवाज़े से घुसने का प्रयास करना। कारण वही है, सुरक्षा का।
खैर, इसमें असुरक्षा कितनी है यह तो मुझे नहीं पता लेकिन इस दरवाज़े से प्रवेश करते ही बैठक मिलती है। बैठक की बायीं बाजू में एक और दरवाज़ा है। यह दरवाज़ा सौभाग्यशाली है क्योंकि यह एकाकी नहीं है। इसके बाजू में एक सुन्दर-सी खिड़की है। सुन्दर इस मायने में कि इससे हवा आती है, रोशनी आती है और यदि बारिश के समय यह खुली रह जाए तो इसमें से पानी की बौछार भी बेधड़क अन्दर प्रवेश कर लेती है। इन्हीं खिड़की, दरवाज़ों के बाहर एक छोटी-सी बाल्कनी है। बाल्कनी की लंबाई-चौड़ाई सिर्फ़ इतनी है कि या तो आप चार-छः गमले रख लीजिए या फिर दो आराम कुर्सियां रख लीजिए। मैंने इस स्थिति को देखते हुए बाल्कनी के निजीकरण करने का निश्चय किया और सिर्फ़ अपने सुख के लिए एक गमले और एक आराम कुर्सी रखने का निर्णय ले लिया।
यह एक ऐसा सुखद निर्णय था जो मुझे प्रकृति के समीप बैठ कर चाय की चुस्कियां लेने का सुख दे सकता था। ...और मेरी प्रकृति फिलहाल एक गमले में सिमटी हुई थी। मैं रोज सुबह पौधे को पानी सींचती। उसके एक-एक पत्ते को ध्यान से ऐसे देखती गोया मेरे देखने मात्रा से वे पत्ते सुन्दर फूलों में परिवर्तित हो जाएंगे। जी हंा, मुझे अपने उस गमले के पौधे में फूलों के खिलने की व्याकुलता से प्रतीक्षा थी। और, विश्वास कीजिए कि एक सुबह मेरी व्याकुलता पचास प्रतिशत समाप्त हो गई। मुझे पौधे के नर्म-कोमल तनों के छोरों पर नन्हीं-नन्हीं कलियां दिखाई दीं। उन कलियों को देख कर मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उन कलियों को देख कर मुझे जो प्रसन्नता हुई उतनी प्रसन्नता तो किसी ख़जाने के मिलने पर भी नहीं होती।
इसके बाद मेरी शेष बची पचास प्रतिशत व्याकुलता को इन कलियों के खिलने की प्रतीक्षा थी। उस दिन के बाद से मैंने पत्तों की ओर ध्यान से देखना छोड़ कर कलियों की ओर ध्यान से देखना शुरू कर दिया। गोया, मेरे देखने से वे कलियां तुरन्त खिल कर मुस्कुराने लगेंगी। लेकिन ऐसा कुछ न होना था और न हुआ। प्रकृति अपने ढंग से काम करती है और अपने ढंग से काम करती रही। कलियों को जितने दिन में खिलना था, वे उतने दिन में ही खिलीं।
एक सुबह मेरी शेष पचास प्रतिशत व्याकुलता का भी अंत हो गया। मैं पौधे को पानी देने बाल्कनी में पहुंची तो मेरे हाथ से पानी से भरा जग छूटते-छूटते बचा। मैंने देखा कि मेरे इकलौते गमले में दुनिया की सारी सुन्दरता खिलखिला रही थीं। जी हंा, अधिकांश कलियां फूल में बदल चुकी थीं। फूल इतने सुन्दर थे कि उन्हें देख कर मेरा मन नाचने-गाने और ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने का होने लगा। यद्यपि मैंने अपने मन पर काबू किया और नाचने, गाने या चिल्लाने का विचार त्याग दिया। मैंने पौधे को पानी दिया। फिर दौड़ कर रसोई में गई और अपने लिए एक कप चाय बना लाई। गमले के सामने रखी आरामकुर्सी पर बैठ कर चाय की चुस्कियां लेती हुई फूलों के सौंदर्य को निहारने लगी। उसी क्षण मेरे मन में सम्पन्नता के भाव का उदय होने लगा। मैंे अपने आप को किसी करोड़पति, अरबपति से भी अधिक धनवान महसूस करने लगी। मेरे पास मेरे अपने फूल थे। मेरे अपने गमले में लगे मेरे अपने पौधे के मेरे अपने फूल। यह एक ऐसी अनुभूति थी कि जिसका वर्णन कर पाना उतना ही कठिन है जितना की किसी गूंगे के लिए गुड़ की मिठास को बता पाना।
उस दिन के बाद से मेरी प्रत्येक सुबह फूलों के पास ही व्यतीत होती। मुझे यह नहीं पता कि फूलों को मेरी उपस्थिति कैसी लगती थी लेकिन मुझे उनके पास होना बहुत भाता था। फूलों के खिलने का क्रम शुरू हो चुका था। दो फूल मुरझाते तो चार नए फूल खिल जाते।
एक सुबह एक अनहोनी हो गई। मैं अभी चाय का कप ले कर पौधे के पास पहुंची ही थी कि मुझे ऐसा लगा कि फूलों पर एक तितली मंडरा रही है। यह देख कर मेरे पांव जहंा के तहंा ठिठक गए। मैं मूर्तिवत् खड़ी-खड़ी उस तितली की हरकतें देखते लगी। तितली इस फूल से उस फूल और उस फूल से इस फूल पर मंडरा रही थी। फिर वह एक फूल पर बैठ गई और उसका रसपान करने लगी। यह दृश्य देख कर मुझे अपने गमले में सिमटी प्रकृति को पूर्णता मिलती प्रतीत हुई। मुझे यह सब बड़ा अच्छा लगा।
दूसरे दिन तितलियों की संख्या बढ़ गई। बारी-बारी से दो-तीन रंगों की तितलियां फूलों पर चक्कर लगाती रहीं। तभी एक नन्हीं-सी फुलचुही चिड़िया जिसे शायद हमिंग बर्ड कहते हैं, पौधे के पास बाल्कनी की रेलिंग पर आ बैठी। वह फूलों की ओर ध्यानपूर्वक देखने लगी। मैं अभी सोच ही रही थी कि वो चिड़िया कौन-सा क़दम उठाएगी कि तभी उस चिड़िया ने फूलों पर मंडराना शुरू कर दिया। हवा में तेजी से पंख फड़फड़ाती हुई वह नन्हीं चिड़िया फूलों का रस चूसने लगी। मुझे अपनी अंाखों पर यक़ीन नहीं हो रहा था। प्रकृति का यह नया रूप था जो मेरी अंाखों के सामने साक्षात् साकार हो रहा था।
वह नन्हीं फुलचुही अभी उड़ी ही थी कि दो-चार गौरैयों ने बाल्कनी की रेलिंग पर बैठ कर चहकना शुरू कर दिया। मुझे विश्वास हो गया कि प्रकृति मेरी छोटी-सी बाल्कनी और बाल्कनी में रखे उस नन्हंे-से गमले पर पूरी तरह से मेहरबान है। जैसे धनवान को धन का लालच होता है वैसे ही मुझे भी प्रकृति की और सुन्दरता बटोरने का लालच होने लगा। मैंने अपनी इकलौती आरामकुर्सी को बाल्कनी से उठा कर बैठक में एक किनारे खड़ा कर दिया और चार-छः गमले और ला कर बाल्कनी में रख दिए। उन गमलों में तरह-तरह के फूलों के पौधे लगा दिए। अब चूंकि मेरे भीतर धैर्य कम बचा था इसलिए नर्सरी से फूलों सहित वाले पौधे ला कर गमलों में रोप दिए। इससे हुआ ये कि मेरी बाल्कनी जल्दी ही एक सुन्दर बगीचे में परिवर्तित हो गई। गमलों की अधिकता के कारण अब मैं वहां सिर्फ़ खड़ी हो कर ही पौधों को निहार सकती थी, बैठ कर नहीं। लेकिन इससे मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था। मेरे लिए अपनी बाल्कनी में सिमटा प्रकृति का यह सुन्दर रूप महत्वपूर्ण था, वहंा बैठ कर चाय की चुस्कियां लेना नहीं।
एक दिन मैं अपनी बाल्कनी में खड़ी हो कर अपनी नन्हीं-सी प्रकृति की विशाल, विस्तृत सुन्दरता को निहार रही थी कि फोन की घंटी बज उठी। मैंने जा कर फोन उठाया। फोन मेरी सहेली का था। उसके घर में इन दिनों पुनर्निर्माण कार्य चल रहा था। उसके बच्चों को पढ़ने के लिए अलग-अलग कमरे चाहिए थे इसलिए वह एक बड़ा कमरा तुड़वा कर अपने दोनों बच्चों के लिए दो कमरे बनवा रही थी।
मैंने उससे पूछा कि कमरे बन गए क्या? वह बोली हंा बन गए। उसने आगे जो बताया उसे सुन कर मेरा मन विचलित हो उठा। उसने बताया कि एक कमरे को दो कमरों में बदलने के लिए कुछ और जगह की ज़रूरत थी इसलिए उसने अपने घर का लॅान मिटा दिया और लॅान के कोने में लगा अमरूद का पेड़ भी कटवा दिया। उसने बताया कि उसके बच्चे अपने अलग-अलग कमरे पा कर बहुत खुश हैं। यह ठीक था कि उसके बच्चे खुश थे लेकिन इस चक्कर में वे प्रकृति की सुन्दरता से कितनी दूर हो गए, इसे न तो वे बच्चे समझ सकते थे और न मेरी सहेली समझ सकती थी। मैं मन मसोस कर रह गई। मेरे मन मे उसी समय यह विचार आया कि काश! इस धरती पर से एक भी पेड़ न काटा जाए, एक भी पौधा न उखाड़ा जाए और एक भी एक भी घर ऐसा न बने जो प्रकृति को मिटा कर बना जाए।
मेरी सहेली मुझे उन नए कमरों को देखने के लिए आमंत्रित कर रही थी लेकिन मैं भला कैसे जा सकती थी उस जगह को देखने जो प्रकृति की सुन्दरता को मिटा कर बनाई गई थी। मैंने बहाना बनाते हुए उसका आमंत्राण ठुकरा दिया और अपनी नन्हीं सी प्राकृतिक दुनिया को अपनी अंाखों में समेटने के लिए बाल्कनी के दरवाज़े पर जा पहुंची। उसी समय मेरे मन ने मुझसे एक सवाल पूछा- कि अगर एक गमले के एक पौधे से कई तितलियां, कई चिड़िएं और ढेरों खुशियां आ सकती हैं तो यदि शहर में दो-चार पार्क हों, सड़कों के किनारे वृक्ष हों और घरों के अंागन में फूलों की क्यारियां हों तो जीवन कितना सुन्दर होगा? इस प्रश्न का उत्तर मेरे होंठो पर आते-आते ठिठक गया। बदले में यही शब्द फूटे कि -काश! ऐसा हो जाए!
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7 comments:

  1. प्रकृति का सानिध्य .... मन प्रसन्न हो गया ... काश सच ऐसा हो जाए ...

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    1. कल 22/03/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल (संगीता स्वरूप जी की प्रस्तुति में) पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
      धन्यवाद!

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  2. काश आपका लिखा सच हो जाये जाने कब लोग यह समझेगे की प्रकृति और बच्चों का तो आपस में बहुत गहरा संबंध होता है उन दोनों को एक दूसरे से अलग करने से उन्हे कुछ पल की खुशी तो मिल सकती है मगर जीवन की सीख देती सुंदरता नहीं...सार्थक आलेख समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है....

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  3. प्रकृति का साथ हो ...तो कितना सुकून मिलता है मन को...यह दर्शाती हुई रचना

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  4. प्रकृति से दोस्ती का अनूठा चित्रण ....सच में inspire कर गया

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  5. प्रकृति के साथ खिलवाड करके हम अपनी खुशियों से दूर हो रहे हैं..बहुत सार्थक प्रस्तुति..

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