Pages

My Editorials - Dr Sharad Singh

Friday, November 26, 2010

औरतें ही क्यों ?

- डॉ. शरद सिंह 


दीवान जरमनी दास का जन्म सन् 1895 ई.में पंजाब प्रांत में हुआ था। वे कपूरथला और पटियाला में मिनिस्टर रहे। उन्हें विश्व के अनेक देशों का भ्रमण करने का अवसर मिला। दीवान जरमनी दास ने भारत के तत्कालीन महाराजाओं और महारानियों के बारे में खुल कर लिखा। पिछले दिनों महारानियों पर लिखी गई उनकी किताब मुझे पढ़ने का अवसर मिला। पुस्तक का पहला ही शीर्षक था-‘औरतें ही क्यों ?’ शीर्षक ने मुझे चौंकाया।
इस शीर्षक के तहत् पहला वाक्य था-‘‘जब मेरी उम्र मुश्कि़ल से तीस साल की थी, तो एक बार हिज़ हाईनेस आगा खान ने मुझसे कहा था,‘जरमनी, अगर तुम औरतों के साथ क़ामयाब हो तो समझो जि़न्दगी में ही क़ामयाब हो गए।’....’’
जरमनी दास का यह संस्मरण औरतों के प्रति पुरुषों की सामंतवादी सोच को तो उजागर करता ही है, साथ ही यह पुरुषों की स्वयं के प्रति उस मानसिकता को भी सामने लाता है जिसमें उनके भीतर का डर मौजूद है। इस डर को सच मानें तो लगता है गोया एक पुरुष के जीवन की सफलता और असफलता की धुरी उसने स्वयं स्त्री को ही बना रखा है। शायद यही कारण है कि पुरुष स्त्रियों के संदर्भ में जल्दी पजेसिव हो उठते हैं। दुर्भाग्य से उनके इस डर की सज़ा औरतों को तरह-तरह से भुगतनी पड़ती है।

15 comments:

  1. जानकारी देती पोस्ट ..यदि मौका मिला तो यह किताब मैं ज़रूर पढूंगी

    ReplyDelete
  2. धन्यवाद संगीता स्वरुप जी!

    ReplyDelete
  3. आपके ब्लॉग्स से गुज़रना एकदम ने अनुभव से गुज़रना है !

    ReplyDelete
  4. मनोज कुमार जी, मेरे ब्लॉग्स से जुड़ने के लिए हार्दिक धन्यवाद!मेरे ब्लॉग्स पर सदा आपका स्वागत है। इसी तरह आते रहें।

    ReplyDelete
  5. डॉ शरद जी
    औरतें ही क्यों ? के बहाने आपने बहुत कुछ कह दिया.
    अच्छा लगा.
    आप के ब्लॉग पर पहली बार आया, शतत आता रहूँ प्रयास करूँगा.
    - विजय तिवारी "किसलय" जबलपुर
    शक्ति भवन, जबलपुर

    ReplyDelete
  6. विजय तिवारी " किसलय " जी, हार्दिक धन्यवाद! सम्वाद क़ायम रखें।

    ReplyDelete
  7. इस बहस में हम आपके विचारों को स्‍वीकारते हैं. धन्‍यवाद.
    आपको हिन्‍दी ब्‍लॉग जगत में पाकर खुशी हुई, आपकी कृतियों के संबंध में यहां जानकारी मिली, अवसर मिलेगा तो, आदिवासियों पर केन्द्रित आपकी कृतियों को मैं पढ़ना चाहूंगा.

    इस ब्‍लॉग को फालो कर रहा हूँ अब बिना टिप्‍पणी (हाजिरी)किये भी आपको पढ़ता रहूंगा.

    ReplyDelete
  8. बात तो पूरी तरह से आई नहीं समझ में। किताब पढ़नी पढ़ेगी। शायद समझदानी में आ जाए। वैसे अब 21वीं सदी है। एक फीसदी से बढ़कर बीस फीसदी तक तो परिवर्तन आ ही गया है आदमी की सोच में। कुछ औऱतों ने बदल दी है उसकी सोच तो कुछ वो खुद ही बदल रहा है।

    ReplyDelete
  9. रोहित जी़,आपके विचारों का स्वागत है। ज़रा यह भी सोचिए कि इस इक्कसवीं सदी में भी खाप-पंचायतें अमानवीय फैसलें देती हैं...अभी तो बहुत कुछ बदला जाना बाकी है।

    ReplyDelete
  10. औरतों और पुरुषों के भिन्न सोचों में प्रकृति का कोई गुप्त गुम्फित रहस्य छुपा रहा है जिसे भिन्न देश काल के मनीषियों ने अपने अपने बुद्धि विवेक से व्याख्यायित करने का प्रयास किया है और एक दूसरे को समझने की यह महायात्रा अभी थमी नहीं है ,अनवरत जारी है

    ReplyDelete
  11. अरविन्द मिश्र जी़,हार्दिक धन्यवाद! आपके विचारों का स्वागत है। आप की बातों से सहमत हूँ,सम्वाद क़ायम रखें।

    ReplyDelete
  12. shard ji namskar
    aapo apne blog par dekh khr mujhe hardik prasannta hui.
    iske liye bahut bahut dhanyvaad
    aapke is aalekh se mai purntaya sahamat hun.
    yah maha yatra kab rukegi ,iske liyelagta hai abhi kafi vakt lagega
    dhanyvaad sahit poonam

    ReplyDelete
  13. हार्दिक धन्यवाद पूनम जी!

    ReplyDelete
  14. शरद मेम !
    नमस्कार !
    आप के ब्लॉग पे पहली बार आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ , आ कर अच्चा लगा ,
    साधुवाद .
    सादर

    ReplyDelete
  15. We have moved far away from 16th century, But need to be rooted.

    Thanks

    ReplyDelete