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My Editorials - Dr Sharad Singh
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Friday, March 18, 2011
Saturday, March 12, 2011
Tuesday, March 8, 2011
Monday, March 7, 2011
बहस ज़ारी रहेगी......वेश्यावृत्ति को वैधानिक दर्जे पर
मैं उन सभी की आभारी हूं जिन्होंने वेश्यावृत्ति को वैधानिक दर्जे के ज्वलंत मसले की दूसरी कड़ी पर भी अपने अमूल्य विचार व्यक्त किए। कृपया इस चर्चा को यहां स्थगित न मानें, इस पर अपनी अमूल्य राय देते रहें। क्योंकि यह हमारे सामाजिक सांस्कृतिक मूल्यों और वेश्यावृत्ति के नारकीय जीवन जीने को विवश औरतों के भविष्य से जुड़ा मुद्दा है।
अपनी पिछली पोस्ट ‘कुछ और प्रश्न : वेश्यावृत्ति को वैधानिक दर्जे पर ’ में मैंने सांसद प्रिया दत्त की इस मांग पर कि जिस्मफरोशी को वैधानिक दर्जा दिया जाना चाहिए, कुछ और प्रश्न प्रबुद्ध ब्लॉगर-समाज के सामने रखे थे। विभिन्न विचारों के रूप में मेरे प्रश्नों के उत्तर मुझे भिन्न-भिन्न शब्दों में प्राप्त हुए। कुछ ने प्रिया दत्त की इस मांग से असहमति जताई तो कुछ ने सहमति।
डॉ० कुमारेन्द्र सिंह सेंगर ने कहा कि ‘आधुनिक समाज में ये मुद्दे सिर्फ बहस करने के लिए उठाये जा रहे हैं. इस तरह के विषय उठाने वालों का (चाहे वे प्रिय दत्त ही क्यों न हों) कोई सार्थक अर्थ नहीं होता है. इस तरह की समस्या को यदि वैधानिक बना दिया जाए तो घर-घर, गली-गली वैश्यावृत्ति होती दिखेगी.’
sagebob के विचार रहे कि ‘प्रश्न सिर्फ वैश्याओं से जुडा नहीं है,बल्कि इसका असर समाज की दूसरी संस्थाओं पर भी पडेगा. विवाह,परिवार और युवा धन इस से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकेंगे.इसे पर्देदारी में ही चलने दीजिये.न वैश्याओं को न वैश्यागामिओं शराफत का चोला पहनाइए. थाईलैंड जैसे देश का हाल देख लीजिये.हाँ वैश्याओं के उत्थान के लिए बहुत कुछ किया जाना बाकी है.’
संजय कुमार चौरसिया ने लिखा कि ‘एक-एक प्रश्न अपने आप में बहुत मायने रखता है, सभी पर विचार करना बहुत जरूरी है।’
सुरेन्द्र सिंह " झंझट " ने अपनी विस्तृत टिप्पणी में लिखा कि ‘आज जब हम नारी-उत्थान और नारी सम्मान की बातें करते हैं, ऐसे में वैश्यावृत्ति को वैधानिक दर्जा देने का मतलब इसे बढ़ावा देना है | क्या हम इसी तरह नारी सम्मान की रक्षा करेंगे | आज महिलाएं पुरुषों से किसी भी मामले में पीछे नहीं हैं - चाहे वह सेवा हो , व्यवसाय हो , राजनीति हो , साहित्य हो , खेल हो या सेना हो | अगर कहीं इनकी सहभागिता कम है तो प्रयास जारी है कि इनकी सहभागिता बढ़े | दहेज़ उत्पीडन , यौन शोषण एवं आनर किलिंग जैसी विभीषिकाओं से जूझ रही नारी को निजात दिलाने के लिए कार्यपालिका ,न्यायपालिका , स्वयंसेवी संस्थाएं एवं प्रबुद्ध वर्ग प्रयासरत हैं | नारी मात्र भोग की वस्तु नहीं है बल्कि वह माँ,बहन , बेटी ,बहू और अर्धांगिनी जैसे पवित्र संबंधों से सकल श्रृष्टि को पूर्णता प्रदान करने वाली शक्ति है | फिर हम नारी के प्रति किस दृष्टि कोण के तहत वैश्यावृत्ति को वैधानिक दर्जा देने की बात सोच भी सकते हैं ? जो महिलाएं इस क्षेत्र में हैं उनमे से कम से कम ९०प्रतिशत किसी न किसी मजबूरी के कारण नारकीय जीवन जीने को विवश हैं | अगर कोई सार्थक पहल करनी ही है तो कुछ सकारात्मक सोचा जाये | इस पेशे में लगी बुजुर्ग या अधेड़ महिलाओं को स्वावलंबी बनाने के क्रम में रोजमर्रा की जरूरतों वाले सामानों की छोटी-मोटी दूकाने खुलवाई जाएँ | समाज के लोग सामने आकर साहस का परिचय देते हुए मेडिकल जाँच के उपरांत लड़कियों का विवाह करवाएँ | भयंकर बीमारियों से जूझ रही महिलाओं का उचित इलाज कराया जाये | छोटी बच्चियों को इस माहौल से दूर करके प्रारंभिक और ऊंची शिक्षा दिलवाई जाये जिससे वे संभ्रांत समाज की मुख्य धारा में शामिल हो सकें | इनकी बस्तियों से दलालों को दूर किया जाये, न मानने पर दण्डित किया जाये | इनके गलियों-मोहल्लों में अस्पताल , स्कूल , आदि सभी आवश्यक सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाएँ | कुल मिलाकर इस दलदल से इन्हें उबारा जाये न कि वैधानिक दर्ज़ा देकर सदा के लिए दलदल में धकेल दिया जाये |’
सुशील बाकलीवाल के विचार से ‘प्रश्न आपके जटिल इसलिये है कि पक्ष व विपक्ष दोनों दिशाओं में उदाहरण सहित काफी कुछ कहा जा सकता है । किन्तु सच यह है कि उन सभी स्त्रियों के हित में जो किसी भी मजबूरी या दबाव के चलते इस धंधे में सिसक रही हैं उनकी इस दलदल से मुक्ति के ठोस उपाय किये जाने चाहिये ।’
'राजेश कुमार ‘नचिकेता’ ने सुशील जी से सहमति प्रकट करते हुए लिखा कि ‘आपका भय अन्यथा नहीं है..... शायद इस कारण भी ये वैधानिक नहीं हुआ है. इस कुरीती को दूर करने के लिए इसका वैधानिक होना बिलकुल जरूरे नहीं है....बल्कि उन्मूलन का प्रयास होना ही बेहतर विकल्प है....किसी भी कुरीति को मान्य बनाना कोई तर्क नहीं हो सकता और ना ही इससे समस्या से निजात पायी जा सकती है...ठीक वैसे ही जैसे की घूसखोरी को वैधानिक बना के इससे नहीं निबटा जा सकता......वैधानिक बनाने के विपक्ष में एक प्रश्न मैं भी जोड़ देता हूँ...."वैधानिक करने से क्या इसे अपना व्यवसाय बनाने वालों को छोट नहीं मिल जायेगी....और अधिक अधिक पुरुष भी आ जायेंगे इस काम में....और मैं मानता हूँ की पुरुषों में इस काम को करने के मजबूरी हो ये काफी मुश्किल जान पड़ता है..."
ज़ाकिर अली ‘रजनीश’ असमंजस में रहे कि ‘इस सामाजिक को कानूनी जामा पहनाने के विरूद्ध आपके सवाल पढकर मन भारी हो गया, समझ में नहीं आ रहा कि क्या कहूं।’
शिखा वार्ष्णेय ने लिखा कि ‘एकदम सही सवाल उठाये हैं आपने .वेश्यावृति को वैधानिक बना दिया गया तो जायज़ नाजायज़ के बीच की रेखा ही नहीं रह जायेगी।’
ज्ञानचंद मर्मज्ञ के अनुसार ‘आपके सारे सवालों के जवाब बस यही हैं कि वेश्यावृत्ति को संवैधानिक नहीं बनाना चाहिए। यह समाज पर लगा एक ऐसा धब्बा है जिसे मिटाने के लिए सदियां गुज़र जाएंगी फिर भी इंसानियत शर्मसार रहेगी।’
डॉ. श्याम गुप्ता ने कुछ और महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए ‘----किसी कुप्रथा को मिटाने के प्रयत्न की बज़ाय उसे संवैधानिक बनाना एक मूर्खतापूर्ण सोच है...जो मूलतः विदेशी चश्मे से देखने के आदी लोगों की है..
---..आखिर हम सती-प्रथा, बाल-विवाह, बलात्कार, छेड्छाड सभी को क्यों नहीं संवैधानिक बना देते
--आखिर सरकार ट्रेफ़िक के, हेल्मेट के नियम क्यों बनाती है...जिसे मरना है मरने दे...
...जहां तक कानून के ठीक तरह से न पालन की बात है वह आचरण की समस्या है...चोरी जाने कब से असंवैधानिक है पर क्या चोरी-डकैती समाज से खत्म हुई..तो क्या पुनः चोरी को संवैधानिक कर दिया जाय...
...जहां तक कानून के ठीक तरह से न पालन की बात है वह आचरण की समस्या है...चोरी जाने कब से असंवैधानिक है पर क्या चोरी-डकैती समाज से खत्म हुई..तो क्या पुनः चोरी को संवैधानिक कर दिया जाय...
---सही है गैर संवैधानिकता के डर से निश्चय ही समाज में कुछ तो नियमन रहता है...बिना उसके तो ?’
संजय भास्कर भी मानते हैं कि ‘प्रश्न जटिल है जो सिर्फ वैश्याओं से जुडा नहीं है,बल्कि इसका असर समाज की दूसरी संस्थाओं पर भी पडेगा।’
सतीश सक्सेना मानते हैं कि ‘कानूनी जामा पहनना ही उचित है !’उन्होंने अपनी विस्तृत टिप्पणी में लिखा कि ‘इससे इस वर्ग का विकास होगा ! जहाँ तक नाक भौं सिकोड़ने का सवाल है लोगों की मानसिकता कोई नहीं रोक पाया है ! मानव विकास के शुरूआती दिनों से, आदिम काल से यह नहीं रुका है और न रुक सकता ! वेश्याएं समाज में समाज में गन्दगी नहीं फैलाती बल्कि गंदगी रोकने में सहायक है , सवाल केवल यह है कि आप के लिए ( पाठकों ) समाज और परिवार की परिभाषा क्या है !
१. प्रश्न अपने आप में बहुत सीमित है, वहां जाने वाले कौन हैं ..??? इसे समझना होगा !
२. हर एक का अपना निजी समाज होता है और प्रतिष्ठा के मापदंड ही अलग अलग होते हैं ! जरा इसी सन्दर्भ में हिजड़ों के बारे में विचार करें ...३. यह प्रश्न ही असंगत हैं ...यह विशेष वर्ग, अच्छे भले परिवारों में कौन सा सामंजस्य है ....?४. बहुत आवश्यक है ५. मेरे विचार से दोनों अलग अलग क्षेत्र है !आपके उपरोक्त प्रश्नों का उत्तर बेहद जटिल है ! ब्लाक मस्तिष्क से अगर इस पर विचार करेंगे तो इस महत्वपूर्ण विषय के साथ अन्याय ही होगा !’
२. हर एक का अपना निजी समाज होता है और प्रतिष्ठा के मापदंड ही अलग अलग होते हैं ! जरा इसी सन्दर्भ में हिजड़ों के बारे में विचार करें ...३. यह प्रश्न ही असंगत हैं ...यह विशेष वर्ग, अच्छे भले परिवारों में कौन सा सामंजस्य है ....?४. बहुत आवश्यक है ५. मेरे विचार से दोनों अलग अलग क्षेत्र है !आपके उपरोक्त प्रश्नों का उत्तर बेहद जटिल है ! ब्लाक मस्तिष्क से अगर इस पर विचार करेंगे तो इस महत्वपूर्ण विषय के साथ अन्याय ही होगा !’
विजय कुमार सप्पत्ती मानते हैं कि ‘i think that this profession shoul be given legal status only, kam se kam is kaaran se aurato ka shoshan to nahi honga.’
रचना दीक्षित के अनुसार ‘जिस्मफरोशी को संवैधानिक दर्जा देने से वेश्यावृत्ति का उन्मूलन होगा, ये तो हास्यास्पद ही होगा। हाँ इसका समाज पर व्यापक असर होना स्वाभाविक है।’
मनप्रीत कौर ने रचना दीक्षित के विचारों पर सहमति प्रकट की और जिस्मफरोशी को संवैधानिक दर्जा देने की बात का विरोध किया।
अरविन्द जांगिड ने बहुत ही रोचक ढंग से अपने विचार प्रस्तुत करते हुए लिखा कि ‘जिस्म फरोशी को ही यदि सैवेधानिक दर्जा देना है तो फिर चोरी को भी दे दो, लूट खसोट, भ्रष्टाचार, आदि को भी सैवेधानिक दर्जा दे दो. सीधी सी बात है की हमारे वर्तमान समाज के नैतिक पक्ष का तीव्र गति से पतन होता जा रहा है. ये बहुत ही चिंता का विषय है और ये हुआ इसलिए है क्यों की अच्छे लोग अपनी मर्यादा की दुहाई देकर चुप हो जाते हैं, बोलते ही नहीं, बुराई इसलिए जीतती है क्यों की उसका संगठन होता है, और एक नेक व्यक्ति को जब नीलाम किया जाता है तो बाकी नेक व्यक्ति भेड़ बकरियों की तरह बस देखते ही रहते हैं. नेक बात पर लड़ना बिलकुल सही है और हमें इस और प्रयत्न भी करना होगा, अन्यथा यदि समाज के नैतिक पक्ष का पतन यूँ ही होता रहा तो हो सकता है की आने वाले समय में बच्चे शब्दकोश से पता लगाएंगे की "मामा" कहते किसे हैं।’
मुकेश कुमार सिन्हा ने अरविन्द जांगिड के तर्क से सहमति प्रकट करते हुए अपनी राय दी कि ‘जो अपराध की श्रेणी में है, उसको वैसे ही ट्रीट करना बेहतर है...नहीं तो फिर भगवान मालिक है। फिर तो बलात्कारी भी अगर कहे, मैं विवाह करने के लिए तैयार हूं मुझे सज़ा मत दो...क्या ऐसे किसी घृणित कार्य को सहमति दी जा सकती है ? ’
डॉ. अजीत के अनुसार ‘समाज़शास्त्रियों,मनोवैज्ञानिकों के लिए भी यह अभी यह तय करना थोडा मुश्किल काम होगा कि इस आफ्टर मैथ्स क्या रहेंगे कारण भारतीय समाज की संरचना अधिक संश्लिष्ट है। मेरी राय से इसके उन्मूलन के लिए इसको कानून वैद्य करना तार्किक नही होगा इससे और बढावा ही मिलेगी।’