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My Editorials - Dr Sharad Singh

Saturday, July 2, 2011

जमीला, सारा, दारा और सरकोजी

- डॉ. शरद सिंह

फ्रांस में नए कानून के अनुसार पुलिस बुर्का पहनी किसी भी महिला पर जुर्माना लगा सकती है। फ्रांस इसके पहले २००४ में एक कानून बनाकर स्कूलों में स्कार्फ पर रोक लगा चुका है। उस समय भी सरकार को विरोध का सामना करना पड़ा था। अततः अब यूरोप के सबसे अधिक मुस्लिम आबादी वाले देश फ्रांस में बुर्का पहनने पर प्रतिबंध लगा दिया गया और इसका श्रेय फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी को है। इस नए नियम के अनुसार अब महिलाएं सार्वजनिक स्थलों पर बुर्का नहीं पहन सकेंगी। 
राष्ट्रपति सरकोज़ी
         इस कानून को प्रयोग में लाना काफी कठिन होगा क्योंकि यह चेहरा ढंकने वाले किसी भी तरीके का विरोध करता है लेकिन अनेक लोगों का यह भी मानना है कि इस कानून का उद्देश्य इस्लाम की निंदा करना नहीं बल्कि महिलाओं को बिना परदे के चलने की स्वतंत्रता देना है जिससे वे अन्य महिलाओं की तरह स्वयं को महसूस कर सकें। राष्ट्रपति सरकोजी को हमेशा से एक प्रगतिशील विचारों का नेता माना जाता रहा है और समय-समय पर उन्होंने अपनी प्रगतिशीलता के प्रमाण भी दिए हैं। 
     देखा जाए तो यह बहुत विचित्र लगता है कि देश की एक बड़ी संख्या में महिलाएं इच्छानुसार मुक्तभाव से कपड़े पहनें और दूसरी ओर कुछ महिलाएं पर्दे के चलन का निर्वाह करती रहें। इस दृष्टि से राष्ट्रपति सरकोजी का यह कदम न्यायसंगत लगता है किंतु बहुत कठिन डगर है इस कानून की।

           
बुर्का इस्लामिक आचार-व्यवहार में इतना रचा-बसा है कि उसे छोड़ पाना मुस्लिम महिलाओं के लिए कितना कठिन होगा इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि कुछ प्रमुख इस्लामिक देशों में नन्ही-मुन्नी बच्चियां जिन गुड़ियों से खेलती हैं वे गुड़ियां भी बुर्का सहित गढ़ी जाती हैं। 

बार्बी डॉल फुल्ला
          गुड्डे-गुड़िया का खेल सामाजिक संस्कार देता है और बुर्के वाली गुड़ियों से खेलने वाली नन्ही बालिकाओं को बुर्का पहनने के संस्कार गुड़ियों के द्वारा उनकी अबोध अवस्था में ही उनके मानस में डाल दिए जाते हैं। नन्ही बालिकाएं बचपन से ही अपनी मां को बुर्के में लिपटी देखती हैं, अपनी गुड़ियों को बुर्का पहने देखती हैं और परिवार-समाज के लोगों को बुर्के की तरफदारी करते पाती हैं, तब वे एक झटके से बुर्के के बाहर कैसे आ सकती हैं?

        
जब बार्बी गुड़िया बनाने वाली कंपनी ने सन्‌ २००३ में "फुल्ला" नाम की गुड़िया बनाकर बाजार में उतारी थी जिसे "अबाया" और सिर पर रूमाल पहनाया गया था। अनेक पश्चिमी और एशियाई देशों में इस गुड़िया पर टीका-टिप्पणी की गई थी जबकि इस्लामिक देशों में इसका स्वागत किया गया था। अरब गुड़िया "जमीला" "फुल्ला" से कहीं अधिक बुर्काधारी रूप में सामने आई। 
गुड़िया सारा और दारा
अरब गुड़िया जमीला
इसे सिम्बा टॉय ने मध्य एशिया के बाजारों में सन्‌ २००६ में उतारा था। सऊदी अरब के बाजारों में इसे बहुत पसंद किया गया। इसका चेहरा बहुत ही सुंदरता से गढ़ा गया था किंतु यह भी काले रंग का "अबाया" (बुर्का जैसा वस्त्र) और सिर पर रूमाल बांधे हुए थी।

        
जमीला और फुल्ला से भी पहले ईरान में बॉर्बी की भांति सुंदर और नन्ही लड़कियों के सपनों की गुड़ियां "सारा" और "दारा" सन्‌ २००२ से बाजार में आ चुकी थीं। उस समय इसे अमेरिकी संस्कृति और ईरानी संस्कृति के मध्य टकराव के रूप में देखा गया। छोटी फ्रॉक में सजी बॉर्बी की तुलना में ईरानी सलवार, घुटनों से लंबा घेरदार कुर्ता, वास्केट, सिर पर रूमाल और उस पर चादर।

        
परंपरा और स्वतंत्रता के बीच गहरी खाई होती है जिसे एक मुट्ठी रेत से पाटा नहीं जा सकता है, पुल जरूर बनाया जा सकता हैबशर्ते खाई की गहराई में झाकें बिना उस पर चलने का साहस किसी में हो। अंतर्रात्मा की आवाज कुछ ही पल में सब कुछ बदल सकती है लेकिन कानून किसी बात को विरोध सहित मनवा सकता है, निर्विरोध नहीं।
 (साभार- दैनिकनईदुनिया’ में 01मई 2011 को प्रकाशित मेरा लेख)

32 comments:

  1. aadraniya sarad ji,

    bahut sahi mudda uthaya aapne, aaj kal bade bade deshon main pragatisheel vicharon ke naam par bahut kuchhh hota hai, kya is tarah ke farmaan jaari karne se pahle aaj tak kabhi mahilaon se poonchha gaya ki, unhen kya pasand hai ?

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  2. बहुत ही सही मुद्दा बभूत सही तरीके से उठाया है आपने .बहुत कुछ कहने का मन है आती हूँ बाद में.

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  3. आदरणीय: मेरी तो दो टूक राय यही है कि जिस तरह खाना-पीना अपनी पसंद से किया जाता है वैसे ही पहनावे पर भी किसी तरह का प्रतिबन्ध नहीं होना चाहिए जिसे जो अच्छा लगता है पहने.

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  4. अब नकाब एक वर्ग विशेष का नहीं रह गया...क्या दिल्ली..क्या अहमदाबाद...क्या कानपुर...और क्या लखनऊ...सब जगह मुंह ढंके...ना सिर्फ बालाएं बल्कि बालक भी नज़र आ जायेंगे...शायद मुंह ढकने से ज्यादा आज़ादी मिल जाती है...

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  5. काफ़ी शोध के बाद आपने यह आलेख लिखा है। इसके विषय पर आपने जो चिंतन किया है वह काफ़ी विचारोत्तेजक है। आपकी बातों से पूरी तरह सहमत हूं कि परंपरा और स्वतंत्रता के बीच गहरी खाई होती है जिसे एक मुट्ठी रेत से पाटा नहीं जा सकता है।

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  6. आजकल बेशर्म ही ज्यादा मुँह छिपाते है

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  7. बहुत शोध परक लेख ... संस्कार इतनी आसानी से नहीं छूटेंगे ..पर प्रयास करना चाहिए ..

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  8. विचारणीय आलेख..... यक़ीनन बहुत कठीन डगर है इन बदलावों को समाज में जगह दिलाने की....

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  9. बदलाव भले ही बेहतरी के लिए हो मगर लोग आसानी से स्वीकार नहीं करते,यही तो दिक्कत है.

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  10. परंपरा और स्वतंत्रता के बीच गहरी खाई होती है जिसे एक मुट्ठी रेत से पाटा नहीं जा सकता है

    तार्किक है ,तथा परम्परा और स्वतन्त्रता के नाम पर जो होता है उसे परिस्थितियों के अनुसार बदलना भी चाहिये ।

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  11. सुन्दर लेख :
    यदि कोई महिला स्वेच्छा से पर्दा करना चाहे तो इसमें कोई बुराई नहीं है परन्तु बलपूर्वक ऐसा करवाना शायद गलत है |

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  12. फ़्रांस के राष्ट्रपति द्वारा उठाया ये कदम वहाँ के समाज में समरसता लाने का स्वागत योग्य कदम है . प्रख्यात शायर जावेद अख्तर ने इस पार प्रतिक्रिया देते हुए कहा था की एक स्वयंप्रभु राष्ट्र अपने नागरिक हितो के लिए कानून बनाने का पूरा उत्तराधिकार रखता है .

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  13. सही मुद्दे को लेकर बहुत ही सुन्दरता से आपने प्रस्तुत किया है! शानदार, सटीक, सार्थक और विचारणीय लेख!

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  14. विचारोत्‍तेजक जानकारी.

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  15. aalekh nissandeh vichaarniye hai...lekin wastwikta me conflict hona awashyambhavi hai.....dharmik bhavnaye aur kaanun ka paalan ...inke beech taalmel baithana....ek mudde ka vishay hai...

    good effort..

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  16. सख्ती किसी भी चीज की बुरी होती है चाहे वह बुरका पहनने की हो यो ना पहनने की । सख्ती का तो विरोध ही होता है । हर किसी को अपना ड्रेस चुनने की आजादी होनी चाहिये ।

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  17. काफी परिश्रम,गहन चिंतन और शोध उपरांत आलेख तैयार हुआ है.विचारोत्तेजक संदेश.कहीं न कहीं से शुरुवात तो होनी ही चाहिये.

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  18. बहुत संतुलित विचार परक लेख .सवाल एक और है जब औरत को कुछ देशों में बहुत कम कपड़ा पहनने की छूट है फिर तन ढकने की छूट क्यों नहीं क्यों विविधता नष्ट करना चाहतीं हैं सरकारें और सरकोजी पैरहन की .हर देश की अपनी अपनी संस्कृति है .बुर्के का खुला मुक्त स्वरूप मेरी मुंबई मेंदेखते ही बनता है (जी हाँ आजकल मैं कोलाबा मुंबई में ही रहता हूँ ,वहीँ से यहाँ अमरीका -कनाडा घूमने आया हूँ )बुर्के का अधुनातन रूप देखते ही बनता है .सिर बेशक ढका हुआ लेकिन स्कर्ट -और -लहंगे के बीच की कोई चीज़ कसीदाकारी के साथ बाज़ार में उतारी गई है .मुंबई की रंगबिरंगी छतरियां और खूब सूरत परिधान में और भी खूब -सूरत लिपटे चेहरे एक विशेष प्रकार के सौन्दर्य की श्रृष्टि करतें हैं .स्कर्ट टॉप सा ही कुछ लगता है .लेकिन बेहद आकर्षक .सरकोजी सबको नग्न क्यों देखना चाहतें हैं ।?चेहरा परिधान को सौन्दर्य प्रदान करता है .
    परिधान पर प्रति -बंध क्यों ?
    खाड़ी के देशों में जब कोई गोरी रिपोर्टर पहुँचती है तब उसे पूरा कपड़ा पहनने के बाद ही उस मुल्क में प्रवेश मिलता है .ये सब एक प्रकार का उन्माद ही है .दो ध्रुवीय ज्यादती है .मज़हबी ज्यादतियां हैं ये .पूर्वाग्रह हैं .

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  19. बहुत बढ़िया लेख,दाद देता हूँ आपके सोच और भावनाओं की,

    विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

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  20. गंभीर विषय पर सार्थक आलेख . सख्ती सबके लिए अनुचित है .महिला पर तो अत्याचार ही है.

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  21. अच्छा मुद्दा लिया है, विचारोत्तेजक आलेख.

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  22. परम्पराएं सदियों में आकार लेती है, इन्हें परिवर्तित होने में भी सदियां लगेंगी।
    लेख के तथ्य विचारणीय हैं।

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  23. बहुत ही सही मुद्दा उठाया है आपने

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  24. every new thing/rule(especially if it is rational) face criticism and its path is tough... but when initial criticism passes the fruits are enjoyed by every one.

    Kudos to Nicholas Sarcozy for his work !!!

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  25. सही कहा है ... क़ानून से हर बात को मनवाना आसान नहीं है और गलत भी है ... जरूरी है शिक्षा दे कर ऐसी भ्रांतियों को दूर किया जाए ...

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  26. सामयिक आलेख है। टकराव की नीति अक्सर कॉउंटर-प्रोडक्टिव होती है। क्या फ़्रांस टाई पर प्रतिबन्ध लगा सकता है?

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  27. यह महिला के ऊपर छोड़ दिया जाना चाहिए - कि वह क्या चाहती है | तो क्या हुआ यदि वह बचपन से अपने माहौल में ऐसा देख कर आदी हैं इसलिए - कम्फर्टेबल है - आखिर हैं ना वे इसमें कम्फर्टेबल ?

    क्यों फोर्स किया जाए छोड़ देने के लिए? और यह जो हमारी सोच है कि " भले ही यह बदलाव भलाई के लिए हो " यह कौन तय करेगा कि उनकी भलाई के लिए क्या है और क्या उनके लिए बुरा है ? क्या हम उनका यह निजी हक भी उनसे छीन लेंगे कि वे यह डिसाइड कर सके कि उनके स्वयं के लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा ? इसे आप आज़ादी कहेंगे? या और भी अधिक गुलामी?

    हाँ - यदि यह "सेक्युरिटी"की दृष्टी से ज़रूरी हो - तो बात और है |

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  28. vakai bahut badhiya lekh badhai aapko...

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  29. डॉ शरद सिंह,
    नमस्कार,
    आपके ब्लॉग को cityjalalabad.blogspot.com के हिंदी ब्लॉग लिस्ट पेज पर लिंक किया जा रहा है|

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  30. आदरणीय डॉ शरद सिंह जी नमस्कार ! बहुत ही सही मुद्दा उठाया है आपने

    बदलाव भले ही बेहतरी के लिए हो मगर लोग आसानी से स्वीकार नहीं करते,
    हाँ ये बात बिलकुल सही है की सख्ती किसी भी चीज की बुरी होती है
    चाहे वह बुरका पहनने की हो यो ना पहनने की |
    आज तो स्वेक्छा से युवतियां इसे स्वीकार कर रही हैं | हाँ इसका रूप जरुर बदल गया है |
    आज तो शहर में जहा देखिये वहाँ युवतियां दुपट्टे से पूरा मुह ढक के निकल रही हैं
    सिर्फ खुबसूरत आखें दिखाई पड़ रही हैं |
    अब नकाब एक वर्ग विशेष का नहीं रह गया | हर किसी को अपना ड्रेस चुनने की आजादी होनी ही चाहिये ।

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  31. Manniya Dr.sharad ji,Namaskar.
    Aapka blog dekha.Bahut kam kiya hai aapne.Badhai. kai varsh pahale aapki pustak Tili-Tili AAg padi thi.

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