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My Editorials - Dr Sharad Singh

Friday, September 9, 2011

ये जीवट वाली औरतें

- डॉ. शरद सिंह

    सुबह होते ही लगभग हर दूसरे-तीसरे घर में प्रतीक्षा होने लगती है उस जीवट औरत की जो आमतौर पर कामवाली बाई के नाम से जानी जाती है। चाहे उसे उसके नाम से पुकारा जाए, चाहे उसे कोई नाम दे दिया जाए किंतु इससे कामवाली बाइयों का महत्व कम नहीं होता है। यदि वह समय पर नहीं आती है तो मालकिन का मानसिक तनाव सिर चढ़कर बोलने लगता है। देर-सबेर उसके आते ही यह तनाव फट पड़ता है। इतनी देर से क्यों आई? आज फिर कोई बहाना? यदि ऐसे ही देर किया करोगी तो तुम्हारी छुट्टी मैं कोई और कामवाली ढूंढ़ लूंगी! ऐसे न जाने कितने वाक्य हैं जो कामवाली कहलाने वाली औरतों को आए दिन सुनने पड़ते हैं।

        
कामवाली बाइयों को डांटते-फटकारते समय शायद ही किसी को याद रहता हो कि उनका भी घर परिवार है और उन पर भी ढेरों जिम्मेदारियां हैं। यदि वह चुपचाप मालकिन के मनोनुकूल काम करती रहे तो सब ठीक है लेकिन जहां उसने एक भी गड़बड़ की तो उसके साथ कहा सुनी तय रहती है। यदि किसी कार्यालय में काम करने वाली महिला अपने कार्यालय में देर से पहुंचती है तो वह पूरी आशा रखती है कि उसके अधिकारी को उसके प्रति दयाभाव दिखाना चाहिए और उसकी लेटलतीफी को अनदेखा कर देना चाहिए लेकिन कामवाली बाई की लेटपतीफी सहनीय नहीं होती है।

       
बहरहाल, एक ओर जिनके तीन-चार बच्चे हों (या इससे भी अधिक) कम या अनिश्चित आमदनी वाला पति हो, सास-ससुर, ननद-देवर यानी भरा-पूरा परिवार हो, वह अलस्सुबह जागकर पहले अपने घर के काम निपटाती है फिर चल पड़ती है चार पैसे कमाने की जुगत में। उसकी लालसा रहती है कि उसे अधिक से अधिक घरों में काम मिल जाए ताकि कुछ अधिक पैसे कमा सके। 
पहले घर में पहुंच कर वह झाडू लगाती है, बरतन मांजती है, यदि कपड़े धोने का काम भी साथ में है तो कपड़े भी धोती है, फिर भोजन पकाती है। भोजन पकाने के बाद उसे खाने की मेज पर या फ्रिज में रखने के बाद उसके काम की समाप्ति होती है। यही क्रम दूसरे घर में रहता है। फिर तीसरे, चौथे, पांचवें अर्थात जितने घरों में वह काम करती है, यही सारी काम उसे करने होते हैं। एक ही काम को बार-बार दोहराते हुए न तो उसे बोर होने का समय रहता है और न अधिकार। पैसे कमाने हैं तो काम तो करना ही पड़ेगा। सुबह से शाम तक या लगभग रात तक कामवाली बाई का दायित्व निभाने के बाद जब वह थकी-हारी अपने घर लौटती है तो अकसर उसे हिस्से में ही आते हैं उसके अपने घर के काम-काज। इस व्यस्ततम दिनचर्या में जिस भी घर में पहुंचने में उसे देर हो जाती है वहां चार बातें सुनने को मिलती हैं।                         
देर होने का कारण भले ही छोटा क्यों न हो, उसे बढ़ा-चढ़ाकर बताना उसकी विवशता हो जाती है ताकि मालकिन पसीज जाए और उसे काम से निकालने के बारे में न सोचे। वह सच है कि शहरों में अब कामवाली बाइयों की यूनियनें गठित होने लगी हैं। राज्य सरकारें भी उसके अधिकारों और सम्मान के बारे में सजग हो चली है। लोकसभा में महिला एवं बालविकास मंत्री कृष्णा तीरथ द्वारा महिलाओं का कार्यस्थल में लैंगिक उत्पीड़न से संरक्षण संबंधी विधेयक 2010 पटल पर रखा गया था। यद्यपि इसमें घरेलू नौकरानियों के दैहिक शोषण के संबंध में स्पष्ट व्याख्या नहीं थी। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने घरों में काम करने वाली महिलाओं को कामवाली बाई के बदले बहन जी अथवा दीदी के संबोधन से पुकारने की अपील की। उनका मानना है कि इससे घरेलू काम-काज करने वाली औरतों के सम्मान को बढ़ाया जा सकता है। उन्होंने घरेलू नौकरानियों की महापंचायत के आयोजन किए जाने का भी आह्वान किया। उन्हें फोटोयुक्त परिचय पत्र तथा प्रशिक्षण दिए जाने की भी योजना है।
       
महाराष्ट्र और केरल की भांति दिल्ली राज्य सरकार घरेलू कामगार एक्ट लागू करने के लिए प्रयास कर रही है। जिनके अंतर्गत कामवाली बाई को साप्ताहिक अवकाश के साथ-साथ अन्य सुविधाएं लेने की भी पात्र होंगी। दिल्ली सरकार के श्रम विभाग द्वारा साप्ताहिक अवकाश, न्यूनतम वेतन तथा अन्य सुविधाओं का खाका तैयार किया जा चुका है। यह लाभ उन सभी कामवाली बाइयों को मिलेगा जो अपना पंजीयन कराएंगी। यदि वह सब यथावत होता है तो इसमें कोई संदेह नहीं कि कामवाली बाइयों की जीवन दशा में सकारात्मक सुधार होकर रहेगा।

  
घरेलू जीवन के रोजमर्रा के तंत्र में कामवाली बाइयों के महत्व को किसी भी तरह से कम करके नहीं आंका जा सकता है। चाहे कामकाजी महिलाएं हों या खांटी घरेलू महिलाएं, कामवाली बाइयों के बिना उनके जीवन की तस्वीर पूरी नहीं उभरती है। कम से कम भारत में तो कामवाली बाइयों को बुनियादी आवश्यकता कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
(साभार- दैनिकनईदुनियामें 24.07.2011 को प्रकाशित मेरा लेख)

24 comments:

  1. सार्थक लेख ... सच इनकी अनुपस्थिति मानसिक तनाव पैदा कर देती है ..लेकिन इनकी मजबूरियों को और इनके प्रति अदर सम्मान कि भावना को समझना ज़रुरी है ..

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  2. आप पीड़ित महिलाओं के दर्द को बखूबी अपने कलम के ज़रिये समाज के सामने लाती हैं,पढ़कर अच्छा लगता है.

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  3. वैसे अब स्थिति में थोडा बदलाव तो आया है. घरों में अब बाई नाम से पुकारते लोग कम ही देखे जाते हैं.और इनसे काम करना है या नहीं ये ओप्शन अब घरवालों का नहीं इनका रहता है :)
    सार्थक आलेख.

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  4. अक्षरश: सही कहा है आपने, सार्थक व सटीक लेखन ... ।

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  5. जी,मैं शिखा वार्ष्णेय जी की बात से सहमत हूँ.
    आजकल स्थिति में बहुत बदलाव आया है.
    अब तो ठीये भी बाँट कर रखतीं हैं ये.

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  6. आपके इस सामाजिक सरोकार को नमन!

    इन सबसे महत्त्व के प्राणी पर आपके विचार ने प्रेरित किया।

    थैन्क्स गॉड आज तक हमने उन्हें नहीं डांट लगाई है कभी।

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  7. सहमत हूँ .... एक सार्थक और विचारणीय सोच लिए विवेचन

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  8. डॉ शरद ! हम आभार व्यक्त करते हैं आपके इस सामयिक सोधात्मक लेख के लिए , "चाँद ढूढ़ना आसान है ,नामुमकिन है धरती छोड़ देना " इन्शानियत की बड़ी -२ बांतें करना ,अलग बात है , इसको अमल में लाना अलग बात है , जब कभी काम वाली बायीं या नौकर / मजदूर की दास्ताँ का पड़ताल कीजिये तस्वीर साफ दीखती है ,शायद उनका एक अलग भारत है ....../ साधुवाद आपके इस विचारनीय ,लोकप्रिय लेख के लिए ...../

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  9. बेहतरीन प्रस्तुति !

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  10. डॉ. शरद सिंह जी,
    घरेलू काम करने वाली औरतों की पीड़ा को बखूबी उजागर किया है | बहुत अच्छा लगा ये लेख | इस लेख को सिटी जलालाबाद डाट ब्लॉगस्पोट डाट काम के काव्य मंच पेज पर पूर्ण रूपेण संकलित किया गया है | ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं को इस पेज पर संकलित किया जाता है |

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  11. सार्थक और संवेदनशील प्रस्तुति

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  12. सार्थक आलेख...निश्चित ही इस वर्ग की मजबूरियों को समझने की आवश्यक्ता है. उम्दा चिन्तन!

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  13. घरों में काम करने वाली बाइयां हमारे समाज की महत्वपूर्ण सदस्य हैं। इन्हें भी सम्मानपूर्वक जीवन जीने का अधिकार है। हमें चाहिए कि उन्हें हम घर के सदस्य के रूप में समझें।
    इनके लिए सरकार द्वारा उठाए गए कदम स्वागतेय है।
    यह आलेख समय की पुकार है।

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  14. शहरों में तो हालात में कुछ बदलाव आया है पर अब भी पूरी तरह से नहीं।...वैसे भी रिश्ते पहले जैसे नहीं रहे...लगातार बढ़ते अपराध और बांग्लादेशी घूसपैठ की वजह से आपसी विश्वास भी कम हुआ है जिस कारण स्थितियां जटिल हो रही हैं शहरों में। आप पहले इन पर भरोसा करते थे पर अब अंसभव है। काम करवाले वाले ज्यादा से ज्यादा शोषण करने को तैयार रहते हैं तो घरेलू काम करने वाले ज्यादा से ज्यादा पैसे ऐठने के चक्कर में।

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  15. सही कहा है आपने, सार्थक व सटीक लेखन...

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  16. आपके इस सामाजिक सरोकार को नमन!
    सार्थक और संवेदनशील प्रस्तुति

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  17. Exactly we all wait for them so badly.

    and I agree its nt at all exaggeration to call them as fundamental need in Indian Society

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  18. यही वह कामगार वर्ग है जिनसे ज़िन्दगी लेदे के बस ज़िंदा रहने की शर्त पूरी करवाती है .विदेशों में श्रम का सम्मान है ,यहाँ कामवाली की कोई न्यूनतम पगार नहीं है .नखराली मालकिनों के मर्दों की नजर भी इन पर रहती है .शोषण के ये आयाम यहाँ मुखर हैं .बाहर श्रम का सम्मान है मान है ,पैसा है श्रम के अनुकूल ,बे -फिक्री,यहाँ उपेक्षा है ,गुमान है ओछी दौलत का ,मालिकिन भाव है ।
    सोमवार, १९ सितम्बर २०११
    मौलाना साहब की टोपी मोदी के सिर .

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  19. सार्थक लेखन सच्ची तस्वीर उभारता हुआ

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  20. सार्थक आलेख और संवेदनशील प्रस्तुति

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  21. शायद ही किसी नें इनके दर्द को ऐसे महसूस किया होगा .....
    आपकी संवेदनशीलता प्रभावशाली है !
    शुभकामनायें आपको !!

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