लेख
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
‘प्रेम’ एक जादुई शब्द है। कोई कहता है कि प्रेम एक अनभूति है तो कोई इसे भावनाओं
का पाखण्ड मानता है। जितने मन, उतनी धारणाएं।
मन में प्रेम का संचार होते ही एक ऐसा केन्द्र बिन्दु मिल जाता है जिस पर सारा
ध्यान केन्द्रित हो कर रह जाता है। सोते-जागते, उठते-बैठते अपने प्रेम की उपस्थिति
से बड़ी कोई उपस्थिति नहीं होती, अपने प्रेम से बढ़ कर कोई अनुभूति नहीं होती और
अपने प्रेम से बढ़ कर कोई मूल्यवान वस्तु नहीं होती। निःसंदेह प्रेम एक निराकार
भावना है किन्तु देह में प्रवेश करते ही यह आकार लेने लगती है। एक ऐसा आकार जिसमें
स्त्री मात्रा स्त्री हो जाती है और पुरुष मात्र पुरुष। इसीलिए स्त्री और पुरुष का
बिना किसी सामाजिक बंधन के भी साथ-साथ रहना आसान हो जाता है।
प्रश्न उठता है कि पृथ्वी गोल है इसलिए दो विपरीत ध्रुव टिके हुए हैं अथवा दो
विपरीत ध्रुवों के होने से पृथ्वी अस्तित्व में है? ठीक इसी तरह प्रश्न
जागता है कि प्रेम का अस्तित्व देह से है या देह का अस्तित्व प्रेम से? कोई भी व्यक्ति अपनी
देह को उसी समय निहारता है जब वह किसी के प्रेम में पड़ता है अथवा प्रेम में पड़ने
का इच्छुक हो उठता है। वह अपनी देह का आकलन करने लगता और उसे सजाने-संवारने लगता
है। या फिर प्रेम के वशीभूत वह अपनी या पराई देह पर ध्यान देता है। पक्षी भी अपने
परों को संवारने लगते हैं प्रेम में पड़ कर । यूं बड़ी उलझी हुई भावना है प्रेम।
इस भावना को लौकिक और अलौकिक के खेमे में बांट कर देखने से सामाजिक दबाव कम होता
हुआ अनुभव होता है। इसीलिए कबीर बड़ी सहजत से यह कह पाते हैं कि –
पोथी पढि़-पढि़ जग मुआ, हुआ न पंडित कोय।
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।।
प्रेम कोई पोथी तो नहीं जिसे पढ़ा जा सके, फिर प्रेम को कैसे पढ़ा जा सकता है? यदि प्रेम को पढ़ा नहीं
जा सकता, बूझा नहीं जा सकता तो समझा कैसे जा सकेगा? शायद इसीलिए
विश्वविख्यात गायक हेडवे गा-गा कर पूछता है कि –
व्हाट इज़ लव?
आई गिव यू माई लव, बट यू डोंट केयर
सो व्हाट इज़ राईट, व्हाट इज़ रांग
गिम्मी साईन, व्हाट इज़ लव.....
युवाओं का दिल हेडवे के गीत के बोलों के साथ धड़कता हुआ पूछता है कि प्रेम
क्या है? लेकिन ‘बैक स्ट्रीट ब्वाज़’ इस मामले में तनिक आश्वस्त हैं,
शायद उन्हें पता है कि प्रेम क्या है, फिर भी सोचते हैं-
वन्स देअर वाज़ ए टाईम, लव वाज़ जस्ट ए मिथ
इट जस्ट नाट फॉर रियल, इट डिड नाट एक्जि़स्ट
अंटिल द डे यू केम इनटू माई लाईफ
इट फोर्स्ड मी टू थिंक ट्वाइस ...
तो क्या प्रेम सोचने का भी अवसर देता है, कहा तो यही जाता है कि प्रेम सोच-समझ
कर नहीं किया जाता है। यदि सोच-समझ को प्रेम के साथ जोड़ दिया जाए तो लाभ-हानि का
गणित भी साथ-साथ चलने लगता है। बहरहाल सच्चाई तो यही है कि प्रेम बदले में प्रेम
ही चाहता है और इस प्रेम में कोई छोटा या बड़ा हो ही नहीं सकता है। जहां छोटे या
बड़े की बात आती है, वहीं प्रेम का धागा चटकने लगता है।‘रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो
चटकाय। टूटे से फिर न जुड़े, जुड़े गांठ पड़ जाए।’ प्रेम सरलता, सहजता और
स्निग्धता चाहता है, अहम की गांठ नहीं। इसीलिए जब प्रेम किसी सामाजिक संबंध में ढल
जाता है तो प्रेम करने वाले दो व्यक्तियों का पद स्वतः तय हो जाता है। स्त्री और
पुरुष के बीच का वह प्रेम जिसमें देह भी शामिल हो पति-पत्नी का सामाजिक रूप लेता
है। जिसमें पति प्रथम होता है और पत्नी दोयम। यहीं पहली बार चटकता है प्रेम का
सूत।
यदि पति-पत्नी के रूप में नामांकित हुए बिना ही
साथ-साथ रहा जाए, खालिस सहजीवी के रूप में किन्तु इस सहजीवन में देह की अहम भूमिका
हो तो प्रेम कब तक अपने मौलिक आकार में टिका रह सकता है, कठोर खुरदरे यथार्थ और
शुष्क पांडित्य के धनी दिखने वाले विद्वान भी जीवन में प्रेम की पैरवी करते हैं।
हजारी प्रसाद द्विवेद्वी लिखते हैं कि ‘प्रेम से
जीवन को अलौकिक सौंदर्य प्राप्त होता है। प्रेम से जीवन पवित्रा और सार्थक हो जाता
है। प्रेम जीवन की संपूर्णता है।’
आचार्य रामचंद्र शुक्ल मानते थे कि ‘प्रेम एक संजीवनी शक्ति है। संसार के हर दुर्लभ कार्य को
करने के लिए यह प्यार संबल प्रदान करता है। आत्मविश्वास बढ़ाता है। यह असीम होता
है। इसका केंद्र तो होता है लेकिन परिधि नहीं होती।’
क्या सचमुच परिधि नहीं होती प्रेम की? यदि प्रेम की परिधि नहीं
होती है तो सामाजिक संबंधों में बंधते ही प्रेम सीमित क्यों होने लगता है? क्या इसलिए कि धीरे-धीरे
देह से तृप्ति होने लगती है और प्रेम एक देह की परिधि से निकल कर दूरी देह ढूंढने
लगता है, निःसंदेह इसे प्रेम की स्थूल व्याख्या कहा जाएगा किन्तु पुरुष, पत्नी और
प्रेमिका के त्रिकोण का समीकरण भी जन्म ले लेता है जबकि एक प्रेयसी से ही विवाह
किया गया हो। यदि देह नहीं तो अधिकार भावना वह आधार अवश्य होगी जिस पर कोई भी प्रेम
त्रिकोण बना होगा। यदि प्रेमी, प्रेमी न रह जाए और प्रेयसी, प्रेयसी न रह जाए तो
प्रेम कैसा? फिर उनके बीच ‘सोशल कांट्रैक्ट’हो सकता है, प्रेम का मौलिक स्वरूप नहीं।
सांभवतः यही वह बिन्दु है जहां आ कर प्रेम आधारित सहजीवन भी ‘सोशल कांट्रेक्ट’ की
मांग करने लगता है और सहजीवन अर्थात् ‘लिव इन रिलेशन’ की बुनियाद दरकती दिखाई
पड़ती है।
प्रेमचंद ने लिखा है कि ‘मोहब्बत रूह की खुराक है।
यह वह अमृतबूंद है, जो मरे हुए भावों को ज़िन्दा करती है। यह ज़िन्दगी की सबसे पाक़,
सबसे ऊंची, सबसे मुबारक़ बरक़त है।’
‘लिव इन रिलेशन’ महानगरों में एक नई जीवनचर्या के
रूप में अपनाया जा रहा है। यह माना जाता है कि स्त्री इसमें रहती हुई अपनी
स्वतंत्राता को सुरक्षित अनुभव करती है। उसे जीवनसाथी द्वारा दी जाने वाली
प्रताड़ना सहने को विवश नहीं होना पड़ता है। वह स्वयं को स्वतंत्रा पाती है। लेकिन
महानगरों में अपरिचय का वह वातावरण होता है जिसमें पड़ोसी परस्पर एक-दूसरे को नहीं
पहचानते हैं। कस्बों में सामाजिक स्थिति अभी धुर पारंपरागत है। ऐसे वातावरण में एक
स्त्री ‘लिव इन रिलेशन’ को अपनाती है तो उसे क्या मिलता है....और वह क्या खोती है ? क्या एक कस्बाई औरत ‘लिव इन रिलेशन’ में मानसिक सुकून पा सकती है?
‘लिव इन रिलेशन’ प्रेम का एक परम लौकिक रूप है। दो
विपरीत लिंगी एक-दूसरे को परस्पर पसंद करते हैं, एक-दूसरे के प्रेम में भी पड़ते
हैं और फिर बिना किसी सामाजिक बंधन में बंधे साथ-साथ रहने लगते हैं। एक सुखद
सहजीवन। प्रेमी जोड़े के रूप में ही जीवन यापन का प्रण।
प्रेम की परिभाषा बहुत कठिन है क्योंकि इसका सम्बन्ध अक्सर आसक्ति से जोड़
दिया जाता है जो कि बिल्कुल अलग चीज है। जबकि प्रेम का अर्थ एक साथ महसूस की जाने
वाली उन सभी भावनाओं से जुड़ा है, जो मजबूत लगाव, सम्मान, घनिष्ठता, आकर्षण और मोह
से सम्बन्धित हैं। प्रेम होने पर परवाह करने और सुरक्षा प्रदान करने की गहरी भावना
व्यक्ति के मन में सदैव बनी रहती है। प्रेम वह अहसास है जो लम्बे समय तक साथ देता
है और एक लहर की तरह आकर चला नहीं जाता। इसके विपरीत आसक्ति में व्यक्ति पर प्रबल इच्छाएं या लगाव की भावनाएं हावी हो
जाती हैं। यह एक अविवेकी भावना है जिसका कोई आधार नहीं होता और यह थोड़े समय के
लिए ही कायम रहती है लेकिन यह बहुत सघन, तीव्र होती है अक्सर जुनून की तरह होती
है। प्रेम वह अनुभूति है, जिससे मन-मस्तिष्क में कोमल भावनाएं जागती हैं, नई ऊर्जा
मिलती है व जीवन में मीठी यादों की ताजगी का समावेश हो जाता है। इसीलिए कहा जाता है कि पति-पत्नी के बीच प्यार
ही वह डोर है, जो उन्हें एक-दूसरे से बांधे रखती है। तो फिर विवाह, फिर विवाह के
बंधन की क्या आवश्यकता ?
प्रेम के बिना विवाह स्थाई बना रह सकता है और विवाह
के बिना प्रेम। किन्तु कितने दिन, कितने महीने, कितने वर्ष, कुछ सच्चाइयों को जानना
और मानना बहुत कष्टप्रद होता है, प्रेम को टूटते देखना भी....और उससे भी कष्टप्रद
होता है प्रेम को विद्रूप होते देखना।
इसी जीवन, इसी समाज के दो प्राणी - एक सुगंधा और दूसरा रितिक।
दोनों अपने जीवन को अपने ढंग से जीना चाहते थे। बिना किसी सामाजिक बंधन के। वे
महानगर में नहीं थे कि उन्हें जानने-पहचानने वाले कम होते। वे कस्बे के वासी थे।
ढेर सारे परिचित उनके। दोनों ने साहसिक क़दम उठाया। वे विवाह किए बिना साथ-साथ, एक
ही छत के नीचे, एक ही घर, एक ही कमरे में रहने लगे, सोने, बैठने लगे। दोनों में
अटूट प्रेम था। दोनों में एक-दूसरे के प्रति पर्याप्त दैहिक आकर्षण था। दोनों अपने
सहजीवन से खुश थे। किन्तु उनके परिवार और समाज को यह नहीं भाया कि वे दोनों बिना
किसी सामाजिक बंधन के पति-पत्नी की तरह एक साथ रहें।
दोनों ने न तो परिवार की परवाह की और न समाज की।
दोनों एक दूसरे से संतुष्ट थे तो जमाना उनके ठेंगे से। मगर वास्तविकता में सब कुछ
ठेंगे पर रखना इतना आसान नहीं होता है। इस सच्चाई का सामना सुगंधा और रितिक को आए
दिन होने लगा। परिवारजन ने आपत्ति की, पड़ोसियों ने आपत्ति की, जिसकी उन दोनों ने परवाह
नहीं की। लेकिन समाज का अत्यधिक दबाव, पीढ़ियों से चले आ रहे संस्कारों का तकाज़ा
और प्रकृति प्रदत्त आकांक्षा ने उन दोनों के बीच मौजूद प्रेम के बेल के पत्ते
नोंचने शुरू कर दिए। पत्तों के बिना कोई बेल भला जीवित कैसे रह सकती है, यदि
प्रकाशसंश्लेषण की क्रिया नहीं होगी तो बेल को जीवन-खुराक कहां से मिलेगी, यदि
जीवन-खुराक नहीं मिली तो वह धीरे-धीरे एक दिन सूख जाएगा।
सुगंधा और रितिक जब ‘लिव इन रिलेशन’ में एक हुए थे
उस समय वे प्रेमी-प्रेमिका थे। लेकिन आसपास के वातावरण ने सुगंधा के भीतर मातृत्व
की इच्छा और रितिक के भीतर पति का भाव जगा दिया। सुगंधा यदि मां बने तो उसके बच्चे
को पिता के वैधानिक नाम की आवश्यकता पड़ेगी। यह अहसास हुआ सुगंधा को। जबकि रितिक
को लगने लगा कि पत्नी के समान साथ रहने वाली सुगंधा आम पत्नी की भांति उसके कमीज़
के बटन क्यों नहीं टांकती, उसकी सेवा क्यों नहीं करती अर्थात् उनका अस्तित्व
पति-पत्नी संस्करण में ढलने लगा, जबकि वे विवाह करने के विरुद्ध थे।
मानसिक दबाव प्रेम को कुचल देता है। सुगंधा और रितिक
प्रेम भी कुचल गया। प्रेम का रूप विद्रूप हो गया।वह अब पहले जैसा प्रेम नहीं रहा
जो चट्टान पर रखे ताज़े सुर्ख लाल गुलाब की भांति महसूस होता था। गुलाब मुरझाता
गया और सुगंध विलीन होती गई। एक दिन शेष रहा गुलाब के फूल का सूखा हुआ अस्तित्व जो
इस बात की गवाही दे रहा था कि कभी वह किसी के प्रेम में महका था।
ये इश्क़ नहीं आसां, बस इतना समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।
प्रेम बलात् नहीं पाया जा सकता। दो व्यक्तियों में
से कोई एक यह सोचे कि चूंकि मैं फलां से प्रेम करता हूं तो फलां को भी मुझसे प्रेम
करना चाहिए, तो यह सबसे बड़ी भूल है। प्रेम कोई ‘एक्सचेंज़ ऑफर’ जैसा व्यवहार नहीं
है कि आपने कुछ दिया है तो उसके बदले आप कुछ पाने के अधिकारी बन गए। यदि आपका
प्रेम पात्रा भी आपसे प्रेम करता होगा तो वह स्वतः प्रेरणा से प्रेम के बदले प्रेम
देगा, अन्यथा आपको कुछ नहीं मिलेगा। बलात् पाने की चाह कामवासना हो सकती है प्रेम
नहीं। वहीं, दो प्रेमियों के बीच कामवासना प्रेम का अंश हो सकती है सम्पूर्ण प्रेम
नहीं। यदि प्रेम स्वयं ही अपूर्ण है तो वह प्रसन्नता, आह्ल्लाद कैसे देगा, वह दुख
देगा, खिझाएगा और निरन्तर हठधर्मी बनाता चला जाएगा। प्रेम की इसी विचित्राता को
रसखान ने इन शब्दों में लिखा है -
प्रेम रूप दर्पण अहे, रचै अजूबो खेल।
या में अपनो रूप कछु, लखि परिहै अनमेल।।
हरि के सब आधीन पै, हरी प्रेम आधीन।
याही ते हरि आपु ही, याहि बड़प्पन दीन ।।
सिमोन द बोउवार और ज्यां पाल सार्त्र सन् 1929 में पहली
बार एक-दूसरे से मिले थे। दोनों का बौद्धिक स्तर परस्पर अनुरुप था। वे प्रेम में
समता स्वतंत्रता और सहअस्तित्व में विश्वास रखते थे। सिमोन का कहना था कि समाज
स्त्री को स्त्री और पुरुष को पुरुष बना देता है। ‘स्त्री पैदा नहीं होती’ उसे
बनाया जाता है’। सिमोन ग़लत नहीं थीं। नन्हीं बच्ची को खेलने के लिए बार्बी डॉल दी
जाती है तो नन्हें बच्चे को क्रिकेट का बल्ला या खिलौने की बंदूक। थोड़ा बड़ा होने
पर निर्धारित कर दिया जाता है कि बच्ची को घर से बाहर खेलने नहीं जाना है, उसे अकेले भी कहीं नहीं
जाना है जबकि बच्चा बाहर जा कर खेल सकता है, वह अकेले कहीं भी आ-जा सकता है। लो, तैयार
हो गई एक स्त्री और एक पुरुष। सामाजिक सांचे में ढल कर तैयार। सिमोन को यह सांचा
कभी पसंद नहीं आया। वे ज्यां पाल सार्त्र के साथ ‘लिव इन रिलेशन’ को जिया। वे
आदर्श बनीं हर आधुनिक स्त्री की। किन्तु भारतीय सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवेश की
घनी बुनावट में विवाह की अनिवार्यता आज भी यथावत बनी हुई है।
भारतीय सामाजिक परिवेश में दो ही तबके ‘लिव इन रिलेशन’
को दबंगई से जी पाते हैं, या तो एलीट वर्ग या फिर झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले
स्त्री-पुरुष। मध्यम वर्ग अपने ही बनाए नियमों की चक्की में पिसता रहता है। एलीट
वर्ग एक फैशन की तरह प्रेम और सहजीवन के तादात्म्य को बनाए रखता है। वहीं दूसरी ओर
झुग्गी बस्ती की स्त्री अपने प्रेमी के घर जा ‘बैठने’ से नहीं हिचकती है। निःसंदेह,
पीड़ा उसे भी होती है, मन उसका भी दुखता है। लेकिन उसके
भीतर प्रेम को पा लेने का वह जुनून होता है जो उसके भीतर समाज से टकराने की ताक़त
पैदा कर देता है। बिना विवाह किए वैवाहिक जैसे संबंध में रहने के लिए प्रेम के
सूफि़याना स्तर का होना आवश्यक है।
सूफ़ी संत रूमी से जुड़ा एक किस्सा है कि शिष्य ने
अपने गुरु का द्वार खटखटाया।
‘बाहर कौन है...’गुरु ने पूछा।
‘मैं।’शिष्य ने उत्तर दिया।
‘इस घर में मैं और तू एकसाथ नहीं रह सकते।’ भीतर से
गुरू की आवाज आई।
दुखी होकर शिष्य जंगल में तप करने चला गया। साल भर
बाद वह फिर लौटा। द्वार पर दस्तक दी।
‘कौन है..’फिर वही प्रश्न किया गुरु ने।
‘आप ही हैं।’ इस बार शिष्य ने जवाब दिया और द्वार
खुल गया।
संत रूमी कहते हैं- ‘प्रेम के मकान में सब एक-सी
आत्माएं रहती हैं। बस प्रवेश करने से पहले मैं का चोला उतारना पड़ता है।’
यह ‘मैं’ का चोला यदि न उतारा जाए और दो के अस्तित्व
को प्रेम में मिल कर एक न बनने दिया जाए तो प्रेम में विद्रूपता आए बिना नहीं रहती
है फिर चाहे विवाहित संबंध में रहा जाए या लिव इन रिलेशन में या फिर महज
प्रेमी-प्रेमिका के रूप में अलग-अलग छत के नीचे रहते हुए प्रेम को जीने का प्रयास
किया जाए।
इसीलिए तो हेडवे के गीत ‘व्हाट इज़ लव’ में उत्तर भी
समाया हुआ है -
आई वांट नो अदर, नो अदर लवर
दिज़ इज़ योर लाईफ, अवर टाईम
व्हेन वी आर टुगेदर, आई नीड यू फॉरएवर
इट इज़ लव .........
जब दो व्यक्ति प्रेम की तीव्रता को जुनून की सीमा तक
अपने भीतर अनुभव करें और एक-दूसरे के साथ रहने में असीम आनन्द और पूर्णता को पाएं
तो वही प्रेम का अटूट और समग्र रूप कहा जा सकता है। इस प्रेम के तले कोई सामाजिक
बंधन हो या न हो।
सूफी संत कवि लुतफी ने प्रेम के सच्चे स्वरूप को जिन
शब्दों में व्यक्त किया है वह प्रेम के सच्चे स्वरूप और प्रेम की तीव्रता को बड़े
ही सुन्दर ढंग से व्यक्त करता है -
खिलवत में सजन के
मैं मोम की बाती हूं
यक पांव पर
खड़ी हूं जलने पिरत पाती हूं
सब निस घड़ी
जलूंगी जागा सूं न हिलूंगी
ना जल को क्या करूंगी अवल सूं मदमाती हूं।
किन्तु जब बात लिव इन रिलेशन की हो तो मोम की बाती बन
कर दोनों पक्ष को जलना होगा दोनों को एक-दूसरे के लिए एक
पांव पर खड़े होना होगा और सभी प्रकार के कष्ट सहते हुए अडिग रहना होगा अन्यथा रिलेशन से
प्रेम कपूर की तरह उड़ जाएगा और साथ रहने का आधार ही बिखर जाएगा। परस्पर संबंधों
में प्रेम की यही तो महत्ता है।
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(‘कथाक्रम’ पत्रिका के जनवरी-मार्च 2013 अंक में प्रकाशित मेरा लेख साभार )
प्रेम को शब्दों में ढालना कठिन है...और आपका ये प्रयास सराहनीय...
ReplyDeleteडॉ. (सुश्री) शरद सिंह,बहुत सुन्दर यथार्थ पूरक बदलते मापदंडो को समझ पा सकने के लिए सटीक लेख .बधाई
ReplyDeleteडॉ. (सुश्री) शरद सिंह,बहुत सुन्दर, सटीक लेख .बधाई
ReplyDeleteडॉ. (सुश्री) शरद सिंह,बहुत सुन्दर, सटीक लेख .बधाई
ReplyDeleteबहुत खुब्सुरत तरिके से आप ने अप्नी बात रखी हे........
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