My Column “ Charcha Plus” in "Dainik Sagar Dinkar" .....
चर्चा प्लस
लैंगिक समानता के लिए ज़मीनी प्रयासों को बढ़ाना ज़रूरी
- डॉ. शरद सिंह
( ‘‘अंतर्राष्ट्रीय विचार महाकुम्भ’’, सिंहस्थ 2016 में शामिल किए गए लेखिका के आलेख का अंश)
महिला, औरत, वूमेन या कोई और सम्बोधन - किसी भी नाम से पुकारा जाए, महिला हर हाल में महिला ही रहती है....और मेरे विचार से उसे महिला रहना भी चाहिए। प्रकृति ने महिला और पुरुष को अलग-अलग बनाया है। यदि प्रकृति चाहती तो एक ही तरह के प्राणी को रचती और उसे उभयलिंगी बना देती। किन्तु प्रकृति ने ऐसा नहीं किया। संभवतः प्रकृति भी यही चाहती थी कि एक ही प्रजाति के दो प्राणी जन्म लें। दोनों में समानता भी हो और भिन्नता भी। दोनों परस्पर एक दूसरे के पूरक बनें, प्रजनन करें और अपनी प्रजाति को पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाएं।
दुर्भाग्यवश, पुरुष और महिला ने मिल कर जिस समाज को गढ़ा था, पुरुष उसका मालिक बनता चला गया और महिला दासी। इतिहास साक्षी है कि पुरुषों ने युद्ध लड़े और खामियाजा भुगता महिलाओं ने। जब महिलाओं को इस बात का अहसास हुआ तो उन्होंने अपने दमन का विरोध करना आरम्भ कर दिया। पूरी दुनिया की औरतें संघर्षरत हैं किन्तु समानता अभी भी स्थापित नहीं हो सकी है। प्रयास निरन्तर किए जा रहे हैं। सरकारी और गैर सरकारी संगठन प्रयास कर रहे हैं लेकिन महिलाओं की अशिक्षा, अज्ञान और असुरक्षा जागरूकता के पहिए को इस प्रकार थाम कर बैठ जाती है कि सारे प्रयास धरे के धरे रह जाते हैं। दरअसल जागरूकता औरत के भीतर उपजनी आवश्यक है। स्वतः प्रेरणा से बढ़ कर और कोई शक्ति नहीं है जो शतप्रतिशत परिणाम दे सके। जिन महिलाओं ने अपने भीतर की पुकार को सुना और अपने अधिकारों के लिए संघर्ष किया उन्हें अधिकार मिले भी हैं, साथ ही वे दूसरी महिलाओं को भी अधिकार दिलाने में सफल रही हैं।
मैं समझती हूं कि प्रगति के हिसाब से समूची दुनिया की महिलाओं की दो तस्वीरें हैं। पहली तस्वीर उन महिलाओं की है जो अपने साहस, अपनी क्षमता और अपनी योग्यता को साबित कर के पुरुषों की बराबरी करती हुई प्रथम पंक्ति में आ गई हैं या प्रथम पंक्ति के समीप हैं। दुनिया के उन देशों में जहां महिलाओं के अधिकारों की बातें परिकथा-सी लगती हैं, औरतें तेजी से आगे आ रही हैं और अपनी क्षमताओं को साबित कर रही हैं। चाहे भारत हो या इस्लामिक देश, औरतें अपने अधिकार के लिए डटी हुई हैं। वे चुनाव लड़ रही हैं, कानून सीख रही हैं, आत्मरक्षा के गुर सीख रही हैं और आम महिलाओं के लिए ‘आइकन’ बन रही हैं।
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper |
औरत की दूसरी तस्वीर वह है जिसमें औरतें प्रताड़ना के साए में हैं और अभी भी संघर्षरत हैं। वैश्विक सतर पर कोई भी देश ऐसा नहीं है जहां लैंगिक भेद पूरी तरह समाप्त हो गया हो। स्कैंडिनेवियन देश जैसे आईलैंड, नार्वे, फिनलैण्ड और स्वीडेन ही ऐसे देश हैं जो लैंगिक खाई को तेजी से पाट रहे हैं। इसके विपरीत मध्यपूर्व, अफ्रिका और दक्षिण एशिया में ऐसी महिलाओं की संख्या बहुत अधिक है जिनमें जागरूकता की कमी है। उन्हें अनेक वैधानिक अधिकार प्रदान कर दिए गए हैं लेकिन वे उनका लाभ नहीं ले पाती हैं। क्योंकि वे अपने अधिकारों से बेख़बर हैं।
जहां तक लैंगिक समानता का प्रश्न है तो संयुक्त राष्ट्र ने अपने 2015 के बाद के विकास एजेंडे के पूर्ण कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए दुनिया भर में एक व्यापक अभियान शुरू किया है। विगत सितम्बर में हुई बैठक में घोषणा की गई कि राष्ट्रों के सतत विकास के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण जरूरी हैं। महासचिव बान की मून ने संदेश में जोर दे कर कहा है- दुनिया अपने विकास लक्ष्यों को तब तक 100 प्रतिशत हासिल नहीं कर सकती है जब तक कि इसके 50 प्रतिशत लोगों अर्थात् महिलाओं के साथ ‘‘सभी क्षेत्रों में पूर्ण और समान प्रतिभागियों के रूप में व्यवहार नहीं किया जाता है।’’
महासचिव बान की मून के इस संदेश की पुष्टि करते हुए, सहायक महासचिव लक्ष्मी पुरी जो संयुक्त राष्ट्र महिला की उप कार्यकारी निदेशक भी हैं, ने भी कहा कि लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण अपरिहार्य हैं।
विकास के लिए वित्तीय प्रबंधन पर विगत जुलाई में अपनाए गए अदिस अबाबा एजेंडे और विगत सितम्बर में 2030 के सतत विकास के एजेंडे के निष्कर्ष में यह बात दृढ़ता से दिखाई देती है।अदीस अबाबा एजेंडे का पहले अनुच्छेद में ही घोषणा की गई है-‘‘हम लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण प्राप्त कर के रहेंगे।’’
2030 के एजेंडे में इस बात को माना गया है कि लैंगिक असमानता सभी असमानताओं की जननी है जिसमें देशों के बीच और देशों के अंदर मौजूद असमानताएं शामिल हैं।
पिछले कुछ दशकों की तुलना में आज दुनिया भर में राजनीति में अधिक महिलाएं सक्रिय हैं। ‘‘यह प्रगति बहुत धीमी और असमान है।’’ किसी भी देश में महिलाओं के लिए पूर्ण समानता नहीं है। उन्होंने कहा कि औसतन पांच सांसदों में केवल एक महिला है। दुनिया भर में लगभग 20 महिलाएं राष्ट्रीय नेता हैं।
2030 के सतत विकास के एजेंडे में लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण की अनिवार्यता को पहली बार समझा गया है और इसकी पुष्टि की गई है। इस एजेंडे में कहा गया है, -‘‘यदि आधी मानव जाती को उसके पूर्ण मानवाधिकारों और अवसरों से वंचित रखा जाता है तो सतत विकास संभव नहीं है।’’ इसे शिखर सम्मलेन स्तर पर दुनिया के 193 देशों द्वारा अपनाया गया है।
यह लक्ष्य न केवल लैंगिक समानता को प्राप्त करने के बारे में है बल्कि समस्त महिलाओं और लड़कियों को सशक्त करने के बारे में है, इसमें इस बात पर जोर दिया गया है कि ‘‘कोई भी पीछे न छूटे।’’
महिलाओं और लड़कियों के प्रति हर प्रकार के भेदभाव को क़ानून और व्यवहारिक रूप से समाप्त करना और महिलाओं के विरुद्ध हिंसा को समाप्त करना सतत विकास के लक्ष्य हैं। इसी प्रकार महिलाओं द्वारा किये जाने वाले अवैतनिक देख-रेख के कार्यों का मूल्यांकन और नियोजन करना, आर्थिक, राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की बराबर की भागीदारी और नेतृत्व, उनके लैंगिक और प्रजननीय स्वास्थ्य और प्रजननीय अधिकारों की सार्वभौमिक सुनिश्चितता, संसाधनों तक सामान पहुंच, स्वामित्व और नियंत्रण और आर्थिक सशक्तिकरण भी सतत विकास के लक्ष्य हैं।
महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी के अनुसार भारत सरकार लैंगिक समानता का लक्ष्य हासिल करने एवं महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देने के साथ उनके खिलाफ सभी तरह के भेदभाव को खत्म करने के लिए प्रतिबद्ध है। ‘कमिशन ऑन स्टेटस ऑफ वीमेन’ (सीएसडब्ल्यू) के 60वें सत्र के गोलमेज सत्र के दौरान मेनका ने कहा कि भारत ‘सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य’ हासिल करने को प्रतिबद्ध है और उसने पारदर्शी एवं जवाबदेह तंत्रों के जरिए महिलाओं एवं पुरूषों को बराबरी का मौका देते हुए उनके लिए समान अवसर सुनिश्चित करने के मकसद से आगे बढ़ने का लक्ष्य निर्धारित किया है।
महिला-नीत विकास के महत्व पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी कहा है कि महिलाओं को प्रौद्योगिकी सम्पन्न और जनप्रतिनिधि के तौर पर और प्रभावी बनना चाहिए क्योंकि केवल व्यवस्था में बदलाव से काम नहीं चलेगा। लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने चैथे वैश्विक संसदीय स्पीकर सम्मेलन की आयोजन समिति की बैठक में कहा, ‘लैंगिक समानता को मुख्यधारा में लाना विकास के आदर्श के केंद्र में है। लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण को विकास प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभानी है, खासकर ऐसे तरीकों से , जिनका गुणात्मक प्रभाव हो।’
स्त्री सशक्तीकरण ऐसा पहलू है, जिसके बिना कोई देश तरक्की नहीं कर सकता, लेकिन यह केवल कागजों में नहीं हकीकत में होना चाहिए। शुरुआत घर से हो, लेकिन इच्छाशक्ति राजनीतिक स्तर पर हो। तभी स्त्री सशक्तीकरण की दिशा में सार्थक प्रयास किए जा सकते हैं। अतः जरूरी है कि सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों एवं स्लम बस्तियों की महिलाओं में अधिकारों के प्रति जागरूकता लाने के लिए ऐसी इकाइयां गठित की जाएं जो महिला-हित की योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए मानसिक दृढ़ता का वातावरण निर्मित कर सकें। इस कार्य के लिए सरकारी और निजी संगठनों को परस्पर सहयोगी बनना होगा।
वैश्विक स्तर पर यदि महिलाओं की स्थिति दोयम दर्जे की है तो उसके लिए जितने जिम्मेदार पुरुष हैं, उसका आधा प्रतिशत जिम्मेदार स्वयं महिलाएं भी हैं। किसी भी सरकार की कोई भी योजना, किसी भी संगठन के कोई भी प्रयास तब तक कारगर नहीं हो सकते हैं जब तक कि प्रत्येक महिला आत्मशक्ति को नहीं पहचानेगी। वस्तुतः यदि महिलाएं सामाजिक प्रताड़ना की शिकार हैं तो उसका सबसे बड़ा कारण उनकी अपनी हिचक भी है। एक ऐसी हिचक जिसमें वे यह सोच कर रह जाती हैं कि ‘भला मैं क्या कर सकती हूं?’ कहने का आशय यही है कि समूचे विश्व में विशेष रूप से सुदूर ग्रामीण अंचल की महिलाओं को आत्मनिर्भर एवं शक्तिसम्पन्न बनाने के लिए सबसे पहले उनका आत्मविश्वास जगा कर उनमें जागरूकता लानी होगी। जमीनी स्तर पर यह काम सबसे पहले जरूरी है।
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