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My Editorials - Dr Sharad Singh

Thursday, October 6, 2016

चर्चा प्लस ... कचरे के ढेर में पड़े नवजात शिशु .... डाॅ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
मेरा कॉलम  "चर्चा प्लस"‬ "दैनिक सागर दिनकर" में (05.10. 2016) .....
 
My Column Charcha Plus‬ in "Dainik Sagar Dinkar" .....
  
 
कचरे के ढेर में पड़े नवजात शिशु
- डॉ. शरद सिंह
 
जब कोई नवजात शिशु किसी कचरे के ढेर में पड़ा हुआ मिलता है तो उसकी ख़बर के शीर्षक में होती है केवल ‘निर्दयी मां’। क्या सिर्फ़ स्त्री जिम्मेदार होती है किसी शिशु के जन्म के लिए अथवा उसके कचरे के ढेर में फेंके जाने के लिए? क्या यह जरूरी नहीं है कि कटघरे में उन सबको खड़ा किया जाए जो नवजात शिशु को मरने के लिए छोड़ देते हैं। यदि नवजात को बचाना है तो जरूरत है उस उस मानसिकता को बदलने की जो ऐसा घिनौना क़दम उठाने को बाध्य करती है। 

03 अक्टूबर 2016 की घटना। सागर जिले के बंडा में तालाब के किनारे झाड़ियों में उलझा हुआ था एक नवजात शिशु। शरीर पर चीटियां रेंग रही थीं। सिर में पत्थर से टकराने की चोट भी थी। दो किशोर जो नवरात्रि के चलते देवी मां के मंदिर में जल अर्पित करने जा रहे थे, उस शिशु के रोने की आवाज़ सुनी। युवक आकाश यादव ने उस शिशु को सबसे पहले देखा। फिर दोनों युवकों ने देवीजी को अर्पित करने के लिए ले जाने वाले जल से ही शिशु के शरीर को धोया और पुलिस के आते ही उसे सौंप दिया। शिशु समय रहते अस्पताल पहुंचा दिया गया। यह समाचार विभिन्न समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ जिसमें ‘निर्दयी मां’ को जी भर कर धिक्कारा गया था।
लगभग छः माह पहले सागर जिले के ही खजुरिया गांव में चर्च के पास एक स्वस्थ बालिका मिली थी। पुलिस ने 3 महीने बताया था कि ये बच्ची अवैध संबंधों के चलते हुई थी। इसी तरह शहर के मध्यस्थल (परकोटा) पर मिली बच्ची के मां-बाप तक भी पुलिस ही खुद पहुंची। पु़लिस का मानना है कि लावारिस बच्चों के अधिकांश प्रकरण अवैध संबंधों के चलते सामने आते हैं। कुछ प्रकरणों में लिंग भेद के चलते बच्चों को लावारिस छोड़ा जाता है। यही सच भी है। फिर अकेली मां ही निर्दयी क्यों करार दी जाती है?


Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper
16 मई 2016 को अंबाला के सिटी रोडवेज वर्कशॉप के पीछे एक शिशु लावारिस हालत में पड़ा मिला था जिसे कुत्ते नोच रहे थे। 20 मई 2016 पटना शहर में एक नवजात बरामद हुआ जो पॉलीथिन में लपेट कर फेंक दिया गया था। 27 मई 2016 रायपुर के जिला अस्पताल के पास एक शिशु का शव मिलास जो जानवरों द्वारा अधखाया हुआ था। ये कुछ उदाहरण शहरों अथवा इन घटनाओं की संख्या की दृष्टि से नहीं गिना रही हूं। ये उदाहरण उस बीमार मानसिकता के हैं जो भारत के किसी भी राज्य में किसी भी शहर में, किसी भी गांव में आए दिन सामने आते रहते हैं।

घिनौने अपराध के जिम्मेदार

नवजात शिशु को मरने के लिए किसी कचरे के ढेर पर फेंक आने से बढ़ कर घिनौना अपराध और कोई हो ही नहीं सकता है। यह सच है कि एक शिशु के लिए उसकी मां से बढ़ कर संरक्षक और कोई हो ही नहीं सकती है लेकिन उतना ही सच यह भी है कि हमारे समाज ने स्त्री को जिन लांछनों से जकड़ रखा है उनके रहते एक मां के रूप में स्त्री इस हद तक विवश हो जाती है कि उसे अपने शिशु के त्याग में चाहे-अनचाहे भागीदार बनना ही पड़ता है। इसका उदाहरण हमारे ‘महाभारत‘ महाकाव्य में भी मिलता है। वह सामाजिक लांछन का भय ही था जिसके कारण कुंती ने कर्ण को नदी में बहा दिया था। जो मां अपने पांच पुत्रों को ममता दे सकती थी, उनके साथ ठोकरें खा सकती थी, क्या वह एक और पुत्र को पाल नहीं सकती थी? लेकिन यदि वह कर्ण को पालती और विवाह पूर्व की संतान के रूप में उजागर करती तो क्या समाज उसे चैन से जीने देता? महल की दीवारों के भीतर कर्ण को शैशवावस्था में ही मार दिया जाता। उसकी जीवन रक्षा के लिए भाग्य भरोसे उसे नदी में बहाना ही कुंती के पास विकल्प था, क्यों कि समाज से टकराने की हिम्मत उसमें नहीं थी। अब कुंती को ‘निर्दयी’ कहा जाए अथवा ‘कमजोर स्त्री’ लेकिन कर्ण रूपी शिशु ने जो परित्याग झेला उसके लिए सामाजिक दबाव सबसे बड़ा जिम्मदार था। आज भी हज़ारों कुंती अपने-अपने कर्ण को मरने के लिए छोड़ने को विवश हैं क्यों कि महाभारत काल से अब तक समाज के सोच में कोई विशेष अंतर नहीं आया है। आज भी अविवाहित मां प्रताड़ना की शिकार होती है। अविवाहित मां को प्रताड़ित करने वाले गोया भूल जाते हैं कि किसी भी संतान की उत्पत्ति की बायोलॉजिकल जिम्मेदार सिर्फ़ मां नहीं होती, पिता भी उतना ही जिम्मेदार होता है, फिर चाहे वह वैवाहिक पिता हो या न हो।
अविवाहित माता-पिता अपनी संतान को सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं दिला पाते हैं और स्वयं भी उनकी प्रतिष्ठा और ज़िन्दगी खतरे में पड़ जाती है। जिसके लिए जिम्मदार होती है वह सोच जो अविवाहित मां को ‘कुलटा’, ‘पापिन’ आदि-आदि तानों से नवाज़ती है। यह बीमार सोच ही है जो ऐसे माता-पिता को अपनी गलती सुधारने का मौका ही नहीं देती है। जिसका परिणाम भुगतता है निर्दोष शिशु।


मीडिया का दायित्व

‘निर्दयी मां’ कह कर सिर्फ़ स्त्री पर उंगली उठाने वाले मीडिया को भी अपने अपने दायित्व को सही ढंग ये निभाना चाहिए। यदि मीडिया दोषियों को बेनकाब करना चाहता है तो उन सभी दोषियों पर उंगली उठाए जो नवजात को त्यागने के लिए जिम्मेदार हैं, न कि सिर्फ़ मां पर उंगली उठा कर रह जाएं। संचार माध्यमों में काम करने वाले भी इसी समाज में पले-बढ़े होते हैं, उन्हें भी सामाजिक दबावों का बखूबी पता होता है। उन्हें तो बल्कि दबावों को दूर करने के रास्ते दिखाने चाहिए न कि सदियों से चली आ रही दूषित टिप्पणियों को दुहराते रहें। मीडिया इतना सशक्त माध्यम होता है कि वह आसानी से समाज की सोच बदल सकता है। मीडिया को सिर्फ़ एक समाचार परोस कर नहीं रूक जाना चाहिए कि ‘निर्दयी मां ने शिशु को छोड़ा’, बल्कि यदि वह इसके आगे बढ़ कर शिशु के त्यागे जाने के असली कारणों और असली जिम्मेदारों के चेहरों को सामने लाए तो लोग नवजात शिशुओं के प्रति ऐसा घृणित अपराध करने से पहले एक बार सोचेंगे जरूर।
दिलचस्प बात यह है कि संचार माध्यमों से कहीं अधिक सोच में बदलाव आया है फिल्मी दुनिया में। पुरानी भारतीय फिल्मों में अविवाहित गर्भवती पात्र के मुंह से यही कहलाया जाता था कि ‘‘मैं कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रही। मुझे मर जाना चाहिए’’। ऐसे पात्र के द्वारा अकसर आत्महत्या करना दिखाया जाता था। नायिका जरूर किसी ‘दयालु’ के द्वारा बचा ली जाती थी। फिर तीन घंटे की पूरी फिल्म में उस अविवाहित मां के कष्टों का लेखा-जोखा रहता था। न उसे मां-बाप का सहारा मिलता था और न उस व्यक्ति का जो उसके गर्भवती होने के लिए जिम्मेदार होता था। दशकों तक इसी परिपाटी पर चलते हुए भारतीय फिल्म जगत ने करवट ली और फिर आई ‘क्या कहने’ जैसी फिल्म। इस फिल्म में नायिका अविवाहित मातृत्व को समाज से स्वीकृति दिलाने के लिए जूझती है और फिल्म के अंत में अपने शिशु को सामाजिक स्वीकृति दिला कर मानती है। दुर्भाग्य से इस कथानक के तेवर समाचार संचार माध्यमों से अभी भी दूर हैं।


समाज स्वयं को बदले अब

यदि हम चाहते हैं कि अब और शिशु कचरे के ढेर पर न फेंके जाएं तो जरूरी है कि समाज स्वयं को बदले। यह सभी जानते हैं कि युवावस्था में लापरवाहियां हो जाती हैं। ऐसी दशा में किसी भी लड़की या लड़के को इतना तो विश्वास हो कि जब वे अपनी समस्या अपने परिवार को बताएंगे तो वे उन्हें सिर्फ़ धिक्कारने के बजाए उनकी मदद करेंगे। कानून भी अवांछित गर्भ को गिराने की अनुमति देता है। शिशु को जन्म दे कर उसे जानवरों के बीच जीवित डाल देने से बेहतर तो सुरक्षित और वैधानिक गर्भपात का रास्ता है। लेकिन यह तभी संभव है जब परिवार और समाज इसे सहज भाव से ले और उन युवाओं को सम्हलने का एक अवसर दे। निर्ममता से फेंका गया नवजात शिशु यदि कन्या है तो जाहिर है कि लिंग भेद के चलते यह अपराध किया गया है। बेटी और बेटे में भेद करने वाले अकसर बेटी के जन्म लेते ही बौखला जाते हैं और कन्या शिशु से छुटकारा पाने के लिए उसे मरने को कहीं भी छोड़ आते हैं। इसी कारण सरकार ने डॉक्टरी आवश्यकता के बिना भ्रूण का लिंग परीक्षण अपराध घोषित किया हुआ है। कोख में कन्या भ्रूण को मारे जाने तो कमी आई है लेकिन नवजात कन्या को त्यागने का सिलसिला अभी भी थमा नहीं है। जबकि सरकार ‘लाड़ली लक्ष्मी’ जैसी अनेक योजनाएं चला रही है।
सच तो यह है कि नवजात शिशुओं का परित्याग तभी थम सकता है जब समाज स्वंय में बदलाव लाए और अविवाहित मातृत्व तथा कन्या शिशु के प्रति सकारात्मक रवैया अपनाए। समाज को बदलने के लिए मीडिया को भी स्त्री को लंछित करने वाले अपने शीर्षकों से बाहर आना होगा। उसे समझना होगा कि मां ‘निर्दयी’ नहीं विवश होती है। एक मां को शिशु पालने के लिए समाजिक सहारे और समर्थन की आवश्यकता होती है। मां की कोख में नौ महीने सांसें लेने के बाद जब शिशु पहली बार इस दुनिया में अपनी अांखें खोलता है तो सबसे अधिक खुशी मां को ही होती है। एक मां से यह खुशी न छिने और शिशु से ममता की छांव न छीनी जाए ऐसे माहौल की जरूरत है।
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