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My Editorials - Dr Sharad Singh

Friday, February 3, 2017

" निराला’ का मानवतावाद " वसंत पंचमी-‘निराला जयंती पर विशेष

Dr Sharad Singh
मेरे कॉलम चर्चा प्लस में "दैनिक सागर दिनकर" में ( 01.02. 2017) .....My Column Charcha Plus in "Sagar Dinkar" news paper
चर्चा प्लस 
  

‘निराला’ का मानवतावाद’
वसंत पंचमी-‘निराला जयंती पर विशेष 
    - डॉ. शरद सिंह
                                                                                       
 आज मानवतावाद ज्वलंत विषय है। इस विषय पर बड़े-बड़े सेमिनार होते हैं, चर्चाएं होती हैं एवं गोष्ठियां आयोजित की जाती हैं। इन सबके द्वारा इस बात को परखने का प्रयास किया जाता है कि मानवदावाद आखिर है क्या? इसे समाज में कैसे स्थापित किया जाए? जबकि हिन्दी साहित्य की मूल चेतना ही मानवतावादी है। इसमें मानवजीवन के प्रत्येक मूल्यों को बारीकी से जांचा-परखा गया है। मानवतावाद के प्रति सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला का अपना एक अलग दृष्टिकोण रहा। वे जब मानव की बात करते थे तो सबसे पहले दुखी-पीड़ित मानवता के प्रति उनकी संवेदनाएं मुखर होती थीं। ‘निराला’ का मानवतावाद सदा प्रासंगिक है। 
    
भारतीय दर्शन, संस्कृति एवं साहित्य में मानवतावादी तत्व सनातनकाल से विद्यमान रहे हैं। साहित्य में मानवीय चेतना लेखनी की प्राणवाहक का काम करती है। जिसे सुख का आनंद और दुख की पीड़ा सतहीतौर पर हो वह अपने अनगढ़ विचार उद्घाटित तो कर सकता है किन्तु साहित्य सृजन नहीं कर सकता है। हिन्दी साहित्य की मूलचेतना ही मानवतावादी है। इसमें मानव जीवन के प्रत्येक मूल्यों को बारीकी से जांचा-परखा गया है। आधुनिकयुग के साहित्यकारों में महाप्राण कहे जाने वाले सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने अपने साहित्य में मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं को जिस सूक्ष्मता से उकेरा है, वह उन्हें वास्तव में ‘महाप्राण’ सिद्ध करता है। ‘निराला’ में कालिदास की उदात्त कोमल भावनाएं थीं तो कबीर का फक्कड़पन और विवेकानंद की गंभीरता भी थी। ‘निराला’ काव्यजगत् में जितने स्थापित हुए, उतने ही अपने गद्य साहित्य के लिए भी चर्चित हुए। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने स्वयं पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि-‘‘देखते नहीं मेरे पास एक कवि की वाणी, कलाकार का हाथ, पहलवान की छाती और फिलासफर के पैर हैं।’’
‘निराला’ ने सन् 1915 से कविता लिखना आरंभ किया था। सतत् मंथन के बाद उनका पहला काव्य ‘परिमल’ सन् 1929 में प्रकाशित हुआ। ‘निराला’ ने काव्य के छायावादी दृष्टिकोण को अपनाया वहीं प्रयोगवादी मानकों को भी आत्मसात किया। उनके अन्य काव्य हैं- अनामिका, तुलसीदास, कुकुरमुत्ता, अणिमा, बेला, नए पत्ते, अर्चना एवं आराधना। अनामिका में संग्रहीत ‘तोड़ती पत्थर’ कविता मानवीय मूल्यों की उत्कृष्ट धरोहर है। आचार्य नरेन्द्र शर्मा ने ‘निराला’ एवं ‘तोड़ती पत्थर’ के बारे में लिखा है-‘‘वह आधुनिक कवियों में शैलीगत अपनी आधुनिकता के कारण आधुनिकतम, किन्तु वेदान्त, दर्शन और वीरपूजा संबंधी भावना के कारण पुरातन बने रहे। एक ओर वह घोर अहंवादी है तो दूसरी ओर अपनी उदार मनःसंवेदना के कारण वह पददलितों के हिमायती है। ‘तोड़ती पत्थर इलाहाबाद के पथ पर’ ऐसी भी है उनकी कविता। वह कविता एक ओर तो मार्गी है और दूसरी ओर वह पत्थर तोड़-तोड़ कर नए युग का मार्ग बनाती है।’’
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper

कुछ आलोचकों ने निराला के काव्य पर क्लीष्टता का आरोप लगाया है। ऐसे आलोचकों ने ‘निराला’ को ‘कठिन काव्य का प्रेत’ कहा है। ‘निराला’ का ऐसा आकलन इसलिए हुआ क्योंकि वे आलोचक ‘निराला’ के काव्य में निहित मानवीय संवेदनाओं एवं रागात्मक लय को पूरी तरह समझ नहीं सके। उनकी इस दुर्बलता से परे ‘निराला’ के काव्य में मानव जीवन का विकासक्रम और उसका संगठन परिलक्षित होता है। मानव की सतत् संघर्षशीलता के चलते मानवमन में होने वाले परिवर्तनों एवं उतार-चढ़ाव का एक अनूठा दर्शन मिलता है ‘निराला’ के काव्य में। वस्तुतः कवि ‘निराला’ युगयुगीन मानवीय मूल्यों की पड़ताल करते हुए युग के साथ चलते रहे।
‘निराला’ सम्पूर्ण गद्य के विविध रूपों और विशेषकर कथा साहित्य में आस्थावान रहे। ‘निराला’ का आध्यात्मिक दृष्टिकोण भी मानवतावादी था। इसीलिए मानव मन-मस्तिष्क में संचार करने वाले सुख-दुख, राग-द्वेष ‘निराला’ के गद्य साहित्य में मुखर रूप में विद्यमान हैं। ‘निराला’  का मानव देवत्व की तलाश में नहीं, उसकी ऊर्जा देवत्व को गंतव्य मान कर गतिमान नहीं होती किन्तु देवत्व का पर्याय बन कर सामने आती है। ‘निराला’ के गद्य में वेदान्त की अनुप्रेरणा और विवेकानंद की वाणी का प्रभाव ही नहीं बल्कि उनके व्यक्तित्व की विराटता भी विद्यमान है। जब हम ‘निराला’ के काव्य और उनके गद्य में मौजूद मानवचेतना से साक्षात्कार करते हैं तो इस सत्य का अहसास होने लगता है कि पद्य जल नहीं है और गद्य पाषाण नहीं है। वस्तुतः काव्य और गद्य के बीच स्पष्ट धारणात्मक रेखा खींचना कठिन है। हर गद्य में कविता संभव है और हर कविता में गद्य। यह भी सच है कि क्रियात्मक रूप में कविता और गद्य के बीच एक पारंपरिक अंतर माना जाता है और इसी आधार पर कविता में अधि सूक्ष्मता, वाक्संक्षिप्तता, संयम एवं लयात्मकता दिखाई पड़ती है तथा गद्य में अधिक विस्तार, खुलापन एवं व्यापकता का बोध होता है। कुछ आलोचक यह मानते हैं कि काव्य की अपेक्षा गद्य में मूल्यनिर्णय की क्षमता अधिक होती है। जबकि ‘निराला’ के काव्य और गद्य को एक-दूसरे के समान्तर रख कर देखा जाए तो दोनों ही विधाएं समान रूप से मूल्य-निर्णायक साबित होती हैं। अतः यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि वे कौन से कारण रहे होंगे जिन्होने ‘निराला’ को काव्य के साथ-साथ गद्य सृजन से भी जोड़ा, वह भी समउत्कृष्टता और समर्पण के साथ। इस प्रश्न का उत्तर इस एक तथ्य में निहित है कि ‘निराला’ के भीतर एक संवेगतत्व निरंतर प्रवाहित रहा। जीवन के विविध पक्षों में विचरण के कारण ही ज़मीन से जुड़े ‘निराला’ के भीतर हमेशा एक अंतर्द्वन्द्व चलता रहा। वे उद्वेलित होते रहे। जीवन की विषमताओं को ले कर उनके मन में सदा पीड़ा रही कि एक मानव दूसरे मानव का शोषण क्यों करता है? यह सहज प्रश्न और जिज्ञासा उन्हें आकुल करती रही और अंतर्मन में अनजाने में ही एक चिंतन प्रक्रिया बराबर चलती रही। यह उनके भीतर क्रांतिचेतना की पीठिका एवं प्रेरक बनी। यही क्रांतिचेतना अथवा मानववाद ‘निराला’ से काव्य के साथ-साथ गद्य सृजन भी कराती रही।
‘निराला’ के गद्य में विद्यमान मानववाद का तीन बिन्दुओं में आकलन किया जा सकता है- ‘निराला’ के उपन्यासों में मानववाद, कथासाहित्य में मानववाद और रेखाचित्रों-संस्मरणों में मानववाद। इन तीन बिन्दुओं के अध्ययन के उपरांत ‘निराला’ के मानवतावादी दृष्टिकोण की विराटता, गहनता और विस्तार को समझना आसान हो जाता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो ये तीनों बिन्दु ‘निराला’ के मानस के मानवीय पूर्णत्व से परिचित कराते हैं।
‘निराला’ का प्रथम उपन्यास ‘अप्सरा’ सन् 1931 में प्रकाशित हुआ। सन् 1933 में ‘अलका’, 1936 में प्रभावती एवं ‘निरुपमा’, 1946 में ‘चोटी की पकड़’ तथा 1950 में ‘कालेकारनामे’ उपन्यास प्रकाशित हुआ। ‘निराला’ की विचार प्रक्रिया को आधार बना कर यह कहा जा सकता है कि लगभग 25 वर्ष तक ‘निराला’ गद्य साहित्य के माध्यम से मानवमूल्यों एवं संवेदनाओं के आकलन और उद्घाटन में संलग्न रहे। इस सतत् प्रवाहित प्रक्रिया के चलते उन्होंने ‘अप्सरा’ में समर्पण, त्याग और बलिदान की प्रेरणा का आधार बनाया। जीवन को आस्वाद की आश्वस्ति दी, कर्म की मानववादी मनोभूमि पर निर्भीकता और स्वावलम्बन को स्थापित किया। ‘अलका’ में नारी के स्वाभिमान, मानव का अधूरापन, मानवीय विवशता, विडम्बना, अत्याचार, उत्पीड़णन और शोषण के विविध रूपों को प्रस्तुत किया। ‘प्रभावती’ में नारी गौरव के साथ प्रेम की उन्मुक्त चेतना को रेखांकित किया। ‘निरुपमा’ में उन्होंने सामाजिक वैषम्य, नारी गरिमा के साथ मानसिक वृत्तियों का विश्लेषण एवं कर्मचेतना को प्रकट किया। ‘चोटी की पकड़’ और ‘कालेकारनामे’ उपन्यास स्वदेशी आंदोलन और आंदोलन की सामाजिक भूमिका पर आधारित है, जिन्हें मानवीय गरिमा, मानवीय औदात्य के साथ-साथ मानवीय बोध और मनुष्य की साधना को मुखर किया है।
‘निराला’ की कहानियां हैं -चतुरी चमार, देवी, राजा साहिब ने ठेंगा दिखाया, हिरनी, अर्थ, सफलता, क्या देखा, सुकुल की बीवी, श्रीमती गजानन और कला की रूपरेखा। ‘चतुरी चमार’ और ‘सुकुल की बीवी’ दो समांतर धरातल की कहानियां हैं। एक में मानवीय विडम्बना और जीवन का आक्रोश उद्घाटित हुआ है तो दूसरी में नारीजीवन की विडम्बना के प्रति रूढ़ि से मुक्ति का आह्वान किया गया है। ‘निराला’ ने ‘देवी’ में मानवीय पर्तां की अंदरूनी बखिया को सामने रखा है तो ‘राजा साहिब ने ठेंगा दिखाया’ में अभिजात्यवर्ग के बौद्धिक दिवालियापन पर कटाक्ष किया है। ‘हिरनी’ मानवीयबोध का प्रश्न उठाती है और ‘श्रीमती गजानन’ नारी के स्वाभिमान से ओतप्रोत है। ‘क्या देखा’ स्वच्छंद प्रेम की मानववादी अभिव्यक्ति है तो ‘कला की रूपरेखा’ मानवीय दुष्प्रवृत्तियों पर चोट करती है।
‘निराला’ के रेखाचित्र एवं संस्मरणों में ‘कुल्लीभाट’ और ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ का सृजन निराला-साहित्य की अनन्यतम घटना मानी जा सकती है। वस्तुतः ‘कुल्लीभाट’ में कुल्ली का स्वरूप विद्रोही चेतना के उद्वेलन से आंदोलित हुआ है वहीं ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ को मनुष्य की महत्वाकांक्षा का प्रस्तुतिकरण कहा जा सकता है। ‘निराला’ ने जीवन को समझा, जिया और इसी जीवन को अपने गद्य साहित्य में सम्पूर्णता के साथ उतारा। ‘परिमल’ के छायावादी ‘निराला’, ‘कुकुरमुत्ता’ के प्रयोगवादी ‘निराला’ और ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ के चरित्र-अन्वेषी ‘निराला’ -इन तीनों में एक तत्व समान रूप से मौजूद है, वह है मानवतावादी दृष्टिकोण।    
इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि ‘निराला’ के कथा साहित्य को या तो केवल खानापूरी के लिए मूल्यांकित कर दिया जाता है अथवा बंधे-बंधाए नियमों और कसौटियों पर उसका परीक्षएा कर के अपनी अध्ययन-मूल्यांकन की औपचारिकता की पूर्ति कर दी जाती है। यही कारण है कि ‘निराला’ का कथा साहित्य एक अप्रत्यक्ष उपेक्षा का शिकार रहा और वह प्रेमचंद के कथा साहित्य के प्रभामंडल के पीछे छिपा रह गया। ‘निराला’ का कथा साहित्य चर्चित अवश्य हुआ लेकिन उचित मूल्यांकन की कमी के चलते अपने जनबोध को भली-भांति उजागर नहीं कर पाया। वर्तमान चिंतक आज के समय को राजनैतिक समय मानते हैं और आज की रचनाओं में इसी राजनैतिक समय को लिखते और समीक्षा का आधार बनाते हैं जबकि ‘निराला’ के गद्य के मर्म को समझने के बाद वर्तमान मानवचरित्र को समझना आसान हो जाता है।
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