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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, February 15, 2017

रेलवे का बायो-टॉयलेट अभियान

Dr Sharad Singh


मेरे कॉलम चर्चा प्लस में "दैनिक सागर दिनकर" में ( 15.02. 2017) .....My Column #Charcha_Plus in "Sagar Dinkar" news paper

 

चर्चा प्लस : 
रेलवे का बायो-टॉयलेट अभियान
- डॉ. शरद सिंह


भारतीय रेल स्वच्छता अभियान को ले कर जागरूक है लेकिन जहां तक रेल के टॉयलेट्स का सवाल है, अनेक विसंगतियां हैं। जिस तरह के टॉयलेट्स हमारे देश की आधिकांश रेलों में है वैसे टॉयलेट्स दुनिया के किसी भी विकसित देश की रेलों में नहीं है। यात्री भले ही वातानुकूलित डिब्बे में सफ़र कर रहे हों लेकिन टॉयलेट में पहुंचने पर गर्मियों लू-लपट और सर्दियों में बर्फीली हवाओं की चपेट में आने से नहीं बच पाते हैं। रेलवे इस ओर ध्यान तो दिया है लेकिन गति धीमी है जबकि वातानुकूलित डिब्बों का यात्रा-किराया हर साल बिना नागा बढ़ा दिया जाता है।

भारत में रेलों की शुरुआत 1853 में अंग्रेजों द्वारा अपनी प्राशासनिक सुविधा के लिये की गयी थी परंतु आज भारत के ज्यादातर हिस्सों में रेलवे का जाल बिछा हुआ है और रेल, परिवहन का सस्ता और मुख्य साधन बन चुकी है। सन् 1853 में बहुत ही मामूली शुरूआत से जब पहली अप ट्रेन ने मुंबई से थाणे तक (34 किमी की दूरी) की दूरी तय की थी, अब भारतीय रेल विशाल नेटवर्क में विकसित हो चुका है।
भारत में रेलों की शुरुआत भले ही सन् 1853 में हुई लेकिन तब की रेलवे आज की रेलवे की तरह सर्वसुविधायुक्त नहीं हुआ करती थी। तब रेलवे में आज की तरह टॉयलेट की सुविधा नहीं थी। भारतीय रेल में टॉयलेट जोड़े जाने की भी एक दिलचस्प कहानी है। दरअसल एक भारतीय व्यक्ति औखिल बाबू ने अंग्रेजो को पत्र लिखा था। दरअसल इनका पूरा नाम ओखिल चंद्र सेन था। उन्होंने 1909 में भारतीय रेलवे में टॉयलेट लगाने की सुविधा देने की मांग की थी। ओखिल बाबू ने अपने पत्र में लिखा था कि वे पैसेंजर ट्रेन में सफर कर रहे थे। ऐसे में अहमदपुर स्टेशन के पास जब उन्हें शौच जाना पड़ा तो वे एकांत में चले गए। ऐसे में जब वे इससे निवृत्त हो ही रहे थे कि ट्रेन चालू हो गई। उनके एक हाथ में धोती थी तो एक में लोटा था। व दौड़े लेकिन रेल पटरी पर ही गिर गए ऐसे में उनकी धोती भी खुल गई। इसे देखकर वहां खड़े लोगों के सामने उन्हें शर्मिंदा होना पड़ा। इसके बाद उन्होंने सवाल किया कि क्या ट्रेन को रोका नहीं जा सकता। इस प्रश्न के साथ उन्होंने साहिबगंज मंडल रेल कार्यालय के नाम एक पत्र लिखा। पत्र का मजमून इस प्रकार था-‘‘मैं पैंसेंजर ट्रेन में यात्रा कर रहा था, जब ट्रेन अहमदपुर रेलवे स्टशेन में रुकी तो मुझे दस्त लगने के चलते टॉयलेट जाना पड़ा। मुझे गए हुए थोड़ी देर ही हुई थी कि गार्ड ने सीटी बजाना शुरू कर दिया कि ट्रेन जा रही है, मैं तुरंत ट्रेन पकड़ने की कोशिश करने लगा। जल्दबाजी में मेरे एक हाथ में लोटा और दूसरे हाथ में धोती थी, इस बीच मैं जल्दी-जल्दी भागने के कारण रेलवे पटरियों पर ही गिर पड़ा। जिसके चलते मेरी धोती खुल गई और मैं नग्न हो गया। उस समय मुझे प्लेटफॉर्म पर मौजूद पुरुषों और महिलाओं ने देखा। ट्रेन चली गई और मैं अहमदपुर स्टेशन पर ही रह गया। यह बहुत बुरा है कि जब कोई व्यक्ति टॉयलेट के लिए जाता है तो क्या गार्ड ट्रेन को 5 मिनट भी नहीं रोक सकता। मैं आपके अधिकारियों से गुजारिश करता हूं कि जनता की भलाई के लिए उस गार्ड पर एक भारी जुर्माना लगाया जाए। अगर ऐसा नहीं होगा तो मैं इसे अखबार में छपवाऊंगा।’’
यह पत्र 1909 में ओखिल चंद्र सेन के द्वारा लिखा गया था। इस पत्र के बाद ही भारतीय रेलवे में टॉयलेट की व्यवस्था की गई। अब हर बड़ी गाड़ियों में टॉयलेट की व्यवस्था है। ओखिल चंद्र का यह पत्र आज भी नई दिल्ली के रेलवे म्यूजियम में सुरक्षित है।
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper

आरम्भ में रेलों में स्वच्छता की कमी को देख कर महात्मा गांधी भी बड़े दुखी हुए थे। दरअसल, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन के बाद महात्मा गांधी ने भारत के विभिन्न नगरों को देखने का विचार किया। उनकी एक यात्रा कलकत्ता से राजकोट तक की थी। इसमें काशी, आगरा, जयपुर, पालनपुर होते हुए राजकोट पहुंचना था। तीसरे दर्जें के डिब्बों में गन्दगी और शौचालयों की बुरी हालत देखकर वे चकित रह गए। तीसरे दर्जे की शोचनीय दशा देखकर महात्मा गांधी को दुःख भी हुआ। उन्होंने अपनी आत्मकथा में अपने दुख का उल्लेख किया है कि ‘‘उन्हें महसूस हुआ कि पहले और तीसरे दर्जे के किराए में जो अंतर है, उससे कहीं अधिक अंतर उन दोनों में मिलने वाली सुविधाओं में है। तीसरे दर्जे के यात्री भेड़-बकरी की भांति डिब्बों में भरे रहते और सुविधाओं के नाम पर उनको न्यूनतम सुविधाएं मिलतीं। उन्होंने यूरोप में आमतौर पर तीसरे ही दर्जे में यात्रा की थी, अनुभव की दृष्टि से मात्रा एक बार पहले दर्जे में भी यात्रा की थी। वहां उन्होंने पहले और तीसरे दर्जे के बीच भारत जैसा अंतर नहीं पाया।’’
स्वच्छ भारत अभियान भारत सरकार द्वारा आरम्भ किया गया राष्ट्रीय स्तर का अभियान है जिसका उद्देश्य गलियों, सड़कों, रेलों आदि को साफ-सुथरा करना है। यह अभियान महात्मा गांधी के जन्मदिवस 02 अक्टूबर 2014 को आरम्भ किया गया। महात्मा गांधी ने अपने आसपास के लोगों को स्वच्छता बनाए रखने संबंधी शिक्षा प्रदान कर राष्ट्र को एक उत्कृष्ट संदेश दिया था।
रेलवे ने भी शुरू किया था नौ दिन का स्वच्छता अभियान। कार्यक्रम को उत्तर रेलवे के सभी स्टेशनों पर व्यापक स्वच्छता अभियान के तौर पर शुरू किया गया। रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने शनिवार को रेलवे के नौ दिवसीय स्वच्छता सप्ताह कार्यक्रम की शुरुआत की और लोगों से स्वच्छता को अपनी दिनचर्या में शामिल करने की बात भी कही। इस मौके पर रेल मंत्री ने सभी रेल अधिकारियों व कर्मचारियों से रेलवे स्टेशन परिसरों की सफाई के लिए समर्पित होने का आह्वान किया। ‘स्वच्छ रेल स्वच्छ भारत मिशन’ के तहत शुरू हुआ यह कार्यक्रम 25 सितंबर को संपन्न हुआ, जिसमें रेलवे स्वच्छता संबंधित विभिन्न कार्यक्रम आयोजन किया गया। कार्यक्रम के दौरान रेल मंत्री ने कहा कि संयोग से स्वच्छता सप्ताह का शुभारंभ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिवस (17 सितंबर) पर हो रहा है। प्रधानमंत्री के स्वच्छता के प्रति उच्च आदर्शों के चलते उन्हें यह स्वच्छता अभियान समर्पित किया जाता है। उन्होंने रेलवे की स्वच्छता के प्रति प्रतिबद्धता को भी दोहराया और कार्यक्रम को सफल बनाने पर जोर दिया। इस कार्यक्रम को उत्तर रेलवे के सभी स्टेशनों पर व्यापक स्वच्छता अभियान के तौर पर शुरू किया गया। स्टेशनों पर स्वच्छता से संबंधित जानकारी के लिए पोस्टर और बैनर लगाए गए। रेल अधिकारियों ने स्टेशन परिसर में उपयोग होने वाली मशीनों व व्यवस्थाओं का भी निरीक्षण किया। रेलवे स्टेशन, डिपो में पहले से पड़े कचरे को साफ करने के साथ रेलवे ने स्टेशन परिसर में अतिरिक्त कूड़ेदान की व्यवस्था की।
भारतीय रेल स्वच्छता अभियान को ले कर जागरूक है लेकिन जहां तक रेल के टॉयलेट्स का सवाल है, अनेक विसंगतियां हैं। जिस तरह के टॉयलेट्स हमारे देश की आधिकांश रेलों में है वैसे टॉयलेट्स दुनिया के किसी भी विकसित देश की रेलों में नहीं है। यात्री भले ही वातानुकूलित डिब्बे में सफ़र कर रहे हों लेकिन टॉयलेट में पहुंचने पर गर्मियों लू-लपट और सर्दियों में बर्फीली हवाओं की चपेट में आने से नहीं बच पाते हैं। रेलवे इस ओर ध्यान तो दिया है लेकिन गति धीमी है जबकि वातानुकूलित डिब्बों का यात्रा-किराया हर साल बिना नागा बढ़ा दिया जाता है।
वैसे भारतीय रेल टॉयलेट्स के मामले में हाइटेक होने की तैयारी कर रहा है। पहले सन् 2021 तक रेलों में ’बायो-टॉयलेट’ लगा देने का लक्ष्य रखा गया था। इससे पटरियों पर फैलने वाली गंदगी भी समाप्त हो सकेगी। रेलवे अब अपने वायदे को समय से पहले पूरा करने को उत्सुक दिख रही है। रेलवे ने अपनी पटरियों को ’शौचमुक्त’ बनाने और सभी ट्रेनों में ’बायो-टॉयलेट’ लगाने का लक्ष्य 2021 से घटाकर 2019 पर लाने का फैसला किया है और तीन से पांच साल के भीतर जल पुनर्चक्रण की क्षमता 1.2 करोड़ लीटर से बढ़ाकर 20 करोड़ लीटर करने का लक्ष्य तय किया है। रेलवे बोर्ड के सदस्य हेमंत कुमार के अनुसार, ‘‘ सन् 2019 तक भारतीय रेलवे के सभी 55,000 कोचों को 1,40,000 बायो टॉयलेट के साथ फिट किया जाएगा। 31 मार्च 2016 तक हमने रेलवे के 10,000 डिब्बों में लगभग 35,000 बायो-टॉयलेट को स्थापित कर लिया है और इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हम काफी आश्वस्त हैं।’’ उललेखनीय है कि भारतीय रेलवे ने खुले तल वाली पुरानी टॉयलेट सीट की जगह बायो-टॉयलेट की शुरुआत 2014 में ही कर दी थी। पहले वाली पुरानी टॉयलेट सीट से मल-मूत्र को रेलवे पटरियों पर खुले में ही फेंक दिया जाता है। स्वयं रेलवे प्रशासन का मानना है कि खुले तल वाले टॉयलेट्स न केवल यात्रियों के लिए खराब और नुकसानदेह होते हैं, बल्कि पटरियों पर शौच के निस्तारण से पटरियां भी जल्दी बेकार हो जाती हैं और पटरियां संक्षारित होने लगती हैं। भारतीय रेलवे में बायो-टॉयलेट की शुरुआत ’स्वच्छ रेल, स्वच्छ भारत’ कार्यक्रम के अंतर्गत की गई थी। जिसमें पुराने टॉयलेट की जगह इसे लगाने की समय सीमा सन् 2020-21 थी।
एक सर्वेक्षण के अनुसार भारतीय रेलवे औसतन हर दिन लगभग 6000 टन ठोस अपशिष्ट पदार्थों को उत्पन्न करता है, जिनमें से 4,000 टन मानव अपशिष्ट को सीधे तौर पर रेलवे पटरियों पर फेंक दिया जाता है। अब अगर भारतीय रेलवे समय रहते अपने लक्ष्य को पूरा कर ले तो स्वच्छता अभियान की दिशा में यह एक सकारात्मक कदम होगा।
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