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My Editorials - Dr Sharad Singh

Thursday, June 1, 2017

चर्चा प्लस .. विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष : ...डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
आगामी 05 June विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष लेख "अपनी ही डाल काटते हम" मेरे कॉलम  चर्चा_प्लस में "दैनिक सागर दिनकर" में ( 31.05. 2017) ..My Column Charcha Plus in "Sagar Dinkar" news paper....
चर्चा प्लस
विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष :

अपनी ही डाल काटते हम
- डॉ. शरद सिंह
कवि कालिदास के साथ जुड़ा एक किस्सा है कि वे जिस डाल पर बैठे थे उसे ही काट रहे थे, इस बात से बेखबर कि डाल कटने पर वे गिर जाएंगे। हम भी कुछ ऐसा ही तो कर रहे हैं। जो पर्यावरण हमें जीवन देता है हम उसी को तेजी के साथ नष्ट करते जा रहे हैं। #ग्लोबल_वार्मिंग, #ग्लेशियर्स_मेल्टिंग और #वेदर_चेंजिंग - ये तीनों हमारी खुद की पैदा की गई मुसीबतें हैं जो समूची दुनिया को भयावह परिणाम की ओर ले जा रही है। यदि हम अब भी नहीं चेते तो हमारे जीवन की डाल कट जाएगी और नीचे गिरने पर हमें धरती का टुकड़ा भी नहीं मिलेगा।
हम हरे-भरे जंगल को काट कर क्रांक्रीट के जंगल खड़े करते जा रहे हैं। हम अपने घरों में तापमान को नियंत्रित रखने वाली लकड़ी की खिड़कियां लगवाने के बजाए कांच की बड़ी-बड़ी ऐसी खिड़कियां लगवाना अपनी शान समझते हैं जिनसे हमारे घर अत्याधुनिक शैली के दिखने लगते हैं। जबकि अब यह वातारण वैज्ञानिकों क्षरा सिद्ध किया जा चुका है कि खिड़कियों के ये कांच सूरज की किरणों को परावर्तित कर के न केवल तापमान में वृद्धि करती हैं बल्कि आसपास के पेड़-पौधों को भी झुलसाती रहती हैं। हम अपने घरों का विस्तार करने में जुटे रहते हैं लेकिन सिकुड़ती हरियाली पर ध्या नही देते हैं जबकि ये हरियाली ही हमें जीवन-सांसे देती है।
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper

ग्लोबल वार्मिंग का अर्थ है ‘पृथ्वी के तापमान में वृद्धि और इसके कारण मौसम में होने वाले परिवर्तन’ पृथ्वी के तापमान में हो रही इस वृद्धि जिसे 100 सालों के औसत तापमान पर 10 फारेनहाईट आँका गया है और जिसके के परिणामस्वरूप बारिश के तरीकों में बदलाव, हिमखण्डों और ग्लेशियरों के पिघलने, समुद्र के जलस्तर में वृद्धि और वनस्पति तथा जन्तु जगत पर प्रभावों के रूप के सामने आ सकते हैं। ग्रीन हाउस गैसों में सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण गैस कार्बन डाइऑक्साइड है, जिसे हम जीवित प्राणी अपने सांस के साथ उत्सर्जित करते हैं। पर्यावरण वैज्ञानिकों का कहना है कि पिछले कुछ वर्षों में पृथ्वी पर कार्बन डाइऑक्साइड गैस की मात्रा लगातार बढ़ी है। वैज्ञानिकों द्वारा कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन और तापमान वृद्धि में गहरा सम्बन्ध बताया जाता है। संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों ने 2015 तक नई जलवायु संधि कराने के लिये पहला कदम उठाया है और इस पर बातचीत शुरू की है कि वे किस तरह इस लक्ष्य को पूरा करेंगे। यह संधि विकसित और विकासशील देशों पर लागू होगी। संयुक्त राष्ट्र के फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यू.एन.एफ.सी.सी.सी.) पर दस्तखत करने वाले 195 देशों ने बॉन में इस बात पर बहस शुरू की है कि पिछले साल दिसंबर में डरबन सम्मेलन में तय लक्ष्य पाने के लिये वह किस तरह काम करेंगे। उद्घाटन समारोह की अध्यक्षता करने वाली दक्षिण अफ्रीका की माइते एनकोआना मशाबाने ने सदस्य देशों से वार्ता के पुराने और नकारा तरीकों को छोड़ने की अपील की। उन्होंने समुद्र के बढ़ते जल स्तर की वजह से डूबने का संकट झेल रहे छोटे देशों का जिक्र करते हुए कहा, ‘‘समय कम है और हमें अपने कुछ भाइयों, खासकर छोटे द्वीपों वाले देशों की अपील को गम्भीरता से लेना है।’’
जर्मनी की पुरानी राजधानी बॉन में आयोजित सम्मेलन के अनुसार संधि की शर्त्तों को सन् 2020 से लागू कर दिया जाएगा। इसमें गरीब और अमीर देशों को ग्लोबल वार्मिंग रोकने के लिये और जहरीली गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिये एक ही कानूनी ढांचे में रखा जाएगा। वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र के तहत विकसित और विकासशील देशों के लिये पर्यावरण सुरक्षा सम्बन्धी अलग-अलग कानूनी नियम हैं।
पर्यावरणीय खतरों से भारत अछूता नहीं है। हिमालय के ग्लेशियर पिघलने से खतरा बढ़ता जा रहा है। कुल 155 वर्ग किलोमीटर पर फैला ये ग्लेशियर पिछले पचास साल में करीब पंद्रह फीसदी सिकुड़ चुका है। कश्मीर में ग्लेशियरों से ढंकी जमीन में 21 प्रतिशत की कमी आई है। हिमालय के ग्लेशियर के पिघलने से भारत में आ सकती है बाढ़। हिमालय के ग्लेशियर के पिघलने से समंदर का बढ़ रहा है जल स्तर. हिमालय के ग्लेशियर के पिघलने का एक बड़ा खतरा खेती पर भी पड़ेगा। ग्लेशियर के कम होने से उत्पन्न चटियल जमीन सूरज की 80 फीसदी रोशनी को सोख लेती है जिससे तापमान बढ़ता है जबकि ग्लेशियर 80 फीसदी रोशनी को वापस परावर्तित कर देता है। परिणामतः पर्वतीय क्षेत्रों में बर्फबारी भी कम हो रही है जिससे वहां फसल चक्र बर्बाद होने का खतरा मंडरा रहा है। स्पष्ट है कि खतरा सिर्फ भारत को ही नहीं है बल्कि आसपास के दूसरे देशों को भी है। हिमालय के ग्लेशियर के पिघलने का एक बड़ा खतरा बाढ़ का भी है। ग्लेशियर से पिघला हुआ पानी एक जगह किसी झील में लगातार जमा हो सकता है जो किसी भी वक्त टूटकर अपने राह में पड़ने वाली हर चीज को तबाह कर सकता है। दुनिया का सबसे बड़ा डेल्टा सुंदरबन का अस्तित्व भी खतरे में है क्योंकि हिमालय और दुनियाभर के ग्लेशियर पिघलने की वजह से समंदर का जलस्तर भी अब बढ़ने लगा है। इसका असर सुंदरबन पर दिखने भी लगा है। हर साल 1 मिलीमीटर से लेकर 2 मिलीमीटर तक समंदर का जलस्तर बढ़ता जा रहा है। ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने से खासकर जम्मू कश्मीर का औसत तापमान लगातार बढ़ता ही जा रहा है। इंडियन स्पेस रिसर्च आर्गेनाइजेशन के स्पेस एप्लीकेशन सेंटर अहमदाबाद के सर्वे में से चौंकाने वाले तथ्य सामने आए कि कश्मीर में ग्लेशियरों से ढंकी जमीन में 21 प्रतिशत की कमी आई है। कभी अकेले जनस्कार में पांच सौ ग्लेशियर हुआ करते थे और पिछले पचास सालों में 200 ग्लेशियर खत्म हो चुके हैं। कारगिल और लद्दाख के करीब तीन सौ ग्लेशियर सोलह फीसदी पिघल चुके हैं। इससे तापमान बढ़ रहा है। पैदावार पर असर पड़ रहा है और कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा बढ़ रही है।
सबसे ज्यादा चिंता उत्तराखंड के ग्लेशियर्स का पिघलना है। 120 सालों में पिंडरी ग्लेशियर 2840 मीटर तक घट चुका है। यानी सालाना 23.5 मीटर के दर से ये ग्लेशियर पिघल रहा है। गंगोत्री ग्लेशिय़र जो देश की सबसे बड़ी नदी गंगा का जलस्रोत है, डेढ़ सौ सालों में 1147 मीटर नीचे आ चुका है। गंगोत्री पर किए गए एक और अध्ययन के मुताबिक 1971 से 2005 के बीच ये ग्लेशियर 565 मीटर तक पिघल चुका है, यानी हर साल गंगोत्री में 15 मीटर तक की कमी आ रही है। ठीक ऐसे ही मिलाम ग्लेशियर 85 सालों में 990 मीटर पिघल चुका है। 50 सालों में पोंटिंग ग्लेशियर 262 मीटर नीचे आ चुका है। अरवा वैली 198 मीटर घटा है जबकि संकल्प ग्लेशियर 518 मीटर तक घटा है। हिमाचल के त्रिलोकनाथ ग्लेशियर में सिर्फ 25 सालों में 400 मीटर की कमी आई है जबकि बड़ा सिंगरी ग्लेशियर सिर्फ 17 सालों में 650 मीटर तक पिघल चुका है। कुछ वर्ष पहले तक कई वैज्ञानिक जलवायु परिवर्तन को ग्लेशियर्स के पिघलने की वजह मानने से इंकार करते रहे हैं लेकिन हाल के सालों में वैज्ञानिकों के बीच ये आम राय बन चुकी है कि पिघलते ग्लेशियर्श बढ़ते तापमान का ही असर है और जल्द से जल्द इसे रोकना हम सब के लिए बेहद जरूरी है।
दुनिया के दूसरे छोर पर उत्तरपूर्व ग्रीनलैंड की एक विशाल हिमचादर बहुत तेजी से पिघलने लगी है, जिससे आगामी दशकों में अस्थिरीकरण और दुनियाभर में समुद्र का स्तर बढ़ेगा। वैज्ञानिकों ने पाया कि 2012 की गर्म हवा और समुद्र के तापमान से जाचारिया इस्ट्रोम हिम चादर नीचे समुद्रतल की ओर तेजी से खिसक रही है। इस ग्लेशियर में इतना अधिक पानी है कि दुनियाभर में समुद्र के स्तर में आधे मीटर की वृद्धि हो सकती है। पृथ्वी का औसत तापमान अभी लगभग 15 डिग्री सेल्सियस है, यद्यपि भूगर्भीय प्रमाण बताते हैं कि पूर्व में ये बहुत अधिक या कम रहा है। लेकिन अब पिछले कुछ वर्षों में जलवायु में अचानक तेज़ी से बदलाव हो रहा है।
मौसम की अपनी विशेषता होती है, लेकिन अब इसका ढंग बदल रहा है। गर्मियां लंबी होती जा रही हैं, और सर्दियां छोटी। पूरी दुनिया में ऐसा हो रहा है। यही है जलवायु परिवर्तन। 2013 में जलवायु परिवर्तन पर एक अंतरराष्ट्रीय समिति ने कंप्यूटर मॉडलिंग के आधार पर संभावित हालात का पूर्वानुमान लगाया था। उनमें से एक अनुमान सबसे अहम था कि वर्ष 1850 की तुलना में 21वीं सदी के अंत तक पृथ्वी का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाएगा। जलवायु परिवर्तन के प्रभाव कई रूपों में दिखते रहेंगे, जैसे - पीने के पानी की कमी, खाद्यान्न उत्पादन में कमी, बाढ़, तूफ़ान, सूखा और गर्म हवाओं में वृद्धि।
कवि कालिदास के साथ जुड़ा एक किस्सा है कि वे जिस डाल पर बैठे थे उसे ही काट रहे थे, इस बात से बेखबर कि डाल कटने पर वे गिर जाएंगे। हम भी कुछ ऐसा ही तो कर रहे हैं। जो पर्यावरण हमें जीवन देता है हम उसी को तेजी के साथ नष्ट करते जा रहे हैं। ग्लोबल वार्मिंग, ग्लेशियर्स मेल्टिंग और वेदर चेंजिंग - ये तीनों हमारी खुद की पैदा की गई मुसीबतें हैं जो समूची दुनिया को भयावह परिणाम की ओर ले जा रही है। यदि हम अब भी नहीं चेते तो हमारे जीवन की डाल कट जाएगी और नीचे गिरने पर हमें धरती का टुकड़ा भी नहीं मिलेगा। दरअसल, हमें अपने रहन-सहन के ढंग को अधिक से अधिक ‘इको फ्रेंडली’ बनाना होगा तभी हम अपनी भावी पीढ़ी को विरासत में यह पृथ्वी दे सकेंगे।
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